उसने यह तैयारी खुद ही की होगी

अब जो मैं लिखने जा रहा हूँ, उसकी कोई प्रासंगिकता या सन्दर्भ नहीं है। कोई कारण भी नहीं है कि मैं यह सब लिखूँ। लेकिन कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि न चाहते हुए भी लिखना पड़ जाता है। जबरन। नहीं जानता कि क्यों लिख रहा हूँ। लेकिन लिख रहा हूँ क्योंकि बिना लिखे रहा नहीं जा रहा। 

धीमी गति से, निरन्तर हो रहे बदलाव सामान्यतः अनदेखे ही रह जाते हैं। उनके बारे में हमें अपने आसपास से जानकारी मिलती है तो हम चौंक जाते हैं - ‘अरे हाँ! ऐसा हुआ तो है। लेकिन कब, कैसे हो गया? पता ही नहीं चला!’ कुछ ऐसी ही दशा होती है हमारी। 

किन्तु नरेश में धीमी गति से आया यह बदलाव मुझे बराबर नजर आता रहा। लेकिन मेरा ‘पत्रकार’ सदैव सन्देही बना रहता है। किसी भी बात पर मुझे फौरन ही विश्वास नहीं करने देता। लेकिन कोई दो बरस से मैं नरेश को ध्यानपूर्वक देख रहा हूँ और अब विश्वास कर पा रहा हूँ कि उसमें स्वभावगत बदलाव आया है और ऐसा बदलाव आया जो आनन्ददायी, सुखकारी है।

नरेश के बारे में, उससे मेरे नाते-रिश्ते के बारे में मैं पहले बता चुका हूँ। यह भी बता चुका हूँ कि वह स्वभाव से ही सेवाभावी है। लेकिन कुछ बरस पहले तक वह अपनी उलझनों के कारण ‘जी भर सेवाभावी’ नहीं था। उसके, अपनी किस्म के संघर्ष थे। तब, धनोपार्जन उसका प्रमुख लक्ष्य अनुभव होता था। थक कर बैठने की सुविधा उसे कभी मिली नहीं। इसलिए वह थकता कभी नहीं था। रुकता तभी था जब आगे बढ़ने के लिए रुकना जरूरी हो। जब भी बात करो, व्यापारिक व्यस्तताओं की एक असमाप्त सूची सदैव उसकी जबान पर बनी रहती थी। ऐसे में तब, वह अपनी सुविधा से ही किसी की सेवा कर पाता था।

लेकिन गए दो-तीन बरस से नरेश में अनूठा बदलाव मैं साफ देख रहा हूँ। पहले वह ‘कमाई’ के लिए मेहनत करता था। अब ‘पुरुषार्थ’ के निमित्त काम करता नजर आता है। अब उसकी बातों में भाव-ताव, मार्जीन, मुनाफा जैसे शब्द गुम हो गए हैं। अब वह केवल काम करने के लिए काम करता नजर आता है। बस! अपना काम करो, बाकी बातों की छुट्टी। कितना, क्या मिलेगा, यह जानने, गिनने की जिज्ञासा अब मुझे नरेश में नजर नहीं आती।

एक बात मैं तेजी से अनुभव कर रहा हूँ। उसका ‘सेवा भाव’ अब एक कदम आगे बढ़कर ‘सहयोग भाव’ में बदल रहा है। और सहयोग भी कुछ इस तरह जो सामनेवाले को ‘लाभदायक’ हो। प्रत्येक सुपात्र उसके ‘लाभदायक सहयोग’ का ‘लाभिती’ होता है। नरेश उसकी चिन्ता तब तक करता है जब तक कि उसकी चिन्ता से खुद मुक्त न हो जाए।

मेरे आसपास के लोगों में ऐसा बदलाव मुझे पहली बार अनुभव हो रहा है। आदमी में ऐसा बदलाव तब ही आ पाता है जब वह दूसरों के कष्टों, अभावों को अनुभव करे। अपने विकट संघर्ष से नरेश ने जीवन की प्रतिकूलताओं को परास्त किया और आर्थिक अभावों को बिदाई दी। सुखपूर्वक जीवन जीते हुए आदमी को अपना अतीत नजर आने लगता है। तब उसे, जमाने की तकलीफें अपनी तकलीफें लगने लगती हैं। तकलीफों का यह तादात्म्य आदमी को करुणा से सराबोर कर तमाम तकलीफजदा लोगों से जोड़ देता है। मैं अनुममान लगा रहा हूँ, शायद ऐसा ही कुछ, किसी क्षण नरेश के साथ हुआ होगा। और घर में अकेले बैठे-बैठे ही वह दुनिया से जुड़ गया। 

कभी, किसी से सुना था (शायद अपने ब्लॉग पर लिखा भी हो) कि लक्ष्मी की तीन स्थितियाँ होती हैं - दान, भोग और नाश। आपके पास यदि अपनी आवश्यकताओं से अधिक धन हो तो ‘दान’ उसके उपयोग की सर्वोत्कृष्ट स्थिति है। लेकिन यदि दान करने को जी न करे, मन में आए कि न दिन को दिन समझा न रात को रात। सर्दी-गर्मी-बरसात नहीं देखी। बैल की तरह जुट कर धन कमाया। ऐसे धन को भला किसी को दान कैसे कर दूँ? तब उत्कृष्ट स्थिति होती है कि आदमी उसे खुद पर खर्च कर ले, उसका उपभोग कर ले। लेकिन यदि न दान किया न ही उपभोग तो उसकी तीसरी और अपरिहार्य स्थिति होती है - नाश। चोरी चला जाएगा, आग लग जाएगी, नोटों को दीमक लग जाएगी, उधारी डूब जाएगी आदि-आदि। कभी-कभी मुझे लगता है, कहीं नरेश ने लक्ष्मी की यह व्याख्या तो नहीं सुन ली?
  
वास्तविकता या तो नरेश जाने या फिर ईश्वर लेकिन ऐसे बदलाव मुझे आदमी के पुनर्जन्म जैसे लगते हैं - एक नया जीवन, एक नया जीव, एक नया आदमी, एक बेहतर आदमी। 

मैं कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा कि ‘काश! ऐसा मेरे साथ हुआ होता।’ क्योंकि ऐसा तब ही होता है जब आदमी खुद ऐसा होने के लिए तैयार हो।

सुनता रहा हूँ कि अपनी इच्‍छाओं की पूर्ति हेतु ईश्‍वर सुपात्रों का चयन करता है। लेकिन निस्‍सन्‍देह  नरेश ने यह तैयारी खुद ही की होगी।
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2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-07-2018) को "अतिथि देवो भवः" (चर्चा अंक-3018) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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