गन्ने! मेरे भाई!!




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की ग्यारहवीं कविता 




गन्ने! मेरे भाई!!

इक्ष्वाकु वंश के आदि पुरुष!
गन्ने! मेरे भाई!
रेशे-रेशे में रस
और रग-रग में
मिठास का जस
रखोगे
तो प्यारे भाई गन्ने!
इक्ष्वाकु वंश के आदर्श!!
तुम्हारा वही हश्र होगा
जो होता आया है

पोरी-पोरी काटेंगे लोग तुम्हें
चूस-चूसकर खाएँगे
चरखियों में पेलेंगे
आखिरी बूँद तक
निचोड़ेंगे

किसी भी कीमत पर
तुम्हें जिन्दा नहीं छोड़ेंगे
तुम्हारे वल्कल जैसे
छिलकों तक को सुखाएँगे
तुम्हारे ही रस से
गुड़ या शक्कर बनानेवाली
भट्टी में ईंधन बनाकर
जलाएँगे।

तुम्हें कर देंगे राख
न तुम कुछ कर सकोगे
न कह सकोगे
अपनी ही मिठास की
आबरू के लिए
तुम जिन्दा नहीं रह सकोगे।

अपने जन्म से मृत्यु तक
तुम्हें यही सब
करना होगा
ये गुड़ और शक्कर
तुम्हारे बेटे बेटी
अस्मिता तुम्हारी मिठास
जीवित रहे
इसलिए रग-रग, रेशा-रेशा
रन्ध्र-रन्ध्र
तुम्हें मरना होगा।

कोई नहीं मनाएगा
तुम्हारा जन्मदिन
या तो अपना
या अपने बाल-बच्चों
दोस्त-यारों, नातेदारों, खातेदारों
का मनाएगा
और एक-दूसरे का मुँह
मीठा करने -कराने की रस्म में
तुम्हारे बाल बच्चों तक
को खाएगा।

रस और जस के साथ
जीना बहुत मुश्किल है
गन्ने! मेरे भाई!!
तुम्हारे रस पर
मैं निछावर
और तुम्हारे अनन्त
उत्सर्ग भरे जस पर
हार्दिक बधाई!
-----





संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.