एकान्त के बुनकर


उस दोपहर तेज बरसात हो रही थी। बरसात के तेवर देखने बाहर आया तो देखा-आचार्यजी सामनेवाले मकान के बरामदे में खड़े हैं। आचार्यजी याने सेवा निवृत्त प्राध्यापक डॉक्टर मणीशंकरजी आचार्य। हिन्दी के ज्ञाता, एकाधिक पुस्तकों के रचयिता, ऑरो आश्रम को समर्पित। आचार्यजी की बिटिया विनीता और दामाद संजय ओझा के मकान के ठीक सामने मेरा निवास है। सो, उस मकान के बरामदे में खड़े आचार्यजी मुझे नजर आने ही थे। वे बेटी-दामाद और नातियों से मिलने आए थे। विनीता-संजय बाहर थे। घर पर ताला लगा था। आचार्यजी के लिए यह शायद अनपेक्षित था। सो, असमंजस में थे और चूँकि बरसात से बचने का कोई उपकरण उनके पास नहीं था, सो प्रतीक्षा कर रहे थे कि बरसात रुके तो जाएँ।


मैंने उन्हें आवाज दी और मेरे निवास पर आने को कहा। उन्होंने ससंकोच इंकार कर दिया। मुझे न तो बुरा लगा और न ही अटपटा। ऐसे समय हम सब वैसा ही करते हैं। मैं सड़क पार कर उनके पास गया और तनिक अधिक जोर से अपना आग्रह दुहराया। वे फिर भी तैयार नहीं हुए। मैंने कहा - ‘आप इस दशा में खड़े रहेंगे तो विनीता और संजय मुझे बुरा-भला कहेंगे। पधारिए, आधा कप चाय आपके साथ पीने का सौभाग्य मुझे प्रदान कीजिए।’ वे अत्यधिक संकोच से, शायद बेमन से, मात्र संस्कार-शिष्टाचार के अधीन मेरे साथ आए।


मैं घर पर अकेला ही था। चाय मुझे ही बनानी थी। यह जानकर आचार्यजी और अधिक असहज हो गए। लेकिन वे कर ही क्या सकते थे। फँस गए थे। मैं खुश था। मेरे प्रिय और आदरणीय नायकों में से एक, मेरे घर में विराजमान था। मैं उन्हें ‘सारस्वत पुरुष’ कहता हूँ। गोया, ‘बैरन बरसात’ मेरे लिए ‘मन की मुराद पूरी करने वाली सौगात’ बन कर आई थी।


तेज और लगातार हो रही बरसात से उपजी ठण्डक के बीच कुनकुनी चाय का प्याला थामना हाथों को भला लग रहा था। आचार्यजी ने चाय का पहला सिप लिया और कहा - ‘आप चाय अच्छी बना लेते हैं।’ मैं झेंपा। किन्तु अगले ही क्षण मन ही मन हँस पड़ा। अच्छे लोग सदैव अच्छाई ही देखते हैं।


श्रीअरविन्द, श्रीमाँ और ऑरो आश्रम आचार्यजी के प्रिय विषय हैं। वे इन सबके अध्येता भी हैं, भाष्यकार भी और विद्यार्थी भी। अरविन्द दर्शन मुझे शुरु से ही क्लिष्ट और दुरुह लगा है। इसकी शब्दावली मुझे आक्रान्त करती है। मैंने, अपनी इसी उलझन पर उनसे कुछ देर बात की। हम चाय पीने लगे।


वे चुप बैठे थे। मौन मैंने ही तोड़ा। पूछा कि नई उमर के कवि-लेखक कभी उनसे मिलने आते हैं? आचार्यजी ने तत्क्षण कहा - ‘कोई नहीं आता।’ मैंने बात आगे बढ़ाई और पूछा कि उनकी पीढ़ी के, लिखने-पढ़नेवाले लोग कभी उनसे सम्पर्क करते हैं? इस बार आचार्यजी ठिठके। चाय का कप टेबल पर रखा। दोनों हाथों की अँगुलियाँ आपस में फँसाई, इसी दशा में दोनों हाथ माथे तक ले गए, मानो कुछ सोच रहे हों। क्षणोपरान्त बोले - ‘नहीं। उनमें से भी कोई सम्पर्क नहीं करता।’ आठ शब्दों का यह वाक्य कहने में उन्होंने मानो मीलों लम्बा सफर तय कर लिया। खिन्नता उनके चेहरे पर आकर मानो बाहर हो रही बरसात में बदल गई।


कमरे में भारीपन छा गया था। मैने कठिनाई से पूछा, लगभग हकलाते हुए - ‘आचार्यजी! क्या हम लोग एकान्त बुन रहे हैं?’ ‘बिलकुल सही कहा आपने।’ आचार्यजी बोले - ‘बुन ही नहीं रहे हैं, अपने आप को उस एकान्त का कैदी भी बना बैठे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कोई आए और इस कैद से हमें निकाले।’ कहकर उन्होंने लम्बा निःश्वास लिया और टेबल पर कप ऐसे रखा, मानो बुरी तरह थक गए हों।


अब हम दोनों चुपचाप बैठे थे। बरसात का शोर कम हो गया था। बरसात हो तो रही थी किन्तु ऐसी नहीं कि रुकना पड़े। वे उठे। मैं भी। हम दोनों बाहर आए। विनीता-संजय अभी भी नहीं आए थे। मकान पर ताला जस का तस लटक रहा था। उन्होंने अपनी स्कूटी स्टार्ट की। मुझे धन्यवाद दिया। मैंने प्रणाम किया। सस्मित मौन उत्तर देकर वे चले गए।


मैं उन्हें जाते हुए देखता रहा। वे जा रहे थे, शायद अपने एकान्त में कैद होने के लिए। मुझे मेरे घर लौटना था-अपने एकान्त में कैद होने के लिए।

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4 comments:

  1. आप ने आचार्य जी को ब्लागरी करने का सुझाव नहीं दिया? उन का एकांत एक झटके के साथ समाप्त करने का यही एक सुगम माध्यम है।

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  2. मणिशंकर आचार्य जी, विनिता और संजय तो मेरे पारिवारिक मित्र हैं और विनिता मेरे बच्चों की शिक्षिका!
    आचार्य जी ने नया क्या लिखा?
    अचानक रतलाम के सभी सुहृदयों की याद हो आई आपके पोस्ट के माध्यम से!

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  3. और मैं चाहूंगा कि अरविन्द आश्रम के सन्दर्भ में मेरी पत्नीजी की यह पोस्ट देखी जाये - उच्च साधकों की निश्छलता की याद

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  4. ‘बुन ही नहीं रहे हैं, अपने आप को उस एकान्त का कैदी भी बना बैठे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कोई आए और इस कैद से हमें निकाले।’
    आखिर अच्छे और समझदार लोग पुल तोड़कर दीवारें खड़ी करना क्यों शुरू कर देते हैं? क्या यह एक स्वाभाविक रासायनिक/हारमोनिक प्रक्रिया है? हमें याद रखना पडेगा कि समाज को भी हमारी ज़रुरत है और यह दीवारें तोड़ना हमारा कर्त्तव्य है.

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