अपवाद के सामान्य में बदलने का आशावाद

यह रविवार, 29 अप्रेल की सुबह है। मैं इन्दौर में हूँ। एक बीमा अभिकर्ता साथी का फोन आया। एक अखबार का नाम और पन्ने का नम्बर बताते हुए कहा - ‘यह खबर पढ़िए। छोटी सी है लेकिन छोटी नहीं है। पढ़िएगा और पढ़कर बताइएगा, मैं ठीक कह रहा हूँ या नहीं।’ 

मेरे पास अखबार नहीं है। मैं अखबार का ई-संस्करण खोलता हूँ। मित्र के बताए पन्ने पर जाता हूँ। ज्यादा खोजना नहीं पड़ता। जल्दी ही नजर आ जाती है। पन्ने के ऊपरी हिस्से में ही है। इन्दौर की सांसद और लोकसभा स्पीकर श्रीमती सुमित्रा महाजन से जुड़ी, छः/साढ़े छः कॉलम शीर्षक वाली खबर है। मित्र की बताई खबर सचमुच में बहुत छोटी है - एक कॉलम में। गिनती की नौ पंक्तियों की। लेकिन मित्र का अनुमान सही है। खबर दीखने में छोटी है लेकिन छोटी है नहीं।

खबर के मुताबिक, जिला विकास एवम् निगरानी समिति की बैठक में, श्रीमती महाजन की उपस्थिति में, पंचायतों को डिजिटल बनाने के मुद्दे पर, बीएसएनएल के अधिकारी जब सफाई दे रहे थे तभी इन्दौर की महापौर श्रीमती मालिनी गौड़ ने पूछा लिया कि बीएसएनएल का फोन एक बार में क्यों नहीं लगता? बड़ी मुश्किल से बात हो पाती है। इस पर अधिकारी ने कहा - ‘मैडम! आपके घर आकर जाँच करा लेते हैं।’ इस पर महापौर ने कहा - ‘मैं अपने घर की नहीं, सभी के घर की बात कर रही हूँ।’ समाचार यहीं समाप्त हो जाता है।

मैं मित्र का आशय समझ जाता हूँ। मेरे मित्र भी आखिर हैं तो मुझ जैसे ही! मैंने उन्हें फोन लगाया। पूछा - ‘अपनी महापौर से नाराज हो?’ बोले - ‘सही पकड़े हैं। बीएसएनएल का फोन एक बार में नहीं लगता यह कोई आज की या एक दिन की बात नहीं है। सारा शहर और आसपास के गाँवों के अनगिनत लोग परेशान हैं। महापौर को यह ज्ञान प्राप्ति उस बैठक में अचानक ही नहीं हुई। वे सब कुछ अच्छी तरह से जानती हैं। लेकिन उन्हें अफसरों से कहने की फुरसत कभी नहीं मिली। वे सारा दिन घूमती हैं। रोज ही आठ-दस पत्र तो लिखवाती ही होंगी। एक चिट्ठी बीएसएनएल के अफसरों को भी लिख देतीं! उन्हे अपने दफ्तर मे बुलवा लेतीं या खुद उनके दफ्तर चली जातीं। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। किया भी तब जब जिले भर के अफसरों का जमावड़ा उन्हें तैयार मिला।’

मित्र की नाराजी मुझे ठीक नहीं लगी। मैंने कहा - ‘आप अपनी महापौर से जबरन नाराज लगते हैं। लगता है, आप कोई काम लेकर गए होंगे और उन्होंने आपको टरका दिय होगा।’ मित्र बोले - ‘आपको लगता है कि मैं इस कारण से ऐसी बातें कर रहा हूँ? ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं नाराज भी नहीं हूँ। हाँ! दुःखी जरूर हूँ। जो काम वे महीनों पहले कर सकती थीं, या कहिए कि उन्हें कर लेना चाहिए था, वह काम करने के लिए वे मौके और मुहूर्त की बाट तकती रहीं। आपको उनसे सहानुभूति हो रही है तो आप भी एक बात नोट कर लो! अफसरों के मजमे में बीएसएनएल के अफसरों को हड़काने के बाद वे पलटकर भी नहीं देखेंगी कि उनके कहे पर कोई कार्रवाई हुई भी या नहीं। मैं इसी बात पर गुस्सा  हूँ और दुःखी हूँ। समस्या का निपटारा करना उनका मकसद नहीं था। उनका मकसद था, अफसरों को हड़काना और अखबारों में सुर्खियाँ पाना। बस! और कोई बात नहीं।’

मैं मित्र से पूरी तरह सहमत नहीं हो सका। महापौर ने भले ही अफसरों को हड़काने के लिए ऐसा किया हो लेकिन मुझे इसमें यह बात अच्छी लगी कि उन्होंने अपनी नहीं, सबकी चिन्ता की। वे जिस हैसियत में हैं उसमें, उन्हें तो फोन से परेशानी नहीं ही हो रही होगी। लेकिन उन्होंने यह महसूस किया कि उनकी जैसी सुविधा बाकी लोंगों को नहीं ही मिल रही है। उनके मन में यह बात आई या पहले से रही हो, मुझे बहुत अच्छी लगी।

हमारी ‘व्यवस्था’ इस मायने में खूब चतुर, चुस्त, चौकन्नी और सजग है। वह खूब जानती है कि कौन कितना बोलेगा और किसके बोले का कितना असर होगा। इसलिए, जिसके बोलने का असर होता लगता है, सबसे पहले उसकी बोलती बन्द करती है। मैं इस बात का भुक्त-भोगी हूँ। एक बार नहीं, कई बार।

लोक सेवाओं से जुड़े विभिन्न विभाग, खानापूर्ति के लिए ग्राहकों के सम्मेलन बुलवाते रहते हैं। ऐसे सम्मेलनों में मुझे खूब बुलावे आते थे। लेकिन किसी भी विभाग ने मुझे दूसरी बार नहीं बुलाया। अब तो मेरी ‘प्रसिद्धि’ इतनी फैल गई है कि अब कोई नहीं बुलाता। अब तो सावधानी बरती जाती है - दफ्तर की गलती से मुझे बुला न लिया जाए

ऐसे ग्राहक सम्मेलनों में होता यह था कि असन्तुष्ट लोगों की शिकायतों के बाद विभाग के लोग उन लोगों से उनके अनुभव पूछते जिन्होंने कोई शिकात नहीं की। मैं ऐसे ही लोगों में शरीक होता था। आकण्ठ भरोसे और बड़ी निश्चिन्तता से मुझसे पूछा जाता - ‘हमारी सेवाओं को लेकर आपका अनुभव क्या है?’ मेरा अनुभव सदैव अच्छा ही रहता था क्योंकि मेरी पहचान ‘कुशल शिकायतकर्ता’ की थी। मेरी शिकायतों की सफलता का प्रतिशत सदैव ही 90 से ऊपर रहा है। इसलिए मैं जब भी किसी विभाग में जाता तो मेरी समस्या प्रायः ही हाथों हाथ हल कर दी जाती। पूछनेवाले को भरोसा रहता था कि मैं उनके पक्ष में जवाब दूँगा। लेकिन मैं उनकी आशा पर तुषारापात कर देता। कहता - ‘मेरा अनुभव तो बहुत अच्छा है लेकिन मैं जानता हूँ कि वह क्यों अच्छा है। मैं अपवाद हूँ। इसलिए मेरी बात का कोई मूल्य नहीं है। जिन्होंने यहाँ शिकायतें सुनाई हैं, मैं उन सबको व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि वे आपके दफ्तर के चक्कर काट-काट कर थक गए हैं। सच बात तो वही है जो इन सबने कही है। मेरा अनुभव भले ही आपके पक्ष में है लेकिन ऐसा सबके साथ हो तो ही मेरी बात का कोई मतलब होगा।’ मेरी बात पर लोग तालियाँ बजाते और अफसरों के चेहरे उतर जाते। सम्मेलन समाप्ति के बाद सबसे पहला काम होता - यह सुनिश्चित करना कि अगले सम्मेलन में मुझे न बुलाया जाए।

इसलिए, मित्र की बात से मैं सहमत नहीं हो पाया। महापौर का मकसद चाहे जो रहा हो, लेकिन उन्होंने सबकी चिन्ता की। यह बहुत अच्छी और प्रशंसनीय बात है। 

मुमकिन है, आज केवल दिखावे के लिए, अफसरों को हड़का कर अपनी धाक जमाने के लिए, अखबारों की सुर्खियाँ पाने के लिए ऐसा किया गया हो। लेकिन ऐसा हर बार तो सम्भव नहीं हो पाएगा। आज का अपवाद, कल की सामान्य स्थिति बनेगा।

हमें इतना आशावाद तो अपनाना चाहिए। इसमें हर्ज ही क्या है?
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पुनश्चः मेरे पूछने पर मित्र ने बताया कि अपने मन की यह सारी बात उन्होंने महापौर को लिख भेजी है। मुझे फोन करने से पहले ही। मुझे उनकी यह व्यक्तिगत ईमानदारी बहुत अच्छी लगी।
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4 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दादा साहब फाल्के और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. कुछ कदम तो उठाया, यह भी कम नहीं....

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  3. जी। मैंने भी सोचा। धन्‍यवाद।

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