कई राज्यों के विधान सभा चुनाव हो रहे हैं । प्रचार अभियान की विषय वस्तु और शैली में जमीन आसमान का अन्तर आ गया है । पहले, दल और उम्मीदवार अपनी उपलब्धियाँ और भावी योजनाएँ लेकर मतदाता के सामने जाते थे । ‘चरित्र हनन’ और ‘छवि भंजन’ उनकी प्राथमिकता सूची में नहीं होते थे । प्रचार अभियान के दौरान विरोधी उम्मीदवार कभी आमने-सामने मिल जाते थे परस्पर सम्मानपूर्वक अभिवादन कर, एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछते थे ।
आज स्थिति एकदम विपरीत हो गई है । नीतियाँ और कार्यक्रम प्राथमिकता सूची की तलछट से भी गुम होकर नेपथ्य में चले गए हैं । किसी के भी पास बताने के लिए अपनी उपलब्धियाँ मानो हैं ही नहीं । समूचा प्रचार अभ्यिान व्यक्तिगत आलोचना, आरोप, निन्दा और सम्वेदनशून्य आक्रामकता पर आकर टिक गया है । चुनाव स्थगित होने का भय न हो तो सामने वाले उम्मीदवार की हत्या कर दें ।
ऐसे में मुझे दो घटनाएँ याद आ रही हैं जिन पर आज शायद ही कोई विश्वास करे । पढ़कर हर कोई इसे या तो झूठ कहेगा या फिर ऐसा करने वाले उम्मीदवार को निरा मूर्ख घोषित कर देगा ।
मध्यप्रदेश । सन् 1980 का विधान सभा चुनाव । काँग्रेस ने दादा को मनासा विधान सभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया था । इस विधानसभा क्षेत्र में ‘रामपुरा’ आज भी शामिल है । रामपुरा में अल्पसंख्यक समुदाय सदैव ही निर्णायक स्थिति में रहता आया है । इस स्थिति के चलते, अपने अनुकूल परिणाम प्राप्त करने के लिए या फिर विरोधी को नुकसान पहुँचाने के लिए, अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाना वहाँ सामान्य परम्परा सी है । अल्पसंख्यक उम्मीदवार से काँग्रेस को सदैव खतरा बना रहता । सो काँग्रेसी खेमे की कोशिश होती कि कोई अल्पसंख्यक उम्मीदवार न उतरे । इसके विपरीत, जनसंघ/भाजपा किसी अल्पसंख्यक को उम्मीदवार बनाने का यथासम्भव प्रयास करती ।
दादा की विजय 'प्रथमदृष्टया सुनिश्िचत' ही थी । सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक ही बाबू खान (उसका लोक प्रचलित नाम 'बाबू भाई' था) नामक एक व्यक्ति ने नामांकन पत्र प्रस्तुत कर दिया । पहले तो सबने इसे बहुत ही हलके से लिया । यही माना कि काँगे्रसियों के मजे लेने के लिए या फिर थोड़ी-बहुत सौदेबाजी के लिए नामांकन प्रस्तुत किया गया है । बाबू भाई अच्छी आर्थिक हैसियत वाला, छोटा-मोटा ठेकेदार, आदमी था । काँग्रेसी खेमा उसकी गतिविधियों पर निगाह गड़ाए था । विभिन्न माध्यमों से उसे टटोला गया । प्रत्येक ‘टटोल’ पर सूचनाएँ मिल रही थीं कि न तो वह किसी के उकसावे में खड़ा हुआ है और न ही कोई सौदेबाजी करने के लिए । उसे तो खड़ा होना था सो वह खड़ा हो गया और अन्ततः वह उम्मीदवार बना ही रहा ।
हम सब चिन्तित और परेशान थे ।
चुनाव अभियान शुरु हो गया । सबके मजमे लग गए, दुकानें सज गईं । बाबू भाई भी अपनी स्थिति अनुसार काम में लग गया था । मनासा में मैं तथा रामपुरा में निर्मल पोखरना (हम सबका ‘नीरु भाई’) कार्यालय-प्रभारी था । कार्यालय-प्रभारी अर्थात् सूचनाएँ लेने-देने वाला, चुनाव अभियान की रणनीति निर्धारित करने वाला नहीं । रामपुरा-मनासा में 32 किलोमीटर की दूरी । उस समय तक अपने शहर से बाहर बात करने के लिए ट्रंक काल बुक करने पड़ते थे, ग्रुप डायलिंग और एसटीडी सुविधा के अते-पते जनसमान्य की कल्पना में भी नहीं थे ।
एक रात, कोई डेड़-दो बजे रामपुरा से नीरु भाई ने खबर दी कि बाबू भाई का एक ट्रक, जंगल से, अवैध रूप से काटी गई लकड़ियों से भरा हुआ पकड़ाया है । कानूनों के मुताबिक, लकड़ियों का स्वामी तो गिरफ्तार होना ही है, अपराध में बराबरी की भागीदारी के आधार पर ट्रक मालिक को भी गिरफ्तार किया जा सकता है । नीरु भाई की आवाज में जितना उल्लास था उससे कई गुना अधिक मेरे कानों में घुल गया था । हम लोगों की मानो लाटरी खुल गई थी । अब बाबू भाई को गिरफ्तार करा देंगे और रामपुरा में अपनी स्थिति ‘सीमेण्ट कांक्रीट’ जैसी पक्की । आधी रात में आशा का भव्य सूर्योदय हो गया ।
हम युवाओं ने तत्काल ही दादा से मिल कर, बाबू भाई की गिरतारी सुनिश्िचत कराने की योजना बनाई - प्रदेश में सरकार जो हमारी थी ! चुनाव अभियान के मामले में हमारी व्यवस्थाएँ चाक-चैबन्द थीं । दोनो कार्यालयों को पता रहता था कि उनका उम्मीदवार इस समय किस गाँव में होगा । उस रात दादा का विश्राम, देवरान नामक सीमान्त गाँव में था । सो, रामपुरा से नीरु भाई और मनासा से मैं, अपने-अपने ‘युवा कांग्रेसी’ मित्रों के साथ, आधी रात में मानो ‘किला फतह’ करने निकल पड़े । रामपुरा-मनासा वाली मुख्य सड़क पर, लगभग मध्य-दूरी पर स्थित ग्राम कुण्डालिया में दोनों टोलियाँ मिलीं और देवरान के लिए कूच किया ।
रात कोई तीन बजे हम देवरान पहुँचे । दादा को जगाया । नीरु भाई ने पूरी बात बताई । एक युवा वकील भी टोली में था । उसने दादा को कानूनी ज्ञान से लाभान्वित किया और चाहा कि दादा, या तो रामपुरा थानेदार को सीधा सन्देश दें या फिर मन्दसौर जिला पुलिस अधीक्षक को कहें और बाबू भाई को फौरन ही, सूरज निकलने से पहले ही गिरफ्तार करवा दें ।
दादा ने पूरी बात धैर्यपूर्वक सुनी और हम सबको अविश्वास से देखने लगे । उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ‘उनके कार्यकर्ता’ ऐसा सोच सकते हैं और ऐसी माँग कर सकते हैं । उन्होंने पहले तो हमें शान्त, धीर-गम्भीर स्वरों में ‘लोकतन्त्र’ का मतलब तो समझाया ही, उसे बनाए रखने की हमारी जिम्मेदारी भी समझाई । उनका व्याख्यान सुनते-सुनते हमें लगने लगा था कि बाबू भाई को गिरफ्तार कराने की हमारी योजना से दादा सहमत नहीं हैं और वे हमारी मनोकामना पूरी करने में मदद नहीं करेंगे । हम लोगों ने हार के खतरे का उल्लेख किया । थोड़ी देर तो दादा संयत रहे लेकिन जब हमारा ‘आग्रह’ (जो वास्तव में ‘दुराग्रह’ या ‘दबाव’ ही था) बढ़ता देखा तो वे बिफर गए । हम सबकी खूब लानत-मलामत की और यह कह कर कि ‘मुझे ऐसी जीत नहीं चाहिए जो मुझे मेरी नजर में और मेरी पार्टी को लोगों की नजरों में गिरा दे’ हम सबको भगा दिया ।
लौटते समय हम सब दुःखी तो थे ही, हार की आशंका से भयभीत भी थे और दादा को कोस रहे थे, उन्हें ‘नादान’ और ‘बेकार का आदर्शवादी’ घोषित कर रहे थे । नीरु भाई अधिक पेरशान थे । यह खबर रामपुरा में फैलेगी ही और जब लोगों को पता लगेगा कि दादा ने सबको डाँटकर भगा दिया तो बाबू भाई एण्ड कम्पनी तो ‘चिन्दी का थान बनाकर’ इसका खूब फायदा उठाएगी, नीरु भाई की किरकिरी होगी । सबके सब हैरान, परेशान, आक्रोशित और क्षुब्ध थे किन्तु सबके सब असहाय, निरुपाय भी थे ।
अगला सवेरा होते-होते हम सब अपने-अपने मुकाम पर पहुँच कर सामान्य बने रहने की कोशिशों में लग गए । दादा रात को मनासा पहुँचे । उन्हें भोजन करना था लेकिन उससे पहले उन्होंने मुझे बुलवाया और मेरी जोरदार खबर ली । उन्होंने इस बात पर मानो ग्लानि हो रही थी कि उनका छोटा भाई ऐसे अलोकतान्त्रिक सोच का शिकार कैसे हो हो गया । उन्होंने पूछा - ‘मेरे आचरण में तूने ऐसा क्या देखा जो तू ऐसी बात में शरीक हो गया ? क्या मैं ने तुझे यही संस्कार दिए हैं ? बाकी सबसे मुझे कोई शिकायत नहीं लेकिन तू तो मेरा (उन्होंने यह ‘मेरा’ कहते हुए मानो अपना सम्पूर्ण आत्मबल लगा दिया) भाई है ! मेरा भाई ऐसी घटिया बात सोच भी सकता है, यही मेरे लिए डूब मरने वाली बात है । यदि चुनाव ऐसे ही तरीकों से जीते जाने हैं तो हमें गाँव-गाँव जाकर, लोगों से मिलकर अपनी बात कहने की, अपनी नीतियाँ समझाने की, उन्हें सहमत कराने की क्या आवश्यकता ? हम सरकारी कारिन्दों, अधिकारियों, थानेदारों को भेजकर लोगों के वोट हथिया लेंगे ।’
फिर उन्होंने कहा - लोकतन्त्र व्यवस्था नहीं, हमारा संस्कार है । लोकतन्त्र सुविधा और अधिकार ही नहीं, जिम्मेदारी भी है बल्कि जिम्मेदारी पहले है और अधिकार बाद में । लोकतन्त्र का मतलब केवल अपनी बात कहना नहीं, सामने वाले की बात सुनना, भले ही आप जान रहे हों कि वह गलत और झूठ है तो भी पूरी सुनना होता है । और यदि आप सत्ता में हैं तो आपकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है । तब आपको, आपसे असहमत व्यक्ति को पूरी सुरक्षा देने की जिम्मेदारी भी वहन करनी पड़ती है । अपनी बात कहने के बाद दादा ने भोजन तब ही किया जब उन्होंने मुझसे वादा लिया कि मैं भविष्य में, अनजाने में भी ऐसी कोई ‘गन्दी’ हरकत कभी नहीं करूँगा ।
इस पूरे घटनाक्रम के बाद क्या कहूँ ? कुछ कहने को रहा ही नहीं । बस, अपने आप पर गुमान करता हूँ कि मुझे ऐसे संस्कारदाता मिले ।
हाँ, चुनाव में बाबू भाई की जमानत जप्त हो गई और दादा अपेक्षा से अधिक मतों से जीते ।
दूसरा
दादा को मेरा प्रणाम। वे जब जब कोटा, अन्ता, बारां आए उन के सानिध्य में रहा हूँ, और शोभा उन के गीतों की तब भी फैन थी जब हमारा ब्याह नहीं हुआ था। अब तो उन की संगति को बरसों हो गए। वे हमेशा मनासा आने का न्यौता देते, पर मैं आज तक नहीं जा सका।
ReplyDeleteआज के दौर में वे चुनाव मैदान में हैं या नहीं यह पता नहीं। पर मेरी समंझ में उन से अधिक लोकप्रिय उम्मीदवार मनासा में और कोई नहीं हो सकता।
ईश्वर करे , मौजूदा दौर के नेता प्रजातंत्र के मूल तत्व को समझ सकें । वरना लोकतंत्र की ज़िम्मेदारी को समझे बिना सत्ता को अपनी चेरी समझने की मानसिकता का खमियाज़ा आने वाले नस्लों को भी उठाना पडेगा ।
ReplyDeleteऐसे लोगो के बारे में पढ़ के अच्छा लगता है
ReplyDeleteआप कुछ और संस्मरण जरूर रखें