स्सालों ने ठग लिया


बहनजी बहुत दुःखी हैं। इतनी दुःखी कि चार महीने हो गए, किन्तु आघात से उपजे दुःख से अब तक नहीं उबर पाई हैं। इतनी दुःखी कि भूल ही गईं कि वे दीपावली की बधाइयाँ देने आईं हैं और शोक गीत पढ़ रही हैं।

चार महीने पहले ही उनके बेटे का विवाह हुआ है। विवाह खूब धूम-धाम से, हैसियत के पैमाने पर अनावश्यक प्रदर्शन का लगभग चरम छूते हुए हुआ। ऐसे समय हर कोई अपनी हैसियत से कुछ ज्यादा ही कर गुजरता है। वे भी ऐसा ही कर गुजरीं। अपनी करनी के प्रभाव से अब तक मुक्त नहीं हो पाई हैं। ‘उधर’ से अपेक्षानुरून न मिलना (या बहुत कम मिलना) और अपनी जेब से कुछ ज्यादा ही निकलजाने पर जो कुछ होता है, वही बहनजी के साथ भी हो रहा है। स्थिति ‘कोढ़ में खाज’ जैसी हो गई थी।

सो, बहनजी बहुत दुःखी हैं।

कह रही थीं कि लड़कीवालों ने ठग लिया। ‘वे’ कार देने पर तुले हुए थे और बहनजी मना कर रही थीं। ‘उन्होंने’ कहा कि उन्हें तो जमाने को दिखाना है इसलिए वे तो कार देंगे। बहनजी को मजबूरी में लेनी पड़ी। अब कार दी तो केवल कार दी। बिलकुल नंगी। न तो कुशनिंग करवाई और न ही स्टीरीयो वगैरह लगवाया। अब कार यदि है तो उसे कार की तरह तो रखनी ही पड़ेगी! सो, नंगी कार की सजावट में ही बहनजी के पचीस हजार खर्च हो गए। ‘स्सालों ने ठग लिया’, बहनजी कह रही थीं।

बात यहीं पर नहीं रुकी। ‘उन्होंने’ लड़की को गहनों के पाँच सेट चढ़ाए। अब, जब उन्होंने पाँच सेट चढ़ाए तो बहनजी को भी तो ‘कुछ’ करना ही था? वह सब किया तो जमीन धँस गई। यह भी सहन किया जा सकता था किन्तु ‘स्सालों ने बेईमानी कर दी’ बहनजी स्यापा किए जा रही थीं। ‘अब आप ही बताओ! किसी के मन में क्या है, यह कोई कैसे जान सकता है? पाँच सेटों में से एक सेट ही सोने का था। बाकी चार तो इमीटेशन ज्वेलरी के निकले। उन्होंने तो अपनी करनी कर ली लेकिन यहाँ तो सब कुछ साफ हो गया ना? अपना तो सारा माल चला गया और मिलने के नाम पर जीरो बटा सन्नाटा?’

वे दीपावली पर बधाई देने आई हैं, यह याद दिलाने पर भी वे याद नहीं कर पा रही थीं। शोकान्तिकाएँ पढ़े जा रही थीं। चूँकि वे मुझसे नहीं, मेरी उत्तमार्द्ध से बात कर रही थीं सो मुझे एक भले अदमी की तरह चुपचाप सुनना चाहिए था। किन्तु मैं भला नहीं रह सका। अनधिकृत हस्तक्षेप कर पूछा - ‘लड़की तो वही मिली ना जिससे रिश्ता तय हुआ था?’ बहनजी ने आँखें तरेरीं। विषयान्तर उन्हें अच्छा नहीं लगा। तमक कर बोलीं - ‘आप भी कैसी बातें करते हो भैया? उनकी एक ही तो लड़की है!’

अब मैं ही उनसे मुखातिब था। उत्तमार्द्ध खुश हो गईं। उनका पीछा जो छूट गया!

मैंने पूछा - ‘लड़की वही है ? मतलब वही लड़की ना जो नौकरी में थी?’

‘क्या भैया? थी से आपका क्या मतलब? वह अभी भी नौकरी में है।’

‘याने लड़की के मामले में उन्होंने कोई बदमाशी नहीं की। कोई ठगी नहीं की।’

‘आप भी कैसी बातें करते हैं? ऐसा कोई करता है क्या?’

‘चलो। यह तो बहुत ही अच्छी बात है। लड़की अपनी तनख्वाह पिताजी को दे रही है या आपको?’

‘नहीं। नहीं। लड़की बहुत समझदार है। कहने की जरुरत ही नहीं पड़ी। शादी के बाद की पहली ही तनख्वाह उसने पंकज को दे दी।’ पंकज याने बहनजी का बेटा।

‘यह तो और भी अच्छी बात है। अच्छा यह बताईए! शादी के बाद लड़की अपनी तनख्वाह आप को देगी, इस बारे में शादी से पहले कोई बात तय हुई थी?’

‘ऐसी बातें भी कोई तय करता है भैया? यह तो समझने की बात है!’ बहनजी ने मेरी अकल पर
तरस खाया।

‘तो, लड़कीवाले कार देंगे और नंगी कार देंगे और गहनों के जो सेट देंगे उनमें इमीटेशन ज्वेलरी के सेट नहीं होंगे, इस बारे में कोई बात हुई थी?’

‘भाभी ठीक ही कहती हैं। आप में दुनियादारी के लक्खण (‘लक्खण’ मालवी शब्द है जिसका अर्थ है - ‘लक्षण’) नहीं हैं वर्ना यह बात नहीं पूछते।’

‘अच्छा! ये जो आपने कहा कि स्सालों ने ठग लिया तो इस लेन-देन के बारे में कोई लिखा-पढ़ी हुई थी?’

अब बहनजी भड़क गईं। पता नहीं, वे मुझे डाँट रहीं थीं या प्रताड़ित कर रही थीं या मेरी बुद्धि पर तरस खा रही थीं। बोलीं - ‘अरे! सम्बन्ध तय हुआ है। घर में बहू ला रहे हैं। ऐसे में, ऐसी बातों की कोई लिखा पढ़ी होती है?’

‘यदि इस बारे में पहले कोई बात नहीं हुई, कोई लिखा-पढ़ी नहीं हुई, लड़की वही है और शादी के बाद लड़की अपनी तनख्वाह अपको दे रही है तो फिर आपको शिकायत किस बात है?’

बहनजी को ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी। मुझे फटकारते हुए बोलीं - ‘क्या सारी बातें तय की जाती हैं? सारी बातों की लिखा पढ़ी की जाती है? अरे! बहुत सारी बातें तो खुद ही समझने की होती हैं।’

‘आप बिलकुल सही कह रही हैं। लेकिन क्या बातें समझने की सारी जिम्मेदारी लड़कीवालों की ही होती हैं? बातों को समझने की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं होती? सारी जिम्मेदारी उन्हीं की क्यों?’

बहनजी ने मुझे तीखी नजरों से घूरा। पल भर चुप रह कर बोलीं - ‘उनकी जिम्मेदारी इसलिए कि वे लड़कीवाले हैं।’

उन्होंने कह तो दिया किन्तु उनकी आवाज की दृढ़ता और उसमें अब तक बना हुआ अधिकार-भाव कहीं नहीं था। कहते ही उन्हें शायद लगा कि उन्होंने केवल बात ही गलत नहीं कही है, गलत जगह पर भी कह दी है।

मैंने पूछा - ‘आप तो कट्टर सनातनी हैं। धर्म-प्राण हैं। भाई साहब तो वेदपाठी और शास्त्रों के ज्ञाता हैं। उन्हीं से सुना था कि पितृ-ऋण से उबरने के लिए पिता का वंश बढ़ाना पुत्र की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में, जो आदमी, आपके बेटे को पितृ-ऋण से मुक्त करने के लिए अपनी बेटी आपको दे रहा है, वह कुछ भी नहीं? आपके परिवार पर इतना बड़ा उपकार करने के बाद भी सारी बातें समझने की जिम्मेदारी उन्हीं की? आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं? उनका दोष यही कि वे लड़कीवाले हैं?’

बहनजी की शकल से लगा, वे काफी कुछ कहना चाह रही हैं लेकिन दुनियादारी से नावाकिफ, मुझ जड़-मति से कुछ कहने की नादानी नहीं करना चाहती हैं। बोलीं - ‘जब अपनेवाले ही ऐसी बातें करें तो परायों के लिए क्या कहना?’

और वे नमस्ते कर, चली गईं। पहले से ज्यादा दुःखी होकर।
-----

आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

13 comments:

  1. वाह, आप और मैं तो एक ही कैटेगरी के निकले! मेरी बुद्धि पर भी सभी तरस खाते हैं!
    लेकिन मैं खुश हूँ कि बहनजी पहले से ज्यादा दुखी होकर गईं.

    ReplyDelete
  2. दीदी को और दुखी नहीं करना था, बहू के प्रेम से सास सारा दुख भूल जाती हैं।

    ReplyDelete
  3. जय हो...

    बहनजी की...

    ReplyDelete
  4. बहुत अच्छा किया और ऐसा ही सभी को करना चाहिये ताकि सभी अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरो पर ना फ़ोडें……………शायद तभी समाज मे सुधार हो सके और सोच मे बदलाव आ सके।

    ReplyDelete
  5. दिशाबोधी रचना के लिए बधाई .
    -विजय तिवारी ' किसलय "

    ReplyDelete
  6. मन के हारे हार है और मन के जीते जीत .. ऋणात्‍मक सोंच वाले हमेशा दुखी होते हैं .. और धनात्‍मक सोंच वाले खुश .. ताज्‍जुब तो इस बात का कि किसी को समझाने का कोई असर नहीं होता है !!

    ReplyDelete
  7. बहनजियों के भी साले हुआ करते हैं ! तीख़ा है ।

    ReplyDelete
  8. अच्छी समझायिश रही.

    ReplyDelete
  9. वाह एकदम से सीधे कनपटी के नीचे सटा के मारा है ...मुझे लगता है कि बराबर सही लगा होगा एकदम सपाट और झन्नाट ....सालों ने वाकई ठग लिया ...वाकई ...

    ReplyDelete
  10. `अब कार दी तो केवल कार दी। बिलकुल नंगी। न तो कुशनिंग करवाई और न ही स्टीरीयो वगैरह लगवाया। '
    ऐसी भी नंगाई किस काम की :)

    ReplyDelete
  11. बहुत शानदार और धारदार। अब तो बहन जी को अपना दुख बेमानी लग जाना चाहिए।

    ReplyDelete
  12. जब अपनेवाले ही ऐसी बातें करें तो परायों के लिए क्या कहना? :)


    बहुत सटीक!!

    ReplyDelete
  13. पहले तो स्सालों ने ठग लिया, उस पर अपनेवोलों ने और भी दुखी कर दिया - क्या इन दोनों के सन्योग से ज्ञान की किरण फूटेगी?

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.