चल तू मेरी कलम


 



श्री बालकवि बैरागी के गीत संग्रह
‘ललकार’ का चौदहवाँ गीत





दादा का यह गीत संग्रह ‘ललकार’, ‘सुबोध पाकेट बुक्स’ से पाकेट-बुक स्वरूप में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं हो पाई। इसीलिए इसके प्रकाशन का वर्ष मालूम नहीं हो पाया। इस संग्रह में कुल 28 गीत संग्रहित हैं। इनमें से ‘अमर जवाहर’ शीर्षक गीत के पन्ने उपलब्ध नहीं हैं। शेष 27 में से 18 गीत, दादा के अन्य संग्रह ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ में संग्रहित हैं। चूँकि, ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है इसलिए दोहराव से बचने के लिए ये 18 गीत यहाँ देने के स्थान पर इनकी लिंक उपलब्ध कराई जा रही है। वांछित गीत की लिंक पर क्लिक कर, वांछित गीत पढ़ा जा सकता है।    
  
 

चल तू मेरी कलम
 
नजर जहाँ तक भी जाती है, दिखता नहीं प्रकाश है
धरती से अम्बर तक लगता, मानव का रनिवास है

बढ़ता ही जाता है रौरव, अँधियारे के ज्वार का
निचुड़ा-निचुड़ा लगता है सत, किरणों की मनुहार का

थके-थके से पाँव भटकते, गलियाँ सब बेहोश हैं
ऐसे में इस महादेश की, सिर्फ कलम को होश है

चल तू मेरी कलम कि तुझको, अपना फर्ज निभाना है
कोई जगे या नहीं जगे पर तुझको सुबह उगाना है
चल तू मेरी कलम.....

बुझे-बुझे लगते हैं सूरज, जलती हुई जवानी में
चाँद फिसल कर जा डूबे हैं, बस दर्पण के पानी में
तारे टुक-टुक देख रहे हैं बस्ती को हैरानी में
भूल गये हैं सब मंजिल को, अपनी खींचातानी में
(तो) चल तू मेरी कलम कि तुझको दीपक नये जलाना है
सूरज को उदयाचल लाकर युग का नमक चुकाना है
चल तू मेरी कलम...

तूफानों ने बोल रखा है, धावा अभी किनारों पर
चन्द लहरियाँ नाच रहीं हैं, कुछ निर्लज्ज इशारों पर
माझी ने मुँह मोड़ लिया है, असमय ही मझधारों पर
जयचन्दों की आँख लगी है, नैया पर, पतवारों पर
चल तू मेरी कलम कि तुझको तूफाँ से टकराना है
इस नैया को सही सलामत घाटों तक पहुँचाना है
चल तू मेरी कलम.....

ऐटम के बाजार लगे हैं पाँखुरिया थर्राती हैं
कोयल, मोर, पपीहे सबकी, भावाजें भर्राती हैं
श्वेत-कपोती कातर स्वर में, हाय-हाय चिल्लाती है
मानवता असहाय भटकती, और पछाड़ें खाती है
चल तू मेरी कलम कि तुझको मेघ मल्हारें गाना है
पहले सावन बरसाना है, फिर फागन बरसाना है
चल तू मेरी कलम.....

सारे घर में आग लगी है, कोई नहीं बुझाते है
सब ही पूले डाल रहे हैं, और अधिक भड़काते हैं
चतुर सयाने आँख मूँद कर, इधर-उधर कतराते हैं
कोई खुद के हाथ सेंक कर, नित त्यौहार मनाते हैं
चल तू मेरी कलम कि तुझको सारी आग बुझाना है
जन-जन जब तक जुट नहीं जाये, तब तक शोर मचाना है
चल तू मेरी कलम.....

पंख-पँखेरू फिर से चहकें, अमिया फिर से बौराये
ताल-तलैया फिर से महके, बगिया फिर से गदराये
पनघट पर फिर गागर झलके, पायल फिर से पगलाये
माँदल पर फिर महुआ ढलके, फिर से फागुन इतराये
चल तू मेरी कलम कि तुझको, ऐसा रंग जमाना है
स्वयं विधाता पगला जाये, ऐसा चित्र बनाना है
चल तू मेरी कलम.....
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इस संग्रह के, अन्यत्र प्रकाशित गीतों की लिंक - 

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गीतों का यह संग्रह
दादा श्री बालकवि बैरागी के छोटे बहू-बेटे
नीरजा बैरागी और गोर्की बैरागी
ने उपलब्ध कराया।

 

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