आधुनिक धर्मपत्नी से


 

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘दो टूक’ की चौदहवीं कविता 

यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।



आधुनिक धर्मपत्नी से

तंग आ गया हूँ तुम्हारे तानों से
टूट गया हूँ इन व्यंग्य-बाणों से
उलट कर उत्तर तो मैं भी दे सकता हूँ
पर देना नहीं चाहता
क्योंकि अपने ही प्यार की अर्थी अपने ही कन्धों पर
मैं लेना नहीं चाहता।
मैं जानता हूँ तुम सचाई सह नहीं सकोगी
पहिले ही उत्तर पर कुआँ बावड़ी कर लोगी
जिन्दा रह नहीं सकोगी।
यह जो सोते, बैठते, खाते, पीते
तुम कुरेदती हो न घाव मेरे
यह भला नहीं है
किसी भी गृहस्थी का गाड़ा
यूँ चला नहीं है।

मैं जानता हूँ
आज तुमने दर्पण देखा नहीं है
यह जो ताजा कुंकुम लगा है न तुम्हारे माथे पर
इस बिंदिया पर
तुम्हारी या मेरी ऊंगली की रेखा नहीं है।
पर फिर भी मैं चुप हूँ
इसलिए कि इस बिंदिया के ठीक नीचे
मेरी पहली मनुहार का पहला निशान है
इसका तुम्हें नहीं, मुझे ध्यान है।
सिन्दूर की शालीनता और काजल की कुलीनता
मेरे नहीं, तुम्हारे समझने की चीज है
यह प्यार की एकाधिकार भावना भी
कितनी बदतमीज है!
और तुम मुझे तमीज सिखाती हो   
छोटे-छोटे बच्चों, कच्चे नौजवानों,
तुम्हारी ननद और मेरी माँ के सामने!
तुम्हें अक्ल अगर दी हो राम ने
तो तुम सोचो कि
तुम किससे, कब क्यों और कैसे पेश आ रही हो?
मैं बावलों की तरह तुम्हारे पीछे-पीछे चला
तो तुम मुझे कहाँ लिए जा रही हो?

तुम्हारी चिकोटियाँ, तुम्हारी चिमटियाँ, तुम्हारे चुम्बन
जिसे भी मिल रहे हों मिलने दो
किसी के साँय-साँय जेठ में तुम्हारे प्यार के नये गुलमोहर
खिल रहे हों, खिलने दो।

सुनो तो!
पाप तुमने किए हैं
हाथ मैंने धोए हैं।
मैंने कब कहा कि
जिन्दगी में मैंने सब आम ही आम बोये हैं!
बबूलों से पटी पड़ी थी जिन्दगी मेरी
गुलाब का गुमान लेकर तुम अपने-आप आई थी
एक नहीं, दो नहीं, पूरे नौ लाख तारों से पूछो
मैने कब तुम्हें आवाज लगाई थी?
मेरे बबूल काट-काटकर तुमने अपने गुलाब बोेये
मैं चुप रहा।
मेरे जवान सपने दहाड़ मार-मार कर रोये
मैं चुप रहा।
अब नहीं चढ़े परवान तुम्हारे गुलाब
तो तुम मुझे कोसती हो?
अपने मन के गहरे गोपन से पूछो
क्या तुम सही सोचती हो?
छोटे-छोटे, पीले-पीले, वासन्ती फूल, हाँ उन बबूलों के
अपने-आप झर पड़ते थे मेरी गोद में
मैं उनसे भी गया।
कहाँ हैं तुम्हारे गुलाब?
अरे कभी एक फूल तो झर जाता अपने-आप मेरी जिन्दगी पर?
ऊँगलियाँ लहु-लुहान करके
रोज-ब-रोज मैं खुद उन्हें तोड़ूँ
और धन्यवाद में मैं तुम्हारे हाथ जोड़ूँ?
इस गुमान को मैं नमस्कार करता हूँ
और नाक ही नाक हो जिस शरीर पर
क्या समझती हो मैं उस पर मरता हूँ?
नाक एक सौन्दर्य बोधक अंग है
शरीर नहीं है
इस सूत्र को एक नहीं करोड़ बार दुहराओ
और जब-जब तुम्हें मेरी जरूरत लगे
मजे से मेरे पास आ जाओ।
घड़ी या अध-घड़ी का शरीर-सुख
तुम्हें या मुझे
पैसे या टके में कहीं भी मिल जाएगा
पर अनुराग के अतल तल का अमृत नीर मण्डी का माल नहीं है
वह गुलाबों और बबूलों की जड़ों के नीचे से बहता है
इसका तुम्हें खयाल नहीं है।
 
तुम गुलमोहर सींच रही हो?
मजे से सींचो।
मुझ पर रहम करो
मेरी ओर से आँखें मींचो
नाक चढ़ती हो तो लौट जाओ वापस।
हवा की हल्की झरझराहट से झर पड़ना
बबूल की अपनी आदत है
मैं क्या करूँ?
मुबारक हो तुम्हें अपने गुलमोहर, अपने गुलाब
मुझे इजाजत दो कि मैं अपने बबूलों के नीचे
आराम से मरूँ।
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।





















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