दो-दो बातें

 
श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की छत्तीसवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




दो-दो बातें

आँसू से आरम्भ करूँ या, शुरु करूँ मुसकानों से
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से

मिला कदम से कदम, हाथ से हाथ, कफन जब बाँधा था
आजादी के लिये तड़प कर, निकला हर शहज़ादा था
सबके मन में एक बात थी, सबका एक इरादा था
बच्चा-बच्चा इस माटी का, यम का भी परदादा था
हार गया था महाकाल भी, जिन जाँ बाज़ जवानों से
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से

आज़ादी आ गई देश में, अपना नेजा लहराया
मजहब के मारों को हमने, जैसे-तैसे सहलाया
बिड़ला घर में जो कुछ बीती, उसको दिल में दफनाया
संविधान के पावन स्वर को, सबने मिल कर दुहराया
पुजवा डाला राजघाट भी, परदेसी मेहमानों से
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों मे

आजादी पर नई जवानी, ज्यों-ज्यों चढ़ती जाती है
शैतानों की आँखें इस पर, त्यों-त्यों गड़ती जाती हैं
उधर जंग के नारे लगते, बात बिगड़ती जाती है
नये खून की ज़िम्मेदारी, दिन-दिन बढ़ती जाती है
बदबू आती है बारूदी, सरहद के मैदानों से
दो-दो बातें करनी है इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों मे

इधर मियाँ अय्यूब अकड़ते, उधर अकड़ता ‘लाई’ है
सोंधी-सोंधी गन्ध लहू की, उत्तर से भी आई है
अरे तिरंगा तड़प रहा है, सिर पर खड़ा कसाई है
और पीटती यहाँ तालियाँ, भारत की तरुणाई है
लानत भेज रहे हैं पुरखे, हम पर कब्रस्तानों से
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से

आड़ धरम की ले-ले कर फिर, उठते ये तूफान क्यों?
भाषा के नारों पर जगते हैं, सोये शमशान क्यों?
पंचशील की दूकानों पर, ये फीके पकवान क्यों?
भारत का भूगोल आज फिर, लथपथ लहू-लुहान क्यों?
बातें मनवाई जाती क्यों, घूँसों औ’ घमसानों से
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से

दिन-दिन बढ़ता क्यों कोलाहल, दिन-दिन बढ़ता शोर क्यों?
खून बहाने वाली पीढ़ी, मेहनत में कमजोर क्यों?
सभी वतन को भूल गये क्यों, सबके मन में चोर क्यों?
दो आयोजन सफल हुए पर, मायूसी हर ओर क्यों?
भूख-भूख की आवाजें क्यों आती है खलिहानों से 
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से

आजादी कब तक निकलेगी, दिल्ली के बाजारों से?
कब गुजरेगी यह इठला कर, गाँवों के गलियारों से?
लालफीत कब रूखसत लेगी, जनता की सरकारों से?
कहो कौन पीढ़ी निपटेगी, जयचन्दों, गद्दारों से?
कब झोंपड़ियाँ गले मिलेंगी, महलों और मकानों से?
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से

जिन कन्धों पर बोझा आया, भारत की खुशहाली का
जिन कन्धों पर सिंहासन, होना था आज कुदाली का
जिन कन्धों पर सिंहासन, होना था आज दुनाली का
हाय! हाय!! उन कन्धों पर है, माथा नखरे वाली का
नदियाँ तड़फ रहीं हैं मिलने, ऊसर रेगिस्तानों से
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से

मर्द आज मुर्दार हो गये, नहीं किसी में पानी है
भटक गये कुछ, बहक गये कुछ, क्या अजीब हैरानी है
यही वजह है आज देश में, हर मौसम तूफानी है
ओ भारत की नारी! अब तो, तुझको बात निभानी है
मन चाहा करवा सकती है, शम्मा ही परवानों से
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से

मत पहिनो तुम लाल चूड़ियाँ, बहिनों अपने हाथों में
मत उलझाओ आज किसी को, प्यार भरी इन बातों में
सावन, फागन, मावस, पावस, रातों और प्रभातों में
नया पसीना ही मँगवाना, साजन से सौगातों में
मुल्क नहीं जगता है केवल, आहों औ’ अफसानों से
दो-दो बातें करनी हैं, इन भारत की सन्तानों
इन बलिदानी सन्तानों से

ये है मेरा काम जगा दूँ, मैं हर सोये नाहर को
झकझोरूँ मैं, उसे झिझोड़ूँ, और भेज दूँ बाहर को
अभी आग में रख दो साथी, मेंहदी और महावर को
बे मौसम बूढ़ा कर डाला, हमने वीर जवाहर को
उसे अकेला मत लड़ने दोे आँधी औ’ तृफानों से
दो-दो बातें करनी है, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्‍तानों से

बीत गई सो बीत गई, बस नहीं अधिक कुछ कहना है
होड़-दौड़ की दुनिया में यदि, हमको जिन्दा रहना है
इन फौलादी हाथों में बस, आज कुदाली देना है
अगर वतन ने फिर माँगा तो, हमें खून भी देना है
बात नहीं करता ‘बैरागी’, बेजबान पाषाणों से
दो-दो बातें करनी है, इन भारत की सन्तानों से
इन बलिदानी सन्तानों से
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)








यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।





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