कुत्ते से विश्‍वासघात


इस घटना के समय भी जोशीजी की अवस्था लगभग ग्यारह वर्ष थी ।


एक कुत्ते ने यूँ तो पूरे गाँव को परेशान कर रखा था किन्तु मानो ‘जोशी परिवार’ वह अतिरिक्त 'कृपालु' था । वह कुत्ता दिन भर तो सामान्य रहता किन्तु रात होते ही असामान्य हो जाता । मानो पागल हो गया हो । किन्तु यह पागलपन तनिक विचित्र होता । वह न तो गाँव में दौड़ता न ही किसी को काटता । रात को वह जोशीजी के मकान की छत पर चढ़ जाता और जोर-जोर से भौंकता रहता । उसे चुप कराने का किसी का कोई प्रयास सफल नहीं होता । वह अपनी मर्जी से ही चुप होता । लेकिन तब तक प्रायः ही इतनी देर हो चुकी होती कि लोगों के उठने का समय हो जाता । सूर्योदय होते ही कुत्ता फिर सामान्य हो जाता । चूँकि वह किसी को कोई शारीरिक हानि नहीं पहुँचाता सो, रात में उसके प्राणों के प्यासे बन जाने वाले, गाँव के तमाम लोगों को, दिन के उजाले में उस पर दया आ जाती ।


यह क्रम निरन्तर बना हुआ था । परेशान तो सब थे लेकिन जोशी परिवार अतिरिक्त रूप से परेशान था । दूर के मकानों के निवासी तो फिर भी, जैसे-तैसे नींद ले लेते थे किन्तु जोशी परिवार कैसे सोए ? कुत्ता माने सर पर सवार होकर भौंक रहा हो ।


बालक हरीश ने इस कुत्ते को सबक सिखाने की सोची । एक सवेरे हरीश ने एक हाथ में रोटी ली और दूसरे में मझली मोटाई की मजबूत लकड़ी । रोटी वाला हाथ सामने रखा और लकड़ी वाला हाथ पीठ पीछे - लकड़ी छुपा कर । रोटी वाला हाथ कुत्ते की ओर बढ़ा कर, रोटी हिलाते हुए हरीश ने ‘तू ! तू !!’ कह कर कुत्ते को पुकारना शुरु किया ।


ऐन सवेरे का समय । कुत्ते के पेट में कुछ भी नहीं पड़ा था । रोटी देखकर कर वह तत्काल ही, पूंछ हिलाता-हिलाता हरीश के पास आ गया । हरीश ने रोटी तो नहीं दी, अपने शरीर के पूरे बल से लकड़ी, कुत्ते की पीठ पर दे मारी । कुत्ता ‘क्याँऊँ ! क्याँऊँ !!’ करता, चिल्लाता हुआ, जान बचा कर भागा ।


अपनी योजना के सफल क्रियान्वयन से प्रसन्न-मुदित हरीश ने पीठ सीधी भी नहीं की थी कि उसकी पीठ पर एक पतली लकड़ी का जोरदार प्रहार सटाक् से हुआ । हरीश को सवेरे-सवेरे ही तारे नजर आने लगे । यह तो उसकी योजना का अंग नहीं था ! कुत्ता तो ऐसा कर ही नहीं सकता ! कैसे हुआ यह ? किसने किया ? पीठ की हालत ऐसी मानो किसी ने पीठ को ‘सिल’ बनाकर हरी मिर्ची की चटनी बनाने की कोशिश की हो । जलती हुई पीठ पर हाथ भी बराबर नहीं पहुँच रहे थे । पीठ सहलाने की असफल कोशिश करते-करते हरीश ने मुड़ कर देखा तो, हाथ में बाँस की पतली लकड़ी (किमची) लिए 'बा', गुस्से में लाल-भभूका हुई खड़ी थीं । हरीश को कुछ समझ नहीं आया । उसने तो न केवल अपने परिवार को अपितु पूरे गाँव को कष्‍ट से मुक्त कराने का प्रयत्न किया था । उसे तो पुरुस्कार मिलना चाहिए था । पुरुस्कार न मिले तो भी कोई बात नहीं । लेकिन दण्ड क्यों ? दण्ड भी ऐसा कि अब आधे दिन तक चैन नहीं पड़ेगा । हरीश का दृष्‍िट-प्रश्‍न ‘बा’ ने आसानी से पढ़ लिया । अपनी पूरी शक्ति मानो बोलने में लगा दी ‘बा’ ने । कहा - ‘ऐसा विश्‍वासघात आगे से किसी के साथ मत करना । हिम्मत और ताकत है तो कुत्ते को भाग कर पकड़, फिर मार । उसे लालच देकर बुलाया और लकड़ी मार दी ? ऐसा तो जानवर भी नहीं करते । फिर तू तो मनुष्‍य है और वह भी मर्द । किसी से बदला लेना हो तो उसे मैदान में ललकार कर बुला और अपनी ताकत दिखा । यह क्या कि भरोसा दे कर मार दिया ?’


पीठ का दर्द तो हवा हो गया और 'बा' की नसीहत ने मानो लपट बन कर घेर लिया । तन तो पहले ही जल रहा था, अब मन भी दहकने लगा । हरीश की रुलाई छूट गई । तब, दिलासा भी 'बा' ने ही दिया - अपनी गोद में छुपा कर, पुचकार कर ।


वह दिन और आज का दिन । नौकरी में जोशीजी अधीनस्थ रहे या नियन्त्रक की स्थिति में, कभी किसी की पीठ पीछे वार नहीं किया । जब भी मतभेद या विवाद की स्थिति बनी तो हर बार जोशीजी खुल कर खेले । जोशीजी कहते हैं - ‘ऐसे प्रत्येक प्रसंग में, बा की नसीहत पर अमल करने से शुरु-शुरु में तकलीफ होती रही । लेकिन अब तो आदत ही बन गई । सब मुझे जानने भी लगे और समझने भी लगे । अब कोई असुविधा नहीं होती । सब कुछ सहज-सामान्य होता है ।’


आपका आधा कर्ज तो मैं ने उतार दिया । जतन करूँगा कि बाकी आधा कर्ज भी जल्दी ही उतर जाए ।


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9 comments:

  1. बहुत सुंदर प्रसंग. काश हर "बा" अपने बच्चों को सच्ची शिक्षा दे पाती!

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  2. गजब भाई..क्या अंदाजे बयां है. जरा फोन नम्बर भेजना..भारत पहुँच कर बात करता हूँ १० दिन में. :)

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  3. बेहतरीन प्रेरक प्रसंग ! बहुत अच्छी लेखन शैली !

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  4. एक कहावत है कि,'चोर को नहीं उसकी मां को पकड़ो।'
    यदि बचपन से ही अच्छे संस्कार मिलें तो--------------

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  5. बा-लोग होती हैं हैं बुनियादी तालीम देने के लिए । आपकी शैली का कायल बनेंगे , जो भी पढेंगे ।

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  6. बहुत ही प्रेरणादाई लेख. आभार.

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  7. bahut hi prerak aur sundar prasang.

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  8. bahut umda lekh
    kabhi humari post bhi dekhle
    regards

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  9. आलेख कब शुरु हुआ और कहां खत्म । पता ही नहीं चला । बा के रुप में अपनी मां हर बार सामने खदी नज़र आई । उस दौर की शायद हर मां के एक हाथ में छडी और दूसरे में स्नेह -दुलार का रस होता था । कुम्हार की मानिंद वो घढती थी अपने संस्कार । पहले बडा गुस्सा आता था अपनी मां पर लेकिन अब जाना मां होने के मायने ।

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