सैंतीसवीं कौम

कहते हैं, भगवान ने छत्तीस कौमें बनाई। यह गिनती किसने लगाई, पता नहीं। यदि यह सच है तो मानना पड़ेगा कि मनुष्य ने ईश्वर को परास्त कर दिया। उसने सैंतीसवीं कौम बना ली। निर्दलियों की। सो, निर्दलियों के किए-कराए के लिए ईश्वर से भी शिकायत नहीं की जा सकती। यदि की तो सुनवाई वही करेगा जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है, वही सुनवाई करेगा और फैसला भी सुनाएगा। याने मुकदमा पेश होने से पहले ही फैसला तय है। शिकायत करने और पछताने के लिए आप स्वतन्त्र हैं।

निर्दलीय स्वयम्भू होता है। उसे ‘अनाथ’ कहना अनुपयुक्त होगा। ‘छुट्टा साँड’ या ऐसी ही कोई उपमा उसके लिए उपयुक्त होगी। वह कहीं भी, कुछ भी कर सकता है। उसका कोई, कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वह आपका भला करे या न करे, आपका नुकसान अवश्य कर सकता है। भला करने के नाम पर वह खुद से आगे शायद ही कभी देखता हो। सबका होने की सुविधा उसके पास सुरक्षित रहती है लेकिन उसका कोई नहीं हो सकता।

निर्दलीय की स्थिति खेत में खरपतवार और जंगल में झाड़ी जैसी होती है। मुख्य फसल को बचाने के लिए खरपतवार को जड़ से उखाड़ कर फेंका जाता है और जंगल में झाड़ी से अपना दामन बचाया जाता है। राजनीति में इनकी स्थिति कभी दिहाड़ी मजदूर जैसी होती है। तब इन्हें ‘जैसी जाकी चाकरी, वैसा ही फल’ वाला व्यवहार मिल जाता है। किन्तु कभी-कभी इनकी स्थिति नाजायज सन्तान या फिर रखैल जैसी होती है। तब इनका उपयोग ‘मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू’ की तरह किया जाता है।

लेकिन कभी-कभी बिल्ली के भाग से छींका टूट जाता है। तब निर्दलीय का नाम मधु कौड़ा हो जाता है और दुनिया के तमाम निर्दलियों का प्रेरणा पुरुष बन कर आकाश मे चमकने लगता है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है, ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ सो, उसकी अन्तिम मंजिल फिर जेल होने की आशंका बलवती हो जाती है।

निर्दलीय की पौ-बारह तब होती है जब किसी दल को बहुमत नहीं मिलता। तब निर्दलीय को उसी तरह तलाशा जाता है जैसे कि कण्ट्रोल की दुकानों पर घासलेट। चुनाव लड़ते समय प्रत्येक निर्दलीय ऐसी ही स्थिति के लिए भगवान से प्रार्थना करता है। लेकिन जब ऐसा नहीं होता है तो निर्दलीय दो कौड़ी का हो जाता है और धोबी के पालित पशु की दशा में आ जाता है। ऐसे समय में वह, कामवाली बाई के साथ आए उसके बेटे की तरह काम में हाथ बँटाता है और जो मिल जाए उसमें सन्तोष कर लेता है। चूँकि उसकी स्थिति ‘आगे नाथ न पीछे पगहा’ वाली होती है सो वह किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं होता। किन्तु सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि उसे कहीं ठौर भी नहीं मिलती।

जिन लोगों को लगता है कि वे निर्दलीय से काम ले लेंगे, उन्हें बहुत जल्दी मालूम हो जाता है कि वे ‘मूर्ख श्रेष्ठ’ साबित हो गए हैं। तब अपनी झेंप मिटाने के लिए उनके पास दर्पण के सिवाय और कोई माध्यम नहीं होता।

लोकतन्त्र ने दुनिया को कई उपहार और आशीर्वाद दिए हैं। किन्तु लोकतन्त्र सदैव ऐसा नहीं करता। वह निर्दलीय भी देता है।
(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। यह पोस्ट, उसी सन्दर्भ में लिखी गई है।)
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2 comments:

  1. निर्दलीय का सुंदर विश्लेषण!

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  2. हमें तो छत्तीस के इस आंकड़े के बारे में कुछ भी पता नहीं है.

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