बात बोलती है, असर होता है


यह उन्नीस अगस्त की रात है। पौने ग्यारह बज रहे हैं जब मैंने यह पोस्ट लिखनी शुरु की है। सर्वथा अनपेक्षित और उससे भी अधिक आकस्मिकता से मिली सफलता से उपजी प्रसन्नता मुझसे समेटे नहीं बन रही। बात ही ऐसी है। मन को आह्लाद से लबाबल कर देनेवाली और आत्मा को उजास से भर देनेवाली।

पन्द्रह अगस्तवाली मेरी पोस्ट कॉमन वेल्थ की प्रेरणा, ‘साप्ताहिक उपग्रह’ (रतलाम) के पन्द्रह अगस्तवाले अंक में, मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में छपी थी। ‘उपग्रह’ का वह अंक मैंने सत्रह अगस्त को उन एजेण्ट बन्धु को पढ़वाया जो ऑफिस फर्नीचर का झूठा बिल बनवा कर अपना घरेलू फर्नीचर बनवाने में मेरी मदद चाह रहे थे।

उन्होंने पूरा आलेख पढ़ा और सकपका कर आसपास देखा। एजेण्टों के कक्ष में हम कोई सात-आठ एजेण्ट बैठे थे। उन्हें तसल्ली हुई यह देखकर कि हम दोनों की ओर देखने की फुर्सत किसी को नहीं थी। बोले-‘बाहर चलिए।’ हम दोनों बाहर आए और पॉवर हाउस मार्ग पर, एलआईसी के हमारे शाखा कार्यालय के सामने, सड़कपार, चाय के ठेले के पास लगी बेंच पर बैठे गए। यहाँ हम दो ही थे। तीसरा था ठेलेवाला जो चाय बनाने में मगन था। वे बोले - ‘तेरह अगस्त को तो मैंने आपसे बात की थी और पन्द्रह को आपने वह सब छाप दिया?’ परिहास करते हुए मैंने कहा - ‘कहाँ ‘सब’ छाप दिया? आपका नाम तो रह ही गया।’ वे तनिक खिसिया कर बोले - ‘आपके साथ यही बात अच्छी है। आप यदि इज्जत बढ़ाते नहीं तो कम भी नहीं करते। लेकिन बताइए, यह किस्सा मुझे क्यों पढ़वाया?’ मैंने कहा-‘उस दिन तो आप नाराज होकर चले गए थे। आज अपने मन पर हाथ रख कर तनिक तटस्थ भाव से बताइए, पढ़कर कैसा लगा?’ जवाब आया-‘अच्छा तो नहीं ही लगा किन्तु गुस्सा बिलकुल नहीं आया। सच बात तो यह है कि तेरह की शाम को, आपके पास से लौटने के बाद से ही बराबर लगने लगा था कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूँ।’ मुझे तसल्ली तो हुई ही, हिम्मत भी बढ़ी। पूछा-‘तो मैं समझूँ कि अब आपने मुझ माफ कर दिया और अब आप मुझसे नाराज नहीं हैं?’ निष्प्राण हँसी हँसते हुए वे उदासीन स्वरों में बोले-‘क्या तो माफी और क्या नाराजी? आपने तो अपनी आदत के मुताबिक ही व्यवहार किया। तेरह अगस्त को पहले तो मुझे सचमुच में गुस्सा आ गया था किन्तु जैसा मैंने कहा, बाद में अपनी गलती का अहसास होने लगा था। किन्तु आज तो आपका यह लेख पढ़कर बेचैनी होने लगी है।’ बुझे-बुझे और तनिक घबराए मन से मैंने कहा-‘मैं आपका अपराधी हो गया हूँ। माफी माँगता हूँ। मुझे माफ कर दीजिए।’ वे असहज हो गए। बोले-‘अरे! कैसी बातें कर रहे हैं? आपकी बातें मुझे भले ही अच्छी नहीं लगी हों किन्तु इतना भरोसा तो मुझे है कि आपने मेरा बुरा नहीं चाहा। जो भी कहा, मेरा भला चाह कर ही कहा।’ कुछ क्षणों के लिए हम दोनों के बीच मौन पसर गया। लम्बी साँस लेकर बोले-‘चलता हूँ। अब आज कुछ भी काम नहीं कर पाऊँगा।’ और वे चले गए। न तो नमस्कार किया और न ही एक बार भी पलट कर देखा।

आज (उन्नीस अगस्त को) जब वे आए तो बदले-बदले तो लग रहे थे किन्तु उनकी शकल देख कर बदलाव की दिशा और स्वरूप समझ पाना सम्भव नहीं हुआ। लपक कर मेरी ओर आए। ऐसे, मानो पचीसों ग्राहकों और बीसियों एजेण्टों के होने का रंचमात्र भी अहसास न हो। कुछ इस तरह से मिले मानो बियाबान में मिल रहे हों। बिना किसी भूमिका के बोले-‘मैं केवल आपसे मिलने के लिए और यह कहने के लिए आया हूँ कि ऑफिस फर्नीचर का झूठा बिल लगा कर घर का फर्नीचर बनाने का विचार मैंने छोड़ दिया है। और, ऑफिस फर्नीचर तो मुझे चाहिए ही नहीं! सो, अब मैं फर्नीचर ऋण ही नहीं ले रहा हूँ।’ कहते हुए उनका गला भर्रा गया किन्तु उनकी आवाज में विक्टोरीयायुगीन चाँदी के ‘कलदार सिक्के’ की खनक थी।

मैं हड़बड़ाकर खड़ा हो गया। मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था कि क्या कहूँ। पता नहीं कैसे मुँह से निकला-‘आपकी निष्कलुष आत्मा को मैं प्रणाम करता हूँ। ईश्वर आप पर आजीवन ऐसा ही कृपालु बना रहे।’ मैंने सुना, मेरी आवाज भी रुँधी हुई थी।


हम दोनों कुछ क्षण यूँही खड़े रहे, बिना बोले, एक दूसरे के आर-पार देखते हुए, अपने आसपास से बेखबर। चुप्पी उन्होंने ही तोड़ी। सस्मित बोले-‘आपको क्या हो गया? आपकी सिट्टी-पिट्टी क्यों गुम हो गई? आपका उपदेशक कहाँ चला गया?’ मुझसे कोई उत्तर नहीं बन पड़ा। इस बार तनिक अधिक जोर से हँसते हुए बोले-‘चलिए! चाय पिलाइए।’

हम दोनों एक बार फिर उसी ठेलेवाली बेंच पर बैठे। आज भी हम दो ही थे और ठेलेवाला उसी तरह चाय बनाने में मगन था। थोड़ी देर में ठेलेवाला ने हम दोनों को ‘डिस्पोजेबल’ के नाम पर ‘नान डिस्पोजेबल’ कप थमा दिए। पहली सिप लेकर उन्होंने बात शुरु की-‘एक काम बताऊँ? बुरा तो नहीं मानेंगे?’ मुझसे अभी भी नहीं बोला जा रहा था। उन्होंने अपनी बात बढ़ाई-‘ऐसे ही बने रहिएगा और यही सब करते रहिएगा। लोग आप पर हँसे तो भी, आपको नुकसान उठाना पड़े और बुरा बनना पड़े तो भी। होता यह है कि जब कोई टोकता ही नहीं तो आदमी अपनी हर बात को, अपने हर फैसले को सही मानने लगता है। कोई टोका-टाकी करेगा तो ही तो वह अपनी बात पर फिर सोचेगा, विचार करेगा! अपना फैसला बदला तो मैंने ही किन्तु इसके पीछे आप हैं। आपकी बात मुझे ‘लग’ गई। परसों, मैंने अपने बेचैन होने की बात कही थी। वह बेचैनी तभी खत्म हुई जब मैंने परसों शाम को, यह ऋण न लेने का फैसला किया। फैसला लेते ही मुझे लगा मानो मैं गौ हत्या के अपराध से बच गया हूँ। मैं कल भी आपके पास आ सकता था किन्तु नहीं आया। कल दिन भर और रात में नींद आने तक अपने फैसले को तौलता रहा। डरता रहा कि कहीं अपना फैसला बदल न दूँ। किन्तु एक मिनिट के लिए भी मन नहीं डिगा। सो, आज आया और आपको अपना फैसला सुनाया।

'मैं जानता हूँ कि एक मेरे भ्रष्टाचार न करने के फैसले से देश में भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा। किन्तु आपने मुझे समझा दिया कि भ्रष्टाचार की कोई क्लास या केटेगरी नहीं होती। वह केवल भ्रष्टाचार होता है, मैं करूँ या कोई और करे। मुझे बुरा तो लगा था किन्तु आपने मुझे समझा दिया कि यदि दूसरों का भ्रष्टाचार अनुचित है तो मेरा भ्रष्टाचार भी अनुचित है। मैं कोई साधु-सन्त नहीं हूँ। बाल-बच्चेदार आदमी हूँ। कल के लिए मैं कोई वादा नहीं करता किन्तु कोशिश करुँगा कि अपनी ओर से भ्रष्टाचार नहीं करूँ और यदि करना पड़ा तो फिर पक्का मानिए कि उसी मिनिट से, भ्रष्टाचार का रोना-गाना तो बन्द कर ही दूँगा।’

यह सब कहते-कहते वे अपनी चाय खत्म कर चुके थे जबकि मैं जड़वत्, चाय का कप थामे, उन्हें देख-सुन रहा था। मेरी दशा देख वे एक बार फिर हँसे। मेरा कन्धा थपथपाते हुए खड़े हुए। ठेलेवाले से कहा-‘चाय के पैसे इनसे लेना।’

और वे चले गए। किन्तु मैं उन्हें जाते हुए देर तक और दूर तक नहीं देख पाया। वे बमुश्किल बीस-पचीस कदम ही चले होंगे कि उनकी आकृति धुँधला गई। आँखों के रास्ते चले नमक ने मेरी चाय खारी कर दी थी।

वे चले गए हैं। बेंच पर मैं अकेला बैठा हूँ। मैं कुछ भी साफ नहीं देख पा रहा हूँ। सब कुछ धुँधलाया हुआ है-एकदम ‘आउट ऑफ फोकस।’

मेरे आँसू थम नहीं रहे हैं। मुझे क्यों लग रहा है कि मैंने चार धाम तीर्थ यात्रा कर ली है?
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2 comments:

  1. वाह ये हुई ना बात! हम बदलेंगे युग बदलेगा।

    जैसे आपके मित्र ने कहा मैं भी यही कहूंगा 'ऐसे ही बने रहिएगा और यही सब करते रहिएगा।'

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  2. जब कोई टोकता ही नहीं तो आदमी अपनी हर बात को, अपने हर फैसले को सही मानने लगता है। कोई टोका-टाकी करेगा तो ही तो वह अपनी बात पर फिर सोचेगा, विचार करेगा!
    सत्य वचन! हम लोग अपने आसपास गलत बातें और गलत लोगों को इतना ज़्यादा देखते हैं कि कई बार गलत विचार ही सामान्य लगने लगते हैं। ऐसे में एक-एक सही शब्द बहुमूल्य हो जाता है। आपने एक व्यक्ति नहीं, एक पूरे परिवार को दिशा दी है!
    बधाई!

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