तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि यह धर्म है, धर्म का विस्तार है या अधर्म?
मेरे कस्बे में अन्नकूट अभी-अभी समाप्त हुआ है, कार्तिक पूर्णिमा, 21 नवम्बर को। पूरे पन्द्रह दिनों तक चलता रहा मेरे कस्बे में अन्नकूट। गए कुछ वर्षों से यही हो रहा है मेरे कस्बे में। मैं विस्फारित नेत्रों से देख रहा हूँ यह सब।
सन 1977 में मैं जब यहाँ आकर बसा था, तब ऐसा नहीं होता था। तब पूरे देश की तरह यहाँ भी अन्नकूट एक ही दिन होता था - कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को। किन्तु कुछ बरस पहले से परम्परा भंग हो गई। अलग-अलग मन्दिरों मे अलग-अलग दिनों में मनाया जाने लगा अन्नकूट। दो-एक बरस पहले तक, देव प्रबोधनी एकादशी तक अन्नकूट मनाया जाता था। किन्तु अब तो पूरे पन्द्रह दिन मनाया जाने लगा है।
इन पन्द्रह दिनों में मानों मेरे कस्बे के मन्दिरों में और उनसे जुड़े भक्तों में ‘गला काट’ प्रतियोगिता छिड़ी रहती है। जिस मन्दिर का अन्नकूट पहले हो जाता है, उसे फीका करने के सारे जतन किए जाते हैं। छप्पन भोग से कम पर तो अब किसी भी मन्दिर में बात नहीं होती। जोरदार सजावट, चोरी की बिजली से की गई, आँखें चैंधिया देनेवाली रोशनी, व्यंजनों की थालियों का ऐसा प्रदर्शन कि लोग भगवान को भूल कर थालियों को ही देखते रह जाते हैं। जिस मन्दिर पर जितनी ज्यादा भीड़, जितनी ज्यादा रेलमपेल, जितनी ज्यादा अव्यवस्था, जितने ज्यादा बड़े लोगों का आगमन, उस मन्दिर का अन्नकूट उतना ही सफल और चर्चित। आज इस मन्दिर में यदि महापौरजी आए हैं तो कल अपने मन्दिर में विधायकजी आने चाहिए। विधायकजी उस मन्दिर में कल गए थे तो आज अपने यहाँ सांसद आना चाहिए। सांसद न आ पाए तो कम से कम सांसद प्रतिनिधि तो आ ही जाए। दोनों में से कोई नहीं मिल रहा है तो पूर्व मन्त्री को तो लाना ही पड़ेगा नहीं तो लोग क्या कहेंगे और अपनी क्या इज्जत रह जाएगी? कलेक्टर, एसपी को तो कभी भी पकड़ लाएँगे। जरा तलाश करो, सम्भागायुक्त का आने का कार्यक्रम तो नहीं है? ‘मेरी कमीज से उसकी कमीज ज्यादा सफेद कैसे’ की तर्ज पर पटखनी देने की जुगत में भगवान तो शायद ही किसी को याद रह पाते होंगे या फिर भगवान भी टुकुर-टुकुर देखते, सोच रहे होते होंगे कि देखें! ये भक्त मेरी ओर कब देखते हैं? देखते हैं भी या नहीं?
मुझे ऐसे अन्नकूटों की न तो आदत है और न ही मैं इन्हें अन्नकूट मानता हूँ। मुझे तो जन्म घुट्टी के साथ ही समझा दिया गया था कि अन्नकूट केवल कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को होता है और इसका भोग केवल भगवान विष्णु और उनके अवतारों को ही लगता है। इसीलिए यदि मुझे अन्नकूट का प्रसाद लेना होता है तो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को ही जाता हूँ और केवल भगवान विष्णु या विष्णु अवतार के मन्दिर ही जाता हूँ। लेकिन देख रहा हूँ कि इस शास्त्रोक्त और धार्मिक अनुशासन की धज्जियाँ बिखेरी जा रही हैं और वह भी धर्म के नाम पर। मैं जब उन लोगों को तलाशता हूँ जिनकी धार्मिक भावनाएँ, हास्यास्पद बातों के कारण आहत हो जाती हैं और जिनके कारण चारों ओर उथल-पुथल मच जाती हैं तो मेरी यह तलाश मुझे आश्चर्य में डुबो देती है जब मैं देखता हूँ कि वे ही लोग इस शास्त्रोक्त, धार्मिक अनुशासन को गेंद बनाकर, मजे ले-लेकर एक-दूसरे के पाले में उछाल रहे हैं।
मैंने अपने पैतृक गाँव मनासा में, अपने बालसखा अर्जुन पंजाबी को फोन लगाकर वहाँ की दशा जाननी चाही। अर्जुन बोला - ‘लो! प्रसन्न राघव यहीं है। उसी से पूछ लो। वह आधिकारिक रूप से बता देगा।’ प्रसन्न राघव शास्त्री, मेरा सहपाठी है और मालवा अंचल का ख्यात अनुशासित, कर्मकाण्डी ब्राह्मण है। शास्त्र ज्ञान और विद्वत्ता तो उसके जन्मना आभूषण है। श्रीमद् भागवत पारायण के लिए मेरे कस्बे में भी आ चुका है। उसने कहा - ‘अपने यहाँ तो सारे मन्दिरों में अन्नकूट एक ही दिन, कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। बस, श्रीरामानुज कोट में चार दिन बाद मनाया जाता है। इस साल भी सारे मन्दिरों में उसी दिन अन्नकूट मनाया गया है।’ उसने जिज्ञासा जताई - ‘यह पूछने की जरूरत क्यों पड़ी?’ जब मैंने उसे मेरे कस्बे के अन्नकूट की जानकारी दी तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। बोला - ‘यह न तो धर्म सम्मत है और न ही शास्त्र सम्मत।’ मैं क्या कहता? वैसे भी, फोन पर बात करने की सीमा तो होती ही है। सो, प्रसन्न राघव को विस्मित दशा में छोड़ कर फोन बन्द कर दिया।
जानता हूँ कि एक दिन के अन्नकूट के धार्मिक और शास्त्रोक्त अनुशासन को ध्वस्त कर उसे पूरे पन्द्रह दिनों तक खींच ले जाने के लिए भाई लोग आसानी से तर्क जुटा लेंगे। लेकिन निजी मामलों में कोई भी ऐसा नहीं करेगा। मैंने देखा है कि एक ही गाँव में रह रहे, दो सगे भाइयों की सन्तानों के विवाह का एक ही दिन, एक ही मुहूर्त आया तो दोनों में से कोई भी अपना आयोजन स्थगित करने के लिए या एक ही मण्डप में दोनों आयोजन करने के लिए तैयार नहीं हुआ। दोनों को लगा कि यदि मुहूर्त टाल दिया तो बच्चों का अनिष्ट हो जाएगा। दुकान शुभारम्भ की बात हो या गृह प्रवेश की, कोई भी मुहूर्त चूकना नहीं चाहता। कई मामलों में मैंने देखा है बच्चे की परीक्षा की तारीख और गृह प्रवेश का मुहूर्त टकरा गया तो भी गृह स्वामी ने अपना मुहूर्त न तो बदला और न ही स्थगित किया। बेटे की अनुपस्थिति में ही गृह प्रवेश का आयोजन सम्पन्न किया।
मैं तनिक सावधानी से याद करने, देखने की कोशिश करता हूँ तो संकोच होता है यह देखकर कि जिन धर्मों की खिल्ली उड़ाने में हम न तो देर करते हैं और न ही संकोच, उन धर्मों में ऐसे अनुशासन कितनी दृढ़ता से निभाए जाते हैं। इसाइयों के सारे त्यौहारों की तारीखें सुनिश्चित होती हैं। दाउदी बोहरा समुदाय के सारे त्यौहार मिस्री केलेण्डर के अनुसार सुनिश्चित रहते हैं। मुसलमानों की ईद चाँद दिखने पर होगी ही और चाँद नहीं दिखा तो नहीं ही होगी। सिख समुदाय के सारे त्यौहार कड़े अनुशासन के साथ, सुनिश्चित तिथियों को ही होते हैं। ये तो हम ही हैं जो दो-दो जन्माष्टमी, दो-दो रामनवमी और पन्द्रह-पन्द्रह दिनों तक अन्नकूट मना लेते हैं और ऐसा करने के लिए तर्क तथा औचित्य भी तलाश कर लेते हैं - पूरी धार्मिकता के साथ।
कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसी ही बातों के कारण धर्म को अफीम का दर्जा दे दिया गया हो?
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हर त्योहार को उत्सव का रूप दे ईश्वर को कम अन्य को प्रसन्न करने का प्रयत्न हो रहा है। बड़ी सार्थक पोस्ट।
ReplyDeleteयह न तो आस्था के कारण है न ही किसी धार्मिक मदान्धता की वजह से. पूरा पूरा पाखण्ड. सुन्दर पोस्ट.
ReplyDeleteआज दिनांक 20 दिसम्बर 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट त्योहार का अनुशासन शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
ReplyDeleteगिरीश बिल्लौरे और अविनाश वाचस्पति की वीडियो बातचीत