आज का अखबार देख कर चुन्नी सेठ से हुई मुलाकात याद आ गई। उनके बुलावे पर पहुँचा था। वे कस्बे के जाने-माने केटरर मंगल से बात कर रहे थे। सामने एक खुली डायरी और कुछ कागज रखे थे। वे कह रहे थे - ‘देख भई मंगल! विजय और रजत ने सब बातें तय कर ही ली हैं। लेकिन मैंने दो-तीन बातों के लिए बुलाया है। पहली - भोजन स्वादिष्ट हो। दूसरी - भोजन कम नहीं पड़े। तीसरी - सर्विस बढ़िया हो। कहीं ऐसा न हो जाए कि अन्दर सामान पड़ा रह जाए और लोग भूखे चले जाएँ। चौथी बात जिसके लिए तुझे खास बुलाया है। आजकल रसोई में रोटी बनाने का चलन है। ऐसा नहीं कि मुझे रोटी पसन्द नहीं लेकिन रोटी को लेकर जो मारा-मारी होती है वह मुझे बिलकुल पसन्द नहीं। लोग तन्दूर के सामने खाली प्लेट लिए, तरसी नजरों से देखते खड़े रहते हैं। रोटियाँ आती हैं गिनती की और लेनेवाले बीस-पचीस। लोग जिस तरह टूट कर छीना-झपटी करते हैं वह देख कर मन खट्टा हो जाता है। ऐसा तो किसी अन्न क्षेत्र में भी नहीं होता। वहाँ भी तसल्ली से रोटी मिल जाती है। वो सब मेरे यहाँ नहीं होना चाहिए। एक भी आदमी रोटी के लिए खाली प्लेट लिए खड़ा रहे तो धिक्कार है अपने को। ऐसे बुलाने से तो नहीं बुलाना अच्छा। सारा इन्तजाम और किया-कराया बेकार। तन्दूर और कारीगर का खर्चा बचाने में तुम लोग मेहमानों को भिखारी बना देते हो। तुझे भले ही आठ-दस तन्दूर लगाने पड़े, लगा लेना। दो-चार हजार रुपये ज्यादा ले लेना लेकिन मेरे यहाँ वो सीन नहीं होना। और देख! झूठ-मूठ की हाँ मत भर लेना। मैं खुद खड़ा रह कर यह सब देखूँगा। यही कहने के लिए तुझे बुलाया।’ कस्बे के फन्ने खाँओं की जबान भी जिनके सामने नहीं खुले, उनके सामने मंगल क्या बोले! नजरें और माथा झुकाए, धीमी आवाज में ‘जी बाबूजी।’ बोल कर रह गया। ‘ठीक है। अब जा।’ कह कर चुन्नी सेठ ने मेरी ओर ध्यान दिया। मुझे बैठने का इशारा किया। नजरें मंगल पर ही थीं। वह दरवाजे पर पहुँचा ही था कि चुन्नी सेठ ने हाँक लगाई - ‘भूलना मत मैंने जो कहा। एक भी मेहमान रोटी के लिए खाली प्लेट लिए खड़ा न रहे।’ मंगल ठिठका। गर्दन घुमा कर मुण्डी हिलाई और तेजी से दरवाजा पार कर गया।
‘आओ बैरागीजी! बिराजो!’ कह कर चुन्नी सेठ ने अपने सामने के कागज मेरी ओर बढ़ा दिए। ‘आपके पोते रजत का ब्याह है। दस दिसम्बर को। उसी की तैयारी है। आप बड़े लोगों के फंक्शनों में जाते रहते हो। ये लिस्टें नजर से निकाल लो। कोई कमी नहीं रह गई हो।’ इक्कीस डिग्री तापमान पर वातानुकूलित उस कमरे में मुझे पसीना आ गया। बन्दर से अदरक का स्वाद बताने को कह रहे हैं। इज्जत दे रहे हैं या परीक्षा ले रहे हैं? लेकिन जहाँ दया याचिका पर भी सुनवाई न हो वहाँ न बोलना ही समझदारी। कागज देखते हुए बोला - ‘दिसम्बर तो बहुत दूर है भैयाजी! आप बहुत जल्दी नहीं कर रहे?’ ‘कहाँ दूर है? वक्त यूँ चुटकी बजाते निकल जाता है। और जल्दी भी है तो क्या बुराई है। मकान बनाना और ब्याह रचाना - दोनों बराबर। कभी पूरे नहीं होते। कोई न कोई कमी रहती ही है। यदि वक्त हाथ में है तो तैयारियाँ बार-बार देखने में क्या हर्ज है? कमी तो रहेगी। लेकिन कमी भी कम से कम हो, यह कोशिश करने में हर्ज ही क्या है? आनेवाला भले ही घड़ी भर को आए लेकिन उसे लगना चाहिए कि अपन ने उसकी फिकर की। बाकी तो जो है सो है ही।’
कागजों में एक सूची ने मेरा ध्यानाकर्षित किया- ‘बारीक और मोटा धागा। दोनों की सुइयाँ। छोटी और बड़ी कैंचियाँ। सुतली। (सुतली पिरोने का) सुइया/सूया। टोंचा (पोकर)। आम के पत्ते।’ मैंने कहा - ‘यह सब क्या है?’ चुन्नी सेठ बोले - ‘लड़की वाले यहाँ किसी को नहीं जानते। यहाँ कहाँ, क्या है, उन्हें क्या मालूम। सब कुछ अपने को ही करना है। यह उनके लिए ही है।’ ‘लेकिन ये आम के पत्ते?’ ‘बड़े पोते की लाड़ी निमाड़ की है। पिछली बार लड़कीवालों ने आम के पत्ते अचानक माँग लिए थे। बहुत भाग दौड़ करनी पड़ी थी इन पत्तों के लिए। छोटी लाड़ी भी निमाड़ की ही है। इनको भी आम के पत्ते लगेंगे ही। इसलिए लिखे।’ मुझे जवाब मिला। जैसे-तैसे अपनी जवाबदारी निभा कर लौटा।
आज के अखबार ने मुझे विचार में डाल दिया। पाँच रुपयों के नाम मात्र मूल्य पर गरीबों को एक समय का भोजन उपलब्ध कराने के लिए शिवराज सरकार ने कोई डेड़ महीना पहले ‘दीनदयाल अन्त्योदय रसोई योजना’ शुरु की। शुरु के दिनों में सब ठीक-ठाक चला। आज ‘सरकारी रसोई बंद होने की कगार पर, 15 दिन पहले चावल, 10 दिन पहले गेहूं खत्म’ शीर्षक से चार कॉलम समाचार छपा है। समाचार के मुताबिक प्रतिदिन 270-300 लोग भोजन कर रहे हैं। सरकार ने इसकी ओर से आँखें मूँद ली है। पखवाड़ा पहले चाँवल, दस दिन पहले गेहूँ खत्म हो गए हैं। ठेकेदार बाजार भाव पर यह सब खरीद कर लोगों को भोजन करा रहा है। गैस टंकी के लिए डायरी बनी ही नहीं है। ठेकेदार रोज 1300-1500 रुपये खर्च कर गैस की कमर्शियल टंकी खरीद रहा है। ‘दीनदयाल रसोई’ की शुरुआत 7 अप्रेल को हुई। उस दिन भी गेहूँ-चाँवल ठेकेदार ने खरीदा था। आठ अप्रेल को अप्रेल-मई महीनों के लिए नगर निगम ने 17 क्विण्टल गेहूँ और 7 क्विण्टल चाँवल दिया। उसके बाद से किसी ने पलट कर नहीं देखा। न नगर निगम ने न जिला प्रशासन ने। सात आदमी काम कर रहे हैं जिनका वेतन 40 से 42 हजार रुपये है। प्रतिदिन एक (कमर्शियल) गैस टंकी लगती है। जब गेहूँ-चाँवल ही नहीं मिल रहे तो तेल, दाल, नमक की बात कौन करे। एकदम निल बटा सन्नाटा। कलेक्टर की सलाह है कि मदद के लिए ठेकेदार भी समाजसेवियों से सम्पर्क करे।
समाचार में मुझे चुन्नी सेठ नजर आ रहे थे। रसूख और हैसियतवाले आदमी हैं। एक आवाज पर काम करनेवालों की फौज खड़ी कर सकते हैं। फोन करेंगे तो कस्बे के तमाम व्यापारी मुँह-माँगा सामान पहुँचा देंगे। काम भी बहुत बड़ा नहीं है। दो दिन का जलसा है। मुख्य भोजन तो एक ही है। वक्त भी खूब है - 6 महीने। भोजन करनेवालों की संख्या भी लगभग तय है। लेकिन चुन्नी सेठ अभी से हलकान हुए जा रहे हैं। इधर सरकार है जिसे पता है कि वह रोज दो समय के भोजन का उपक्रम शुरु कर रही है। आजीवन नहीं तो 2018 के चुनावों तक तो यह उपक्रम चलना ही है। इतना सब कुछ साफ-साफ मालूम होने के बाद भी सरकार और नगर निगम की खाल पर सिहरन भी नहीं हो रही। मुख्यमन्त्री की और पार्टी की फजीहत हो रही है लेकिन पार्टी के लोगों को भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा। एक चुन्नी सेठ हैं जो लोगों को बुलाने से पहले ही दुबले हुए जा रहे हैं और इधर, चुन्नी सेठों को हाँकनेवाली सरकार है जिसने गाँव जीमने बुला लिया लेकिन चूल्हे के पते नहीं।
यह, सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारी सरकारों की चिन्ता की असलियत है। बात जब भूखों का पेट भरने की हो और योजना को अपने पितृ पुरुष का नाम दे रहे हों तो जवाबदारी और चिन्ता के मामलों में इन्हें चुन्नी सेठ का सौ गुना होना चाहिए।
क्यों नहीं हो रहे? कोई जवाबदार होता तो यह सवाल पैदा होता?
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(दैनिक 'सुबह सवेरे',भोपाल में 25 मई 2017 को प्रकाशित)
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ReplyDeleteसारी योजनाएं सिर्फ प्रचार के लिए होती है जब शुरू होती है तो सारे अख़बार में चर्चा होती है पर बाद की परेशानियां या तो छापते नहीं या छोटे से कॉलम में छाप देते।
ReplyDeleteचुन्नी सेठ हो या धन्ना सेठ पब्लिसिटी होना चाहिए
ReplyDeleteचुन्नी सेठ हो या धन्ना सेठ पब्लिसिटी होना चाहिए
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