देश बन गया है जोड़मा-जोड़मी, छाये हुए हैं वहाँ केे पटेल बा’

यह मई 1970 की बात है। मध्य प्रदेश विधान सभा के गरोठ विधान सभा क्षेत्र का उप चुनाव था। इस विधान सभा क्षेत्र में गरोठ और भानपुरा तहसीलें शरीक हैं। दादा श्री बालकवि बैरागी तब मध्य प्रदेश सरकार में सूचना-प्रकाशन राज्य मन्त्री थे। दा’ साहब (स्वर्गीय) श्री माणक भाई अग्रवाल काँग्रेस के उम्मीदवार और दादा काँग्रेस की ओर से चुनाव-प्रभारी थे। तब आज की भाजपा, भारतीय जनसंघ थी और दीपक उसका चुनाव चिह्न। दीपक को मालवी बोली में ‘दीवो’ कहा जाता है।

यह वह जमाना था जब गाँव के लगभग सारे लोग, गाँव के पटेल बताए उम्मीदवार को वोट दे दिया करते थे। भानपुरा-गरोठ वाली सड़क पर जोड़मा-जोड़मी नाम का एक गाँव है। है तो एक ही बसाहट किन्तु दो हिस्सों में। एक हिस्सा सड़क की एक तरफ और दूसरा हिस्सा सड़क की दूसरी तरफ। एक हिस्सा जोड़मा और दूसरा जोड़मी। यह गाँव ‘जनसंघी गाँव’ माना जाता था। तब ऐसे ‘पक्के’ (आज की शब्दावली में ‘अन्ध समर्थक’) गाँवों में सेंध लगाना असम्भव प्रायः ही माना जाता था। इसलिए, ऐसे गाँवोे में दूसरी पार्टी औपचारिक से अधिक मेहनत नहीं करती थी। 

यह भानपुरा के काँग्रेस चुनाव कार्यालय की बात है। रात का समय था। दादा उस समय वहीं थे। दादा की एक पहचान उनकी वाक्पटुता और वाक्चातुर्य भी रही है। जोड़मा-जोड़मी का एक काँग्रेसी कार्यकर्ता आया और दादा से कहा कि उसका गाँव है तो पक्का जनसंघी लेकिन दादा यदि वहाँ के पटेल को समझा दें तो पूरा गाँव, ‘पलट’ सकता है। दादा ने कुछ ऐसा कहा - ‘अरे! यहाँ अपना और काम ही क्या है? चलो!’ और उस कार्यकर्ता को साथ लेकर दादा फौरन जोड़मा-जोड़मी के लिए चल दिए।

रात लगभग दस-सवा दस बजे दादा वहाँ पहुँचे। पटेल बा’ सो गए थे। उन्हें उठाया। उनके आँगन में बैठक जमी। जीप की आवाज ने पूरे गाँव को जगा दिया। आधे से ज्यादा गाँव पटेल बा’ के आँगन में जुट गया।

दादा ने सीधी बात शुरु की - ‘देखो पटेल बा’! मैं भी जानता हूँ और सब जानते हैं कि आप जनसंघ को वोट देते हो और दिलाते हो। मैं तो जनम से ही माँगनेवाला बैरागी हूँ। आज तुमसे काँग्रेस के लिए वोट माँगने आया हूँ। दो तो ठीक। नहीं दो तो भी कोई घाटा नहीं। लेकिन वो क्या बात है कि तुम न तो खुद काँग्रेस को वोट देते हो और न ही गाँव को देने देते हो?’

पटेल बा’ दादा को जानते भी थे और मानते भी थे। उन्होंने टालने की कोशिश की। लेकिन दादा मानो अड़ गए - ‘मत दो वोट! लेकिन बताओ तो सही कि क्यों नहीं? बोलो तो मालूम पड़े और मालूम पड़े तो सूझ पड़े कि पटेल बा’ को कोप भवन से बाहर कैसे निकालें!’

और बात शुरु हुई। पटेल बा’ अपनी बात कहें और दादा तुर्की-ब-तुर्की तार्किक जवाब दें। दादा यदि सरस्वती-कृपा और प्रत्युत्पन्नमतित्व से लैस तो पटेल बा’ के पास व्यावहारिकता और दीर्घ लोकानुभव के शुद्ध देसी घी से रची-पगी परिपक्वता। दो बोल रहे थे और गाँव सुन रहा था - ‘ये ले मेरा सवाल!’ ‘ये ले मेरा जवाब!’ ‘एक ने कही, दूजे ने ना मानी। दोनों कहे - मैं ज्ञानी! मैं ज्ञानी।’ मालवा के प्रख्यात लोक-नाट्य माच ‘तुर्रा-कलंगी’ में दो दल होते हैं। लेकिन उस रात जोड़मा-जोड़मी में दो लोगों में ‘तुर्रा-कलंगी’ खेला जा रहा था। 

कोई डेड़ घण्टे की ‘बातचीत’ में अन्ततः पटेल बा’ चुप हो गए। उस अँधेरी, आधी रात में दादा के चेहरे पर ‘गाँव के पलटने’ की आशा जगमगा उठी। लगभग चहकते हुए बोले - ‘तो पटेल बा’! अब तो काँग्रेस को वोट दोगे और दिलाओगे?’

पटेल बा’ कुछ इस तरह बोले मानो जबरन बुलवाया जा रहा हो। आवाज में न तो दम न जोश। बुझे, मरे मन से, नीची नजर किए बोले - ‘देखो बेरागीजी! आपकी एक-एक बात हवा होरा आनी खरी। आपकी एक-एक वात म्हारे गरे उतरीगी। पण बेरागीजी! बोट तो दीवा नेईऽज दाँगा। अबे अणी वात को कई जवाब के काँ दाँगा? तो बस, योई, के दीवो तो दीवो हे।’ (देखो बैरागीजी! आपकी एक-एक बात सवा सोलह आना सही। आपकी एक-एक बात मेरे गले उतर गई। लेकिन बैरागीजी! वोट तो दीपक को ही देंगे। अब इस बात का क्या जवाब कि क्यों देंगे? तो बस, यही, कि दीपक तो दीपक है।)

पटेल बा’ का जवाब सुनकर दादा बस, बेहोश ही नहीं हुए। शब्दों का कुशल खिलाड़ी, सरस्वती-पुत्र, कवि सम्मेलन के मंचों को लूटनेवाला अखिल भारतीय स्तर का कवि अवाक्, हतप्रभ, हक्का-बक्का, मेले में लुटे-पिटे, खाली हाथ आदमी जैसी दशा में था। उन्हें सम्पट-सूझ ही नहीं पड़ी कि उन्होंने क्या सुना! वे मानो संज्ञा शून्य, अचेत हो गए हों। सहज होने में, खुद में लौटने में उन्हें सामान्य से तनिक अधिक समय लगा। सामान्य हुए तो अपने स्वाभावानुसार ठठाकर हँसे और बोले - “पटेल बा’ की जय हो। आज आपने समझाया कि ‘अन्धोें के आगे रोना और आँखों का ओज खोना’ किसे कहते हैं।” कह कर, कोहनियों तक हाथ जोड़ कर उठते हुए नमस्कार किया और जीप में बैठते हुए बोले - ‘देखो पटेल बा’! हमें तो कोई फरक नहीं पड़ना। यहाँ से हमें पहले भी वोट नहीं मिलते थे। अब भी नहीं मिलेंगे। लेकिन गाँठ बाँध लो! जीतेगी तो काँग्रेस ही। और, जिस दीपक के तुम दीवाने बने बैठे हो ना! वह उजाला नहीं, अमावस उगलता है। खुद तो अँधेरे में डूबोगे ही, अपने पूरे गाँव को भी डुबाओगे। खूब मजे से डूबो और डुबाओ। लेकिन अँधेरे में जी नहीं पाओगे। तब, उजाले की जरूरत पड़े तो आवाज लगाना। आज माँगने आया था। तुम खाली हाथ लौटा रहे हो। लेकिन तब मैं, तुम्हारी आवाज खाली नहीं जाने दूँगा। मैं तो सूरज का वंशज हूँ। दौड़ कर आऊँगा और उजाले की गठरियाँ के ढेर तुम्हारे दरवाजे लगा दूँगा। जै रामजी की।’

उसके बाद क्या हुआ और क्या नहीं, यह जाने दीजिए। मुझे तो यह घटना इन दिनों बेतरह याद आ रही थी सो परोस दी। आपको जो समझना हो समझ लें। बस! यह मत समझिएगा कि पूरा देश जोड़मा-जोड़मी बना हुआ है और गली-गली, घर-घर में बैठे पटेल बा’ बिना किसी बात के अपनीवाली पर अड़े हुए, पूरे गाँव को अँधेरे से ढँकने की जुगत में भिड़े हुए हैं।

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