यन्त्रणा से मुक्ति

सोलह महीनों से अधिक हो गए मुझे तेजाब की नदी में तैरते-तैरते। अज्ञात अपराध-बोध से आकण्ठ ग्रस्त रहा इस दौरान। अपनी आस्थाओं, अपने मूल्यों, अपने विश्वास से विश्वास ही उठ गया था मेरा। ‘भलमनसाहत’, ‘नेकी’ जैसे जुमले मेरा मुँह चिड़ाते लगते रहे मुझे इस दौरान। दशा यह हो गई थी कि अपने आदर्शों, अपने  आशावाद पर मुझे शर्म आने लगी थी। खुद से ही नजरेें मिला पाना मुमकिन नहीं रह गया था। ये सोलह महीने मैं कैसे जी लिया? ताज्जुब है मुझे। लगा था कि अब शेष जीवन मुझे इसी तरह रहना है। निश्चय ही ईश्वर की कृपा मुझ पर बनी रही जो मैंने बुद्धि की बात नहीं सुनी। विवेक नियन्त्रित किए रहा और मैं आत्महत्या करने के, ईश्वर के प्रति अपराध से  बच गया। 

कोई एक सप्ताह पहले जब हकीकत मालूम हुई तो खुद से नजरें मिला पाया। सब कुछ पल भर में तिरोहित हो गया। मैं हलका हो गया। कुछ ऐसा और इतना मानो अन्तरिक्ष में भारहीनता की दशा में तैर रहा हूँ।

सन् 2007 की दूसरी छःमाही में उनसे सम्पर्क हुआ था। पहली ही मुलाकात में उन्होंने, सीधे-सीधे नहीं, भरपूर घुमाव देकर दो बातें जता दी थीं। पहली - वे मुझसे सम्पर्क बनाना, बढ़ाना और बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी - उनकी आर्थिक हैसियत बहुत अच्छी नहीं है। पहली बात मैं नहीं जानता था। दूसरी जानता था-उनके जताने से पहले ही। आर्थिक हैसियत मेरे लिए कभी कोई समस्या या विषय नहीं रही। मैंने सातवीं कक्षा तक, दरवाजे-दरवाजे जाकर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगा है। 1991 में एक बार फिर भिक्षा वृत्ति की कगार पर आ खड़ा हुआ था। मित्रों ने सम्हाल लिया। सो, आर्थिक हैसियत मेरे लिए कभी मुद्दा रही ही नहीं। इसलिए उनसे सम्पर्क बनाने, बढ़ाने और बनाए रखने में मुझे कहीं कोई असुविधा नहीं हुई।

कोई छः महीनों बाद ही, मार्च 2008 में उनकी बेटी का ब्याह तय हो गया। उनकी बातों से लगा कि वे मुझसे कुछ अधिक और अतिरिक्त की अपेक्षा रखते हैं। ईश्वर ने हमें बेटी नहीं दी। इसी भावना के अधीन मैंने अपनी सीमाओं से बाहर जाकर उनकी सहायता की। खुद से और खुद के सार्वजनिक सम्मान से अधिक चिन्ता उनकी और उनके सार्वजनिक सम्मान की की। चूँकि यह सब मैंने स्वेच्छा से ही किया था, सो यह खुद के सिवाय किसी और पर उपकार नहीं था। मेरे इस अति उत्साह से मेरे परिजन और मित्र विस्मित थे। वे मुझे बार-बार और निरन्तर रोकते-टोकते रहे। लेकिन मैं नहीं रुका। अपने मन की करता रहा। करके ही रहा। अपने परिजनों और मित्रों की नाराजी झेलकर यह सब किया मैंने। कुछ लोग तो अब तक नाराज हैं मुझसे।

सब कुछ राजी-खुशी, सानन्द, सोल्लास, निर्विघ्न निपट गया। बेटी, बाप के घर से अपने घर चली गई। मैं बहुत ही खुश था। मुझे किसी अच्छे काम में भागीदार होने का सौभाग्य दिया था ईश्वर ने।

सब कुछ ठीक-ठीक ही चल रहा था। पानी ठहरा हुआ था। सब कुछ धीर-गम्भीर, शान्त, आनन्ददायी।

किन्तु वक्त एक जैसा नहीं रहता। मार्च 2013 में एक दिन अचानक उन्होंने मुझे, मेरे ही घर में, मेरी उत्तमार्द्ध के सामने मुझे जी भर कर कोसा, उलाहने दिए, डाँटा-फटकारा। कोई बीस-पचीस मिनिट तक मेरी लू उतराई का समापन यह कह कर किया कि इन पाँच बरसों में उन्होंने हम लोगों को ‘अच्छी तरह से देख लिया’ और अब वे हमसे ‘भर पाए।’ 
मेरे लिए कुछ भी समझ पाना मुमकिन नहीं हो रहा था। मानों, बस! उन्हें कहना था। कह गए। 

वह दिन और कोई सप्ताह भर पहले तक का दिन। मैं, मैं नहीं रह गया। मुझे कोई कारण नजर नहीं आ रहा था कि वे मुझे यह सब सुना जाएँ। किसी भी स्त्री के लिए अपनी उपस्थिति में अपने पति की अवमानना देखना-सुनना सहज-सम्भव नहीं होता। सो, मेरी उत्तमार्द्ध मुझसे अधिक हतप्रभ, दुःखी, खिन्न, अप्रसन्न, आक्रोशित।

इन सोलह महीनों में मैं सचमुच में मानो जिन्दा लाश बन कर रह गया। अपने आप से नफरत हो गई। अज्ञात अपराध बोध चौबीसों घण्टों मन पर छाया रहा। परिजनों-मित्रों की नाराजी मोल लेकर की गई उनकी सहायता पर पछतावा होने लगा। तय कर लिया कि अब किसी की सहायता नहीं करनी। भाड़ में गई भल मनसाहत। भाड़ में गई नेकी। किसी का भला करने का जमाना नहीं रहा। पूरी दुनिया और अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा। घर से बाहर तभी निकलना जब मजबूरी हो। न किसी से मिलने को मन हो न किसी उत्सव समारोह में जाने का। 

लिखना-पढ़ना लगभग ठप्प ही हो गया। (अन्तिम ब्लॉग पोस्ट 03 मई 2013 को लिखी थी।) किसी से बात करने की इच्छा न हो। कोई मिलने आए तो उससे मिलने को जी न करे। एलआईसी दफ्तर जाना मजबूरी। लेकिन जाने का मन न करे। जाऊँ तो सबसे इस तरह नजरें चुराऊँ मानो मैंने सबका कोई बहुत बड़ा नुकसान कर दिया हो। 

मैं अपनी जगह दुःखी और मेरी चिन्ता करनेवाले मुझसे अधिक दुःखी। जब मुझे ही कुछ समझ नहीं पड़ रहा हो तो  मैं औरों को क्या बताऊँ, क्या समझाऊँ? मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी सबसे ज्यादा कुपित। मेरा लिखा हुआ पढ़ने को बेचैन रहनेवाला धर्मेन्द्र रावल लगभग रोज ही फोन करे - ‘कब तक निहाल हुए बैठे रहोगे। लिखना शुरु किया? नहीं किया? कब करोग? जल्दी करो।’ एलआईसी में मेरी चिन्ता करनेवाले राकेश कुमारजी समझा-समझा कर थक गए। जाने-अनजाने अनगिनत कृपालु लगातार पूछताछ करते रहे। अब भी कर रहे हैं। 

लेकिन जिस तरह मार्च 2013 में वक्त नहीं ठहरा। उसी तरह अभी-अभी कोई सप्ताह भर पहले ही वक्त फिर चंचल हो गया। 

‘उनके’ एक परिजन अकस्मात आए। उन्हें मालूम पड़ा तो दुःखी हो गए। उन्होंने बताया कि मेरी लू उतारनेवाले कृपालु अपनी आर्थिक दशा को लेकर सदैव हीनता-बोध से ग्रस्त रहते हैं। आर्थिक सन्दर्भों में उन्हें, जो भी उनसे तनिक बेहतर मिलता है, वे मान लेते हैं कि सामनेवाला उनका हक मारकर उनसे बेहतर बन गया है। आर्थिक सन्दर्भों में वे सदैव अतिरिक्त चौकन्ने और उग्र रहते हैं। इसी कारण उनकी उत्तमार्द्ध अपने माता-पिता की सम्पत्ति में से कुछ प्राप्त करने के लिए अपने भाइयों के साथ मुकदमेबाजी भी कर चुकी है। उनके इन परिजन ने जो बताया उससे लगा कि मैं बाकी सबसे अधिक अभागा रहा। 

उनकी बेटी के विवाह में मेरी भूमिका की, उनके परिजनों ने बड़ी प्रशंसा की। जब भी, कभी भी, किसी के भी सामने उनकी बेटी के विवाह की चर्चा हुई, तब-तब हर बार मेरी मुक्त-कण्ठ प्रशंसा हुई। उनके इन परिजन ने बताया - ‘आपकी प्रशंसा से वे उकता गए, अघा गए और अपनी आदत के मुताबिक इस सबको अपनी बेइज्जती मान बैठे और आपको निपटा गए।’ लेकिन ये परिजन यहीं नहीं रुके। उन्होंने अगली बात जो बताई वह मेरे लिए सर्वथा अकल्पनीय थी। इन परिजन ने बताया कि जैसा मेरे साथ किया गया उतना तो नहीें किन्तु कुछ-कुछ वैसा ही वे अन्य लोगों के साथ भी कर चुके हैं। जैसे ही उन्हें लगता कि जिन्होंने उनकी मदद की है उनके यहाँ कोई ऐसा प्रसंग आनेवाला है जिसमें उन्हें व्यवहार निभाना पड़ेगा। तो वे (इस व्यवहार निभाने में आनेवाले आर्थिक वजन से बचने के लिए) सामनेवाले से ‘तुम हमारे लिए मर गए और हम तुम्हारे लिए’ की सीमा तक झगड़ा कर लेते हैं। फिर, जैसे ही सामनेवाले के यहाँ प्रसंग पूरा हुआ नहीं कि महीने-बीस दिनों के बाद जाकर माफी माँग लेते हैं।

इन परिजन ने बताया - ‘उनकी बेटी के विवाह में आपने जो कुछ किया उसे वे कैसे भूल सकते हैं? लेकिन जैसा और जितना आपने किया, वह सब, वैसा का वैसा कर पाना उनके लिए, कम से कम आज तो सम्भव नहीं। उन्हें पता है कि आपके छोटे बेटे का विवाह कभी भी हो सकता है। तब वे क्या करेंगे? यही सोच कर उन्होंने आपको निपटा दिया होगा और आपसे भर पाए होंगे। आप देखना, आपके छोटे बेटे के विवाह के महीना-बीस दिन बाद वे आकर आपसे माफी माँग लेंगे।’ 

पता नहीं, इन परिजन ने कितना सच कहा। लेकिन ऐसी कुछ बातें मैं पहले भी सुन चुका था। उनका साला खुद आकर, उसके साथ हुए ऐसे ही दो-एक किस्से मुझे सुना गया था। इन परिजन की इन बातों ने मानो मुझे मेरी जिन्दगी लौटा दी। मुझे पहली बार अपने निर्दोष होने की प्रतीति हुई। मैं हलका हो गया। बहुत हलका। अन्तरिक्ष में भारहीनता की स्थिति में तैरता हुआ। अब मैं खुद से नजरें मिला पा रहा हूँ। मुझे भोजन में स्वाद आने लगा है। मुझे लग रहा है मानो मैं अभी, पाँच-सात दिन पहले ही पैदा हुआ हूँ।

इन परिजन से बात होने के अगले ही क्षण से मैं जड़ से चेतन हो गया था। उसी दिन से लिखना शुरु कर सकता था। किन्तु जानबूझकर रुक गया।

आज गुरु पूर्णिमा है। अपने ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी को आज के दिन मैं अपनी इस शुरुआत से प्रणाम कर रहा हूँ। वे निश्चय ही प्रसन्न होंगे और मुझे क्षमा कर, मेरा यह प्रणाम स्वीकार करेंगे। राकेश कुमारजी को भी मैं प्रणाम करता हूँ। वे मेरी चिन्ता मुझसे अधिक करते हैं। उन्हें भी अच्छा लगेगा। वे मुझ पर कुपित तो नहीं किन्तु मुझसे खिन्न अवश्य हैं। यह शुरुआत उनकी इस खिन्नता को कम करेगी, यह आशा करता हूँ।

और रहा धर्मेन्द्र! तो तय है कि यह पोस्ट पढ़ते ही उसका फोन आएगा। कहेगा -‘बहुत हो लिए निहाल। अब लिखते रहना।’


9 comments:

  1. धर्मेंद्र की तरह, मैं भी निहाल हूँ. मेरा भी कहना है - लिखते रहिएगा.

    और, आप तो एकलव्य हैं, फिर भी, गुरुदक्षिणा स्वरूप यह पोस्ट स्वीकार करता हूँ :)

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  2. आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन प्राण साहब जी की पहली पुण्यतिथि और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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    1. कृपा है आपकी। आभार। जिस मनोदश्‍ाा में हूँ उसमें आपका यह प्रोत्‍साहन मुझे अत्‍यधिक सम्‍बल देगा। आभार।

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  3. वाह क्या खूब र ! गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामना ! सुन्दर कहानी !

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  4. कृपा है आपकी। आभार। जिस मनोदश्‍ाा में हूँ उसमें आपका यह प्रोत्‍साहन मुझे अत्‍यधिक सम्‍बल देगा। आभार।

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  5. जीवन में कभी-कभी ऐसी कठिन परिस्थितियों से भी गुज़रना पड़ जाता है ! आपने जिस कुशलता के साथ उसे प्रस्तुत किया है वह वन्दनीय है ! आप जैसे महारथियों का लेखन से विराम लेना सभी प्रशंसकों के प्रति अन्याय होगा !

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  6. विष्णु जी, आज एक लंबे समय के बाद आपका लिखा कुछ पढ़ने को मिला | न जाने क्यूँ मन में कुछ ऐसी प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है जो शायद प्यासी धरती को एक लम्बे अरसे के बाद बारिश की पहली फुहार पड़ने पर होता होगा | आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि अब अपने पाठकों को इतना इंतजार न करवाइएगा |

    सादर

    राजेश गोयल
    गाज़ियाबाद

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  7. ईश्वर उनका भला करे ...

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