जबलपुर से एक परिचित वकील सा‘ब का फोन आया। बोले - ‘मेरे पास मेरे एक सीनीयर सर बैठे हैं। मैं इन्हें आपका ब्लॉग पढ़वाता रहता हूँ। आज इन्होंने मुझे आपके लिए एक आपबीती सुनाई। कहा कि वह मैं आपको सुना दूँ। सर का कहना है कि सुनने के बाद इनकी यह आपबीती लिखने से खुद को रोक नहीं पाएँगे। मैंने सर से कहा कि खुद ही आपसे बात कर लें। मैं फोन सर को दे रहा हूँ।’
वकील साहब की आपबीती सचमुच में ऐसी है जिसे लिखने से कोई नहीं रुक पाए। उनकी बात मैं लिखूँ इससे बेहतर है कि उनकी यह आपबीती उन्हीं की जबानी सुन लें।
“मैं महाकौशल के एक जिला मुख्यालय पर रहता हूँ। वहीं वकालात करता हूँ। इस समय मेरी उम्र साठ के आसपास है। जो केस आपको सुना रहा हूँ वह मेरी लाइफ का टर्निंग पवाइण्ट रहा। मेरी जिन्दगी बदल गई।
“कोई अट्ठाईस, तीस बरस पहले की बात है। वकालात में मेरी पहचान बन गई थी। क्रिमिनल लॉ मेरा पसन्ददीदा सब्जेक्ट था। मैं लॉ भी पढ़ता और क्रिमिनल केस स्टडी भी करता। धीरे-धीरे यह मेरी पहचान बन गया। अपराधियों की जमानत कराना और अपने नालेज और लॉजीकल स्किल के दम पर उन्हें एक्विट कराने में एक्सपर्ट माना जाने लगा। जिले के नामचीन क्रिमिनलों का मेरे घर पर आना-जाना बना रहता। जिनके नाम से लोग थर्राते थे उनसे मेरा याराना हो गया। मेरी पीठ पीछे लोग मुझे ‘क्रिमिनल लॉ लायर’ के बजाय ‘क्रिमिनल लायर’ कहते थे। मालूम मुझे सब था लेकिन मैं किसी की परवाह नहीं करता था। मुँहमाँगी तगड़ी फीस तो मिलती ही थी, मेरे बहुत सारे काम इसी कारण चुटकी बजाते हो जाते।
“मुझे डीजे कोर्ट का एक केस मिला। पहली नजर में केस बहुत ही मामूली, बहुत ही छोटा था। इसके इसी मामूलीपन, छोटेपन ने मेरा ध्यान खींचा। एक आदमी से साढ़े तीन सौ ग्राम गाँजा पकड़ा गया था। लोअर कोर्ट ने सजा दे दी थी। यूँ तो बात बहुत बड़ी नहीं थीं लेकिन जिसे सजा दी गई थी, उसके कारण मामला इम्पार्टण्ट हो गया था। अपराधी बहुत खूँखार था। पूरे इलाके के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था। एडमिनिस्ट्रेशन के लिए वह एक चेलेंज बन गया था। उसकी क्रिमिनल हिस्ट्री के लिहाज से उससे साढ़े तीन सौ ग्राम गाँजा बरामद होना और उसे सजा हो जाना ही सबसे बड़ा सरप्राइज था। इतने बड़े और खूँखार क्रिमिनल के लिए तो यह बेइज्जती जैसी ही बात थी।
“एक इसी फेक्ट ने मुझे क्यूरीयस बनाया। मैंने पूरा केस बार-बार पढ़ा। मुझे हैरत हो रही थी - ‘ऐसे मामलों में अपने क्लाइण्ट को एक्विट कराना तो चुटकी बजाने से भी कम का काम होता है! फिर, इस केस में आखिर ऐसा क्या है?’ बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। मुझे समझ आ गया कि पूरा मामला पुलिस का बनाया हुआ है। पुलिस पर ऊपर से दबाव था - ‘किसी भी तरह इसे एक बार जेल भेजो। एक बार अन्दर गया तो फिर कभी बाहर न निकले, ऐसी व्यवस्था कर लेंगे। जैसे ही छूटेगा, जेल के दरवाजे पर ही दूसरे गुनाह में गिरफ्तार कर फिर अन्दर कर देंगे।’ इसी प्लान के तहत इसे सजा हुई थी। पुलिस ने इस मामले में फुल-प्रूफ प्लान बनाया और उसे अंजाम तक पहुँचाया।
“मामले में कुल पाँच गवाह थे। पाँचों के पाँचों पक्के। पब्लिक प्रासीक्यूटर ने मानो अपना सारा जोर इसी मामले में लगा दिया था। पुलिस ने पूरी चौकसी बरती। एक भी गवाह टूटना तो दूर, एक हर्फ से भी इधर-उधर नहीं हुआ। सब कुछ ‘किसी वेल रिहर्स्ड, टाइट ड्रामा’ की तरह हुआ। यह केस मुझे इण्टरेस्ि टंग तो लगा ही, चेलेंजिंग भी लगा। सोच लिया - ‘इसे फीस के लिए नहीं, खुद को प्रूव करने के लिए लड़ना है।’
“डीजे साहब नए-नए आए थे। उनकी पहचान उनके आने से पहले ही पहुँच चुकी थी। बड़े सख्त मिजाज। जल्दी से जल्दी मामला निपटानेवाले। यह, ‘मामला जल्दी निपटानेवाली बात’ ही मुझे सबसे बड़ी बाधा लगी। मुझे, ‘प्रोफेशनल नालेज’ को एक तरफ सरका कर पहले इसका तोड़ ढूँढना था।
“लोअर कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने का आखिरी दिन तेजी से पास आता जा रहा था। मैंने सबको टटोलना शुरु किया। मुकदमे में मेरा नाम सामने आते ही पुलिस अतिरिक्त सजग हो चुकी थी। यह केस जिस तरह से मेरे लिए चेलेंजिंग था, मेरा नाम सामने आने के बाद पब्लिक प्रासीक्यूटर के लिए उससे भी अधिक चेलेंजिंग था। पुलिस की चुस्ती, चौकन्नापन ऐसा कि गवाह तो क्या गवाहों के परिजन भी नजर आने बन्द हो गए। गवाह मिल भी जाते तो उनका न टूटना तय था। केस में कुछ नया कहने, नया पेश करने की गुंजाइश तिनके बराबर भी नहीं। चारों ओर इसी केस के चर्चे।
“मुझे हर दिन, अपील करने का आखिरी दिन लगने लगा। मैंने केस ले तो लिया लेकिन अब करूँगा क्या? इन डीजे साहब के सामने मेरा पहला केस था। ऐसा कुछ भी करने सोच भी नहीं सकता था जिसकी वजह से मेरे बारे में वे नेगेटिव ओपीनीयन बना लें। कुछ भी नहीं सूझ रहा था। एक बार विचार आया - मुकदमा लड़ने से इंकार कर दूँ। लेकिन यह भी मुमकिन नहीं था। एकान्त में मैं खुद को ‘साँप छछूूॅूँदर’ वाली पोजीशन में पाता।
“लेकिन जहाँ चाह, वहाँ राह। मैंने एक रास्ता तलाश लिया। मुझे ‘नालेज’ नहीं ‘स्किल’ से काम लेना होगा। मैंने वही किया। पूरी सुनवाई के दौरान ‘नार्मल एण्ड नेचुरल’ बना रहा। एक बार भी लम्बी तारीख नहीं माँगी। डीजे साहब ने जो कहा, जैसा कहा, वह, वैसा ही माना। मैंने कोई नया सबूत पेश नहीं किया न ही कोई गवाह टूटा। सब कुछ वैसा का वैसा ही रहा जैसा लोअर कोर्ट में था।
“जल्दी ही फैसले का दिन आ गया। डीजे कोर्ट रूम पूरा
भरा हुआ था। मेरे क्लाइण्ट से जुड़े लोग तो गिनती के थे बाकी सब वकील ही वकील। मुझे खबर मिली कि फैसला जल्दी से जल्दी जानने के लिए कलेक्टर और एसपी भी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के पास वाले डाक बंगले पर बैठे हैं।
“मेरे केस का नम्बर आया। डीजे साहब ने अपना, रिटन डिसीजन पढ़ना शुरु किया। बहुत बड़ा नहीं था। लेकिन जैसे ही अन्तिम पैराग्राफ आया, डीजे साहब रुके। गम्भीर मुद्रा और निराश, थकी आवाज में बोले - ‘अब मैं जो पढ़ने जा रहा हूँ, वह एक फैसला मात्र है, न्याय नहीं (नाऊ व्हाट आई एम गोइंग टू रीड, इज ए मीअर डिसीजन, नाट द जस्टिस)। और उन्होंने बेमन से कुछ इस तरह पढ़ा - ‘लोक अभियोजक, अपराध असंदिग्ध रूप से प्रमाणित नहीं कर सके। न्यायालय के सामने आरोपी को दोष मुक्त करने के सिवाय और कोई चारा नहीं।’ कह कर डीजे साहब उदास मुख-मुद्रा में अपने चेम्बर में चले गए।
“डीजे साहब का जाना था कि कोर्ट रूम में कोहराम मच गया। मानो बम फट गया। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं कामयाब हो गया हूँ। सब हैरान थे। वकील एक के बाद एक मुझे ग्रीट कर रहे थे। मैं धरती पर नहीं था। चारों ओर मैं ही मैं था। अपनी कामयाबी पर मुझे गर्व हो रहा था।
लेकिन आत्म-मुग्धता में मैंने कल्पना भी नहीं की यह समाप्ति नहीं, शुरुआत है। मेरी जिन्दगी की दशा और दिशा बदलने की शुरुआत।
“दो दिनों के बाद मुझे डीजे साहब ने शाम को अपने बंगले पर बुलाया। उन्होंने जो कहा, उसका एक-एक शब्द आज, कोई तीस बरस बाद भी मेरे कानों में गूँज रहा है। धीर-गम्भीर आवाज में उन्होंने कहा - ‘तुम मेरे बड़े बेटे की उम्र के हो। तुमने जो कुछ किया उससे मुझे फिक्र हो रही है कि कहीं मेरा बेटा भी ऐसा ही न करने लगे। तुमने जो किया, अच्छा नहीं किया। तुमने अपने अनुभव और ज्ञान का उपयोग किया होता तो मैं तुम्हें वहीं, फैसला सुनाते हुए, कुर्सी से ही बधाई देता। किन्तु तुमने चतुराई बरती। मुझे खुद पर गुस्सा और खीझ हो रही है कि तुम्हारी चतुराई मुझे बहुत देर से समझ में आई। तुमने प्रक्रिया की कमजोरी का फायदा उठाया। जो गवाही एक दिन में पूरी हो सकती थी, तुमने तीन-तीन दिन में पूरी की। बेशक तारीख तुमने वही मानी जो मैंने दी थी। लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया, यह मुझे तब समझ में आया जब तुमने, अपनी जिरह यह कह कर समाप्त की कि कोर्ट में पेश किया गया गाँजा वह गाँजा है ही नहीं जो जप्त किया गया था। तुम्हारी इस दलील ने मुझे चौंका दिया था। लेकिन जब गाँजा तुलवाया गया तो वह पौने तीन सौ ग्राम के आसपास निकला, साढ़े तीन सौ ग्राम नहीं। दूसरे लोगों की छोड़ो, खुद मैं ही हक्का-बक्का रह गया। ऐसा कैसे हो गया? यह ऐसा ‘वस्तुपरक तथ्य’ (मटीरीयल फैक्ट) था जिसकी अनदेखी करना मुमकिन ही नहीं था। अब समझ में आया कि हर पेशी पर, गवाह से जिरह करते समय तुम जप्त गाँजे की पोटली खुलवा कर, गाँजे को चुटकी में मसलते हुए गवाह से पूछते थे - ‘क्या यह वही गाँजा है जो जिसकी जप्ती के पंचनामे पर तुम्हारे दस्तखत हैं?’ तो उसका मतलब क्या होता था। तुमने हर पेशी पर, गवाह से की गई हर जिरह में इस तरह चुटकियों से मसल-मसल कर गाँजे की मात्रा कम कर दी। और तुम यह सबित करने में कामयाब हो गए कि जो गाँजा जप्त करने का आरोप है, वह गाँजा तो है ही नहीं। तुमने मुकदमे की नींव ही ढहा दी। लेकिन याद रखो, तुम मुकदमा जरूर जीत गए, जिन्दगी हार गए। वकील जीत गया, वकालात का प्रोफेशन, उसकी पवित्रता हार गई।’
“मुझे काटो तो खून नहीं। मैं तो इस उम्मीद से आया था कि डीजे साहब जो बधाई कोर्ट में नहीं दे सके वही बधाई मुझे यहाँ मिलेगी। लेकिन यहाँ तो सब कुछ उल्टा हो गया। उन्होंने मेरी चोरी पकड़ ली थी। मुझे लग रहा था मैं अपनी आँखों अपना पोस्टमार्टम होते हुए देख रहा हूँ।
“डीजे साहब रुके नहीं। बोले - ‘जिन्दगी तुम्हारी है। इसे कैसी बनाना, यह तुम ही तय करोगे। लेकिन जिन लोगों को तुम बचा रहे हो वे दुधारे हथियार हैं। वे किसी के सगे नहीं होते। जिस दिन तुम उनकी उम्मीद पूरी नहीं कर पाओगे उस दिन सबसे पहले वे तुम पर ही वार करेंगे। तब तुम्हें कोई नहीं बचा पाएगा। उनकी दी हुई फीस भी किसी काम नहीं आएगी। परसों जिसे तुमने छुड़ाया है, तुम जानते हो वह पूरे समाज के लिए परेशानी बना हुआ है। कभी सोचना कि कितने लोगों की बददुआएँ तुम्हें लगेंगी। सोचना कि उस एक आदमी के कारण कितने लोग अपनी नींद नहीं सो पाएँगे। अभी तुम्हारी शुरुआत है। एक तो जवानी और उस पर कामयाबी। मनमाफिक मिल रहा पैसा अलग। तुम बौरा रहे हो। ये सब मिलकर तुम्हारी जिन्दगी कहीं नरक न बना दें। लोगों की दुआएँ असर करे न करे, बददुआएँ जरूर असर करती हैं। अभी जवान हो। प्रतिभावान हो। मेहनती भी हो यह तो इस केस में मैं देख ही चुका हूँ। अभी पहाड़ जैसी जिन्दगी बाकी है। जिस इलाके का मैं रहनेवाला हूँ, वहाँ कहा जाता है - ‘जैसा खाए धान, वैसा आए भान।’ आज अपराधियों को बचा रहे हो। कल कहीं खुद ही अपराधी न बन जाओ। मैं भगवान से तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगा कि तुम्हें सद्बुद्धि दे। अपनी कृपा तुम पर बरसाए। तुम सपरिवार स्वस्थ, सुखी, प्रसन्न, सकुशल रहो। अब जाओ। फिर कभी आने को जी करे, अपना घर समझ कर आ जाना।’
“उसके बाद क्या हुआ, मुझे याद नहीं। मैं कब उठा, कब डीजे साहब के बंगले से निकला, किस रास्ते से, कैसे अपने घर पहुँचा, रास्ते में कौन मिला, किससे जुहार की। मुझे कुछ याद नहीं। उस रात सो नहीं पाया। मेरी शकल और दशा देख कर पत्नी घबरा गई। मुझसे बार-बार पूछे लेकिन मेरे मुँह से बोल नहीं फूटे। फटी आँखों उसे देखूँ। वह भी रात भर सो नहीं पाई। रोए और रोते-रोते अपने ईष्ट-आराध्य को जपती-भजती रही।
अगली सुबह सब कुछ बदला हुआ था। मैंने खुद से वादा किया - अपराधियों के और दोषियों के मुकदमे नहीं लूँगा। स्कूल के दिनों में पढ़ी हुई गाँधीजी की कहानियाँ याद आईं। उन्होंने लिखा था कि वे, पक्षकार के निर्दोष होने की खातरी कर लेने के बाद ही मुकदमा लेते थे।
“उसी क्षण मैंने अपने फैसले पर अमल करना शुरु कर दिया। लेकिन फैसला लेना जितना आसान था, उसे निभाना उससे कई गुना कठिन साबित हो रहा था। शुरु-शुरु में तो कोई विश्वास करने को ही तैयार नहीं हुआ। कई परमानेण्ट क्लाइण्ट गुण्डे-बदमाश नाराज हुए। दो-एक ने तो ‘अंजाम अच्छा नहीं होगा’ की धमकी दी। मुझे बहुत डर भी लगा। लेकिन मैं अपने संकल्प पर कायम रहा। कोई दो-ढाई साल मुश्किल के निकले। रुपये-पैसों की तो कमी नहीं हुई लेकिन फुरसत में बैठना पड़ा। लेकिन धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी। मेरी पहचान बदली तो आनेवाले भी बदल गए। ‘हैलो बॉस’ की जगह ‘जुहार साहेब’, ‘जै रामजी की साहेब’, ‘खुस रहा साहेब’ सुनाई देने लगा।
“लोग ऐसी बातें भूल जाना चाहते हैं बैरागीजी! लेकिन मैं कुछ भी नहीं भूलना चाहता। एक शब्द भी नहीं। उन डीजे साहब ने मेरी जिन्दगी बदल दी। मेरा चोला बदल दिया। वकीलों की नई फसल को उनका कहा, सुनाता हूँ। उन्हें जो करना हो वे करें। लेकिन मैं मन ही मन खुश होता हूँ। ये जो खुशी मिलती है ना बैरागीजी! उसका आनन्द ही अलग है। आत्मा तृप्त हो जाती है। सच का रास्ता कितना आनन्द देता है, यह कोई मुझसे पूछे।
“अब कहिए बैरागीजी! कैसी लगी मेरी आपबीती? लिखने काबिल है कि नहीं? लिखेंगे? मेरी रिक्वेस्ट है, जरूर लिखिएगा। आपका मन नहीं करे तो भी लिखिएगा। लिखने के बाद मुझे बताईएगा कि आपको आनन्द आया या नहीं। आपको तृप्ति मिली या नहीं।”
मैंने उन्हें हाँ या ना कोई जवाब नहीं दिया। वे ठठाकर बोले - “अब तो यह भी याद नहीं कि इन बीस-तीस बरसों में यह आपबीती किस-किस को, कितनी बार सुनाई। लेकिन हर बार ऐसा ही हुआ - सुननेवाला बोलने की हालत में नहीं रहा। बिलकुल जैसे कि अभी आप हो गए हो। अच्छा! मेरी बात सुनने के लिए धन्यवाद। नमस्कार।”
मैं सन्न था। मन्त्रबिद्ध की तरह। मानो एक जिन्दगी जी गया। देर तक मोबाइल कान पर लगा रहा। उसके बाद सबसे पहला काम जो किया वह आपके सामने है।
बताइए! इस बात को खुद तक ही रख लेंगे या.........?
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बहुत हैं उत्तम।
ReplyDeleteअनुकरणीय बोध जीवनी
ReplyDeleteआज के स्टेटस में आपको संबोधित
सादर प्रणाम
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति नहीं रहे सुपरकॉप केपीएस गिल और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteमुझे विस्तारित करने के लिए आभारी हूँ। कोटिश: धन्यवाद और आभार।
DeleteBahut Sunder Anubhuti hui. Dhanyawad.
ReplyDeleteBahut Sunder Anubhuti hui. Dhanyawad.
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