'बा' और 'बा' का हरीश
यह घटना अत्यधिक मार्मिक है, कोई 45 वर्ष पूर्व की ।
जोशीजी की अवस्था उस समय कोई एक-सवा माह की थी । वे अस्वस्थ हो गए । 45 वर्ष पूर्व, भारत के गाँवों में स्वास्थ और चिकित्सा सुविधाओं की कल्पना सहजता से की जा सकती है । तब सड़कें भी अपवादस्वरूप ही होती थीं । यातायात के साधन नाम मात्र के ही उपलब्ध थे । उस पर घर की गरीबी ! अर्थात्, कुछ भी अनुकूल नहीं । ऐसे में, गिनती के घरों वाले एक छोटे से गाँव में स्थानीय स्तर पर जो चिकित्सा की जा सकती थी या कराई जा सकती थी, वह सब कुछ किया, कराया गया । लेकिन बालक हरीश स्वस्थ होने की अपेक्षा दिन-प्रति-दिन अधिक अस्वस्थ होने लगा । स्थानीय स्तर पर बात नहीं बनी तो आसपास के गाँवों के वैद्यों की सहायता ली गई । उनके नुस्खे भी कारगर नहीं हुए । तब, झाड़-फूँक करने वाले ओझाओं, भोपाओं की सहायता ली गई । लेकिन बात नहीं बनी । बालक हरीश की दशा पल-पल बिगड़ रही थी और माँ धूली बाई, अपने दम पर जो कुछ भी कर सकती थी, वह सब करने के लिए हाथ-पैर मार रही थी ।
दसों दिशाओं से मिल रही प्राणलेवा निराशा के बीच गाँव के कुछ समझदार लोग, धूली बाई के बच्चे को बचाने के लिए एक तान्त्रिक को ले आए । तान्त्रिक ने बच्चे को देखा और कुछ तन्त्र क्रियाएँ कर, बकरी के एक बच्चे की बलि देने की बात कही और भरोसा दिलाया कि यदि ‘यह काम’ कर दिया जाएगा तो बच्चा निश्चित रूप से बच जाएगा ।
उपाय भले ही अचूक बताया गया था लेकिन कोई ब्राह्मण परिवार कैसे स्वीकार कर ले ? तब रास्ता सुझाया गया कि आपको (धूली बाई को) कुछ नहीं करना होगा । तान्त्रिक, दूर-दराज जंगल के एकान्त में आपकी ओर से सारा कर्म-काण्ड कर, बकरी के बच्चे की बलि चढ़ा देगा । ‘बीच का रास्ता’ सुझाने के बाद भी धूली बाई चुप बनी रही । तान्त्रिक को लगा कि बात खर्चे पर आकर रुक रही है । उसने कहा कि खर्चे की चिन्ता नहीं करें, वह अपना पारिश्रमिक नहीं लेगा और सेवा-भाव से यह काम कर देगा । धूली बाई ने चैबीस घण्टे का समय माँगा ।
अगले दिन तान्त्रिक और उसे लाने वाले हितैषी समय पर धूली बाई के घर पहुँचे । सब मान कर ही आए थे कि, अपने बच्चे को बचाने के लिए 'मां' धूली बाई मान जाएंगी और भुगतान कर देगी । लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत ।
धूली बाई ने कहा कि पूरी रात वे सो नहीं पाईं । एक के बाद विचार आते रहे । लेकिन अन्तिम विचार से उनके मन पर छाई धुन्ध हट गई । धूली बाई ने कहा -‘मेरे बच्चे को बचाना तो मेरे हाथ में नहीं है पर बकरी के बच्चे को बचाना तो मेरे ही हाथ में है । अपने बच्चे को बचाने के लिए मैं बकरी के बच्चे की बलि चढ़ा दूँ, यह बात मेरे गले नहीं उतरी । बच्चा मेरा हो या बकरी का, आखिर है तो बच्चा ही । मुझसे यह नहीं होगा । मेरे भाग्य में होगा तो मेरा हरीश बच जाएगा और यदि ईश्वर ने इसका आयुष समाप्त कर दिया है तो ईश्वर की इच्छा ।’
धूली बाई की बात सबके लिए अनपेक्षित तो थी ही, हतप्रभ कर देने वाली भी थी । सबने समझाने की कोशिश की । मनुष्य के और बकरी के बच्चे का अन्तर समझाया, बार-बार समझाया । लेकिन धूली बाई वह बात समझ चुकी थी जो, उन्हें समझाने वालों में से किसी की समझ में नहीं आ सकती थी । धूली बाई ने कहा -‘आप माँ के हिरदे को क्या जानो । आपने बेटा जना होता तो ऐसी बात नहीं करते । अपने घर जाकर अपनी घरवाली को मेरी बात सुनाना और फिर वह क्या कहती है, आकर मुझे बताना । आप तो बाप हो ! माँ होने का मतलब क्या जानो ? कोई माँ ही मेरी बात का मरम (मर्म) समझेगी ।’
धूली बाई को समझाने में प्राणपण से जुटे तमाम हितैषियों की जबानें तालू से चिपक चुकी थीं । गहरी, निश्वास लेकर, धूली बाई अपनी जगह से उठीं, अनन्त आकाश में निहारते हुए निराकार को प्रणाम किया और सब लोगों को सविनय, सादर बिदा किया ।
जोशीजी कहते हैं - ‘‘मैं न तो किसी दवा से बचा न ही किसी झाड़-फूँक से और न ही 'बा' की प्रार्थना से । ‘बा’ आज तक कहती हैं - ‘हरीश ! तू उस मूक बकरी की नि:शब्द दुआओं से बचा जिसका बच्चा बलि होने से बच गया ।’’
जोशीजी से आगे बोला नहीं जा रहा था । और मैं ? मैं तो लगभग अचेत, तन्द्रिल हो, निश्चल, निश्चेष्ट बना बैठा था । मूर्तिवत् । हम दोनों ही शायद 'उस' बकरी की दुआएं सुनने की कोशिश कर रहे थे जिसके बारे में हम दोनों ही, कुछ भी नहीं जानते थे, जो वहां नहीं थी लेकिन जिसके होने को पूरे सम्वेग से अनुभव कर रहे थे ।
'बा' का दिया, जीव दया का यह संस्कार, जोशीजी के साथ सहोदर की तरह जी रहा है ।
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इससे सुन्दर भी कोई भावना किसी हृदय में आ सकती है क्या ? बा को मेरा प्रणाम । उनके कोमल हृदय व सारे प्राणीजगत से प्रेम के सहज सम्बन्ध की भावना को प्रणाम ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
यह सुंदर भावना काश उनमे भी जागे जो किसी मासूम बेजुबान पर अत्याचार करने या उसे अपना आहार बनाने से भी परहेज नहीं करते. संस्कार देने का काम पिता के बस का ही नहीं है, सिर्फ़ माता ही ऐसे कोमल संस्कार बच्चों में रोप सकती है. प्रणाम 'बा' को.
ReplyDeleteकभी बकरी-भक्षी रहे व्यक्ति को कुछ भी कहने का हक नहीं है,इस पोस्ट पर !
ReplyDeleteहम तो भाव विभोर हो चले थे. लाजवाब पोस्ट. मेरे कुछ निजी बकरी खोर ब्राह्मण मित्र हैं. आज उनकी खैर नहीं. आभार.
ReplyDeleteवाकई एक अति सुन्दर पोस्ट!! बा को नमन!
ReplyDeleteबा, को प्रणाम!
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत रचना !
ReplyDeleteआदरणीय बैरागीजी,
ReplyDeleteनमस्कार एवं धन्यवाद,
आपने बहुत ही सुंदर ढंग से मेरे बचपन के बहुत ही सामान्य से प्रासंगो को साहित्यिक प्रस्तुति दी है.
मेने तो Indore जाते समय रास्ते में समय काटने के लिए आपको मेरे बचपन के कुछ संस्मरण सुनाए थे.
परंतु आपने उसे साहित्यिक प्रस्तुति दे कर मेरे लिए एक अमूल्य पूंजी का निर्माण कर दिया है वह भी
बिना मूल भावना छेड़े.
हमारे आसपास ही कई बहुत ही अच्छे प्रसंग होते है मगर हम उनको रेखांकित नही कर पाते है, क्योंकि
हम सोचते है की लोग समज़ेंगे की आत्म प्रशंसा हेतु यह बात कर रहा है. जबकि बुरी बातें बहुत ही ज़्यादा प्रसारित होती है. आज के विषुयल मीडिया को देख कर नई जेनरेशन के बच्चे तो शायद यही सोचते होंगे की
समाज मे अपराध, हत्या,षडयंत्र आदि के सिवाय और घटनाए ही नही होती है.अतः हमे थोड़ी हिम्मत
करके अच्छी बतो को "हाइलाइट" करना चाहिए.
पुनः धन्यवाद.
हरीशचंद्र जोशी
sir naya likha he
ReplyDeletetipyaye
regards
thanks a lot uncle
ReplyDeletethis is pintu here elder son of joshi ji
well i knew both of these stories as ba use to tell all this oftenly
but the way you presented it its litrally awesome cant describe it in words
we use to get the same teachings from our parents
thats how i always feel lucky
ok uncle thanks a lot again for such a wonderful work
बहुत ही मार्मिक प्रसंग है. ऐसी वीर माताओं की वजह से ही मुझे भारत भूमि पर गर्व है. बा को प्रणाम!
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