शपथपूर्वक खादी न पहननेवाला काँग्रेसी

जहाँ तक मेरी जानकारी है, काँग्रेस सदस्यता दो श्रेणियों की
होती है। पहली, साधारण सदस्यता और दूसरी सक्रिय सदस्यता। इन दिनों का चलन तो मुझे पता नहीं लेकिन पुराने जमाने में सक्रिय सदस्य वही बन सकता था जो कम से कम पचीस साधारण सदस्य बनाए। सक्रिय सदस्य ही पदाधिकारी बन सकता था। सक्रिय सदस्यता की शर्तों में एक शर्त होती थी - अनिवार्यतः खादी ही पहनना।

इस चित्र में मैं जिनके साथ नजर आ रहा हूँ वे हैं श्री कृष्ण कुमार मिश्रा जिन्हें के. के. मिश्रा के नाम से ज्यादा जाना जाता है। ये उन काँग्रेसियों में शरीक हैं जिन्हें आपातकाल में गिरफ्तार कर जेल में रखा गया था। मेरी जानकारी के अनुसार ये इन दिनों मध्य प्रदेश काँग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता हैं। लेकिन इतने बड़े पदाधिकारी होने के बावजूद ये खादी नहीं पहनते। वस्तुतः इन्होंने खादी न पहनने की सौगन्ध ले रखी है। 

खादी न पहनने की सौगन्ध लेने की कहानी खुद मिश्राजी ने ही बताई और वह भी एक सार्वजनिक आयोजन में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए। बा-बापू के 150वें जन्म वर्ष के सन्दर्भ में इन्दौर की सुपरिचित, 60 वर्ष पुरानी प्रतिष्ठित संस्था ‘अभ्यास मण्डल’ ने पाँच अक्टूबर को एक आयोजन किया था। इसमें मैं भी एक वक्ता के रूप में आमन्त्रित था। वहीं मिश्राजी से यह किस्सा सुना।

जेल में मिश्राजी को ‘ए श्रेणी’ मिली हुई थी। इन्दौर का एक कुख्यात अपराधी, ए श्रेणी के इन बन्दियों की सेवा में तैनात किया गया था। परस्पर परिचय तो पहले से ही था लेकिन जेल में यह परिचय तनिक प्रगाढ़ता में बदल गया। वह बदमाश निष्ठा और प्रेम भाव से इन राजनीतिक बन्दियों की सेवा करता था।

सजा पूरी कर मिश्राजी बाहर आए। वे नियमित रूप से एक हनुमान मन्दिर पर दर्शन करने जाया करते थे। एक सुबह मिश्राजी ने हनुमान -प्रार्थना कर आँखें खोलीं तो उस कुख्यात बदमाश को अपने पाँव छूते पाया। मिश्राजी ने उसे आशीर्वाद दिया। जेल में की गई उसकी सेवा और भलमनसाहतभरे व्यवहार से मिश्राजी उससे प्रभावित और खुश थे ही। उसे अच्छा नागरिक बनाने में मदद करने की भावना से मिश्राजी ने कहा - ‘जिला उद्योग केन्द्र के मेनेजर जैन साहब मेरे दोस्त हैं। मेरे साथ चलना। तुम्हें बीस-पचीस हजार का लोन जाएगा। अपना कोई काम-धन्धा शुरु कर लेना और भले आदमी की जिन्दगी जीना।’

सुनकर वह नामी बदमाश खुश हुआ। उसने हाथ जोड़कर और माथा झुकाकर मिश्राजी को धन्यवाद दिया और तसल्ली भरे स्वरों में बोला - ‘आपकी मेहरबानी है दादा। मुझ पर जो मुकदमे चल रहे थे उनमें से एक को छोड़ कर बाकी सब में बाइज्जत बरी हो गया हूँ। एक जो बचा है, उसमें में भी बरी हो ही जाऊँगा क्योंकि मेरे खिलाफ गवाही देने की हिम्मत कोई नहीं करेगा। अब मैंने पोलिटिक्स को ही पेशा बनाने का फैसला कर लिया है। आप देख ही रहे हो, मैंने समाजसेवा की वर्दी पहन ली है। अब मुझे लोन की जरूरत नहीं है।’ 

बदमाश का जवाब सुना तो मिश्राजी का ध्यान उसके कपड़ों पर गया। वह सफेद झक्क खादी का, कलफदार कुर्ता-पायजामा पहने हुए था। मंच से बोलते हुए मिश्राजी ने कहा - “मैं हक्का-बक्का रह गया। मुझसे बोलते नहीं बना। मुझे कुछ नहीं सूझा। वह एक बार फिर मेरे पैर छू कर चला गया। मैं उसे जाते हुए देखता रहा। उसके जाते ही मेरे मन में पहली बात आई - ‘चाहे जो हो जाए, मैं कभी खादी नहीं पहनूँगा।’ और मैंने हनुमान-साक्षी में, कभी खादी न पहनने की सौगन्ध ले ली।”

वह दिन और आज का दिन, मिश्राजी ने खादी की तरफ देखा ही नहीं।
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