पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी -2

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  

पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी - 1


- अटल तिवारी -

इस तरह पत्रकारिता के लिए आपातकाल वाला दशक सबसे अधिक नुकसानदायक रहा। आपातकाल के बाद सत्ता में आने वाली जनता पार्टी सरकार के सूचना एवं प्रसारण मन्त्री लालकृष्ण आडवाणी ने अभियान चलाकर पत्रकारिता में एक खास विचारधारा के लोगों को प्रमुख पदों पर नियुक्त कराया, जिसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे समाचार पत्रों में उस खास विचारधारा के लोगों की बहुतायत हो गई। यही वजह है कि जब मण्डल के बाद कमण्डल का दौर आया तो पत्रकारिता, खासकर हिन्दी पत्रकारिता में उक्त विचारधारा वालों ने पत्रकार कम बल्कि विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और संघ के कार्यकर्ता वाली भूमिका ज्यादा निभाई। दूसरी ओर उर्दू पत्रकारिता में पत्रकारों ने पत्रकार कम बल्कि मुस्लिम लीग से जुड़े होने का परिचय अधिक दिया। इन पत्रकारों ने गाँधी की उन पंक्तियों को भी याद नहीं रखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अपनी निष्ठा के प्रति ईमानदारी बरतते हुए मैं दुर्भावना या क्रोध में कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं निरर्थक नहीं लिख सकता। मैं केवल भावनाओं को भड़काने के लिए भी नहीं लिख सकता। लिखने के लिए विषयों तथा शब्दावली को चुनने में मैं हफ्तों तक जो संयम बरतता हूं, पाठक उसकी कल्पना नहीं कर सकता।’ राम मन्दिर-बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली पत्रकारिता की बात लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में भी विस्तृत रूप से कही गई है। रिपोर्ट का सार है कि पत्रकारिता ने तटस्थ रूप से काम करने के बजाय लोगों को भड़काने का काम किया। एक बात ध्यान देने वाली है कि अगर किसी खास विचारधारा के लोगों को नियुक्त किया जाता है तो उसका असर तत्काल नहीं बल्कि आने वाले समय में देखने को मिलता है। इसकी गवाही मन्दिर-मस्जिद विवाद के साथ ही मुम्बई, गुजरात से लेकर मुजफ्फरनगर दंगे तक में की जाने वाली पत्रकारिता से मिलती है। ऐसी पत्रकारिता करने वाले पत्रकार और सम्पादकों के लिए पराड़करजी की चन्द पंक्तियां फिट बैठती हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘यदि हममें योग्यता हो और यदि सचमुच हम कुछ देश सेवा करना चाहते हों तो हमें अपने पत्रों में सदा सर्व प्रकार से उच्च आदर्श को स्थान देना चाहिए। पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरणमूलक अपराधों का चित्ताकर्षक वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रुचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं।’ आज यही काम अधिकांश पत्रकारिता कर रही है। वह देश भक्ति के नाम पर सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों को कठघरे में खड़ा कर रही है। उन्हें देशद्रोही बता रही है। अश्लील समाचारों को महत्व दे रही है। अपराधियों का महिमामण्डन कर रही है। उसे नहीं पता कि गाँधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान प्रेस के सम्बन्ध में कहा था ‘राष्ट्रीय संस्थाओं और राष्ट्रीय नीतियों की ईमानदारी से आलोचना करने से राष्ट्रीय हितों को कभी नुकसान नहीं होगा।’ इतना ही नहीं नागरिकों को किसी विचार अथवा नीतियों से असहमति जताने का अधिकार सम्विधान से मिला है। इसके बावजूद मौजूदा समय में असहमति जताने वालों को कुछ ज्यादा ही निशाना बनाया जा रहा है और ऐसा करने वालों को सरकार की तरफ से भी अपरोक्ष रूप से शह मिली है।

कमण्डल के दरम्यान ही लागू की जाने वाली भूमण्डलीकरण की नीतियों ने देखते ही देखते भारतीय पत्रकारिता का पूरा परिदृश्य बदल दिया। समाचार पत्रों के राज्य संस्करण, जिलेवार संस्करणों में तब्दील हो गए। जिलेवार संस्करणों को भरने के लिए कुछ भी प्रकाशित किया जाने लगा। गम्भीर बातों को नजरअन्दाज करके लफंगों को महत्व दिया जाने लगा। आज स्थिति यह है कि अगर 15 से 20 लफंगे आपके बनाए बनते हैं, जो किसी भी मसले पर जिन्दाबाद-मुर्दाबाद नारे लगा सकते हों, किसी के ऊपर जूता फेंक सकते हों, किसी के चेहरे पर स्याही फेंक सकते हों, पाकिस्तान को औकात बता देने वाली भाषा बोल सकते हों तो आप किसी भी समाचार पत्र के पृष्ठ पर सुशोभित हो सकते हैं। किसी भी टीवी न्यूज चैनल के प्राइम टाइम में मेहमान हो सकते हैं। अचानक आपकी पूछ बढ़ जाती है। आप अपने में गौरवान्वित महसूसते हैं।

दूसरे प्रेस आयोग ने कहा था कि भारतीय भाषाओं, स्थानीय तथा अन्य छोटे और मध्यम समाचार पत्रों के विकास में योगदान देना जरूरी है। आयोग का मानना था कि ऐसा होने से पत्रकारिता में विविधता बनी रहेगी। मोनोपाली का खतरा नहीं होगा। लेकिन आयोग की इस सिफारिश पर किसी भी दल की सरकार ने तवज्जो नहीं दी। आज करीब 38 साल बाद आयोग की आशंका पूरी तरह सच साबित हो रही है। भारतीय पत्रकारिता में कुछ कारपोरेट घरानों का एकाधिकार हो चुका है। चन्द मीडिया घरानों ने पत्रकारिता के अधिकांश क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। देश के प्रिण्ट मीडिया पर 9 बड़े मीडिया घरानों का प्रभुत्व हो चुका है। यही स्थिति इलेक्ट्रानिक मीडिया की भी है। मीडिया के इस बदले परिदृश्य में एक-एक घराने के कई-कई टीवी न्यूज चैनल हैं। एफएम रेडियो स्टेशन, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, वेबसाइट्स हैं। वे एक तरह के मीडिया एकाधिकार के तहत काम कर रहे हैं। यानी जिस खबर को वह चमकाना चाहते हैं वह चमकती है और जिसे मिटाना चाहते हैं वह फिर कहीं नहीं ठहरती। अगर यही हाल रहा तो आने वाले कुछ वर्षों में पूरी तरह से मीडिया एकाधिकार के हालात पैदा हो जाएँगे।

इक्कीसवीं सदी की पत्रकारिता में पत्रकारिता और लोकतन्त्र को चोट पहुँचाने वाली अनेक घटनाएँ घटी हैं। इसमें सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने वाली पेड न्यूज की कुप्रवृत्ति का सामने आना है। पेड न्यूज मतलब पैसा देकर प्रकाशित/प्रसारित कराई जाने वाली प्रचार सामग्री, जिसमें पाठक और दर्शक को यह तक न बताया जाए कि उक्त सामग्री खबर नहीं बल्कि विज्ञापन है। पेड न्यूज की शिकायतें पहले से रही थीं, लेकिन 2009 के आम चुनाव में ये भयावह रूप में सामने आईं। इसकी भयावहता को हरियाणा की एक घटना से समझा जा सकता है। उस समय राज्य में काँग्रेस की सरकार थी।  भूपेन्द्र सिंह हुड्डा मुख्यमन्त्री थे। चुनाव के दौरान काँग्रेस के विरोधी दल की रोहतक में एक छोटी सभा थी। उसकी खबर एक समाचार पत्र के पहले पृष्ठ पर छपी, जिसमें सभा में शामिल लोगों की संख्या अनेक गुना बढ़ाकर बताई गई थी। मुख्यमन्त्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने समाचार पत्र के मालिक को फोन किया। रैली के सम्बन्ध में प्रकाशित खबर के बारे में बात की तो जवाब मिला कि वह विज्ञापन था। जिसने पैसा दिया, उसका मजमून छप गया। समाचार पत्र के मालिक का जवाब सुनकर हुड्डा सन्न रह गए। उन्होंने पूछा कि ‘पैसा देकर क्या कोई कुछ भी छपवा सकता है?’ जवाब मिला-‘बिल्कुल, सामग्री का जिम्मा उसी का होता है।’ मैंने कहा-कल के अंक में पहला पूरा पृष्ठ हमारे लिए बुक कीजिए और एक पंक्ति बड़े-बड़े हर्फों में हमारे खर्च पर छापिए कि यह समाचार पत्र झूठा है। छापेंगे न? समाचार पत्र के मालिक बोले-आप कैसी बात कर रहे हैं?’ पेड न्यूज नामक बीमारी के शुरुआती दौर में लगा था कि इक्के-दुक्के समाचार पत्र ही इसकी गिरफ्त में हैं। मगर धीरे-धीरे ऐसी शिकायतें आम हो चलीं। देखते-देखते पेड न्यूज का सिलसिला एक ओढ़ी जाने वाली बीमारी की तरह अधिकांश समाचार पत्रों और टीवी न्यूज चैनलों को घेरता चला गया। कुछ सम्पादकों और पत्रकारों ने इसके खिलाफ अभियान चलाया। प्रेस परिषद से लेकर संसद की स्थायी समिति तक ने इसका अध्ययन किया। सभी ने पेड न्यूज को भारतीय लोकतन्त्र और पत्रकारिता के लिए खतरनाक माना।

पेड न्यूज के मामले में प्रेस परिषद की जाँच रिपोर्ट पर तत्कालीन यूपीए सरकार ने मन्त्री समूह गठित किया था। समूह ने इस मसले पर विचार किया। इसके बावजूद समूह की सिफारिशों को अन्तिम रूप नहीं दिया जा सका। इतना ही नहीं यह फैसला भी लिया गया था कि पेड न्यूज सम्बन्धी मन्त्री समूह को पुनर्गठित नहीं किया जाएगा। जब भी मुद्दे को आवश्यक समझा जाए, उपयुक्त मन्त्रिमण्डल समिति/मन्त्रिमण्डल के समक्ष रखा जाएगा। इस बात पर संसद की स्थायी समिति को बताया गया चूँकि मुद्दा सम्वेदनशील है और इस पर अन्तर-मन्त्रालयी परामर्श की जरूरत है, इसलिए मन्त्रालय ने पेड न्यूज सम्बन्धी समूह को पुनर्गठित करने के लिए मन्त्रिमण्डल सचिवालय से अनुरोध किया है। इस प्रकरण पर संसद की स्थायी समिति ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, ‘सरकार इस महत्वपूर्ण नीति की पहल पर निर्णय लेने में हिचक रही है, क्योंकि इस सम्बन्ध में आम चुनाव 2009 में ध्यान में आई कमियों पर पीसीआई (भारतीय प्रेस परिषद्/प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया) द्वारा नियुक्त समिति द्वारा जुलाई 2010 में की गई सिफारिशों पर निर्णय लेने में सरकार की विफलता उजागर हुई है। अतः समिति पुरजोर सिफारिश करती है कि मन्त्रालय पीसीआई (भारतीय प्रेस परिषद्/प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया) की रिपोर्ट पर शीघ्र कार्रवाई करे।’ असल में पत्रकारिता को लेकर जितने भी नियम-कानून बने हैं, उनको मीडिया घराने ठेंगा दिखाते रहे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि इन घरानों पर कानून लागू किए जाएँ। इसके लिए एक नियामक अधिकरण बने। यह संस्था बिना टालमटोल के मामलों में त्वरित फैसला ले। एक बात ध्यान रखी जाए कि नियामक अधिकरण की बात करते हुए हम मीडिया पर सरकारी हस्तक्षेप की वकालत नहीं कर रहे हैं। इसमें प्रिण्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रमुख लोगों को रखा जाए। उन्हें विषय वस्तु की जाँच करने और गलती पर चेतावनी देने फिर कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए। प्रेस परिषद की शक्तियों में इजाफा किया जाए। राव इन्द्रजीत की अध्यक्षता वाली समिति ने प्रेस परिषद की सिफारिशों पर फैसला न लेने के लिए सरकार के प्रति नाराजगी जाहिर की थी। समिति ने प्रेस परिषद का पुनरुद्धार करने पर बल देते हुए मीडिया, विशेषकर मीडिया की आय के स्रोत को सूचना का अधिकार के अधीन एवं लोकपाल विधेयक के दायरे में लाने की बात कही थी। सबसे अहम बात यह कि पेड न्यूज के तहत होने वाले फिजूलखर्ची को रोकने के लिए आगामी आम चुनाव से पहले ठोस कदम उठाए जाएँ। अगर इसका संज्ञान नहीं लिया गया तो अगले साल होने वाले आम चुनाव में इस बीमारी के और अधिक भयावक रूप लेने की आशंका है। 
(आलेख का शेष भाग तीसरी कड़ी में)
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा न्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)





अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता पढ़ाते हैं।
सम्पर्क - मोबा.: 098683 25191
ई-मेल: atal.tewari@gmail.com









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