ताजमहल और मेरा मन


ताजमहल बिलकुल नहीं बदला होगा। वैसा का वैसा ही होगा जैसा कोई सत्ताईस बरस पहले रहा होगा, जब मैं ताज देखने नहीं गया था।

वह शायद 1982 था। मेरी अवस्था 35 के आसपास रही होगी। दवाइयाँ बनाने वाली फर्म में भागीदार था। थोक विक्रेता नियुक्त करना और सरकारी अस्पतालों में से आर्डर लाना मेरी जिम्मेदारी था। यात्राएँ करनी पड़ती थीं। लगातार डेड़-डेड़ महीने तक की। घर से निकलता तो इस तरह कि रविवार का उपयोग यात्रा में हो जाए और सोमवार की सवेरे अगले मुकाम पर पहुँच जाऊँ। इसी तरह सोमवार की सवेरे आगरा पहुँचा था। उतरते ही मालूम हुआ - आगारा के बाजार सोमवार को बन्द रहते हैं। दुखी तो हुआ किन्तु कर ही क्या सकता था? होटल में डेरा डाला। नित्यकर्म से मुक्त होकर अखबार की दुकान पर गया। ढेर सारे अखबार और पत्रिकाएँ खरीद लीं। दिन भर जो गुजारना था!

चाय-अखबार का दौर शुरु हो गया। दस बजते-बजते सेवक ने आकर पूछा - ‘ताज देखने जाएँगे साहब?’ उसकी आरे देखे बगैर उत्तर दिया-‘नहीं।’ ‘पहले देख रखा होगा।’ तय कर पाना मुश्किल हुआ था कि वह तसल्ली कर रहा है या सवाल? इस बार भी मेरा जवाब ‘नहीं’ था। उसे हैरत हुई थी। पूछा - ‘अरे! फिर भी नहीं देखेंगे?’ मेरा जवाब वही था। इस बार उसे परेशानी हुई थी। पूछा - ‘क्यों साहब?’ मैंने कहा - ‘मन नहीं है।’ मुझे नहीं, मानो दुनिया के नौंवे अजूबे को देख रहा हो, कुछ इसी तरह मुझे देखते हुए वह चला गया।

कोई घण्टा भर बाद वह फिर हाजिर था, मेरे लिए चाय लेकर। उसने फिर वे ही सवाल किए। मेरे जवाब भी वे ही थे। अन्तर इतना रहा कि उसके सवालों में जिज्ञासा के साथ तनिक खिन्नता भी थी। दोपहर लगभग एक बजे मैंने कमरे मे ही भोजन मँगवाया। भोजन किया और लम्बी तान कर सो गया।

अपराह्न कोई तीन बजे उठा। चाय के लिए घण्टी बजाई। सेवक हाजिर हुआ। थोड़ी देर बाद चाय लेकर लौटा। लेकिन केवल चाय लेकर नहीं। सवाल भी साथ थे। उसने पूछा - ‘सच में ताजमहल नहीं देखा?’ मेरा जवाब वही रहा। ‘फिर भी देखने नहीं जाएँगे?’ मेरा इंकार इस बार उसे बर्दाश्त नहीं हुआ। वह मानो उबल पड़ा। तुर्शी से बोला - ‘फिर तो साहब आप बिलकुल सही जगह आए हैं। आगरा इस काम के लिए भी पहचाना जाता है। भर्ती हो जाओ और अपना ईलाज करवा लो।’ मैं हँस दिया। मेरी हँसी ने मानो साँड को लाल कपड़ा दिखा दिया। ‘बेवकूफ’, ‘जाहिल’ और ऐसी ही गालियाँ देने लगा। गालियों के अनवरत क्रम के बीच उसने कहा था - ‘फॉरेन के टूरिस्ट ताज देखने आते हैं और एक ये हैं कि कह रहे हैं कि ताज नहीं देखेंगे!’ इस बार वह आक्रामक लग रहा था। मेरी हँसी पलायन कर गई और डर ने डेरा डाल लिया। घबरा कर मैंने होटल के मैनेजर को पुकारा। नहीं, पुकारा नहीं, चिल्ला कर पुकारा। वह आया। सब कुछ सुन-देख कर उसने सेवक को भगाया। मुझसे माफी माँगी। लेकिन वह भी अपने आप को रोक नहीं पाया। पूछ बैठा - ‘वाकई में आपने अब तक ताज नहीं देखा है और इसके बाद भी आप ताज देखने नहीं जाएँगे?’ मैंने कहा - ‘हाँ, देखा भी नहीं है और देखूँगा भी नहीं।’ उसने तनिक विगलित होकर पूछा था - ‘भला क्यों साहब?’ मैंने अनुभव किया था कि अपनी बेगम मुमताज के प्रति शाहजहाँ जितना जजबाती रहा होगा, उससे कहीं अधिक जजबाती आगरा के लोग ताजमहल के प्रति हैं। मैंने चलताऊ जवाब दिया था - ‘मेरी मुमताज के बिना ताज देखना मुझे नहीं सुहाता।’ तसल्ली तो उसे शायद नहीं हुई थी किन्तु मेरा जवाब उसे ‘तहजीबी’ लगा होगा। वह भी मुझे नौवें अजूबे की तरह देखते हुए ही लौटा था।

इस बार पूरे तीन दिन आगरा रहा - सात, आठ और नौ नवम्बर। भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों के एक मात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया’ (लियाफी) के चौदहवें साधारण सम्मेलन में भाग लेने के लिए। चार एजेण्ट मित्र और साथ थे। चारों के चारों आयु में मुझसे कम से कम बीस बरस छोटे। भरपूर समय मिला था। ताज देखा जा सकता था। चारों ने कार्यक्रम बनाया। मैं उनके साथ भी नहीं गया। उन्होंने मेरे इंकार पर विश्वास ही नहीं किया। वे तो मानकर ही चल रहे थे कि उनके बनाए कार्यक्रम में मैं शामिल हूँ ही। सवाल-दर-सवाल और मनुहार-दर मनुहार। किन्तु मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। खिन्नमना होकर उन्होंने भी वही सवाल किया ‘क्यों?’ उनके सवाल पर तो नहीं किन्तु अपने जवाब पर ही मुझे ताज्जुब हुआ। शब्दों का अन्तर रहा होगा किन्तु मेरा जवाब वही रहा जो सत्ताईस बरस पहले, उस होटल मैनेजर को दिया था - ‘मेरी मुमताज के बिना ताज देखना मुझे नहीं सुहाता।’

मेरा जवाब सुनकर चारों, कनखियों से एक दूसरे को दखेकर हँस दिए और हँसते-हँसते ही चल दिए। किन्तु उनके जाने के बाद देर तक मैं अकबकाया बैठा रहा। अपना, ‘वही का वही’ जवाब मुझे ही चौंका गया। तब भी जवाब मन से निकला था और इस बार भी मन से ही निकला था, बिना सोचे-विचारे।

ताजमहल तो जड़ है। वह तो नहीं बदल सकता। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं हो सकती। किन्तु मैं और मेरा मन? ये तो सजीव हैं। जड़ नहीं। फिर?

क्या मैं भी जड़ हो गया हूँ? मेरा मन ताजमहल हो गया है?

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4 comments:

  1. बहुत सुन्दर संस्मरण है। आप जड नहीं हो रहे आपकी आस्था मे ताज महल जैसी सुन्दरता और प्रेम है । एक पति पत्नि ताज देख कर जैसे ही बाहर निकले दोनो की जम कर लडाई हुई । ये सब केवल देखने भर से क्या होता है देख कर उस मे निहित मर्म को नहीं जाना तो देखने का क्या लाभ। शुभकामनायें । बहुत देर बाद आपके ब्लाग पर आने के लिये क्षना चाहती हूँ

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  2. वाकई, आप का मन ताजमहल हो गया है।
    वैसे ऐसी छोटी छोटी जिदें हर इंसान करता है। मैं भी।

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  3. यह तो खूब रही पापा !! आपके दिल के हिसाब से आप मे और मुझ मे केवल कुछ ५-७ साल का फासला रह गया है. आप तब भी ३५ के थे और आज भी ३५ के है. चलो बहुत अच्छा हुवा आप 'देखने' नहीं गए, जो चीज़ महसूस और एहसास करने से जुडी हो उसको केवल देखने से क्या फायदा. ताजमहल को मैंने भी दो बार देखा है, एक जब हम कुछ १५-२० दोस्त साथ गए थे और दूसरी बार जब मे आपकी पुत्रवधू के साथ गया था. पहली बार इमारत देखी थी दूसरी बार इमारत पर लिखी इबादत भी देखी थी. इंशाअल्ला अब की बार कुछ ऐसा करेंगे की आप की मुमताज़ अपने शेह्जादों के साथ आपको ताज महल की रौनक से वाकिफ करवा दे. तब तक के लिए अपने ३५वे साल का आनंद लीजिये.

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  4. विष्णु जी,
    आपने ताज नहीं देखा और हमसे आपकी यह खूबसूरत पोस्ट देखने से छूट गयी. आज पढ़ा और पढ़कर पूरा आनंद लिया. खासकर होटल-परिचारक की प्रतिक्रया पढ़कर खूब हंसी आयी.

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