जयन्त बोहरा और अशोक ताँतेड़ यह सब पढ़कर खूब खुश होंगे। दोनों को गुदगुदी होगी और कोई ताज्जुब नहीं कि दोनों एक दूसरे को बधाई भी दें। दोनों ने, सोलह नवम्बर की शाम को ही भविष्यवाणी कर दी थी कि मैं यह सब लिखूँगा।
पन्द्रह नवम्बर की सुबह ही सुरेश (चोपड़ा) का फोन आ गया था-‘आपको और भाभीजी को कल शाम का भोजन हमारे साथ करना है।’ कारण तो मुझे पता था (बधाई पत्र जो भेज चुका था!) किन्तु सुरेश के मुँह से सुनना अच्छा लगता। सो पूछा - ‘क्या बात है?’ ‘कल हमारे विवाह के 25 बरस पूरे हो रहे हैं। बच्चों ने पार्टी रखी है। आप दोनों को आना ही है।’ मैंने बधाइयाँ दीं और वादा किया - ‘कल की शाम तुम्हारे और अरुणा के नाम। पक्का रहा।’
अगली (सोलह नवम्बर की) सुबह साढ़े पाँच बजे सुरेश का एसएमएस आया - ‘कोई भेंट नहीं लाएँ। फूल भी नहीं।’ मैंने फोन किया । पूछा - ‘यह आग्रह खानापूर्ति है या इसमें ईमानदारी ही है?’ ‘नहीं। खानापूर्ति बिलकुल नहीं। पूरी ईमानदारी से अनुरोध कर रहा हूँ। कोई भेंट स्वीकार नहीं करेंगे। गुलदस्ता या बुके भी नहीं।’ मैंने कहा-‘ऐसा तो नहीं कि तुम सबके उपहार स्वीकार कर लो और तुम्हारा कहना मान कर, खाली हाथ आनेवाले मुझ जैसे लोग अकारण ही हीनताबोध या अपराधबोध के शिकार हो जाएँ।’ सुरेश ने खातरी बँधाई - ‘सच मानिए। परिवार का कोई भी व्यक्ति, कोई भी उपहार स्वीकार नहीं करेगा।’ इतने अच्छे निर्णय के लिए मैंने सुरेश को बधाई दी और कहा - ‘ईश्वर तुम्हारे संकल्प की रक्षा करे।’
पत्नी के साथ, निर्धारित समय पर आयोजन स्थल पहुँचा तो पहले रमेश भाई (सुरेश के बड़े भाई) ने और उनके पीछे-पीछे सुरेश और अरुणा ने अगवानी की। दोनों के गले में सेवन्ती की सुन्दर मालाएँ महक रही थीं। मैं कुछ भी बोलता उससे पहले ही सुरेश ने कहा - ‘ये मालाएँ घर की ही हैं। किसी आगन्तुक ने नहीं पहनाई हैं।’ हम सब हँसे।
आयोजन की गहमा-गहमी शुरु हो चुकी थी। आमन्त्रित अतिथियों से हॉल भरने लगा था। बच्चों की किलकारियाँ वातावरण को जीवन्त बना रही थीं। आगमन के इसी क्रम में जयन्त (बोहरा) और अशोक (ताँतेड़) भी थोड़ी देर में आए। अलग-अलग। मेरी तरह तथा कुछ और आमन्त्रितों की तरह वे दोनों भी खाली हाथ ही आए थे। मुझे अच्छा लगा। खाली हाथ आनेवाला मैं अकेला नहीं था।
सुरेश और अरुणा को सजी-धजी कुर्सियों पर बैठाया गया। दोनों बच्चे, रिमझिम (21 वर्ष) और उज्ज्वल (11 वर्ष) साथ बैठे। दोनों पक्षों के वरिष्ठों ने जोड़े को आशीर्वाद दिया। इस बीच रिमझिम ने माइक सम्हाल लिया। वह बी ई की छात्रा है। मालूम हुआ कि उसी दिन उसकी परीक्षा थी। थोड़ी देर पहले ही मन्दसौर से लौटी है। विवाह के लिए सुरेश-अरुणा के परस्पर ‘देखने’ से लेकर बच्चों के इस अवस्था तक के घटनाक्रम को सुन्दर सम्वादों और फिल्मी गीतों के समन्वय से प्रस्तुत किया जाने लगा। मुझे अच्छा भी लगा और आश्चर्य भी हुआ कि चुने गए सारे गीत मेरे जमाने के थे। लग रहा था मानो मैं अपने विद्यार्थी काल में पहुँच गया हूँ। सारे गीत कोई पैंतीस-चालीस साल पहले के समय के। मीठे, भावपूर्ण और होश गुमा देनेवाले। बाद में मालूम हुआ कि गीतों का चयन खुद अरुणा ने किया था जिसके लिए हम सबने उसे अतिरिक्त बधाइयाँ दीं - ढेर सारी।
लेकिन सब कुछ प्रियकर नहीं था। बीच-बीच में आमन्त्रित भाई लोग, भात में कंकर मिलाते रहे। बहुरंगी, चमचमाती पन्नियों में पेक किए, छोटे-बड़े आकार के भेंट-पेकेट लेकर आए ये अतिथि, सुरेश और अरुणा से मानो हाथापाई कर रहे हों - अपनी भेंट स्वीकार करने के लिए। इंकार करने में सुरेश-अरुणा को सचमुच में अत्यधिक परिश्रम करना पड़ रहा था। यह सब करते हुए उनके चेहरे पर खीज और झुंझलाहट क्षणिक बिजली की तरह तैर जाती। इंकार करते हुए मुस्कुराते रहने के लिए उन्हें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ रहा था। मानना पड़ेगा कि दोनों अपने संकल्प पर कायम रहे और एक भी अतिथि की भेंट स्वीकार नहीं की। कई लोग गुलदस्ते लेकर आए थे जिन्हें दोनों ने अनमनेपन से स्वीकार किया।
भेंट स्वीकार करने के लिए आमन्त्रित अतिथियों ने जब-जब, सुरेश-अरुणा से ‘कुश्ती लड़ी’ तब-तब, हर बार मुझे झुंझलाहट हुई। जी किया कि जाकर, भेंट स्वीकार करने के लिए कुश्ती लड़ रहे लोगों को धक्के देकर सुरेश-अरुणा के सामने से हटा दूँ, प्रताड़ित करूँ और वहाँ से भगा दूँ। अस्वीकृत भेंट हाथ में लिए कई लोग, सुरेश-अरुणा पर नाराज हो रहे थे। एक को तो मैंने कहते हुए सुना - ‘ये भेंट नहीं ले रहे हैं तो बताओ, मुफ्त में भोजन कैसे करें?’ जयन्त और अशोक भी झुंझला तो रहे थे किन्तु मेरे मुकाबले बहुत ही कम। खुद झुंझलाते हुए वे मेरी झुंझलाहट पर हँस रहे थे। दोनों ने कहा - ‘आपको तो आपके लिए मसाला मिल गया है। उम्मीद करें कि इस सब पर आपका लिखा हुआ पढ़ने को मिलेगा।’ तब तो मैंने इंकार कर दिया था किन्तु तब से लेकर इस क्षण तक समूचा घटनाक्रम मैं भूल नहीं पाया।
भोंडे प्रदर्शन से हम सब परेशान हैं। कोई निमन्त्रण पत्र आता है तो खोल कर देखने से पहले ही मन में विचार आता है कि इस प्रसंग पर दी जाने वाली भेंट का आँकड़ा या स्वरूप कैसा हो। आयोजन में सम्भावित आमन्त्रितों की कल्पना कर, अपनी भेंट को लेकर अनायास ही मन में तुलना होने लगती है। ऐसे समय पर मैं प्रायः ही हीनताबोध से ग्रस्त हो जाता हूँ। ऐसा ही कुछ-कुछ सबके साथ होता ही होगा। तब, आयोजन का आनन्द, उसमें शामिल होने का सुख अपने आप ही कम होने लगता है। आत्मीयता की ऊष्मा पर औपचारिकता का पाला पड़ने लगता है। हम सब इससे त्रस्त हैं और मुक्ति चाहते हैं। किन्तु जब-जब भी ऐसी मुक्ति के अवसर मिलते हैं तो न तो खुद पहल करने की हिम्मत जुटा पाते हैं और न ही किसी की ऐसी अच्छी पहल को सफल होने देते हैं। हम न तो खुद ‘कुछ’ करते हैं और न ही किसी और को ‘कुछ’ करने देते हैं। इसके बावजूद हम दुनिया को दोष देते हैं कि दुनिया हमें आराम से जीने नहीं देती। गोया मैं ही गुनहगार, मैं ही फरियादी, मैं ही जज फिर भी न्याय नहीं मिल रहा लेकिन मेरा दोष बिलकुल ही नहीं। दुनिया दोषी।
हम ऐसे समाज के रूप में विकसित/स्थापित हो रहे हैं जहाँ हममें से कोई भी, कुछ भी खोना नहीं चाहता और चाहता है कि उसे सब कुछ मिल जाए। बिगाड़ से परेशान हम लोग सुधार को खारिज कर रहे हैं, बिगाड़ को न केवल निरन्तर किए जा रहे हैं अपितु उसे सशक्त तथा अधिक प्रतिष्ठित भी कर रहे हैं।
हम सचमुच में विचित्र लोग हैं। बिगाड़ के पक्षधर/संरक्षक बने रह सुधार की तलाश में निकले लोग।
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हम सचमुच में विचित्र लोग हैं। बिगाड़ के पक्षधर/संरक्षक बने रह सुधार की तलाश में निकले लोग।
ReplyDeleteबिलकुल सही कह रहे हैं आप रोचक और विसतरित वर्नन के लिये आभार और शुभकामनायें अब आपकी तबीयत कैसी है?
व्यर्थ के रीति रिवाजों और प्रदर्शनों को बंद करने में सबों का सहयोग आवश्यक है .. पर यह विडम्बना ही है कि सही जगह पर भी हम एकजुट नहीं हो पाते हैं !!
ReplyDeleteकल हमारे अभिन्न मित्र का हमारे ही गृहनगर में विवाह है। दो दिन पहले उससे फ़ोन पर बात चल रही थी। एक दूसरे की मौज ली जा रही थी। कि उसने मौज में पूछा कि साले हमें गिफ़्ट क्या दे रहे हो।
ReplyDeleteहमने कहा कि आ सकते नहीं और दिल निकाल के भेज सकते नहीं क्योंकि तब जिन्दा कैसे रहेंगे। बस हम दोनो हंस दिये और इसमें जरा भी बनावट नहीं थी। कुछ गिने दोस्तों से ही ऐसे समबन्ध बचे रह जायें तो समझिये कि जीवन सफ़ल हो गया।
शेष की चर्चा तो आपने कर ही दी है।
बैरागी जी, यह भेंट संस्कृति मैं आज तक स्वीकार नहीं कर पाया। लेकिन लोगों को अब खाली हाथ भी अच्छे नहीं लगते।
ReplyDeleteपूरा विवरण पढ़ना अच्छा लगा खासकर चौपडा दंपत्ति का दृढ निश्चय. यह सब आसान नहीं है.
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