अमीबा और अमरबेल : दद्दू


(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। यह पोस्ट, उसी सन्दर्भ में लिखी गई है।)


लोग सोचते, मानते और कहते हैं कि दद्दू राजनीति में हैं। दद्दू लोगों पर हँसते हैं। दद्दू राजनीति में नहीं है। राजनीति उनमें है। उनके रोम-कूपों में रची-बसी हुई। दद्दू की हर हरकत राजनीति प्रेरित, राजनीति आधारित और राजनीति केन्द्रित होती है। नित्य कर्म भी। किसी को बिना अपमानित किए प्रतीक्षा करवानी होती है तो दद्दू सण्डास में घुस जाते हैं और तभी निकलते हैं जब प्रतीक्षारत आगन्तुक अपनी औकात समझ कर चला जाता है।


दद्दू किसी पार्टी में नहीं हैं। सब पार्टियाँ उनमें आकर मिलती हैं। उनके गोदाम में प्रत्येक पार्टी के डण्डे, झण्डे, पोस्टर, बैनर, पर्चे उपलब्ध हैं। जब, जिस पार्टी की आवश्यकता होती है, उसमें हो जाते हैं। हो क्या जाते हैं, बस घोषणा मात्र कर देते हैं - ‘इस बार मैं फलाँ पार्टी में हूँ।’ उनका ‘अनिश्चित चरित्र’ शहर के लोगों को प्रतीक्षारत बनाए रखता है। वे कभी भी, कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी कह सकते हैं। आज जिस पार्टी में हैं, कल उसी पार्टी के खिलाफ आमसभा कर लेते हैं। आज जिसके पक्ष में आमसभा कर रहे हैं, कल उसी पर आरोप लगा सकते हैं कि वह उनके दुश्मनों से मिल गया है। आमसभा में बोलते हैं तो लगता है, ताँबे के बर्तन में उबली भाँग छान कर आए हैं। वे सबका समर्थन और विरोध कर चुके हैं। एक-एक बार नहीं, कई-कई बार। बल्कि बार-बार। कभी-कभी वे खुद उलझ जाते हैं। परिजनों से पूछते हैं - ‘आज मैं किसका समर्थन कर रहा हूँ?’ उत्तर में प्रत्येक परिजन ‘अभी सोच कर बताता हूँ’ कह कर अन्तर्ध्यान हो जाता है। समीक्षक असमंजस में रहते हैं। उन्हें किस विशेषण से विभूषित करें - अजातशत्रु या सर्वशत्रु? उन्होंने कबीर की ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ उक्ति को पलट कर ‘सब काहू से दोस्ती, सब काहू से बैर’ कर दिया है और ‘कबीर द्वितीय’ बने बैठे हैं।


‘लोग क्या कहेंगे’ वाली चिन्ता उन्हें कभी नहीं सताती। वे ‘परिवर्तन ही जीवन है’ में विश्वास करते हैं और कहते हैं कि परिवर्तन के दाँतों वाले पहिए के बिना प्रगति और विकास के रथ को नहीं खींचा जा सकता। उनकी कोठी पर हर साल एक मंजिल का बनना और उनके व्यापार में दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ोतरी होना इसका सबूत भी है।
उनकी पीठ पीछे लोग उन्हें अवसरवादी, दलबदलू, मक्कार, लफाज, भँगेड़ी, शालीग्राम जैसे सम्बोधनों से पुकारते हैं। वे सुनकर मुस्कुराते हैं। लोग कुछ भी समझें, आदमी को अपनी नजरों में नहीं गिरना चाहिए। इसलिए वे किसी की परवाह नहीं करते। इसी के चलते लोग उन्हें बेशर्म और सीनाजोर तक कहते हैं। लेकिन उदारमना हो, दद्दू सबको माफ कर देते हैं। ईसा का वाक्य उनकी पंच लाइन है - ‘हे! प्रभु, इन्हें क्षमा करना। ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं।’ इसके उत्तर में लोग, दद्दू के लिए, शरद जोशी को कोरस में उद्धृत करते हैं - ‘हे! प्रभु इन्हें क्षमा मत करना। ये जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं।’


पल-पल में दल बदलने के अपने निर्णय का औचित्य सिद्ध करने में दद्दू को कभी कठिनाई नहीं हुई। वे रजनीश के सच्चे अनुयायी हैं। कहते हैं - ‘शाश्वत सत्यों के अलावा हर क्षण का अपना सत्य होता है। मैं इस क्षण के सत्य को जी रहा हूँ। जो कुछ अभी कह-कर रहा हूँ, अगले क्षण उसके विपरीत कहता/करता मिल सकता हूँ। दो अलग-अलग क्षणों के सत्य अलग-अलग हो सकते हैं। होते ही हैं। इसमें अचरज क्या?’ उनका सीनाजोर आचरण शर्म को भी पानी-पानी कर देता है। तब शर्म अपनी नई परिभाषा ढूँढने निकल पड़ती है।


वे प्राणियों में अमीबा और वनस्पतियों में अमरबेल हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में अमीबा की तरह सुप्त और मृतप्रायः दशा में आ जाते हैं और स्थितियों के अनुकूल होते ही जीवित और सक्रिय हो जाते हैं। अमरबेल की तरह खुद की सेहत पर गरम हवा भी नहीं लगने देते, मौसम का असर नहीं होने देते। जिस पर भी हाथ डाला, जमानत जप्त होने से कम पर कभी नहीं निपटा। इस चुनाव में मनोविनोदपूर्वक जिस उम्मीदवार को संरक्षण दिया है, सारा शहर उसे दया-दृष्टि से देख रहा है। और दद्दू? देखनेवालों की ओर देखकर हँस रहे हैं।


दद्दू शाश्वत, सर्वत्र, सर्वकालिक हैं। मुझसे और मेरे शहर से ईष्र्या मत कीजिए। तनिक सावधानी से दखिए। वे आपके शहर में ही, आपके पास ही हैं। हाँ, बच कर रहने की सावधानी बरतिएगा।
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3 comments:

  1. दद्दू अवसरवादी हैं। उन के अनुयायी भी हैं। जो उन की तरफ देखते हैं और उन का अनुसरण करते हैं। जब जिधर की चले हवा। दद्दू उधर ही चले।

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  2. @ दद्दू राजनीति में नहीं है। राजनीति उनमें है।
    ताँबे के बर्तन में उबली भाँग छान कर आए हैं। वे सबका समर्थन और विरोध कर चुके हैं।
    ‘आज मैं किसका समर्थन कर रहा हूँ?’
    ‘अभी सोच कर बताता हूँ’
    ‘सब काहू से दोस्ती, सब काहू से बैर’ कर दिया है और ‘कबीर द्वितीय’
    लोग कुछ भी समझें, आदमी को अपनी नजरों में नहीं गिरना चाहिए। इसलिए वे किसी की परवाह नहीं करते।
    ‘हे! प्रभु इन्हें क्षमा मत करना। ये जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं।’
    जो कुछ अभी कह-कर रहा हूँ, अगले क्षण उसके विपरीत कहता/करता मिल सकता हूँ। दो अलग-अलग क्षणों के सत्य अलग-अलग हो सकते हैं। होते ही हैं। इसमें अचरज क्या?’ उनका सीनाजोर आचरण शर्म को भी पानी-पानी कर देता है।
    जिस उम्मीदवार को संरक्षण दिया है, सारा शहर उसे दया-दृष्टि से देख रहा है। और दद्दू? देखनेवालों की ओर देखकर हँस रहे हैं।

    निहाल हो गए व्यंग्य की इस धार पर !
    जाने कितने कोण और आयाम । महराज आप एक ही में इतना सारा दे डाले, लोग तो बचा बचा कर खर्चते हैं। आभार।

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  3. राजनीति मे बहुत गहरे तक उतर गयी आप सही मे ऐसे ही होता है शुभकामनायें

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