हाँ, यह मैं ही हूं

मै हर्षातिरेक में गोते लगा रहा हूँ ।

दिल्ली और मुम्बई के अखबार, रतलाम में चैबीस घण्टे बाद मिलते हैं । 3 अक्टूबर का ‘जनसत्ता’ (दिल्ली) मुझे अभी-अभी मिला है । सम्पादकीय पृष्‍ठ सबसे पहले देखता हूँ । वही खोलने के लिए अखबार फैलाया तो सातवें पृष्‍ठ पर, तीन कालम में फैले समाचार-शीर्षक ‘ब्लाग के जरिए बढ़ रहा है संगीत का जुनून’ ने नजर पकड़ ली । ‘जनसत्ता‘ का पन्ना आठ कालम वाला नहीं, 6 कालम वाला होता है । याने, आधे पृष्‍ठ की चैड़ाई में है यह शीर्षक । समाचार भी अच्छे-खासे आकार का है - कोई एक चैथाई पन्ने की स्पेस वाला । संगीत जगत से जुड़े चार ब्लागर इसमें मुखर हैं - सर्वश्री यूनुस खान (रेडियोनामा), संजय पटेल (श्रोता बिरादरी, सुरपेटी), सागर नाहर और अशोक पाण्डे (कबाड़खाना) । ब्लाग के जरिए संगीत (और खास कर पुराने फिल्मी गीतों, गायकों, संगीतकारों, गीतकारों) को लगातार लोक जीवन में बनाए रखने के इन चारों के जुनून का विस्तृत ब्यौरा इस समाचार में दिया गया है । समाचार की उल्लेखनीय बात यह है कि इसे समाचार एजेन्सी ‘भाषा’ ने प्रसारित किया है । याने, यह समाचार किसी एक अखबार तक सिमट कर नहीं रह गया है, देश के अनेक अखबारों में छपा होगा ।

यह सब देख कर ही मैं मुदित और मगन हूँ ।

मेरा ब्लाग जीवन अभी अठारह माह का भी नहीं है लेकिन इसने मुझे थकने से बचने का रास्ता दिया है । जब भी कहीं, जहाँ भी कहीं, ब्लाग की चर्चा होती है, मुझे लगता है, न केवल मेरे परिवार की चर्चा हो रही है बल्कि मेरी ही चर्चा हो रही है ।

ब्लाग हमारे वर्तमान का उजला और अपरिहार्य भविष्‍य है । आने वाले दिनों में इसके बिना जी पाना असम्भव नहीं तो तनिक कठिन जरूर होगा । अच्छी बात यह है कि यह जीवन के प्रत्येक पहलू को छू रहा है - किसी एक विषय या विधा में कैद नहीं है । यह अपने आप में ऐसी विधा बन कर सामने आ रहा है जहाँ जिन्दगी अपनी सम्पूर्णता में धड़क रही है ।

सो, इन चारों ब्लाग-सपूतों ने आज मुझे हर्षातिरेक से ओतप्रोत कर दिया है । इनके इस पूरे समाचार में मैं कहीं नहीं हूँ ।

लेकिन यदि मैं नहीं हूं तो फिर कौन है ?

7 comments:

  1. अच्छा है - इन सज्जनों को बधाई।

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  2. हिन्दी ब्लागरी बंजर तोड़ कर उपजाऊ बना रही है। अभी तो जिक्र शुरू हुआ है।

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  3. विष्‍णु जी संगीत सारी सरहदों को तोड़कर दिलों को जोड़ता है । तभी तो हम सरहद के उस पार रहने वाली नैयरा नूर, मुन्‍नी बेगम, नूरजहां वगैरह को उतना ही सुनते हैं जितना लता, आशा, गीता या फिर सुमन कल्‍याणपुर को । गुलाम अली और मेहदी हसन जैसी हस्तियां ना होतीं तो कितना सूना होता ये संसार ।
    मैंने मुंबई में देखा है कि आइपॉड और मोबाइल फोन लोकल ट्रेन में और म्‍यूजिक सिस्‍टम कार में लोगों के सफर करने का बड़ा जरिया है । अगर ये ना हों तो लोग आपस में लड़ें । भिड़ जायें । आप सोचिए कि लोकल ट्रेन में किसी माल की तरह ठुंसे इंसान भी संगीत के जरिये संतुष्‍ट खुश और शिकायतविहीन रह लेते हैं । ट्रैफिक में इंच इंच गाड़ी बढ़ाते लोग सिस्‍टम पर बजते रेडियो या एमपी 3 के जरिए सड़क रूपी नर्क में भी मुदित रहते हैं । ये संगीत की ताकत ही है ना ।
    वरना महानगर में जीने के बहाने कम मजबूरियां ज्‍यादा हैं । यही हाल छोटे शहरों का भी है ।

    मजरूह सुलतानपुरी का शेर है--
    रोक सकता हमें ज़िन्दाने बला क्या। मजरूह ।
    हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं ।।

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  4. बधाई .यह एक शुभ संकेत है

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  5. और यह मेरा सौभाग्य है कि इनमें से दो यानी कि सागर नाहर और संजय पटेल जी से मैं व्यक्तिगत रूप से मिल भी चुका हूँ और ये मुझे अपना मित्र मानते हैं…

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  6. इन ब्लॉगवीरों को बधाई एवं शुभकामनाऐं.

    ब्लाग हमारे वर्तमान का उजला और अपरिहार्य भविष्‍य है -क्या बात कही है!!

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  7. विष्णु जी,

    हिन्दी के अखबार तो यहाँ नहीं मिलते हैं. आपके द्वारा यह ख़बर हमें भी मिल गयी.आपके हर्षातिरेक के सहभागी हैं.

    धन्यवाद!

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