.....और जीत लिया कच्छ का रन किन्तु छाप ने जान निकाल दी, पहली बार इतना चूमा माँ ने, खूब ठाठदार दीवाली मनी उस साल (कच्छ का पदयात्री - तेरहवाँ/अन्तिम भाग)

‘एकाएक मुझे बहुत दूर हल्के से शोर का आभास हुआ। कान लगाकर मैंने सुना। टोह ली। आसपास देखा, कहीं कुछ नहीं था। करीब-करीब नौ बज आया था सुबह का, पानी पीने की मेरी रफ्तार बढ़ गयी थी। तोंग मुझे हल्की लगी। खड़ा रहा और एक बल्ली के पास जाकर तोंग का मुँह खोला। अभी मेरे पास फिर भी आधी तोंग भरी थी, यानी मैं अपना सफर कोई तीन-चार घण्टे और जारी रख सकता था। समन्दर का पानी बराबर उतार पर था पर एक स्थान पर मैंने कोई आधा फर्लांग तक जाँघों के बराबर पानी में रास्ता तय किया। इससे मुझे बड़ी शान्ति मिली। पानी गरम हो चला था, फिर भी पानी की अपनी एक शीतलता तो होती ही है। इस यात्रा-बाधा ने मुझे एक बार फिर ताजा कर दिया। मेरे लिए यह किसी पड़ाव से कम नहीं था।

‘पाँवों से खून बहना बराबर जारी था। गोश्त के लोथड़े कट-कटकर गिर रहे थे। सारे पाँव फट गए थे। टखनों से ऊपर भी घाव हो गए थे। रेत और नमक के छोटे-छोटे लोंदे यदा-कदा उछलकर उन घावों पर चोट करते थे। ग्यारह के आस-पास का समय रहा होगा और मुझे मृगतृष्णा के एक झोंकें के ओझल होते ही कुछ गतिशील आकार दिखाई दिया। यदि यह भ्रम भी रहा हो तो सुखद था। मैंने एक घूँट पानी फिर पीया और घायल पाँवों को गति दी। कोई साढ़े ग्यारह या पौने बारह बजे के करीब मुझे आखिरी बल्ली दिखाई पड़ी। मेरे हाथ अपने-आप आसमान की तरफ उठ गए और मैंने बीच की तीन बल्लियों को देखते हुए अपने घुटनों पर दोनों हाथ रखे और तोंग को नीचे टिका कर उसे जी भर कर देखा। उसकी नली निकाल कर कमर में खोंसी और खुले ढक्कन से चार-पाँच घूँट पानी एक साथ गटक गया। मुझमें नई हिम्मत आ गई थी। लखपत का इलाका मुझे झिलमिल-झिलमिल दिखाई पड़ रहा था। लोग दिखाई पड़ रहे थे। मेरा लक्ष्य सामने था। शायद ये बल्लियाँ पास-पास थीं। मुझे दो मील से ज्यादा का रास्ता नहीं दिखाई दिया। पर जब मैं चला तो मैंने पाया कि यह दूरी बढती ही जा रही है। अनेकानेक विचार मन में उठते जाते थे और मेरे लहू-लुहान पाँव रूकने का नाम नहीं लेते थे। आवेग और आवेश के मारे मैं कई बार लड़खड़ाया। पर मैं चलता ही रहा। पानी पीने की गति अब मेरी कम हो गई थी। शायद सफलता की भावनाओं ने काया को अनुशासन सिखा दिया था।

‘साढ़े बारह बजे तक मैं लखपत आ गया। आखिरी चार-पाँच घूँट पानी मेरी तोंग में रहा होगा। तट पर काम करते नाविकोें ने दौड़कर मुझे सम्हाला। यह सहायता मेरे लिए अनपेक्षित थी। इस सहायता में सहानुभूति, मानवीयता और अपनापन था। मैंने नमस्कार करने को दोनों हाथ ऊपर उठाए और आँख मूँदकर मैं उनकी बाँहों में समा गया। शरीर मेरा जवाब दे गया था। चाह कर भी मैं खड़ा नहीं हो पा रहा था। मन भर आया था। आँखें पानी में पिघली जा रही थीं। पसीने से लथ-पथ मैं करीब-करीब बेहोश हो गया था।

‘वहाँ मैं करीब एक सप्ताह रहा। मेरे पाँवों का इलाज वहाँ के धार्मिक अस्पताल में हुआ। शाम-सवेरे मैं अपने पाँवों पर, वैदजी का दिया हुआ तेल या मरहम लगाता और कच्छ रन की तरफ मुँह करे, खड़ा होकर उसकी विराटता को मुँह चिढ़ाता। बचकाना होकर कभी-कभी उसे अँगूठा दिखाता और बालू-रेत में अपने पाँवों के निशान ढूँढता फिरता। रह-रहकर मुझे रोना आता था। बुखार बराबर बना हुआ था। धीरे-धीरे शरीर ठीक हुआ। मुझे बताया गया कि यह अस्पताल यहाँ कई बरसों से चल रहा है। वहाँ के लोगों और वैद्यजी का व्यवहार बहुत ही ज्यादा मानवीय था। उस समय लखपत में 56 तोले का एक सेर होता था जबकि अपने यहाँ मालवा में 80 तोले का एक सेर था।

‘कोई दस दिन के विश्राम के बाद जब मैं स्वस्थ हो गया तो मैंने कच्छ रन को एक बार फिर मुँह चिढ़ाया और अपना कमण्डल, चादर और मुसीबत की संगिनी वह तोंग लेकर मैं चल पड़ा। अन्न-क्षेत्रों में खाना, खाना और अधिकतर पैदल चलना या बिना टिकट रेल से सफर करना, यही मेरा क्रम था।

‘लखपत से मैं नारायण कोटेश्वर आया। यहाँ आना जरूरी था। यहाँ महादेवजी का एक मन्दिर है। यहाँ गुसाईं जाति पंथ के कई लोग मुझे मिले। जो भी यात्री हिंगलाज माता की यात्रा करके आते समय कच्छ रन पैदल पार करके आते थे उनको इस मन्दिर में शिवजी की छाप लगानी पड़ती है। मुझसे भी यह छाप लगवाने को कहा गया। मैं समझा कि छाप लगाने का काम साधारण-सा ही होगा। सो, मैंने फौरन हाँ भर ली। महन्तजी गए और अपने हाथ में एक खिलौने-सी चीज लाए। उन्होंने मेरे दाहिने हाथ की कोहनी नंगी करवाई और एक मन्त्र बोलकर वह छाप मेरी कोहनी के नीचे चिपका दी। छाप का लगना था कि मैं उछलकर दो-चार कदम पीछे जा पड़ा। लकड़ी के एक टुकड़े के नीचे, ताँबे की बनी, शिवलिंग की एक मूर्तिनुमा छाप थी। वह ताँबा गरम करके गरम-गरम मेरे दाहिनी हाथ की कोहनी के नीचे, नंगे चमड़े पर चिपका दिया।’ यह कहकर दादा ने अपनी दाहिनी कोहिनी आगे बढ़ाई। हमने देखा कि एक बड़ा सा काला दाग वहाँ अभी भी मौजूद है। छाप वाली बात सुनते ही सारे वातावरण की गम्भीरता हँसी में बदल गई। दादा भी हँसने लगे। वे बोले -

‘जब तक यह छाप नहीं लगे, कहा जाता है कि हिंगलाज माता की यात्रा का पुण्य पूरा नहीं लगता। और कुछ हो न हो,  मैं इस छाप को कच्छ रन की पदयात्रा का प्रमाण-पत्र मानता हूँ। जब मैंने महाराज से पूछा कि जो यात्री हिंगलाज माता की यात्रा करके कच्छ रन पैदल पार किये बिना निकल जाते हैं उनको छाप नहीं लगती? तो उन्होंने इसका बहुत बुरा माना। एक स्थान का नाम उन्होंने बताया जरूर था कि वहाँ ऐसे यात्रियों को छाप लगती है पर वह स्थान मुझे याद नहीं रहा। मैं तो इस छाप को भी कई सप्ताहों तक सहलाता रहा। आज भी जब इस छाप की याद आती है तो मैं काँप उठता हूँ।’

दादा ने अपनी आस्तीन को नीचा किया। बटन लगाकर कलाई सहलाई और कहने लगे -

‘नारायण कोटेश्वर से मैं फिर नाव द्वारा माँडवी आया। वहाँ से बेट द्वारिका और बेट द्वारिका से अहमदाबाद, सुदामापुरी तथा राजकोट घूमता-फिरता मैं रेल द्वारा ही रतलाम आ गया। दीपावली की तैयारियाँ चल रही थीं और लोग अपने घरों की सफ़ाई-पुताई कर रहे थे। मालवा की धूप उन दिनों सुहावनी लगती थी। घरों के सामान बाहर रखे हुए थे और जन-जीवन में त्यौहार के स्वागत की पूर्व तैयारी हो रही थी।

रतलाम पर मुझे केसरपुरा के लिए गाड़ी बदलनी थी। ज्यों ही मैंने रतलाम की धरती छुई कि मैं पाँव से सिर तक सिहर गया। गला रुँध गया और सारा परिवार आँखों के सामने घूम गया। मैंने मन को मजबूत किया। मेरे जबड़े भिंचे और मैं अजमेर जाने वाली गाड़ी में बैठ गया। रात को कोई नौ बजे मै केसरपुरा उतरा और वहाँ से चुपचाप-चोरी, पैदल रास्ते-रास्ते, आधा घण्टे में ही नयागाँव के रामदेवजी के अपने पूर्व-परिचित चबूतरे पर आ गया। करीब साढ़े बाईस या तेईस माह बाद में वापस अपने गाँव आया था। चबूतरे पर रामदेवजी के यात्री पड़े थे और धूनी लगी हुई थी। जाते ही मैं भी अँधेरे में ही गीत गाने लग गया। रात भर वहाँ सोया।

‘दो बरस की इस अल्हड़ और फक्कड़ाना जिन्दगी ने मुझे एकदम बदल दिया था। शरीर मेरा भर गया था और चेहरा मूँछ और दाढ़ी से भर-सा गया था। ढंग मेरा एकदम फकीराना हो गया था और मैं पक्का साधु प्रतीत होता था। पहला सवेरा हुआ तो मैं कुछ सहमा पर मैंने अपनी दिनचर्या व्यवस्थित रूप से शुरु रखी। अनजाना बनकर मैं अपनी पूजा-अर्चा और धर्म-चर्चा में लगा रहा। दोपहर तक मेरे बारे में कोई चर्चा नहीं हुई। शाम को गाँव में बात उठी कि एक बहुत ही गुणी साधु रामदेवजी के चबूतरे पर आया है और शंकररावजी नाडकर्णी साहब के गोविन्दा जैसा लगता है। पटवारी का बेटा बाबा हो जायेगा, यह कौन सोच सकता था? मुझे भी यह भनक पड़ी। पर लोग मुझसे छिपाकर बात करते रहे। मेरी माँ की तलाश करवाई गई पर वह मजदूरी के लिए कहीं गई हुई थी और उस रात वह मेरा समाचार नहीं पा सकी।

‘अन्ततः दूसरा सवेरा हुआ। मैं स्नान-ध्यान करके निबटा ही था कि एक बड़ी देहाती भीड़ के साथ माँ ने चबूतरे की तरफ कूच किया। मैंने पालथी मारकर आँखें मूँद लीं और समाधि का बहाना किया। माँ ने और गाँव़ के लोगों ने मुझे देखा और देखते ही वे ठिठककर खड़े रह गये। बातों के स्वर बुझ गए और स्वर, घुसुर-पुसुर में बदल गए। मैं आँखें मूँदे बैठा था पर एक-एक क्षण मुझे दीख रहा था। क्या हो रहा है, इससे मैं अछूता नहीं था। मुझे लगा कि माँ ठीक मेरे सामने खड़ी मुझे अपलक देख रही है। एक वाक्य माँ के मुँह से निकला -‘बाबाजी! आप जैसा ही मेरा एक बेटा दो बरस से कहीं खो गया है। पता चला है कि आप बड़े सिद्ध स्वामी हैं। आप आँखें खोलो तो मेरा बेटा.......’ मेरे मन की आप कल्पना कीजियेगा। माँ का वाक्य पूरा होना कठिन था। मेरी आँखें अविरल बह रही थीं और लगा कि यदि अब ज्यादा समय बीता तो मैं जी नहीं सकूँगा। मैंने बड़ी कठिनाई से आँखें खोलीं। 

‘आँखों का खुलना था कि माँ पछाड़ खाकर मेरी गोद में गिर पड़ी। चबूतरे पर  जितने लोग थे सबकी आँखों में आँसू थे। कई की हिचकियाँ बँध गईं। मैं माँ से लिपट गया। शायद माँ ने मुझे अपने जीवन में सर्वाधिक बार उसी दिन चूमा होगा। मुझे कुछ याद नहीं पड़ता कि मैंने क्या कहा और फिर कौन क्या बोला। मेरे मन ने मुझे एक बार धिक्कारा - ‘यदि में माँ के हाथों पिटता रहता तो मेरा क्या बिगड़ जाता?’ माँ को दो बरस तक जो असह्य पीड़ा मैंने दी उसका प्रायश्चित मैं आज तक नहीं कर पाया। आज न मेरी माँ है, न मेरे पिता। बड़े भाई ने मेरी सारी जिन्दगी उसके बाद सँवारकर मुझे इन्सान बना दिया है। आज मैं बेहद सन्तुष्ट और सुखी हूँ। भगवान का दिया मेरे पास सब कुछ है।’

मैंने पूछा - ‘दादा! यह तो बताओ माँ ने फिर पीटा या नहीं?’

दादा आँसू पोंछते हुए बोले, ‘भैया, अब इस सवाल का क्या उत्तर दूँ? हाँ, इतना जरूर है कि उस साल हमारे घर दीवाली खूब ठाठदार मनी।’

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‘कच्छ का पदयात्री’ बारहवाँ भाग यहाँ पढ़िए


किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी

  


यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।


 

 


   

   

      

   

 


  


 

 


 

 


 

   

      

 


 


 


 


   


 

 

 

 


  

  

  

   

   


   

  


    

 

      

 


      


 

 

 

 

  

 

  

 







 


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