मीठे पत्ते में नाड़ा खारिज

भ्रष्‍टाचार से हमारे सम्बन्धों की दीर्घता, सामीप्य की सघनता और सान्द्रता को उजागर करनेवाला यह किस्सा भी सुरेशचन्द्रजी करमरकर ने लिख भेजा है। मैं अपनी ओर से इसमें कुछ भी घालमेल नहीं कर रहा हूँ।

भारत को स्वाधीन हुए 15-20 वर्ष हुए थे। पंचायतें गठित हो चुकी थीं। ग्रामीण चेतना जाग्रत हो, ऊँच-नीच, छुआछूत की भावना दूर हो, समरसता बढ़े, जन-स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए लोग चेचक, लाल बुखार के टीके लगवाएँ, परिवार नियोजन अपनाएँ - ऐसे सारे अभियानों के लिए रेडियो ही जन संचार का सशक्त माध्यम था। परिवार में सायकिल का होना अतिरिक्त आर्थिक हैसियत और प्रतिष्ठा का परिचायक-प्रतीक था। टेप, टेलीविजन तो कल्पनातीत थे। दुपहिया के नाम पर सायकिलें और बैलगाड़ियाँ तथा चार पहिया वाहनों के नाम पर सरकारी जीपें थीं।

उपरोल्लेखित अभियानों में योगदान देने के लिए जिला स्तर पर पंचायतों की जीपें उपलब्ध कराई जाती थीं। ग्रामोफोन और लाउडस्पीकर लादे ये जीपें गाँव-गाँव में, गीत, भजन, गोष्ठियाँ अयोजित/संचालित करने का जरिया बनी हुई थीं।

इसी दौर में एक जिला पंचायत को सरकार ने ग्रामोफोन उपलब्ध कराया। प्रभारी साहब जब तक रहे, जन संचार हेतु उपयोग में लेते रहे और बदली हुई तो अपने साथ लिए चले गए। लेकिन उनके जाने से पहले बजट आ गया था। सो नया ग्रामोफोन खरीदवा गए और स्टॉक रजिस्टर की खानापूर्ति के लिए, पुराने ग्रामोफोन के स्थान पर ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ लिखवा दिया। किसी को पता नहीं कि स्टॉक रजिस्टर में क्या लिखा गया। लोगों के सामने तो ग्रामोफोन बज ही रहा था।

नए साहब आए। स्टॉक रजिस्टर जाँचा तो वास्तविकता जानी। लेकिन बोले कुछ नहीं। जब इनका तबादला हुआ तो अपने सामान के साथ, ग्रामोफोन का डिब्बा भी रखवा लिया और स्टॉक रजिस्टर में ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ के स्थान पर ‘ग्रामोफोन के डिब्बे का झोला’ लिखवा दिया।

इन साहब को भी जाना था और नए साहब को आना था। नएवाले ने पुरानेवाले की परम्परा ईमानदारी से निभाई। अपने तबादले के समय, ग्रामोफोन के डिब्बे का झोला लिए चले गए और स्टॉक रजिस्टर में ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के झोले का नाड़ा’ लिखवा दिया।

तबादला केवल साहब का नहीं हुआ। पंचायत मन्त्री भी बदल गया। नया मन्त्री नौजवान भी था और ईमानदार भी। यह उसकी पहली ही पदस्थापना थी तो उत्साह से लबालब था। उसने स्टॉक रजिस्टर में नाड़े की प्रविष्ठि देखी तो उसका माथा ठनका। पुराने रजिस्टर निकलवा कर देखे तो हकीकत जानी। वह सोच में पड़ गया। मन्त्री को कोई सहायक नहीं मिलता था। करे तो क्या करे और पूछे तो किससे पूछे? तय किया कि जब भी ऑडिट पार्टी आएगी तब वास्तविकता बता कर रास्ता तलाश करना ही बेहतर होगा।

उन दिनों ऑडिट पार्टियाँ पंचायत भवनों में ठहरा करती थीं। ऑडिट पार्टी आई। पंचायत भवन में ठहरी। दिन में थोड़ा-बहुत काम निपटाकर रात में बतरस-बैठक जमी। मन्त्री ने अपनी समस्या बताई। सुनकर ऑडिट पार्टी का प्रमुख ठठा कर हँसा। बताया कि बीते बरसों में वही लगातार ऑडिट के लिए आ रहा है और ‘ग्रामोफोन’ के ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के थैले का नाड़ा’ में बदलने के पूरे घटनाक्रम से न केवल वाकिफ है बल्कि हर बार उसी ने यह तरीका बताया और तरीका बताने का शुल्क भी वसूल किया। नौजवान मन्त्री अचकचा गया। बोला कि उसके पास तो शुल्क चुकाने की क्षमता नहीं है। ऑडिट पार्टी प्रमुख एक बार फिर ठठा कर हँसा। नौजवान मन्त्री की पीठ पर हाथ रखा और निश्चिन्त हो जाने को कहा। लेकिन कहा कि शुल्क तो वह लेगा जरूर। नौजवान मन्त्री घबरा गया। पार्टी प्रमुख ने कहा कि वह घबराए नहीं क्योंकि शुल्क का निर्धारण, स्टॉक रजिस्टर में प्रविष्ठ वस्तु के मूल्य के अनुपात में होगा। जब पहली बार ‘ग्रामोफोन’ को ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ में बदला था तब शुल्क का निर्धारण, ग्रामोफोन के मूल्य के आधार पर किया गया था। इस बार तो ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के झोले का नाड़ा’ ही लिखा हुआ है और नाड़े की क्या तो कीमत और क्या औकात? इसलिए, ‘तुम तो आज रात भोजन के बाद, मीठा पत्ता पान खिला देना। तुम्हारी मुक्ति का रास्ता तलाश लेंगे।’

नौजवान मन्त्री ने राहत की साँस ली। उस रात, भोजन के बाद ऑडिट पार्टी को मीठा पत्ता पान खिलाया। जाने से पहले बनाई ऑडिट रिपोर्ट में ऑडिट पार्टी प्रमुख ने लिखा - ‘अनुपयोगी होने से नाड़ा खारिज।’ और इसके साथ ही, स्टॉक रजिस्टर में से ग्रामोफोन-प्रकरण का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

नौजवान मन्त्री का यह पहला ‘ऑडिट अनुभव’ था। सो, लोगों ने पूछा - ‘कैसा रहा ऑडिट?’ उसने जवाब दिया - ‘मीठे पत्ते में नाड़ा खारिज।’ लोगों ने पूछा - ‘मतलब?’ मन्त्री ने कहा - ‘मतलब मत पूछो। मतलब उसे ही जानने दो जिसके गले को नाड़े के फन्दे से मुक्ति मिली।’

श्री सुरेशचन्द्रजी करामराकर : शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के सेवा निवृत्त प्राचार्य हैं। रतलाम में रहते हैं। पता है - ‘शुचि-शिल्प’, 98 राजीव नगर, रतलाम - 457001. ‘शास्त्रवार्ता’ नाम से ब्लॉग भी लिखते हैं जिसे http://shastravarta.blogspot.com पर पढा जा सकता है।

4 comments:

  1. अब तो हर जगह झोले ही रह गये हैं।

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  2. सिर्फ समय, नाड़ा और मीठा पत्ता बदल गया है बाकि सब वही है जो ५० वर्ष पहले था।

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  3. यह तो अब साधारण घटना हो कर रह गई है। जो सामान्य रूप से सब दफ्तरों में घट रही है। जमाना बहुत आगे बढ़ गया है।

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  4. जय बोलो बेईमान की! :(

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