गुरु: उच्च का नहीं.......

गोपाल आज होता तो ‘धर्म गुरु’ राम रहीम के चाल-चलन और मौजूदा दशा पर क्या कहता?

गोपाल याने गोपाल आचार्य। बड़े कष्ट से कहना/लिखना पड़ रहा है - स्वर्गीय गोपाल आचार्य। हायर सेकेण्डरी का मेरा कक्षा पाठी। अपने अंचल का जाना-माना, लोकप्रिय कवि-गीतकार। पेशे से वकील लेकिन रूखी वकालात पर सरस साहित्यिकता का पुट। चेहरे पर मुस्कुराहट बसी हुई लेकिन मिजाज आड़ा-तिरछापन लिए, बाँका। ‘अभिधा’ तो मानो उसकी फितरत में रही ही नहीं। लक्षणा-व्यंजना उसकी सहचरियाँ। जैसे गणपतिजी के साथ रिद्धि-सिद्धि। ‘घुमा कर’ जवाब नहीं दिया और उसका जवाब पहली ही बार में समझ में आ गया तो फिर वह गोपाल आचार्य नहीं। शतरंज का माहिर खिलाड़ी जिस तरह सामनेवाले की छठवीं चाल भाँप कर अपनी चाल चलता है, कुछ ऐसा ही जवाब होता था गोपाल का। तय करना मुश्किल होता था कि उसकी वाक्पटुता आनन्ददायी है या आतंककारी? वह तारीफ कर गया या परिहास को लाँघकर उपहास कर गया? इस भूल-भुलैया से बाहर आकर जवाब देने के लिए सामनेवाला मुँह ऊपर करे तो मालूम पड़े कि गोपाल तो अपना काम कर अन्तर्ध्यान हो चुका। वह इतनी शालीनता, शिष्टता और नम्रता से शरारत करता कि लपेटे में आया आदमी खुद ही अश! अश!! कर उठे। उससे गुस्साए लोग मिल जाएँ लेकिन उससे नाराज शायद ही कोई मिले।

वकालात से पहले वह घनश्यामजी मूँदड़ा वकील साहब का मुंशी हुआ करता था। मूँदड़ा वकील साहब, नगर सेठ नन्दलालजी मूँदड़ा के मझले बेटे थे। नफासतपसन्द, शौकीन मिजाज के। हरफनमौला, खिलन्दड़ स्वभाव के, यारबाज, मित्र-मण्डली के मुखर, सक्रिय सदस्य। अपने से छोटों को जितना रोकते-टोकते, उतनी ही उनकी चिन्ता भी करते। मुझे नहीं पता कि गोपाल उनका मुंशी कब, कैसे बना। लेकिन गोपाल को उन्होंने शायद ही कभी मुंशी माना हो। 

दोनों का रिश्ता मुझे आज तक उलझाए हुए है। मैं यह पहेली आज तक नहीं सुलझा पाया कि ये दोनों ‘केर-बेर’ थे या एक-दूसरे के अनिवार्य, अपरिहार्य पूरक? कोर्ट के बरामदे में गोपाल अपनी मुंशी-पेटी पर डायरी रखे या कागज-पत्तर फैलाए पक्षकारों के कागज तैयार कर रहा होता और मूँदड़ा वकील साहब किसी दावे के कागज पढ़ रहे होते या फिर किसी अखबार के पन्ने पलट रहे होते। इसी व्यस्तता के बीच दोनों में कोई सम्वाद होता। असहमति होने पर दोनों, खिलाड़ी भावना से एक दूसरे को आउट कर रहे होते। गोपाल के लक्षणा-व्यंजना के घातक वार के जवाब में वकील साहब उपेक्षा भाव से, ‘पता नहीं इसे कब अक्कल आएगी’ जैसे पारम्परिक प्रति-उत्तर से पूर्ण विराम लगाते। 

लेकिन ‘धर्म गुरु’ राम रहीम को लेकर मुझे गोपाल क्यों याद आया? 

मनासा की कोर्ट, बार रूम, तहसील कार्यालय, ट्रेझरी आदि के भवन एक ही मैदान में बने हुए हैं। कस्बे के लोग, व्यापारी और (तहसील के) आसपास के गाँवों के किसान बड़ी संख्या में वहाँ बने रहते हैं। सेल्स मेन किस्म के लोग भी अपने ग्राहकों की तलाश में इधर-उधर घूमते वहाँ चले आते हैं। इसी क्रम में एक दिन एक घुमन्तू ज्योतिषी कोर्ट के बरामदों में पहुँच गया। मूँदड़ा वकील साहब की बैठक बरामदे में, सड़क की ओर किनारे पर, सबसे पहले पड़ती थी। ज्योतिषी ने शुरुआत वहीं से की। उसका अभाग्य कि वह सबसे पहले गोपाल के हत्थे चढ़ गया। अब स्थिति यह कि ज्योतिषी अपने लटकों-झटकों से गोपाल को लपेटे में लेने के लिए जी-जान से जुटा हुआ और गोपाल है कि हर बार पारे की तरह मुट्ठी से निकल-निकल जाए। दोनों के बीच, फँसाने-न फँसने का खेल चल रहा और वकील साहब ‘दोनों जाएँ भाड़ में। मुझे क्या लेना?’ की मुद्रा बनाए, अखबार में नजरें गड़ाए बैठे। लेकिन वे जैसे दीख रहे थे, वैसे थे नहीं। उनकी नजरें जरूर अखबार में थीं लेकिन उनका रोम-रोम, कान बना हुआ। बातें तो बातें, दोनों की साँसें तक सुन रहे थे। गोपाल की हथेली ज्योतिषी के सामने फैली हुई। ज्योतिषी धाराप्रवाह रूप से गोपाल का अतीत बखान रहा और भविष्य सुना रहा। गोपाल है कि मूढ़-मति बन, सपाट चेहरा लिए सब कुछ ऐसे सुन रहा मानो इस सबसे उसका कोई लेना-देना ही नहीं। भविष्य बाँचते-बाँचते ज्योतिषी ने कहा - ‘आपका गुरु उच्च का है बाबूजी!’ सुनकर गोपाल ने हथेली इस तरह खींची मानो बिजली का करण्ट लग गया हो। मुट्ठी बन्द करते हुए, ज्योतिषी को इस तरह देखा कि ज्योतिषी अकबका गया। वह समझ नहीं पाया गोपाल उस पर तरस खा रहा है या उसे ज्योतिष विद्या में फेल घोषित कर रहा है। उसकी यह हालत देख गोपाल अपने ‘मूल भाव’ में आ गया। बोलो - ‘क्या पण्डिज्जी! कैसे ज्योतिषी हो? तुम तो सामने खड़ा वर्तमान ही नहीं देख पा रहे हो। भविष्य क्या खाक बताओगे?’ ज्योतिषी रुँआसा हो गया। हताश आवाज में घिघियाया - ‘क्यों बाबूजी? ऐसा क्या हो गया जो आपने ऐसा कह दिया?’ गुरु-गम्भीर मुद्रा में गोपाल ने पहले ज्योतिषी को देखा फिर एक गहरी नजर मूँदड़ा वकील साहब पर डाली और ज्योतिषी से कहा - ‘तुम कह रहे हो कि मेरा गुरु उच्च का है। अरे! आक्खा मनासा जानता है और सब कुछ तुम्हारे सामने है। मेरा गुरु उच्च का नहीं, मेरा गुरु उचक्का है। वर्तमान तो देख नहीं पा रहे और चले हो भविष्य बताने! जाओ मारा‘ज जाओ।’

निराश, हताश, लुटा-पिटा ज्योतिषी अपना पोथी-पत्रा समेटता उससे पहले मूँदड़ा वकील साहब चिहुँके। हाथ के अखबार को तुड़ी-मुड़ी कर समेटा। खा जानेवाली नजरों से ज्योतिषी को देखा और बोले - ‘चल! भाग! दो कौड़ी की अक्कल नहीं और चला है भविष्य बताने। चल! फूट! जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं।’ तब तक गोपाल ने अपनी (मुंशी की) डायरी खोल ली। दीन-विनीत भाव से वकील साहब से बोला - ‘क्या वकील सा‘ब! आप भी कहाँ फालतू लोगों के मुँह लग जाते हो! अभी नानूराम-चतराजी वाले मामले में गवाही है। आवाज लगती होगी। मैं आगे जा रहा हूँ। आप जल्दी आ जाना।’ सुन कर वकील साहब सन्न। वे कुछ कहते तब तक गोपाल अन्तर्ध्यान हो चुका था। उन्होंने आसपास देखा। कोई नहीं था। कुछ इस तरह कि मानो शून्य में विराजमान विधाता से शिकायत कर रहे हों, ‘इसके साथ काम करना मुश्किल है। पता नहीं इसे कब अक्कल आएगी।’ कहते हुए अदृष्य हो चुके गोपाल के पीछे चल दिए।

सोच रहा हूँ, आज गोपाल होता तो ‘धर्म गुरु’ राम रहीम पर वह कौन सा विशेषण चस्पा करता? कौन सी उपमा लगाता? वह जो भी करता, जो भी कहता लेकिन इतना तय है कि पहली ही बार में मेरी समझ में नहीं आता।           
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गोपाल का एक और संस्मरण यहाँ पढ़ा जा सकता है।


6 comments:

  1. sir, bohot shandar, akele padh kar akele hi hans raha hoon.

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  2. मुझे ऐसा लगता है कि आज की जनता शायद ही उनको सहन कर पाती।

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  3. गंभीर व्यंग्य, अति सुन्दर

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  4. गोपाल जैसी सद्बुध्दि डेरा के भक्तों को ईश्वर देवें ।

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  5. गोपाल जैसी सद्बुध्दि डेरा के भक्तों को ईश्वर देवें ।

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  6. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-08-2017) को "गम है उसको भुला रहे हैं" (चर्चा अंक-2712) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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