मुमकिन है, इस पोस्ट के साथ वाला चित्र साफ-साफ नहीं देखा जा सके । इसके दो कारण हैं । मैं ने अभी-अभी कैमरा खरीदा है और मैं चित्र लेने का अभ्यास कर रहा हूँ । सो, पहला कारण है - मेरा अनाड़ीपन । दूसरा कारण - जहाँ का यह दृश्य है वहाँ, उबलते तेल का धुँआ छाया हुआ था ।
इससे पहले कि इस सचित्र पोस्ट की बात करूँ, दो शब्दों के बारे में बता दूँ । मालवी में ‘माँ’ को ‘बई’ कह कर पुकारा जाता है (जैसे कि मराठी में ‘आई’ पुकारा जाता है) और ‘पूरी’ (हलवा-पूरी वाली पूरी) को -‘पूड़ी’ कहा जाता है ।
आज रात मैं एक विवाहोत्सव वाले भोज में शरीक हुआ था । मालवा में सर्दी का मौसम एकाएक आ गया है । सो, आमन्त्रित लोग दिए गए समय पर ही आना शुरु हो गए । केटरर को इसका अनुमान नहीं था । फलस्वरूप, भोजन शुरु होते ही व्यंजनों की ‘खेंच’ (कमी) पड़ गई । मिठाइयाँ जरूर तैयार थीं लेकिन मीठा कितना खाया जा सकता है ? तैयार नमकीन के नाम पर रतलामी सेव थी जिसका आकर्षण किसी को नहीं था । मेनू में मिक्स पकोड़े, कचोरी भी शामिल थीं लेकिन मेहमानों को ये चीजें गरम-गरम (कढ़ाही में से निकलती-निकलती) मिलें, मेजबानकी इस भावना के कारण, ये दोनों ‘आयटम’ भी भरपूर मात्रा में तैयार नहीं थे । सो, ‘उदरपूर्ति’ के लिए लोगों ने दाल-चाँवल और सब्जी-पूरी पर झपट्टा मारा । दाल-चाँवल और सब्जी तो भरपूर मात्रा में उपलब्ध थीं लेकिन पूरियाँ नहीं । केटरर की पूरी टीम पूरियाँ बनाने में जुट गई लेकिन पूरियाँ जितनी निकल रही थीं, उठाव उससे कहीं अधिक था । सो, भोजन के पहले दौर में पूरियों की कमी बराबर बनी रही ।
मैं भी इस कमी से प्रभावित हो, पूरी लेने के लिए, हलवाई के पास खड़ा हो गया । तभी मेरा ध्यान, पूरी बेलने वाली महिलाओं पर गया ।
वे तीन थीं । दो तो पूरियाँ बेले जा रही थीं लेकिन तीसरी के पास एक छोटी सी बच्ची बैठी थी । वह बार-बार हाथ आगे कर रही थी और उसकी माँ, बेलन वाले हाथ से, बच्ची का हाथ पीछे ठेल रही थी । स्पष्ट था कि बच्ची को भूख लगी थी और उसे पूरी चाहिए थी ।
चित्र देखने में आपको तनिक अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ सकती है । सम्भव है कि उसके बाद भी चित्र बराबर दिखाई न दे । कढ़ाई से निकाली जा रही, लोहे के झारे में रखी एक पूरी चित्र में छाई हुई है । तली हुई दो पूरियाँ अखबार पर रखी हुई हैं । तलने के लिए, बेली हुई सात पूरियाँ थाली में रखी हुई हैं । चित्र में पीला ओढ़ना और हरे रंग का छींटदार लँहगा पहने महिला, पूरी बेलने की कोशिश करती दिखाई दे रही है । उसके पास, दाहिनी ओर, धूसर रंग का झबला पहने, उसकी साल-डेड़ साल की बेटी बैठी हुई है ।
महिला के पीछे, पूरी बेलने के लिए तैयार किए गए गीले आटे के ‘लोयों’ से भरा बर्तन दिखाई दे रहा है । पूरी बेलने के लिए उसने जो ‘लोया’, चकले पर रखने के लिए लिया था वह उसकी बेटी ने बीच में ही लपक लिया । बच्ची बार-बार कह रही थी - ‘बई ! पूड़ी दे ।’ ‘बई’ उसे ‘पूड़ी’ कैसे दे सकती थी ? वह तो पूरियाँ बेलने के लिए, मजदूरी पर आई है । पूरियों की कमी हो गई है । वह बच्ची को पूड़ी देने के बारे में सोच भी नहीं सकती । उसे, पहले मेहमानों के लिए पूरियाँ बेलनी हैं । मेहमानों में चिल्ल-पों मची हुई है, केटरर हलकान है और पूरियाँ तलने वाला हलवाई झुंझला रहा है । उधर बच्ची है कि ‘पूड़ी’ के लिए बार-बार हाथ आगे कर रही है । पूरी बेलने में माँ को व्यवधान हो रहा है । वह बेलन वाले हाथ से बार-बार बच्ची का हाथ ठेल रही है ।
इधर माँ परेशान है और उससे पहले बेटी । माँ समझदार है लेकिन बेटी का समझ से कोई रिश्ता नहीं है । बेटी अपनी भूख समझ रही है और माँ समझ कर भी नासमझ बनने को विवश है । बच्ची ‘बई ! पूड़ी दे’ की रट लगाए हुए, बार-बार हाथ आगे कर रही है, माँग पूरी न होने पर ‘नासमझ’ माँ के हाथ से ‘लोया’ छीन रही है और माँ है कि पूरियाँ बेलने में लगी रहना चाह रही है ताकि मेहमानों की माँग पूरी हो तो फिर तसल्ली से अपनी बेटी को ‘पूड़ी’ खिला सके ।
बच्ची की रट, उसका बार-बार हाथ आगे करना, अपनी बात समझाने के लिए माँ के हाथ से ‘लोया’ छीनना, बेलन वाले हाथ से माँ द्वारा बच्ची के हाथ को ठेलना और ऐसा करते हुए अपनी विवशता पर झुंझलाना - यह सब कितनी देर तक देखा जा सकता है ?
मैं नहीं देख पाया । डेड़-दो मिनिट भी नहीं देख पाया । इन डेड़-दो मिनिटों में मुझे लगा कि बच्ची का हाथ, मेरे हाथ की खाली प्लेट के वजन से कुचल जाएगा, लहू-लुहान हो जाएगा । मैं, कढ़ाही से उतर रही गरम-गरम पूरियों को तलाश करना चाह रहा था किन्तु मेरे कान 'बई ! पूड़ी दे' की मिमियाती आवाज से बहरे हुए जा रहे थे । मैं ने पहले तो बच्ची की माँ से और तत्काल बाद ही हलवाई से कहा भी कि पहले बच्ची को एक ‘पूड़ी’ दे दे । लेकिन हलवाई ने ‘बाबूजी भी क्या बात करते हैं’ कह कर और उसकी माँ ने विद्रूप भरी गूँगी मुस्कुराहट और चिंघाड़ती नजरों से मेरी ओर देखकर मुझे सहमा दिया । मेरी भूख मर गई ।
मेरे लिए वहाँ और ठहर पाना सम्भव नहीं हो पाया । तत्क्षण ही पीठ फेरी, प्लेट रखी, हाथ धोए और घर लौट आया । तब से अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है । धूसर झबला पहने बच्ची की ‘बई ! पूड़ी दे’ मेरे कानो में गूँजे जा रही है और पूरी के लिए आगे हो रहे उसके हाथ को ठेलती माँ मेरी नजरों से दूर नहीं हो पा रही है ।
क्या कहा जाये. ऐसे व्यथित करने वाले दृष्य कितने ही देखने में आते हैं. आप जैसा संवेदनशील हृदयी व्यक्ति उन्हें रजिस्टर कर लेता है और विचलित हो जाता है और अधिकतर देखकर अनदेखा करना सीख गये हैं.
ReplyDeleteआपको अपने लिए पूड़ी लेकर उसमें से बच्ची को दे देना चाहिए था। या फिर थोड़ी लंठई करते हुए बच्ची को पूड़ी दिलवा देनी चाहिए थी। पीठ फेरने से आप भी भूखे रहे गए, बच्ची भी भूखी रह गयी। साध्य पवित्र हो तो साधन में थोडा उन्नीस-बीस चल सकता है। वैसे यह मेरी व्यक्तिगत सोच है।
ReplyDeleteuf! subah subah. narayan narayan
ReplyDeleteहलवाई नैतिकता से बोझे मर रहा था। वह आप की सीख मानता तो प्रबंधन सीखता। बच्ची को पूरी मिलती। और पूरियाँ बेलने की गति बढ़ जाती।
ReplyDeleteपर मिथ्या नैतिकताएँ प्रबंधन में बाधा भी हैं और कष्ट भी देती हैं।
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ReplyDeleteआप जैसे लोग रह गये हैँ बैरागी जी .वहाँ और किसी को बुरा लगना तो दूर किसी को वो सब नज़र भी नही आया होगा जो आप देख पाये.आप इसलिये देखी पाये क्योँकि आप आँखो के अलावा दिल से भी देखते हैँ.अधिकाँश लोगों की वो आँखे बँद हो चुकी है.शायद इसलिये आपको-हमको ये सब देख कर दुखी होना पडता है.
ReplyDeleteआप ज़्यादा ही सेन्टी हो लिए, अशोकजी और दिनेशराय द्विवेदीजी सही बात कह रहे हैं. इतने छोटे बच्चों के सामने पकवान रहेंगे तो स्वाभाविक है की वे जिद करेंगे ही. अच्छा तो यही होता की बेलनेवाली महिलाएं बच्चों को काम शुरू करने से पहले कुछ खिला दें, या साईट पर न लायें तो अच्छा, वरना मेहमानों का मूड भी ख़राब हो जाता है. बेलनेवाली को भी अप्रत्याशित देरी का अंदाजा नहीं रहा होगा, वह बच्ची को अपने साथ पार्टी के बाद खिलाती (बचा भोजन केटरर्स महाराजिनों/कारीगरों को दे देते हैं. पर फिलहाल उस समय पेशे की मज़बूरी थी, वरना खाने की कोई कमी नहीं थी.) वह महाराजिन भी इसी आशा से बच्ची को खिला कर नहीं लाई होगी की वहां तो रात में मिलना ही है.
ReplyDeleteबिल्कुल प्रेक्टिकल सी बात है, आप जानते हैं की भारत और अफ्रीका में लाखों भूख से मर रहे हैं, पर फ़िर भी आप नाश्ता-भोजन लेते ही है, त्यौहार और पार्टियों में शिरकत करते ही हैं, पर आपको उन्ही भूख से बेहाल लोगों के सामने यही सब खाने को कहा जाए?
अशोक पाण्डेय जी से सहमत । द्विवेदी जी की राय भी सही है । वैसे बच्ची को दाल भात भी खिला देते तो शायद खा लेती । भूखा बच्चा सामने खाना देखेगा तो माँगेगा ही । आप का हृदय कोमल है व यह सब देख उद्वेलित होता है । बहुत से लोग ये दृष्य देख देख कर इनके प्रति जड़ हो जाते हैं ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
द्रवित करने वाली घटना है, लेकिन अब आमतौर पर पार्टियों में देखी जाती है। ठीक ऐसा ही नज़ारा "बफ़ेट" (बुफ़ै का बिगड़ा हुआ स्वरूप) स्थल के बाहर जहाँ जूठन फ़ेंकी जाती है, कई बार देखा है। स्वयं तो बचपन से संस्कार होने के कारण प्लेट में सिर्फ़ उतना ही लेता हूँ जितना खाया जा सके, लेकिन दूसरों को प्लेट भर-भर कर लेते और फ़िर बिना खाये ही फ़ेंकते देखकर दुख कम और गुस्सा ज्यादा आता है, लेकिन "अन्न ही पूर्णब्रह्म" है यह संस्कार बचपन से ही सीखे जाते हैं… बड़े होने के बाद उनको क्या दोष दें, यह तो सामान्य समझ का मामला है। और अब तो मालवा में जलसंकट भी बराबर दस्तक देने लगा है तो पानी भी मैं आधा-आधा गिलास करके दो बार पीता हूँ… चाहे उसके लिये दो बार लाइन में लगना पड़े…
ReplyDeleteभरे पूरे घरों में जब लाखों कमा कर ४० ५० रु० दे दिये जाते हैं, तो लोग खुद को दानी समझने लगते हैं और इसके बाद भी नियति डोलते देर नही लगती....! वे लोग जो दरिद्रता के साथ भी अपनी ईमानदारी पर आँ नही आने देते ..धन्य हैं वे लोग
ReplyDeleteभूखी बच्ची के लिये मन पसीज गया :-(
ReplyDelete- लावण्या
अति मार्मिक चित्र काका सा.
ReplyDeleteइस शब्द चित्र को पढ़ने के बाद लगता है
अब स्वागत समारोहों में सजे व्यंजनों
का रस लेते वक़्त बई पूड़ी दे...कानों में हमेशा गूँजता रहेगा.
अति मार्मिक चित्र काका सा.
ReplyDeleteइस शब्द चित्र को पढ़ने के बाद लगता है
अब स्वागत समारोहों में सजे व्यंजनों
का रस लेते वक़्त बई पूड़ी दे...कानों में हमेशा गूँजता रहेगा.
यह पोस्ट मैंने पहले भी पढी थी और कुछ भी लिखने का साहस नहीं हुआ था. अब एक साल और बूढा होने के बाद भी इसे पढ़ना उतना ही दुखद है. मेरे विचार में भी अशोक पाण्डेय जी की सलाह काबिले-गौर है. अगली बार ऐसा हो तो शायद मैं वही करूँ.
ReplyDeleteये क्या कह दिया आपने अब शायद पार्टियों में कुछ ना खा पाऊ
ReplyDeleteकुछ कहने की हिम्मत ही कहाँ रही।
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