एक और जन्म-गाँठ




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की छब्बीसवीं कविता 




एक और जन्म-गाँठ

आज अगर पिताजी होते
तो ब्राह्ममुहूर्त में ही
कर चुके होते
मेरी खातिर
सुन्दरकाण्ड का पाठ
और पोथी को
बस्ते में बाँधने से पहले
लगा चुके होते
उसकी डोरी में
एक और गाँठ।
जिसे वे गिनवाते
माँ से
और पूछते कि आज मेरी
कौन सी जन्म-गाँठ है।

जब आशीष लेने
जाता मैं उनके पास
तो देते जरूर आशीर्वाद
लेकिन
पहले देते उपदेश
गिनवाते जिम्मेदारियाँ
पूछते न जाने किस-किसका
कुशलक्षेम
ब्योरा लेते परिजनों का।
मैं कहाँ-कहाँ गया
कहाँ-कहाँ घूमा
क्या-क्या किया
कौन मरा, कौन जिया ?
यानी कि
मथ देते मेरी चेतना को
यहाँ से वहाँ तक।
थाह ले लेते मेरी एक-एक शिरा की
झाँक लेते मेरे अन्तर के
एक-एक गवाक्ष में
नाप लेते मेरे अन्तर्यामी
का कद
मैं गिनता रहता रुद्र के मुख
अपने काल्पनिक रुद्राक्ष में।

कहते,
‘एक चक्कर लगा आ
खेत की मेड़ पर
बित्ता भर ही सही
आखिर बाप-दादा का धन है
जाने का तो मेरा भी मन है
पर अब तू ही हो आ।’

और फिर
माँ को लगाते आवाज
बुलाकर पेशी करते उसकी
लगाते कोई आरोप
कोई इल्जाम
और सुनाते फैसला।
झल्लाते बिना बात
जोड़ते हम दोनों के हाथ
छोड़ते लम्बी साँस
कहते, ‘तुम लोगों से भरपाया
ज्यादा-से-ज्यादा
फाड़ लूँगा एकाध कुरता और
इतनी कट गई
इतनी और कट जाएगी
पर तुम लोग
कब समझोगे अपनी जिम्मेदारी?’
और फिर उँडेलकर अन्तर की
पितृ-भावना सारी-की-सारी
कहते, ‘खैर,
जाओ! खुश रहो!!
खूब फलो-फूलो
पर भगवान
और अपने माँ-बाप को
मत भूलो।’
कोशिश अगर
करती माँ
बीच में बोलने की
तो वे खीज पड़ते,
‘तूने अपने जाये को
माथे पर बैठाकर
बिगाड़ रखा है
तभी तो इसने जिम्मेदारियों से
पल्ला झाड़ रखा है।
जाओ! बाँटो मिठाई
और अपना मन पड़े
वो करो
मेरे सामने खड़े-खड़े
आज के दिन
ठण्डी साँसें मत भरो।
साल भर में एक बार
ये दिन आता है
वो भी तुम माँ-बेटों से
राजी-बाजी नहीं मनाया जाता है।’

और...माँ मुझे समझाती,
‘ले, चल बेटे!
इनकी जबान मत देख
इनका मन मेरे ही जैसा है,
मुझे देख,
ऐसा नहीं होता तो
क्या मैं सात-सात जनमों के लिए
इन्हें अपना सुहाग मनाती ?
तुझे अपनी कोख में
लेने से पहले ही
मर नहीं जाती?’

और मैं छूकर पिता के पाँव
माथे पर कर लेता
माँ के आँचल की छाँव।
पर...आज?
न माँ है न पिताजी
रह-रहकर
यादें हो जाती हैं ताजी
कितनी याद आती है माँ?
कितना याद आते हैं पिता?
उपदेश-अनुशासन
वात्सल्य और ममता के बिना
इस जन्म-गाँठ
की क्या तो उमंग
और कैसी अस्मिता?
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















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