सुनो! नेता


बेशर्मी को अपना गहना कैसे बनाया जाए, यही सिखा रहे हैं हमारे नेता इन दिनों। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इसका एक ही मतलब है कि वे हम, जन-सामान्य को नासमझ, जड़, निरा मूर्ख और अविवेकी ही मानते हैं।


कम से कम उम्र और कम से कम समय में हजारों करोडों का भ्रष्टाचार का वैश्विक कीर्तिमान रचने वाले अनूठे भारतीय राजनेता मधु कौड़ा के तेवर और वक्तव्य दर्शनीय और संग्रहणीय हैं। वे कह रहे हैं कि यदि वे दोषी साबित हो गए तो राजनीति छोड़ देंगे। अनूठा और साहसी काम करेंगे वे ऐसा करके? सचमुच? यद्यपि, हमारे कानून और लम्बी कानूनी प्रक्रिया अपराधियों और दोषियों के लिए अपेक्षा से कई गुना अधिक राहत उपलब्ध करती है। तदपि, यदि कोड़ा दोषी साबित हो गए तो वे इस दशा में रहेंगे कि राजनीति में रह सकें? तब तो वे बरसों-बरस जेल में रहने को विवश रहेंगे। वही उनका स्थायी पता भी बन जाएगा। तब वे कैसे कर सकेंगे राजनीति? कैसे रह सकेंगे राजनीति में? क्या जेल में ही कोई पार्टी बना कर, कैदियों का कोई विधायी सदन और जेल को पृथक राज्य बनाएँगे? निश्चय ही ऐसा कुछ नहीं कर पाएँगे। जाहिर है कि तब वे चाह कर भी राजनीति में नहीं रह पाएँगे, राजनीति नहीं कर पाएँगे। ऐसे में यह कहने का क्या मतलब है कि यदि दोषी साबित होंगे तो राजनीति से सन्यास ले लेंगे? अपने अपराधों को बेशर्मी से अपना आभूषण कैसे बनाया जाता है, यही बता रहे हैं मधु कौड़ा।


एक और नमूना। चुनावों में जब भी कोई औंधे मुँह गिरता है, मतदाता धूल चटाते हैं तो औंधे मुँह पड़ा नेता कहता है - ‘मैं मतदाता का आदेश शिरोधार्य करता हूँ।’ यह बात भी नेता ऐसे कहता है मानो वह मतदाताओं पर उपकार कर रहा हो। ऐसे कहता है मानो वह चाहे तो हार कर भी कुर्सी पर बैठ सकता है किन्तु ऐसा करेगा नहीं। मात खाने वाले राजनीतिक दल कहते हैं - ‘हम जनता के फैसले का सम्मान करते हुए अब विपक्ष में बैठकर अपनी भूमिका निभाएँगे।’ अब इनसे कौन पूछे कि भैया आपको यही काम तो लोगों ने सौंपा है! यह नहीं करोगे तो और क्या करोगे? सौंपी गई जिम्मेदारी निभाने का वादा और दावा ऐसे कर रहे हो मानो मतदाताओं और उनकी भावी पीढ़ियों पर उपकार कर रहे हो। सच बात तो यह है कि ऐसा कहते हुए तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है। कुर्सी पर बैठने को मचल रहे नितम्बों की कसमसाहट को छुपाने में बड़ी वेदना हो रही है। तुम मतदाताओं को गरियाना, लतियाना चाहते हो। धिक्कारना, प्रताड़ित करना चाहते हो। तुम्हारा बस चले तो तुम मतदाताओं को गोली मार दो - ‘स्साले तुम्हारी यह हिम्मत और औकात कि लतियाकर हमें गद्दी से धकेल दिया?’


किन्तु तुम लालची और अवसरवादी ही नहीं, डरपोक भी हो। अपने मन की बात साफ-साफ कहने की हिम्मत तुममें नहीं है। कह दो तो सम्भावनाओं का खेत ऊसर हो जाए! हमेशा-हमेशा के लिए खारिज किए जा सकते हो। सो, तुम भेड़ियों की तरह शालीन, विनम्र और भद्र बनते रहते हो। बेशर्मी को अपना गहना बनाते रहते हो।
मजे की बता यह है कि मतदाता तुम्हारे इस स्वांग को भली प्रकार जानते हैं और तुम भी यह जानते हो कि मतदाता सब जानते है। फिर भी यह खेल चलता चला आ रहा है और चलता रहेगा-सनातन से प्रलय तक।


सच मानो! खोखले, आदर्श सम्वादों और इस मुखमुद्रा में तुम अत्यधिक भोंडे और हास्यास्पद लगते हो। यही वह क्षण होता है जब मतदाता तुम से सन्तुष्ट और खुश होता है। वर्ना, शेष समय और अवसरों पर तो मतदाता सदैव खरबूजा ही बना हरने को अभिशप्त है।

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2 comments:

  1. बासठ साल हो गए सर, इन्हें हमें यह सिखाते -सिखाते !

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  2. बेहतर आलेख । विचारणीय है - "तब तो वे बरसों-बरस जेल में रहने को विवश रहेंगे। वही उनका स्थायी पता भी बन जाएगा। तब वे कैसे कर सकेंगे राजनीति?"

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