पूर्वी जर्मनी के सहज, समझदार स्कूली बच्चे

‘बर्लिन से बब्बू को’ - चौथा पत्र: दूसरा हिस्सा


बर्लिन आने से पहले हम लोग एक और काउण्टी के केन्द्रीय नगर में ले जाए गये। यहाँ हमें जवाहरलाल नेहरू स्कूल में ले जाया गया। पण्डितजी के नाम पर सात समन्दर पार इतना अच्छा स्कूल चलना अपने आप में एक सुखद उपलब्धि है। यह भारत का गौरव है। जिस शहर में यह स्कूल चल रहा है उसकी आबादी 30 हजार के आसपास होगी किन्तु मैं कह सकता हूँ कि ऐसा स्कूल भारत में शायद बम्बई व दिल्ली में भी नहीं होगा। स्कूल में सारी कार्यवाही का संचालन 12 वर्ष तक की उम्र के बच्चों ने किया। उन्होंने तरह-तरह के गीत गाये और अपने स्कूल की गतिविधियों की कई स्लाईडें अपने प्रोजेक्टर पर हमें दिखाईं। इन स्लाइडों की कामेण्ट्री भी वे बच्चे ही कर रहे थे। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के जी. डी. आर. दौरे के समय उस स्कूल के बच्चों ने उनसे भेंट की थी। उस भेंट की कुछ पारदर्शियाँ हमें बच्चों ने दिखाई। इस में सबसे अन्तिम पारदर्शी जो दिखाई गई वह थी पकवानों से सजी सजाई एक टेबल। याने हमारे दोपहर के भोजन की पूर्व सूचना।

इस स्कूल के बच्चों ने एकाएक हमसे कहा कि अब आप लोग हमसे मनचाहे प्रश्न कर सकते हैं। सारा प्रतिनिधि मण्डल एकाएक सन्नाटे में आ गया।  सन्नाटा बच्चों ने ही तोड़ा। एक मिनिट तक जब उनसे किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया तो एक बच्चे ने अपनी ओर से प्रश्न किया कि आप भारत के कौन-कौन से प्रान्तों से आये हैं और क्या आप हमें अपना परिचय देंगे?

उस स्कूल में मैने दो गीत गाये। पर जब सारा कार्यक्रम समाप्त हुआ तब हम लोग नीचे उनकी मेस में गये, तो मैंने देखा कि वहाँ सैकड़ों बच्चे भोजन कर रहे हैं। कहीं शोर-शराबा नहीं था। हमारे दल को अपने बीच पाकर भोजन करते हुए एक बच्चे ने उठकर कहा माननीय महानुभाव! आईये, हमारे साथ भोजन कीजिये। हमने सुना है कि आपके दल में एक कवि भी है, क्या वे कवि महाशय हमें अपनी कोई रचना सुनायेंगे? और सारी मेस तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गई। मैं गीत गाता रहा। बच्चों ने खाना रोक दिया और जब दुभाषिये ने उन्हें पूरा गीत समझाया तब फिर उन्होंने मेरा अभिवादन किया। मेरे लिये यह सब कुछ किसी कविता से कम नहीं था। इतने निस्संकोच, ताजा और उमंग भरे मुखर बच्चे मैंने अपने जीवन में शायद पहली बार देखे थे। हमारा दोपहर का भोजन इस स्कूल की ओर से था, पर था वह एक शानदार होटल में। स्कूल के बाल प्रतिनिधियों ने हमारे साथ भोजन किया पर किसी किस्म की बीयर या शराब या सिगरेट उन्होंने हमारे सामने नहीं पी। हाँ, उनकी शिक्षिकाएँ अवश्य यह सब सेवन कर रही थी।

सफर निःशुल्क हो गया तो?

बर्लिन अपने आपमें एक अद्भुत शहर है। इसकी प्राचीनता और आधुनिकता दोनों अपनी-अपनी जगह बेमिसाल हैं। सारे शहर में आवागमन के पर्याप्त साधन हैं। जमीन के अन्दर चलने वाली मेट्रो मैंने पहली बार देखी। यह गाड़ी बहुत तेज चलती है। इस गाड़ी में हम लोग कोई 3-4 स्टेशन तक गये। मेट्रो के ऊपर बिजली से चलने वाली सामान्य रेलें हैं और फिर ट्राम, बसें और कारें हैं। किसी यात्री पर कोई चेकिंग नहीं। हमारे अस्सी पैसे याने उनके बीस पैसे का टिकिट लो और मनचाहा घूमो। टिकिट की मशीन रहती है, खुद ही टिकिट निकालो और उसे खुद ही पंंच करो तथा सफर शुरु करो। वैसे टिकिट के लिये खिड़की पर आदमी भी बैठता है। वक्त-बेवक्त वहाँ क्यू भी लगते हैं, पर कोई यात्री बिना टिकिट सफर नहीं करता। पंंच किया हुआ टिकिट दूसरी बार काम नहीं आता। लोग एक ही बार जितना पैसा होता है उतना टिकिट निकाल लेते हैं। अपने पास रखते हैं। सफर शुरु करने से पहले उस टिकिट को पन्च कर लेते हैं। बेईमानी की पूरी गुंजाईश है पर कोई बेईमान हो तो बेईमानी करे! आप क्यू में खड़े हैं, आपके पास टिकिट के लिये यदि बीस पैसे नहीं है तो आपका पड़ोसी अपनी जेब से 20 पैसे आपको टिकिट के लिए दे देगा। संगोष्ठी में मैंने जब उन 20 पैसों के बारे में जानकारी ली, तो संगोष्ठी के प्रमुख ने मुझे बताया कि हमें यह बीस पैसा मशीन से खजाने तक पहुँचाने में 28 पैसा खर्च करना पड़ता है, याने प्रति टिकिट आठ पैसे का घाटा। सरकार यह सोच रही है कि वहाँ ऐसी यात्री फ्री कर दी जाये ताकि इस घाटे से देश को बचाया जा सके। बर्लिन की आबादी कोई 11 लाख है और वहाँ इन साधनों से प्रतिदिन कम से कम 10 लाख आदमी सफर करते हैं। इससे तुम प्रतिदिन के घाटे का अन्दाजा लगा सकते हो। यदि देश में यह ट्रांसपोर्ट मुफ्त कर दिया तो सारे संसार में तहलका मच जाएगा। उधर रूस के अर्थशास्त्री इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं कि पूरे रूस में डबल रोटी मुफ्त हो जाए। तुम सोचो, अगर रूस में डबल रोटी मुफ्त और जी. डी. आर. में शहरी भ्रमण निःशुल्क हो गया तो संसार का अर्थशास्त्र किस मोड़ पर जाकर खड़ा हो जाएगा?

बसों, रेलों और ट्रमों में फाटक अपने आप खुलते हैं, अपने आप बन्द होते हैं और बच्चों, अपाहिजों, बीमारों तथा घायलों के लिये सीटें अलग से चिह्नित की हुई रहती हैं। यदि ऐसा कोई व्यक्ति सफर नहीं कर रहा तो तो उन सीटों पर कोई भी बैठ सकता है।

जी. डी. आर. में मैंने विकलांग बहुत देखे। शायद यह सब युद्ध का अवशेष है, पर मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है कि वहाँ मुझे अन्धे, काने और ऍंचकताने चेहरे देखने को नहीं मिले। होंगे जरूर पर अपने हिसाब से रहते होंगे। महिलाओं में एक विशेष खब्त देखा। वे अपने आपको काला या साँवला बनाना और दिखाना चाहती हैं। इसलिये पाँवों में कमर तक के साँवले और हल्के साँवले रंग के नायलॉन के स्लेक्स पहनना वहाँ बहुत प्रचलित हैं। तुम कल्पना करो कि टाँगें साँवली और हाथ-मुँह गोरे! कैसी लगती होंगी ऐसी महिलाएँ?
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