दोनों ही जयपुर में हैं। आयु में मनीष तनिक वरिष्ठ है - यही, कोई दो-तीन वर्ष किन्तु (जैसा कि मैंने देखा) अजय को ‘अजयजी’ सम्बोधित करता है। अजय तो मनीष को ‘मनीषजी’ सम्बोधित करता ही है। दोनों एक ही कस्बे से निकल कर जयपुर में बस गए हैं और तीन भागीदारोंवाले व्यापारिक संस्थान में भागीदार हैं। व्यापार है - विदेशी मुद्रा विनिमय का। जयपुर, राजस्थान की राजधानी तो है ही, विदेशी पर्यटकों के लिए तो मानो भारत की राजधानी ही है। सो, स्थिति कुछ ऐसी कि तीनों भागीदार दिन भरे लोगों से घिरे तो रहते हैं किन्तु भारतीयों से कम और परदेसियों से ज्यादा। सुबह साढ़े नौ बजे से शाम सात-आठ बजे तक की दिनचर्या ऐसी कि भोजन के लिए भी समय कठिनाई से निकाल पाते हैं। स्थिति कुछ ऐसी कि कामकाज के छहों दिन घर का भोजन कभी नहीं कर पाते। महीने में लगभग दस दिन घर पर, पाँच-सात दिन संस्थान पर होटल से मँगवा कर और इतने ही दिन होटल में भोजन करना पड़ता इन्हें। हाँ, रविवार अनिवार्यतः अपने-अपने परिवार के साथ ही गुजारते हैं।
इनका व्यापार अत्यधिक सम्वेदनशील है। भारतीय रिजर्व बैंक के कठोर नियन्त्रणवाला। लेन-देन के सारे विस्तृत ब्यौरे, नियमित रूप से, निर्धारित समयावधि में अनिवार्यतः भेजने पड़ते हैं और कठोर अंकेक्षण से गुजरना पड़ता है। इनका संस्थान इन सारी बातों में प्रति वर्ष सौ में से सौ अंक लेने में कामयाब रहा है। कहते हैं, शिखर पर पहुँचना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन होता है - शिखर पर बने रहना। सो, अपने संस्थान् की स्थापित ‘साख’ को बचाए, बनाए और उसे निरन्तर बेहतर बनाने के लिए सारे भागीदार चौबीसों घण्टे सतर्क, चौकन्ने और सन्नद्ध रहते हैं। एक ही मालिक हो तो चूक की आशंका हो सकती है किन्तु तीन भागीदार होने से यह आशंका शून्यवत हो जाती है। इसलिए, जब-जब भी लगा कि लेन-देन के मामले में कोई इनका आपराधिक दुरुपयोग कर सकता है तब-तब हर बार, बुरा बने बिना, किसी की नाराजी लिए बिना, अपने व्यापारिक कौशल से खुद को सुरक्षित निकाल लेते हैं। मनीष ने जब कहा - ‘हमारे यहाँ आपको काले धन की एक पाई नहीं मिलेगी’ तो उसके चेहरे पर गर्व का नहीं, आत्म-सन्तोष का और ईश्वर के प्रति धन्यवाद का कृतज्ञता भाव था।
इस जयपुर यात्रा में इन दोनों से परिचय होना मेरी उपलब्धि रही। निमित्त बना - आलोट निवासी, नौजवान बीमा अभिकर्ता प्रिय अमित चौधरी। उसी के कारण जयपुर में पूरा दिन मनीष के घर पर बिताया और भरपूर देर तक अजय के घर पर भी। दोनों की गृहस्थियों का साज-सामान, मनीष के उपरोक्त कथन को रेखांकित करता रहा।
किन्तु जिस बात को लेकर मैं यह सब लिखने बैठा हूँ वह तो छूटी ही जा रही है।
जयपुर से निकलने से ठीक पहले, हम चारों (अमित, मनीष, अजय और मैं) ने भोजन साथ ही किया। मनीष और अजय हमारे मेजबान थे (यह चित्र उसी समय का, होटल का ही है। बॉंयी ओर मनीष तथा दाहिनी ओर, हाथों पर ठुट्डी टिकाए अजय है)। दोनों की दिनचर्या और व्यापार की प्रकृति के आधार पर मैंने जानना चाहा कि पर्यटकों का तो रविवार नहीं होता। अनेक पर्यटक तो अब उनके स्थायी ग्राहक बन चुके होंगे और अनेक पर्यटक ऐसे होते होंगे जो उनके स्थायी ग्राहकों के कहने पर उनसे सम्पर्क करते होंगे। ऐसे पर्यटक तो रविवार को भी सम्पर्क करते ही होंगे और व्यापार की प्रतियोगिता में बने रहने के लिए तथा अपने स्थायी ग्राहकों को बनाए रखने के लिए (और उनसे अनुशंसित ग्राहकों का भरोसा प्राप्त कर उन्हें भी अपना स्थायी ग्राहक बनाने के लिए) वे रविवार को छुट्टी कैसे मना सकते हैं? और यह भी कि ऐसे में वे सपरिवार कभी यात्राओं पर कैसे जाते होंगे?
दोनों का उत्तर ही मेरी इस पोस्ट का कारण बना।
तीनों भागीदार बारी-बारी से रविवार की छुट्टी मनाते हैं और इसी तरह सपरिवार यात्राएँ भी करते हैं। सपरिवार यात्राएँ तो प्रति वर्ष अनिवार्यतः करते ही हैं - कभी पाँच दिनों की तो कभी आठ-दस दिनों की भी। ऐसी प्रत्येक छुट्टी के दिन और यात्राओं के दिनों में ये दोनों अपने-अपने मोबाइल पूरी तरह बन्द रखते हैं। जब सपरिवार जयपुर से बाहर जाते हैं तो अपने मोबाइल जयपुर में ही छोड़ जाते हैं। न तो अपनी ओर से किसी को फोन करते हैं और न ही किसी का फोन सुनते हैं। और तो और, छुट्टी के ऐसे दिनों में संस्थान् पर मौजूद भागीदार से भी दुआ-सलाम नहीं करते। छुट्टी याने सोलहों आना छुट्टी।
जवाब सुनकर, मेरे हाथ का कौर हाथ में ही रह गया। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। अपनी महत्वाकांक्षाओं (विशेषतः ‘पूँजी केन्द्रित’ महत्वाकांक्षाओं) को पूरी करने के लिए किसी भी हद तक गुजर जानेवाली, किसी भी प्रकार को कोई लिहाज न पालनेवाली, ‘व्यावसायिकता’ (प्रोफेशनलिजम) के नाम पर कुछ भी कर गुजरनेवाली, किसी भी हद तक चली जानेवाली पीढ़ी के इस, आत्मीयता की ऊष्माविहीनता वाले आक्रामक समय में कोई नौजवान भला ऐसा कैसे सोच सकता है? ऐसा कैसे सोच पा रहा है? यह भारतीयता है या पारिवारिक संस्कारशीलता या युवावस्था से उपजा, कोई भी जोखिम ले लेने का साहस?
हाथ में कौर लिए मैंने खुद को टटोला। मैं स्वीकार करता हूँ कि इन दोनों की जगह मैं होता तो मैं निश्चय ही ऐसा नहीं कर पाता। इतने दिनों के लिए मैं शायद ही संस्थान से अनुपस्थित रहता, रहना पड़ता तो अपना मोबाइल साथ ही ले जाता, उसे कभी बन्द नहीं करता और अपने भगीदार से, चौबीसों घण्टे, बार-बार सम्पर्क कर, विस्तृत पूछताछ करता रहता।
किन्तु इसके समानान्तर यह बात भी मेरे मन में आई कि मैं इस समय अपनी आयु के पैंसठवें वर्ष में चल रहा हूँ और इसी आधार पर सोच भी रहा हूँ। सम्भव है, इनकी आयुवाले समय में मैं भी ऐसा ही सोचता!
क्या आयुवार्धक्य ही मेरे इस साहसविहीनता और अविश्वासभरे नकारात्मक सोच का एकमात्र कारण है?
इस बीच, आपको या आपके किसी अपनेवाले को जयपुर में ‘विदेशी मुद्रा विनिमय’ के लिए कोई काम पड़े तो निश्चिन्त होकर मोबाइल नम्बर 098291 86024 पर मनीष को बता सकते हैं। अजय का मोबाइल नम्बर मैं लिख नहीं पाया।
पसंद अपनी-अपनी, तरीका अपना-अपना.
ReplyDeleteआपके युवा मित्रों से मिलना अच्छा लगा। जिनके मित्र युवा होते हैं, वे स्वयं भी युवा ही होते हैं। मुझे लगता है कि आयु और अनुभव के साथ-साथ देश-काल, व्यवसाय की प्रकृति आदि भी अपना प्रभाव डालते हैं। जब से सेलफ़ोन हाथ मे आया है, मैं उसे तभी ऑफ़ करता हूँ जहाँ आधिकारिक कारणों से ऐसा करना अनिवार्य हो, छोड़ने की तो बात ही नहीं है। और इसका एक कारण भय या आयु न होकर एमर्जेंसी (अपनी या दूसरे पक्ष की) की स्थिति में सम्पर्क कर सकना भी है।
ReplyDeleteअपनी दुनिया अपना मन और अपना व्यापार
ReplyDeleteहम आधुनिक तकनीक के गुलाम होते जा रहे हैं :(
ReplyDeleteबढ़ती उम्र, घटता विश्वास, घटता साहस!
ReplyDeleteसही लग रहा है , कभी कभी इससे उलट भी लोंग होते हैं!
मैं भी मनीष और अजय जी का फेन बन गया. मेरे ख्याल से उनके व्यवहार का आयु से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है.
ReplyDeleteछुट्टी का यह अन्दाज हमें भी भाया और इस बार हमने बस इसे ही अपनाया...
ReplyDeleteइसे कहते है जो भी काम करो पूरी शिदत्त से करो
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