अखबारों और पत्र/पत्रिकाओं में आए दिनों कभी ‘हिंगलिश’ के पक्ष में सीनाजोरी से दिए तर्क सामने आते हैं तो कभी हिन्दी के पक्ष में, गाँव-खेड़ों, कस्बों से उठते एकल स्वर सुनाई देते हैं। सीनाजोरी का विरोध करने और एकल स्वरों में अपना स्वर मिलाने को मैंने अपनी फितरत बना रखी है ताकि सीनाजोरों की निर्द्वन्द्वता, नाम मात्र को ही सही, बाधित हो और एकल स्वरों को अकेलापन न लगे। ऐसे सैंकड़ों पत्र मैंने लिखे किन्तु उनका कोई रेकार्ड नहीं रखा। 5 सितम्बर को अचानक ही विचार आया कि इन पत्रों का रेकार्ड रखा जाना चाहिए। इसीलिए इन पत्रों को 5 सितम्बर से अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना शुरु कर दियाँ। ये मेरे ब्लॉग की पोस्टों में शरीक नहीं हैं। मैं जानता हूँ इनकी न तो कोई सार्वजनिक उपयोगिता है और न ही महत्व। यह जुगत मैंने केवल अपने लिए की है।
03 नवम्बर 2010, बुधवार
धन तेरस, 2067
प्रिय रघुरामनजी,
सविनय सप्रेम नमस्कार,
भली प्रकार जानता हूँ मैंने आसान काम हाथ में नहीं लिया है। और यह भी भली प्रकार जानता हूँ कि अपने इस काम के बदले में मुझे आपकी और आप जैसे तमाम लोगों की अप्रसन्नता (और आश्चर्य नहीं कि नफरत भी) ही मिलेगी। लेकिन प्राप्ति की प्रत्याशा क्यों? मुझे तो अपना काम करते रहना है।
'दैनिक भास्कर' में आपके स्तम्भ ‘मेनेजमेंट फंडा’ में आपके आलेख लगातार निर्दोष-प्रायः ही आ रहे हैं। इतने कि लोगों को आगे रहकर पढ़वाता हूँ। किन्तु कभी-कभी आपका, ‘निर्दोषिता क्रम’ भंग हो जाता है। मुझे आश्चर्य नहीं होता। आपको (और/अथवा आपके आलेखों के अनुवादकों को) इस ‘निर्दोषिता’ की आदत जो नहीं! बिगाड़ में कोई देर नहीं लगती। सुधार में ही भरपूर समय और श्रम लगता है।
गए दो दिनों में आपके आलेखों में अचानक ही अंग्रेजी शब्द अपेक्षा से अधिक दिखाई दिए हैं। उन्हीं की ओर आपका ध्यानाकर्षित करने की चेष्टा, एक बार फिर कर रहा हूँ, जानते हुए कि यह अन्तिम चेष्टा नहीं है।
कल, 02 नवम्बर वाले, ‘बच्चों के विकास का मंत्र है एक्सपोजर’ शीर्षक आलेख में एक बार फिर अंग्रेजी शब्द ‘क्लास’ का बहुवचन रूप ‘क्लासेस’ (‘....और फिलहाल इस संदर्भ में क्लासेस ले रहे हैं।’) प्रयुक्त किया है। आप यहाँ आसानी से ‘कक्षाएँ’ प्रयुक्त कर सकते थे जो लोक प्रचलित है। और यदि अंग्रेजी पर ही अड़े रहना जरूरी था तो ‘क्लासें’ लिखा जाना चाहिए था।
हिन्दी के सहज लोक प्रचलित शब्दों के स्थान पर आपने अकारण ही अनेक अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त किए हैं। इनके उल्लेख इस प्रकार हैं -
1. ‘एक छात्र ने अपने गांव के रहवासियों की जहाँ-तहाँ थूकने की आदत पर स्टोरी लिखी है....।’
यहाँ, बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ‘थूकने की आदत पर समाचार लिखा है’ या ‘समाचार
बनाया है’ लिखा जा सकता था।
2. ‘.....ग्रामीण आबादी आज भी टायलेट का इस्तेमाल नहीं करती...।’
यहाँ टायलेट के स्थान पर शौचालय प्रयुक्त किया जा सकता था।
3. ‘....इन जैसे बाकी छात्रों में कॉमन बात यह है....।’
यहाँ ‘कॉमन’ के स्थान पर ‘सामान्य’ प्रयुक्त करने पर अर्थान्तर नहीं होता।
4. ‘.....बच्चों के अधिकार जैसे विषयों को कवर करेगा।’
इस वाक्य को आप इस तरह लिख सकते थे - ‘...
बच्चों के अधिकार जैसे विषयों पर समाचार छापेगा।’
5. ‘यह यूनिसेफ द्वारा चलाए गए प्रोजेक्ट का हिस्सा है...।’
यह वाक्य इस प्रकार हो सकता था - ‘यह यूनिसेफ द्वारा चलाई गई योजना/परियोजना का हिस्सा
है...।’
अपने इस आलेख के शीर्षक में और अन्तिम अनुच्छेद (पैराग्राफ) में आपने ‘एक्सपोजर’ शब्द प्रयुक्त किया है। इसकी व्यंजना को अनुभव कर, प्रथमदृष्टया इस पर कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु दोनों ही स्थानों पर इसका भावानुवाद ‘पहचान’ प्रयुक्त करने पर भी लेख के सकल प्रभाव और व्यंजना में कोई कमी नहीं होती। यह इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि आप जैसे स्थापित और लोकप्रिय लेखकों को लोक प्रचलित हिन्दी शब्द प्रयुक्त करने के साथ ही साथ अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्यायवाची शब्दों को प्रचलन में लाने की दिशा में भी सोचना चाहिए।
आपके आज के आलेख ‘वेतन देना ही पर्याप्त नहीं’ में नाम मात्र की ही असावधानी है और वह स्वभाववश ही हुई लगती है।
इस आलेख में आपने दूसरी पंक्ति में ‘स्टाफ’ प्रयुक्त कर सातवीं पंक्ति में ही इसका लोक प्रचलित हिन्दी पर्याय ‘कर्मचारियों’ प्रयुक्त किया है।
इसी प्रकार आपने एक स्थान पर अकारण ही ‘साइन’ प्रयुक्त कर, अगली ही पंक्ति में इसकी व्यर्थता खुद ही जता दी है। आप खुद देखिए - ‘जब भी कोई कर्मचारी किसी संस्थान के साथ कोई अनुबंध साइन करता है तो वास्तव में वह तीन अनुबंध करता है।’
आपने एक स्थान पर ‘जॉब’ और एक स्थान पर ‘बिजनेस’ प्रयुक्त किया है। इनके स्थान पर आप ‘नौकरी/नौकरियाँ’ और ‘व्यापार’ प्रयुक्त करते तो तनिक भी अन्तर नहीं आता।
मुझे आपसे ईर्ष्या होती है कि हिन्दी को विस्तारित, सम्मानित करने के लिए ईश्वर ने आपका चयन किया। काश! यह अवसर मुझे मिला होता।
ईश्वर प्रदत्त इस सुभागी अवसर के जरिए आप हिन्दी के लिए वह काम कर सकते हैं जिसकी कल्पना मात्र ही पुलकित कर देती है।
कृपया, ईश्वर की इच्छा का अनुमान कर तदनुसार परिपालन करने में विलम्ब और कंजूसी मत कीजिए।
हार्दिक शुभ-कामनाएँ।
विनम्र,
विष्णु बैरागी
पुनश्च: यह ई-मेल सन्देश मैं अपने ब्लॉग ‘एकोऽहम्’ पर दिनांक 04 नवम्बर 2010 को ‘मुझे आपसे
ईर्ष्या हो रही है’ शीर्षक से प्रकाशित कर रहा हूँ।
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आपका यह अवलोकन हिन्दी प्रसार में आगे तक जायेगा, सबको इसे सोत्साह स्वीकार करना चाहिये।
ReplyDeleteदिक्कत यही है कि ऐसे ‘मेनेजमेंट फंडा’ बताने वाले भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होंगे कि वे गलत हैं, वे तो यही कहेंगे कि यह सभी शब्द समाज में स्वीकार किए जा चुके हैं
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