सुप्रीम कोर्ट को ही तय करने दीजिए


अयोध्या प्रकरण पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्ड पीठ द्वारा दिए गए निर्णय पर बहुत कुछ लिखा जाने के बावजूद लिखा जाना जारी है। और कुछ नहीं तो मेरी यह पोस्ट तो इसका प्रमाण है ही।

निर्णय से अधिसंख्य लोग प्रसन्न भी हैं और सन्तुष्ट भी। अधिकांश लोग इस प्रकरण को यहीं समाप्त कर, इस पर अमल करने के पक्ष में हैं। किन्तु मुझे लगता है कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय ले लेना ही सबके हित में होगा।

इस प्रकरण से सम्बद्ध पक्षों में से कोई भी पक्ष, अपने समुदाय का आधिकारिक और निर्णायक प्रतिनिधित्व नहीं करता। प्रत्येक पक्ष, अपने-अपने समुदाय का आंशिक प्रतिनिधित्व ही करता है।

ऐसे में यदि समझौते की बात कही जा रही है और ऐसा किया गया तो कोई भी समझौता दोनों समुदायों को अन्तिम रूप से कभी भी स्वीकार नहीं होगा। आज समझौता हो जाएगा तो दोनों समुदायों में से, कल उसके विरोध में कोई न कोई खड़ा हो जाएगा। प्रत्येक धड़ा खुद को अपने-अपने समुदाय का प्रतिनिधि कहता है जबकि वास्तविकता में ऐसा है नहीं।

ऐसे में, न्यायालय से बाहर किया गया कोई भी समझौता किसी भी दिन विवादास्पद बन जाएगा। कोई भी कह देगा कि समझौता करनेवाले लोग या पक्ष उसका प्रतिनिधित्व नहीं करते इसलिए समझौता अनुचित और अस्वीकार्य है।

ऐसे में ले-दे कर, सर्वोच्च न्यायालय ही वह संस्थान् है जो सम्वैधानिक आधिकारिकता और सर्व स्वीकार्यता प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय समूचे देश का प्रतिनिधित्व करता है। दोनों समुदायों का जो भी धड़ा अपने आप को अपने-अपने समुदाय का अधिकृत प्रवक्त कहता/मानता है, वह सर्वोच्च न्यायालय में पक्ष बन कर खड़ा हो सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय क्या होगा-यह कह पाना किसी के भी लिए न तो सम्भव है और न ही उचित। किन्तु उसके निर्णय में पूरा देश समाहित होगा। कोई नहीं कह सकेगा कि उसकी बात नहीं सुनी गई।

इसलिए, देश के हित में यही है कि इस मामले का अन्तिम निपटारा सर्वोच्च न्यायालय ही करे। अच्छी बात यह है कि लखनऊ उच्च न्यायालय के निर्णय से असहमत/असन्तुष्ट, दोनों समुदायों के कुछ धड़े सर्वोच्च न्यायालय में जाने की तैयारी कर रहे हैं।

उन्हें जाने दिया जाना चाहिए।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

कल मना मेरा वास्तविक हिन्दी दिवस


ये हैं जयन्तीलालजी जैन। मेरे कस्बे में, बैंक ऑफ बड़ौदा में प्रबन्धक के पद कार्यरत हैं। इनकी खूबी है कि ये अपनी ओर से बात नहीं करते। नमस्कार का जवाब देकर अपने काम मे लग जाते हैं। ये अपनी ओर से तभी बात करते हैं जब इन्हें आपके खाते से बैंक के लिए कोई वसूली करनी होती है। इसलिए मैं जब भी जाता हूँ तो भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे नमस्कार का जवाब देकर ये बस, मुस्कुराते हुए चश्मे के भीतर से मुझे झाँकते रहें।

मेरा खाता इसी बैंक में है, सो मुझे कभी-कभार इनके पास जाना ही पड़ता है। कल गया तो इस बार उल्टा हो गया। मैं नमस्कार करता, उससे पहले ही जैन साहब ने नमस्कार कर लिया। मुझे लगा, आज मेरे खाते से कोई ऐसी रकम निकाली जानेवाली है जो मेरा पूरा बजट गड़बड़ा देगी। अपने ईश्वर और कुल-पुरखों को याद करते हुए मैंने सहमते हुए, मरी-मरी आवाज में नमस्कार का जवाब दिया। मेरी दशा का नोटिस लिए बगैर जैन साहब बोले - ‘आज आपका काम बाद में। पहले मेरा काम।’ मैं फिर घबरा गया। जानता जो हूँ कि इनका ‘काम’ क्या होता है!

लेकिन निश्चय ही ईश्वर मुझ पर कृपालु था। हिन्दी में छपे दो कागज अपनी दराज से निकाल मेरे सामने रखते हुए बोले - ‘पहले जरा इसे देख लें।’ मँहगे, मोटे, सफेद झक् कागज पर यूनीकोड फॉण्ट में साफ-सुथरी छपाई में एक प्ररुप था। शीर्षक था - अग्रिम प्रस्ताव मूल्यांकन पत्रक। मैंने सरसरी तौर पर देखा। जी खट्टा हो गया। ढेरों अशुद्धियाँ थीं। अनुस्वार की अशुद्धियाँ सर्वाधिक थीं। जहाँ नहीं होना चाहिए, वहाँ अनुस्वार लगा था और जहाँ होना चाहिए था वहाँ नहीं था। मैंने पूछा - ‘क्या देखूँ? इसमें तो गलतियाँ ही गलतियाँ हैं।’ जैन साहब को मानो पता था कि मैं क्या कहनेवाला हूँ। अविलम्ब बोले - ‘हाँ। ये गलतियाँ ठीक करने के लिए ही आपको दिया है।’

यह तो मेरा मनपसन्द काम था और जैन साहब इसे अपना काम बता रहे थे! मैं भूल गया कि मैं जैन साहब के पास किस काम से गया था। अपनी पेन निकाल कर शुरु हो गया। अपने ज्ञानानुसार अशुद्धियाँ चिह्नित कर कागज जैन साहब को लौटाते हुए बोला - ‘आप ठीक समझें तो अशुद्धियाँ दूर करने के बाद एक बार फिर मुझे दिखा दें।’ अपने सामने रखे कागज एक ओर सरकाते हुए और अपने कम्प्यूटर टर्मिनल का की-बोर्ड खींचते हुए जैन साहब बोले - ‘आप अभी ही देख लीजिए।’ और वे गलतियाँ दूर करने में जुट गए।
कुछ ही क्षणों में नया प्रिण्ट आउट मुझे थमा दिया। मैंने देखा, मेरे द्वारा चिह्नित सारी गलतियाँ दूर कर दी गई थीं। मैंने कागज जैन साहब को लौटाया तो वे बोले - ‘यह फार्म मूलतः अंग्रेजी में है - एडवांस प्रपोजल वेल्यूएशन फार्म। हम लोग अब तक अंग्रेजी फार्म ही काम में ले रहे थे। मैंने सोचा क्यों न इसे हिन्दी में बना लूँ। सो बना लिया। और योग देखिए कि आप आ गए और इसे दुरुस्त कर दिया।’

मैं अचकचा गया। जैन साहब से यह सुनने की आशा मुझे सपने में भी नहीं थी। मैंने दोनों कागजों को एक बार फिर ध्यान से देखा। व्याकरणगत और वाक्यरचनागत कोई अशुद्धि नहीं थी। सारी बातें बिना किसी भ्रम के, साफ-साफ समझ में आ रही थीं। मैंने पूछा - ‘आपने पहले भी कभी ऐसा काम किया है?’ जैन साहब बोले - ‘नहीं। पहली ही बार कोशिश की है।’ मैंने प्रश्न किया - ‘यह आपको क्यों सूझा?’ जैन साहब ने सहज भाव से कहा - ‘ग्राहक को पता होना चाहिए कि हम उससे किस बात पर हस्ताक्षर करवा रहे हैं। अंग्रेजी जाननेवाले हमारे ग्राहक तो इक्का-दुक्का ही हैं। सब के सब हिन्दीवाले ही हैं। मुझे लगा कि हम सारी बातें तो हिन्दी में करते हैं, हिन्दी में ही ऋण योजना और इसकी शर्तें समझाते हैं। तो क्यों नहीं यह सब हिन्दी में हो? सो, मैंने यह कर लिया।’

मैंने जैन साहब को प्रणाम किया - मन ही मन नहीं, साक्षात्। कहा - ‘आप जैसा सब सोचने लगें तो हमारे सारे कष्ट दूर हो जाएँ। आपने ग्राहक की चिन्ता की और इस बहाने आपने हिन्दी की सेवा कर ली। भगवान आपका भला करे।’

जैन साहब बोले - ‘अरे! आप कैसी बातें करते हैं? हम तो रोटी ही हिन्दी की खा रहे हैं। ग्राहकों से हमारा सारा व्यवहार हिन्दी में ही हो रहा है। मैंने हिन्दी की कोई सेवा-वेवा नहीं की। मैंने तो अपने ग्राहकों की और अपने बैंक की चिन्ता की। हाँ, यह बात जरूर है कि मेरी चिन्ता दूर करने का एकमात्र उपाय और औजार हिन्दी ही हो सकती थी। सो, मैंने वही किया।’ मैंने पूछा - ‘इसके लिए आपको बैंक की ओर से कोई पुरुस्कार या प्रशंसा मिलेगी? आपकी सेवा पुस्तिका में इसका कोई उल्लेख होगा?’ जैन साहब निर्विकार भाव से बोले - ‘इस सबके लिए मैंने यह नहीं किया। मैंने तो अपनी नौकरी का फर्ज समझ कर ही यह किया।’ मेरे पूछने पर वे उत्साह से बोले - ‘आज आपने उत्साह बढ़ाया और हौसला बँधाया है तो अब तो आगे भी ऐसा काम करता रहूँगा।’

मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। यह सब करना जैन साहब की जिम्मेदारी में नहीं था। इसके बिना भी वे अपनी नौकरी आराम से करते रह सकते थे। लेकिन उन्हें अपने ग्राहकों की चिन्ता हुई, अपनी भाषा की चिन्ता हुई।

मैं जैन साहब को धन्यवाद देकर लौटा तो लगा - दुनिया के सबसे बड़े मूक हिन्दी सेवी से मिलकर लौट रहा हूँ। मेरा हिन्दी दिवस तो यथार्थतः कल ही मना।’
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

शहद को डण्डा : कोला को दण्डवत


आपकी-हमारी सेहत को लेकर हमारी सराकर चिन्तित हो गई है। देश के लोगों को मिलवाटी शहद से बचाने के लिए उसने अपना फौलादी इरादा जाहिर कर दिया है - शहद में कीटनाशकों और एण्टीबायोटिक्स की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं की जाएगी। जो भी शहद-निर्माता यह अपराध करेगा उसकी अनुज्ञप्ति (लायसेंस) तो निरस्त होगी ही, उसे जेल भी जाना पड़ सकता है।

लेकिन यह तो बाद की बात है। डॉक्टर सुनीता नारायण की पहल पर शुरु हुई मूल बात पेश की जाए, उससे पहले, उपरोक्त क्रम में कुछ बातें और।

भारतीय संसद द्वारा गठित, खाद्य सुरक्षा तथा मानक प्राधिकरण (अर्थात् फूड सेफ्टी एण्ड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी अर्थात् एफएसएसए) द्वारा शहद के गुणवत्ता मानक निर्धारित करते हुए शहद निर्माताओं के लिए जारी दिशा निर्देशों के अनुसार शहद निर्माता अब शहद के प्राकृतिक रंग से छेड़छाड़ नहीं कर सकेंगी। याने, अब प्राकृतिक रूप से तैयार शहद ही बेचा जा सकेगा। ऐसा न करनेवाले निर्माताओं की अनुज्ञप्ति जब्त कर उन पर क्षाद्य अपमिश्रण कानून 1955 के तहत दाण्डिक कार्रवाई की जाएगी।
उपभोक्ता मामलों के मन्त्रालय के प्रवक्ता के अनुसार शहद की गुणवत्ता के लिए 11 सूत्री मानक निर्धारित किए गए हैं जिनके तहत शहद का ‘निर्माण तापमान’ 27 डिग्री, नमी का प्रतिशत 25, शकर मात्रा 65 प्रतिशत तथा ग्लूकोज की मात्रा 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार मेटल की मात्रा के लिए भी आठ सूत्री मानक निर्धारित किए गए हैं। मन्त्रालय के अनुसार शहद के उपरोक्त घरेलू मानक निर्धारित करते समय अन्तरराष्ट्रीय मानकों का भी ध्यान रखा गया है ताकि निर्यातकों को किसी प्रकार की परेशानी नहीं हो। जाहिर है कि घरेलू मानक किसी भी प्रकार से अन्तरराष्ट्रीय मानकों से निचले स्तर के नहीं होंगे अन्यथा निर्यातकों को कठिनाई हो सकती थी क्योंकि शहद की गुणवत्ता के लिए जो नियम, कानून (और मानक भी) भारत में हैं, वे ही नियम, कानून (और मानक भी) योरोपीय संघ और अमेरीका में भी हैं।

भारतीय गुणवत्ता परिषद् (अर्थात् क्वालिटी कौंसिल ऑफ इण्डिया याने क्यूसीआई) के मुताबिक निर्माता कम्पनियों के उत्पादों की नए सिरे से जाँच की जा सकेगी और नए मानकों पर खरा उतरनेवाले निर्माताओं को ‘ए ग्रेड’ का प्रमाण-पत्र दिया जाएगा।

सरकार ने कहा है कि शहद की पेकिंग, मार्किंग और लेबलिंग के लिए उसने पहले से ही दिशा निर्देश जारी कर रखे हैं। अब इस कानून पर कठोरता से अमल किया जाएगा ताकि शहद में किसी भी प्रकार की मिलावट को रोका जा सके।

और अब, यह है डॉक्टर सुनीता नारायण द्वारा उठाई गई मूल बात

भारतीयों के जीवन के प्रति सरकार द्वारा बरती जा रही आपराधिक लापरवाही को बार-बार उजागर करने का श्रेयस्कर परिश्रम और प्रयत्न करनेवाले, अहमदाबाद स्थित गैर सकरारी संगठन ‘विज्ञान एवम् वातावरण केन्द्र’ (अर्थात् ‘सेण्टर फॉर साइन्स एण्ड एनवायर्नमेण्ट’ याने ‘सीएसई’) का यशस्वी नेतृत्व करनेवाली डॉक्टर सुनीता नारायण ने 16 सितम्बर को (अर्थात् लगभग तीन सप्ताह पूर्व) एक रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार शहद के 10 में से 9 नमूनों में एण्टीबायोटिक की मात्रा स्वीकृत स्तर से कई गुना अधिक पाई गई थी। इतना ही नहीं, विदेशी ब्राण्डों के दो नमूनों में भी यह मात्रा अधिक पाई गई थी।

समाचार चैनलों ने यह समाचार प्रमुखता से प्रसारित किया था। कुछ चैनलों ने डॉक्टर सुनीता नारायण सहित देश के कुछ वैज्ञानिकों की ‘जीवन्त बहस’ भी कराई थी। सबने एकमत से डॉक्टर सुनीता नारायण के निष्कर्षों से असंदिग्ध सहमति जताई थी। इस बहस में ‘डाबर’ के भी एक सज्जन ने अपना मत और अपनी कम्पनी का पक्ष रखा था।

हम सबने खुश हो जाना चाहिए और अपनी सरकार पर गर्व करना चाहिए कि उसने हमारी सेहत की चिन्ता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी और हमें मिलावटी तथा कीटनाशकों और एण्टीबायोटिक्स की मिलावटवाले शहद से बचा लिया।

किन्तु यहीं हमारी सरकार का पाखण्ड भी उजागर होता है। इन्हीं डॉक्टर सुनीता नारायण ने बरसों पहले से साबित कर रखा है कि भारत में उपलब्ध कराए जा रहे कोला शीतल पेयों में आपत्तिजनक रासायनिक तत्व मिलाए जा रहे हैं और वे भी वांच्छित मात्रा से कहीं अधिक। डॉक्टर सुनीता नारायण ने सप्रमाण बताया कि भारत में बेचे जा रहे समस्त कोला पेय भारतीय नागरिकों के जीवन के लिए प्राणलेवा सीमा तक घातक हैं।

वैज्ञानिक परीक्षणों के निष्कर्षों के आधार पर डॉक्टर सुनीता नारायण ने भारत सरकार से तत्काल प्रभावी हस्तक्षेप कर इन कोला पेयों के मानकीकरण (स्टैण्डर्डाइजेशन) तथा इन कोला पेयों में उपलब्ध तत्वों और उनकी मात्रा को कोला पेयों की बोतलों पर प्रदर्शित करने की अनिवार्यता हेतु आवश्यक आदेश जारी करने की माँग की। डॉक्टर सुनीता नारायण ने ही बताया कि खुद अमरीका में ही (जहाँ से ये कोला कम्पनियाँ आकर भारत में व्यापार कर रही हैं और भारतीयों को आर्थिक तथा दैहिक रूप से क्षति पहुँचा रही हैं) इनके लिए मानक निर्धारित हैं और बोतलों पर इनके तत्वों की मात्रा प्रदर्शित की जाती है। डॉक्टर सुनीता नारायण ने माँग की कि भारत में उपलब्ध कराए जा रहे ‘कोला’ पर भी अन्तरराष्ट्रीय मानक लागू किए जाएँ।

डॉक्टर सुनीता नारायण की इस माँग पर सरकार में तो उथल-पुथल मची ही, उससे पहले कोला कम्पनियों की चूलें हिल गईं और वे फौरन ही अपनी ‘परम्परागत हरकतों’ पर उतर आईं। वे सरकार को लापरवाह बनाने और बनाए रखने में लम्बे समय तक सफल रहीं। किन्तु मामला संसद के दोनों सदनों में बार-बार उछला और अन्ततः सरकार को एक संसदीय समिति बनानी पड़ी। कोला कम्पनियों ने इस समिति को भी प्रभावित करने की यथा सम्भव कोशिशें कीं। कुछ हद तक वे सफल भी रहीं किन्तु समिति को अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करने से रोक नहीं पाईं। समिति ने भी डॉक्टर सुनीता नारायण के निष्कर्षों और आग्रहों से सहमति जताई।

इसके आगे, जहाँ तक मेरी जानकारी है, सर्वोच्च न्यायालय ने भी शायद भारत सरकार को निर्देशित कर, कोला पेयों के मानकीकरण तथा कोला पेयों की बोतलों पर पेयों में उपलब्ध तत्वों की मात्रा प्रदर्शित करने के लिए कह रखा है।

ये दो मामले हैं जो हमारी सरकार के पाखण्ड और अमरीकापरस्ती को उजागर करते हैं। शहद व्यापार करनेवाली कम्पनियों में अधिकांश कम्पनियाँ ‘देसी’ हैं और ‘परदेसी’ कम्पनियाँ नाम मात्र की हैं। शहद का कारोबार नाम मात्र का है जबकि कोला का कारोबार अरबों-खरबों का है। शहद पर डण्डा चलाने से प्रभावित होनेवाली कम्पनियों में अमरीकी कम्पनी शायद ही कोई हो जबकि ‘कोला’ के बहाने भारत का शोषण कर रही तमाम कम्पनियाँ अमरीकी हैं। शहद का उपयोग केवल आवश्यकतानुसार ही किया जाता है, दिखावे के लिए नहीं जबकि ‘कोला’ का उपयोग बिना किसी बात के, बिना किसी कारण के और बिना किसी प्रसंग के किया जाता है, वह भी धड़ल्ले से। शहद की मिलावट से होनेवाले नुकसान लगभग उपेक्षनीय हैं, कहने भर के। वे भी तब, जबकि बीस-तीस बरसों तक उसका नियमित सेवन किया जाए। जबकि ‘कोला सेवन’ का नुकसान तो पहले ही घूँट से शुरु हो जाता है।

जाहिर है कि मिलावटी शहद बरसों तक बिकते रहने के बाद भी उतना नुकसान नहीं कर पाता जितना कि ‘कोला’ पहली ही बूँद से करता है। याने, प्राणलेवा प्रहार करने के मामले में कोला की एक बूँद, शहद के मनो-टनों वाले भण्डारों को भी मात देती है।

फिर क्या कारण है कि शहद पर फौरन डण्डा चलाने वाली, हमारी सेहत की फिकर में दुबली हो रही हमारी सरकार को ‘कोला’ की ‘जान-लेवा, धन-लेवा’ हरकतें नजर नहीं आ रहीं?

नजर तो आ रही हैं किन्तु करे क्या? वे सबकी सब अमरीकी जो हैं! और आप-हम क्या, सारी दुनिया जानती है कि अमरीका तो हमारा माई-बाप है। जिस सरकार के प्रधान मन्त्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के पदों पर विश्व बैंक के भूतपूर्व कर्मचारी आसीन हों, वह सरकार भला किसी अमरीकी कम्पनी पर कार्रवाई करना तो दूर, उनकी ओर आँख उठाकर भी कैसे देख सकती है? और केवल सरकार ही क्यों? बाकी सारी पार्टियों ने भी तो चुप्पी साध रखी है! शायद चुनावी चन्दे की मार ही ऐसी होती है कि अच्छे-अच्छों की बोलती बन्द हो जाए।

इसीलिए हमारे देसी शहद पर डण्डे चलाए जा रहे हैं और अमरीकी कोला को दण्डवत किया जा रहा है।

यह अलग बात है कि शहद पर की गई डण्डों की शुरुआत आगे-पीछे इन कोला कम्पनियों तक पहुँचेगी जरूर।

‘कोला’ के विरुद्ध डॉक्टर सुनीता नारायण की लड़ाई के वांछित मुकाम पर पहुँचने का रास्ता साफ हो गया है। उन्हें शुभ-कामनाएँ और सफलता की अग्रिम बधाइयाँ देने का यह ठीक समय है।

सुनीताजी! आगे बढ़िए। सरकार भले ही आपकी अनदेखी, अनसुनी कर रही हो किन्तु पूरा देश जान रहा, समझ रहा है कि आप अपनी नहीं, देश की और देश की अस्मिता की लड़ाई लड़ रही हैं।

खुद को अकेला मत समझिएगा। कई सिरफिरे और पागल लोग आपके साथ हैं।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

हिन्दी ने आपका कुछ नहीं बिगाड़ा है

अखबारों और पत्र/पत्रिकाओं में आए दिनों कभी ‘हिंगलिश’ के पक्ष में सीनाजोरी से दिए तर्क सामने आते हैं तो कभी हिन्दी के पक्ष में, गाँव-खेड़ों, कस्बों से उठते एकल स्वर सुनाई देते हैं। सीनाजोरी का विरोध करने और एकल स्वरों में अपना स्वर मिलाने को मैंने अपनी फितरत बना रखी है ताकि सीनाजोरों की निर्द्वन्द्वता, नाम मात्र को ही सही, बाधित हो और एकल स्वरों को अकेलापन न लगे। ऐसे सैंकड़ों पत्र मैंने लिखे किन्तु उनका कोई रेकार्ड नहीं रखा। 5 सितम्बर को अचानक ही विचार आया कि इन पत्रों का रेकार्ड रखा जाना चाहिए। इसीलिए इन पत्रों को 5 सितम्बर से अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना शुरु कर दियाँ। ये मेरे ब्लाॅग की पोस्टों में शरीक नहीं हैं। मैं जानता हूँ इनकी न तो कोई सार्वजनिक उपयोगिता है और न ही महत्व। यह जुगत मैंने केवल अपने लिए की है।


'दैनिक भास्‍कर' के, 'मेनेजमेंट फंडा' स्‍तम्‍भ के स्‍तम्‍भकर श्री एन. रघुरामन को, दिनांक 07 अक्‍टूबर की अपराह्न लगभग साढेत तीन बजे भेजा गया सन्‍देश


प्रिय रघुरामनजी,

सविनय सप्रेम नमस्कार,

आपको धन्यवाद और आपका हार्दिक अभिनन्दन कि अपने लेखों में आप, हिन्दी के लोक प्रचलित शब्दों के स्थान पर अकारण ही अंग्रेजी शब्दों के उपयोग में कमी कर रहे हैं।

किन्तु लगता है कि यह आपकी आदत में नहीं आ पा रहा है। इसका बहुत ही सुन्दर उदाहरण, ‘दैनिक भास्कर’ के आज के अंक में, आपके स्तम्भ ‘मैनेजमेंट फंडा’ के अन्तर्गत प्रकाशित, ‘क्वालिटी से मिटेगा क्षेत्रीय असंतुलन’ शीर्षक आलेख में उपलब्ध है।

अपने इस आलेख में आपने ‘कारक’, ‘निर्बाध’, ‘आपूर्ति’, ‘गुणवत्ता’ जैसे सुन्दर शब्द प्रयुक्त किए हैं।

यह रोचक विरोधाभास है कि आप अलेख में तो ‘गुणवत्ता’ प्रयुक्त करते हैं और शीर्षक में ‘क्वालिटी’। इतना ही नहीं, आपने 6 और स्थानों पर भी ‘क्वालिटी’ प्रयुक्त किया है और दो स्थानों पर ‘गुणवत्ता’। जाहिर है कि आपको ‘गुणवत्ता’ शब्द मालूम है और यह भी मालूम है कि यह ‘क्वालिटी’ का पर्यायवाची है। फिर भी आप ‘क्वालिटी’ प्रयुक्त कर बैठे। यह उदाहरण है इस बात का कि आप हिन्दी के मामले मे चाहें तो सावधानी बरत कर अंग्रेजी के अकारण उपयोग से अपने पाठकों को तथा हिन्दी को बचा सकते हैं।

अपने इस आलेख में आपने अकारण ही ऐसे अनेक अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त किए हैं जिनके लिए हिन्दी के सहज और सरल शब्द लोक प्रचलन में हैं। ये इस प्रकार हैं -

नेटवर्क - इसके लिए हिन्दी का ‘संजाल’ धड़ल्ले से प्रयुक्त किया जा रहा है।

मेनपावर - इसके लिए ‘जनशक्ति’ प्रयुक्त किया जा सकता है।

इण्डस्ट्रीज - कौन नहीं जानता कि इसके लिए ‘उद्योग/उद्योगों’ वापरा जाता है?

एजुकेशन - छठवीं कक्षा का बच्चा भी जानता है कि इसे ‘शिक्षा’ कहते हैं।

ग्रेजुएट्स - आपको नहीं पता कि इसका हिन्दी पर्याय ‘स्नातक’ अब तो वयस्क हो चुका है?

बेल्ट - आपके इस आलेख के सन्दर्भ में इसके लिए ‘इलाका/इलाके’ आसानी से उपलब्ध है।


एक और बात फिर कह रहा हूँ जिसे मैं पहले भी एकाधिक बार निवेदन कर चुका हूँ - अपने आलेखों में आप अंग्रेजी शब्दों के बहुवचन रूप, यथा ‘इंडस्ट्रीज’, ‘ग्रेजुएट्स’, प्रयुक्त कर रहे हैं जो अनुचित है।

दुनिया की सारी भाषाओं के व्याकरण का यह सामान्य नियम है कि जब भी कोई शब्द अपनी मूल भाषा से दूसरी/इतर भाषा में जाता है तो उस पर उस दूसरी/इतर भाषा का व्याकरण लागू होगा, उस शब्द की मूल भाषा का नहीं। इस नियम के अनुसार ‘इंडस्ट्रियों’, ‘ग्रेजुएटों’ लिखा जाना चाहिए।

दूसरी भाषा के शब्द एकवचन में लिखे जाने पर भी दूसरी भाषा में बहुवचन के रूप में काम में आ जाते हैं। जैसे आपके आजवाले आलेख में आपने ‘जिस तरह के ग्रेजुएट्स निकल रहे हैं’ और ‘विभिन्न विषयों में रोजगार के लायक ग्रेजुएट्स पैदा कर सकें’ लिखा है। इनके स्थान पर आप ‘जिस तरह के ग्रेजुएट निकल रहे हैं’ और ‘विभिन्न विषयों में रोजगार के लायक ग्रेजुएट पैदा कर सकें’ लिखते तो भी अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता।

जैसा कि मैं आपसे बार-बार अनुरोध करता हूँ, कृपया हिन्दी के लोक प्रचलित शब्दों के स्थान पर अकारण ही अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त कर हिन्दी को विकृत मत कीजिए। हिन्दी ने आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ा है। हिन्दी तो आपको रोटी, पहचान, प्रतिष्ठा और लोकप्रियता दे रही है। तनिक विचार कीजिए कि इस सबके बदले में आप हिन्दी को क्या दे रहे हैं? यदि आप हिन्दी को कुछ दे नहीं सकते तो कृपया हिन्दी को विकृत, विरूप तो न करें। यदि आप ऐसा करने से बचेंगे तो यह भी आपकी बहुत बड़ी हिन्दी सेवा होगी।

इस सन्देश में आपको कोई बात अनुचित, अन्यथा, आपत्तिजनक, अवमाननाकारी लगी हो तो मैं आपसे करबद्ध क्षमा याचना करता हूँ। मेरी भाषा अटपटी हो सकती है किन्तु विश्वास कीजिएगा यह सब मैंने आपको अपनी सम्पूर्ण सदाशयता और आपके प्रति यथेष्ठ आदर भाव से ही लिखा है।

हिन्दी पर कृपा कीजिएगा।

धन्यवाद।

विनम्र
विष्णु बैरागी

पुनश्च : आपको भेजा जा रहा यह सन्देश, मेरे ब्लॉग ‘एकोऽहम्’ पर कल, 08 अक्टूबर की सुबह, ‘हिन्दी
के हक में’ टेब के अन्तर्गत, ‘हिन्दी ने आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ा है’ शीर्षक से प्रकाशित कर
रहा हूँ।

आप भी सहमत होंगे


अखबारों और पत्र/पत्रिकाओं में आए दिनों कभी ‘हिंगलिश’ के पक्ष में सीनाजोरी से दिए तर्क सामने आते हैं तो कभी हिन्दी के पक्ष में, गाँव-खेड़ों, कस्बों से उठते एकल स्वर सुनाई देते हैं। सीनाजोरी का विरोध करने और एकल स्वरों में अपना स्वर मिलाने को मैंने अपनी फितरत बना रखी है ताकि सीनाजोरों की निर्द्वन्द्वता, नाम मात्र को ही सही, बाधित हो और एकल स्वरों को अकेलापन न लगे। ऐसे सैंकड़ों पत्र मैंने लिखे किन्तु उनका कोई रेकार्ड नहीं रखा। 5 सितम्बर को अचानक ही विचार आया कि इन पत्रों का रेकार्ड रखा जाना चाहिए। इसीलिए इन पत्रों को 5 सितम्बर से अपने ब्लाॅग पर पोस्ट करना शुरु कर दियाँ। ये मेरे ब्लाॅग की पोस्टों में शरीक नहीं हैं। मैं जानता हूँ इनकी न तो कोई सार्वजनिक उपयोगिता है और न ही महत्व। यह जुगत मैंने केवल अपने लिए की है।

07 अक्टूबर 2010, गुरुवार
सर्वपितृमोक्ष अमावस्या, 2067

माननीय श्रीयुत गुप्ताजी,

सविनय सादर नमस्कार,

आशा है, 26 सितम्बर वाला मेरा पत्र आपको मिल गया होगा।

‘डिम्पल’ का, 01 अक्टूबर वाला अंक मुझे सोमवार, 04 अक्टूबर को ही मिल गया था और आपके संस्मरणों की तीसरी किश्त उसी दिन पढ़ भी ली थी। किन्तु आलस्य और नाम मात्र की व्यस्ततावश पत्र तनिक देर से लिख पा रहा हूँ।

तीसरी किश्त में भी आपने अंग्रेजी शब्दों को अंग्रेजी बहुवचनरूपों में प्रयुक्त किया है। आपने तीन बार ‘माल्स’ प्रयुक्त किया है। इसके अतिरिक्त ‘परफ्यूम्स’, ‘इंजिनियर्स’, ‘डाक्टर्स’, ‘बैग्स’ तथा ‘प्लेट्स’ प्रयुक्त किए हैं जो उचित नहीं है। आप इनके स्थान पर ‘माल’, ‘परफ्यूम/परफ्यूमें’, ‘इंजिनियरों’, ‘डॉक्टरों’, ‘बैग/बैगों’ और ‘प्लेटें’ प्रयुक्त कर सकते थे (और मेरे विचार से, यही किया भी जाना चाहिए था)।

आपने इस किश्त में एकाधिक बार ‘वेस्ट सामग्री’ प्रयुक्त किया है। इसके स्थान पर ‘कचरा’ अथवा ‘बेकार सामग्री’ प्रयुक्त किया जा सकता था। किन्तु मैं यह मान लेता हूँ कि ‘वेस्ट सामग्री’ के इन भावानुवादी पर्यायवाची शब्दों की जानकारी आपको सम्भवतः नहीं रही होगी।

इस किश्त में प्रयुक्त कुछ और शब्दों की ओर आपका ध्यानाकर्षित कर रहा हूँ। आपने ‘नान रेसिडेंसियल इण्डियन’ प्रयुक्त किया है जिसके स्थान पर आप ‘अनिवासी भारतीय’ प्रयुक्त कर सकते थे और सुविधा के लिए कोष्ठक में ‘नान रेसिडेंसियल इण्डियन’ अथवा ‘एनआरआई’ लिख सकते थे। इससे दो काम एक साथ होते। पहला - आपका मन्तव्य पूरी तरह स्पष्ट होता और दूसरा - लोगों को मालूम होता कि ‘नान रेसिडेंसियल इण्डियन’ अथवा ‘एनआरआई’ का हिन्दी पर्याय ‘अनिवासी भारतीय’ होता है। इसी प्रकार आप ‘सप्लाय’ के स्थान पर ‘प्रदाय’, ‘ड्राइव’ के स्थान पर ‘चालन’, ‘कोर्स’ के स्थान पर ‘पाठ्यक्रम’, ‘कव्हर्ड मैदान’ के स्थान पर ‘ढँके हुए मैदान’ प्रयुक्त कर सकते थे और चाहते तो कोष्ठक में इनके अंग्रेजी शब्द दे सकते थे। इस प्रकार आप हिन्दी शब्दों को प्रयुक्त करने के साथ ही साथ इन शब्दों को प्रचलन में लाने का श्रेयस्कर काम भी कर सकते थे।

मैं दुराग्रही शुद्धतावादी नहीं हूँ। ‘हिन्दी’ के नाम पर क्लिष्ट, शाब्दिक अनुवाद का पक्षधर नहीं हूँ। इसीलिए ‘केन’, ‘लाइसेंस’, ‘डिस्पोजल’, ‘इलेक्ट्रॉनिक’ को इनके इन्हीं मूल रूपों में प्रयुक्त करना ही उचित मानता हूँ। ‘लाइसेंस’ के लिए हिन्दी का ‘अनुज्ञप्ति’ मुझे भी सहज नहीं लगता। यह अलग बात है कि अपने लिखने में मैं ‘अनुज्ञप्ति’ का उपयोग करता हूँ किन्तु तब, कोष्ठक में ‘लाइसेंस’ भी लिख देता हूँ। इसमें थोड़ी मेहनत अवश्य लगती है किन्तु हिन्दी के एक शब्द के चलन में आने की सम्भावना बढ़ती है।

इस किश्त में आपने ‘परिसर’, ‘स्तर’, ‘भागीदारी’, ‘अन्तर्राष्ट्रीय मानक’ जैसे अनेक शब्दों का सुन्दर उपयोग किया है। भाई लोग इनके स्थान पर भी अकारण ही इनके अंग्रेजी पर्याय प्रयुक्त करते हैं। इसके लिए आपको साधुवाद और अभिनन्दन।
हिन्दी हमें रोटी, पहचान, प्रतिष्ठा दे रही है। बदले में हम हिन्दी को क्या दे रहे हैं - इस पर विचार अवश्य किया जाना चाहिए। यदि हम हिन्दी को समृद्ध न कर सकें, इसके सम्मान, गौरव में वृद्धि न कर सकें तो उस दशा में हमारी यह न्यूनतम जिम्मेदारी होती है कि इसे विकृत, विरूप न करें और इसके सम्मान, गौरव में कोई कमी न होने दें। मेरा विचार है कि इन बातों से आप भी असहमत नहीं होंगे।

मेरे पत्र में आपको यदि कुछ भी अन्यथा, अनुचित, आपत्तिजनक, अपमानजनक लगा हो तो उसके लिए मैं आपसे करबद्ध क्षमा-याचना करता हूँ। सम्भव है मेरी भाषा अनुचित हो किन्तु विश्वास करने की कृपा कीजिएगा कि यह सब मैंने अपनी सम्पूर्ण सदाशयता और आपके प्रति यथेष्ठ आदर भाव से ही लिखा है।

कृपा बनाए रखिएगा।

हार्दिक शुभ-कामनाओं सहित।

विनम्र,
विष्णु बैरागी


प्रतिष्ठा में,
श्रीयुत राम शंकरजी गुप्ता,
सेवा निवृत्त डिप्टी कलेक्टर,
द्वारा - साप्ताहिक डिम्पल,
डिम्पल चौराहा,
शामगढ़ - 458883
(जिला - मन्दसौर)

बच्ची को पढ़ाओ मत! कार खरीदो


‘मेरा भारत सचमुच में महान् है जहाँ एम्बुलेन्स के मुकाबले पिज्जा पहले पहुँचता है और जहाँ कार के लिए ऋण सात-आठ प्रतिशत की ब्याज दर पर और उच्च शिक्षा के लिए ऋण बारह प्रतिशत की ब्याज दर पर मिलता है।’ ऐसे एसएमएस आए दिनों मुझे भी मिलते रहते हैं। कल मुझे ऐसे एसएमएस को अनुभव करने का अवसर मिला।

मेरे परिचित को अपनी बिटिया के लिए उच्च शिक्षा ऋण चाहिए था। बैंकवाले घास नहीं डाल रहे थे। लगभग प्रत्येक बैंक में मेरे मित्र को समझाइश तो पूरी मिल रही थी किन्तु नहीं मिल रहा था तो केवल ऋण, जिसका वह जरुरतमन्द था और बैंकों के चक्कर काट रहा था।

परेशानहाल मेरे मित्र ने मेरे सामने अपना दुखड़ा रोया। मैं कर ही क्या सकता था? किन्तु मेरा ‘बीमा एजेण्ट’ मुझे कभी निराश नहीं होन देता। कहता है - ‘कोशिश करो।’ मैंने मित्र से उसकी पसन्द के बैंक का नाम पूछा। रुँआसे स्वरों में जवाब मिला - ‘भैया! जो भी बैंक लोन दे दे, वही बैंक मेरी पसन्द का।’ मुझे खुद पर शर्म हो आई। भला मजबूर आदमी की भी कोई पसन्द हो सकती है?

जो बैंक सामने नजर आया, उसी में घुस गया अपने मित्र के साथ। तीन-चार कर्मचारी परिचित निकल आए। गर्मजोशी से अगवानी की और मेरी हैसियत (तथा अपेक्षा) से अधिक सम्मान से कुर्सी पेश की। मेरा मित्र हैरत में था। वह यहाँ पहले आ चुका था किन्तु जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा है, किसी ने भी उसे घास नहीं डाली थी। मैंने अपना मन्तव्य बताया। जवाब मिला - ‘अरे! आप कह रहे हैं तो लोन क्यों नहीं मिलेगा?’ ‘तो दे दीजिए।’ मैंने कहा। तत्काल ही आवेदन पत्र आ गया और कर्मचारी मित्र ने ही भरना शुरु कर दिया। बिटिया तो साथ थी ही नहीं, एक दो कागज भी कम थे। मैं तनिक निराश हुआ तो कर्मचारी मित्र ने ढाढस बँधाया - ‘बिटिया के दस्तखत भी हो जाएँगे और कागज भी आ जाएँगे। आप तो इस कागज पर हस्ताक्षर कर दीजिए।’ मैं चौंका। बोला - ‘ऋण मुझे नहीं, मेरे इन मित्र को चाहिए। इनकी बिटिया के लिए।’ कर्मचारी बोला - ‘मालूम है। ये तो पहले भी आ चुके हैं। पूरा केस मालूम है। बस, आप हस्ताक्षर कर दीजिए।’

अब मैंने ध्यान से उस कागज को देखा जिस पर मुझे हस्ताक्षर करने को कहा जा रहा था। वह जमानतनामा था जिस पर जरुरी टिकिट भी लगे हुए थे। मैंने कहा - ‘यह तो जमानतनामा है?’ ‘हाँ। यह जमानतनामा ही है।’ जवाब मिला। मुझे पता था कि उच्च शिक्षा ऋण के लिए किसी भी जमानत की आवश्यकता नहीं है। सो, पूछा -‘लेकिन इसमें तो जमानत का प्रावधान नहीं है?’ ‘आपने बिलकुल ठीक कहा। कानून इसमें जमानत की जरूरत नहीं है।’ कर्मचारी ने आँखों में आँखें डालकर जवाब दिया। मैंने पूछा - ‘फिर?’ उसने सहजता से कहा - ‘फिर क्या? जमानत के बिना तो लोन नहीं मिलेगा। (मेरे मित्र की ओर इशारा करते हुए) इनसे पहले ही कह दिया था। पूछ लीजिए इनसे।’ मित्र ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

अच्छी-खासी बहस हो गई इस मुद्दे पर। ज्ञान प्राप्ति यह हुई कि उच्च शिक्षा के लिए दिए जा रहे ऋणों की वसूली बराबर नहीं हो रही है। बच्चे और उनके पालक, ऋण लेकर फिर पलटकर नहीं देखते। परिणामस्वरुप, उच्च शिक्षा ऋण की रकम, ‘एनपीए’ (नान परफारमिंग असेट्स) में बदलती जा रही है और यह आँकड़ा बढ़ता जा रहा है। इसलिए जमानत माँगी जाने लगी है। एक कारण और बताया जमानत लेने का। पता नहीं यह कितना सच है, बैंकों ने कानून बना दिया है कि जब भी कोई कर्मचारी/अधिकारी सेवा निवृत्त होगा तब उसके द्वारा स्वीकृत ऋणों का ब्यौर खंगाला जाएगा और यदि कोई ऋण वसूली शेष होगी तो उस कर्मचारी/अधिकारी की पेंशन, ग्रेच्युटी से उसकी वसूली की जाएगी।

मुद्दे ने मुझे अब जिज्ञासु बना दिया। पूछा तो मालूम हुआ कि ‘एनपीए’ में बदलनेवाले उच्च शिक्षा ऋण की रकम पूरे देश में सौ करोड़ के आसपास हो रही है। मुझे यह आँकड़ा बहुत छोटा लगा। पूछा कि औद्योगिक ऋण, व्यापार हेतु दिए जानेवाले अग्रिम (एडवान्सेस), नगद साख सीमा (केश क्रेडिट लिमिट), वाहन, मकान आदि के लिए दिए जा रहे ऋणों की वसूली की स्थिति क्या है? माथे पर सिलवटें डालते हुए कर्मचारी ने कहा - ‘क्या बताएँ साहब! हजारों-लाखों करोड़ों की रकम एनपीए में बदलती नजर आ रही है।’ इनकी जमानत के बारे में बताया कि विभिन्न वाणिज्यिक सम्पत्तियाँ, मकान, वाहन, बिक्री योग्य तथा कच्चा माल (स्टाक्स) आदि को जमानत के तौर पर रखा जाता है। इनके लिए अलग से जमानत नहीं ली जाती। लेकिन जमानत के रूप में रखी गई सम्पत्तियाँ/सामान को नीलाम कर पाना मुश्किल होता है और नीलाम कर भी दो तो भी ऋण की रकम वसूल नहीं हो पाती।

निष्कर्ष यह रहा कि जिन ऋणों के लिए अच्छी-खासी जमानत की व्यवस्था देखी जाती है, वे ऋण ही झमेले में पड़ रहे हैं और जमानत व्यर्थ साबित हो रही है। जमीनों को छोड़ दें तो जमानत के रूप में रखे गए वाहन और सामान, घसारे (डेप्रिसिएशन) के कारण अपने मूल मूल्य से काफी कम कीमत के रह गए हैं।

मुझे याद आया, ‘जनसत्ता’ के 20-22 अगस्त के अंकों में, नई दिल्ली के झण्डेवालान की दूसरी मंजिल स्थित आईसीआईआई बैंक की शाखा के दो विज्ञापन छपे थे जिनमें कुल जमा 44 लोगों को, ऋण वसूली के लिए सार्वजनिक नोटिस दिए गए थे। इन दोनों विज्ञापनों में उल्लेखित ऋण की रकम साढे सोलह करोड़ रुपयों से अधिक (रुपये 16,52,90,492/-) थी जिसमें से रुपये 27,06,194/- ऋण के, केवल एक मामले में जमानतदार का उल्लेख था। शेष 43 मामलों में कोई जमानतदार नहीं था। इन 44 मामलों में सबसे छोटा ऋण रुपये 10,04,022/- का और सबसे बड़ा ऋण रुपये 2,72,05,070/- का था। दोनों विज्ञापनों की ‘स्पेस’, ‘जनसत्ता’ के पौन पृष्ठ के बराबर थी। याने, कोई ताज्जुब नहीं कि डूबते कर्ज की वसूली की तकनीकी खानापूर्ति के पहले चरण (विज्ञापन) के लिए खर्च की गई रकम, किसी गरीब बच्चे को दिए जानेवाले शिक्षा ऋण की अधिकतम रकम से भी ज्यादा हो। मैंने बैंक में बैठे-बैठे ही, अन्य बैंकों को फोन पर सम्पर्क किया तो मालूम हुआ कि मेरे कस्बे में दिए गए उच्च शिक्षा ऋणों में सबसे बड़ी रकम रुपये 3,25,000/- की थी और वह भी किसी अन्य व्यक्ति की जमानत पर दी गई थी।

वैश्विक मन्दी के दौर में हम सबने अभी-अभी देखा है कि वित्तीय संस्थाओं को हुए ऐसे घाटे का सार्वजनिकीकरण किया गया-सरकारों ने इन्हें डूबने से बचाने के लिए हिमालयी आकार के आर्थिक पेकेज दिए जबकि इन संस्थाओं को होनेवाले मुनाफे का सार्वजनिकीकरण कभी नहीं हुआ। सारा मुनाफा इन संस्थाओं ने अपनी जेबों में ही रखा। याने, मुनाफे का निजीकरण और घाटे का सार्वजनिकीकरण।

मुझे अपने मित्र की सहायता करनी थी, सो जमानतनामे पर हस्ताक्षर कर दिए। शेष खानापूर्ति एक-दो दिन में हो जाएगी और मेरे मित्र की बिटिया को, उसके कॉलेज के अगले सेमेस्टर की फीस की रकम का, कॉलेज के नाम का बैंक ड्राट बना कर दे दिया जाएगा। हाँ, इस उच्च शिक्षा ऋण पर ब्याज की दर 12 प्रतिशत होगी।

हम लोग निकलने लगे तो कर्मचारी मित्रों ने ‘ऐसे कैसे जा सकते हैं?’ कह कर अपने मेनेजर साहब से मिलवाया। उन्होंने भरपूर इज्जत बख्शी। वीआईपी टी सेट में चाय पिलाई। मेनेजर साहब ने मेरे काम-धन्ध के बारे में पूछा। मालूम पड़ा कि मैं बीमा एजेण्ट हूँ तो बोले - ‘फिर तो आपने कार कभी की खरीद रखी होगी?’ मैंने कहा - ‘नहीं खरीदी। मैं बे-कार हूँ।’ सुन कर उनके चेहरे पर आती हुई हँसी में तेज चमक आ गई। बोले - ‘तब तो आप हमसे कार-लोन ले लीजिए। सबके लिए इण्टरेस्ट रेट साढ़े आठ परसेण्ट है लेकिन आपको स्पेशल प्रिविलेज से आठ परसेण्ट पर मिल जाएगा।’ मैंने विनम्रतापूर्वक धन्यवाद देकर इंकार किया और कहा - ‘यदि आप प्रिविलेज दे सकें तो इस शिक्षा ऋण पर आठ परसेण्ट ब्याज करवा दीजिए।’ वे तनिक झेंपते हुए बोले - ‘माफ करें, सर! यह तो नहीं हो पाएगा। एज्यूकेशन लोन पर इण्टरेस्ट रेट कम करने का कहीं कोई प्रॉविजन नहीं है।’

मैंने भेदती नजर से उनकी ओर देखा। निश्चय ही वे समझदार आदमी थे। मेरी नजरें सहन नहीं कर पाए। नीची नजरें किए ही उन्होंने हमें विदा किया।

मित्र के साथ बाहर आया। मित्र गदगद् था। किन्तु मित्र की सहायता करने और मित्र की खुशी मे शामिल होने का मेरा उत्साह कपूर हो चुका था।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

वैदिकि बलात्कार, बलात्कार न भवति


बात पुरानी। बस उदाहरण ताजा-ताजा। नई घटनाएँ पुरानी बातों को दोहराने के मौके दे देती हैं।

सितम्बर महीने का कोई एक दिन। घटनास्थल: राजस्थान का झालावाड़ कस्बा जो राजस्थान की पूर्व मुख्यमन्त्री वसुन्धरा राजे के संसदीय क्षेत्र का मुख्यालय भी है। इसी झालावाड़ में तीन मुसलमान युवकों ने एक हिन्दू लड़की से बलात्कार किया।

जैसा कि होना ही था, संघी-बजरंगी मैदान में आ गए। कानून की भोंगली कर रख लिया और दशा यह हो गई कि पुलिस को गोली तक चलानी पड़ गई। दोषियों को सजा मिलेगी जब मिलेगी लेकिन संघियों-बजरंगियों ने अपनी ओर से न्याय दान कर दिया। यह अलग बात है कि इस न्याय दान में कई हिन्दुओं को भी सम्पत्ति की हानि उठनी पड़ी। मामला अब न्यायालय में है।

हाँ, राजस्थान में सरकार काँग्रेस की है, इस तथ्य ने उत्साहवर्द्धन में आशा से अधिक सहयोग दिया।

सितम्बर महीने का ही एक ही और दिन। यह दिन, झालावाड़ की घटना के बाद का। घटना मध्य प्रदेश के मण्डला की। मण्डला जिला मुख्यालय है। मालूम हुआ कि कुछ महीनों पहले, डिप्टी कलेक्टर सीताराम प्रधान के बेटे और उसके कुछ (लगभग छः) मित्रों ने आदिवासी नाबालिग लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया था। बलात्कार ही नहीं किया था, अपने इस वीरोचित कार्य की फिल्म भी बनाई और एमएमस भी बनाया।

घटना सितम्बर में उजागर हुई। बलात्कृत लड़की के परिजनों ने हल्ला-गुल्ला मचाया। उनके अलावा और कोई, कुछ नहीं बोला। संघियों-बजरंगियों का हिन्दू रक्त उबलना तो दूर रहा, उसमें कहने को भी गर्मी नहीं आई। अखबारों ने पहले तो समाचार और बाद में फालो-अप को यथेष्ठ स्थान दिया। किन्तु हिन्दू अस्मिता रक्षकों में से एक ने भी इसमें से कुछ भी नहीं पढ़ा। मानो सबके सब निरक्षर हो गए। मण्डला में पत्ता भी नहीं खड़का। किसी को बेचैनी नहीं हुई। सब कुछ सामान्य और सहज बना रहा।

डिप्टी कलेक्टर का बेटा फरार हो गया जिसे पकड़ने के लिए पुलिस को कई दिन लग गए। फरारी की अवधि में डिप्टी कलेक्टर का बेटा अपने हिन्दू मित्रों के सहयोग से बचा रहा।

पुलिस ने जब डिप्टी कलेक्टर के इस बेटे का कम्प्यूटर जाँचा तो पाया कि वह कम्प्यूटर अश्लील फिल्मों और चित्रों का समृद्ध संग्रहालय था।

यह मामला भी अब न्यायालय में हैं जैसे कि झालावाड़ का मामला है। हाँ, मध्य प्रदेश मे सरकार भाजपा की है। शायद इस कारण भी हिन्दू रक्त में सिहरन भी नहीं हुई।

निष्कर्ष - नया कुछ नहीं। वह पुराना कि हे! विधर्मियों हिन्दू बच्चियों, किशोरियों, स्त्रियों की ओर बुरी नजर से देखने की, उनसे बलात्कार की जुर्रत कभी मत करना। ऐसा कुछ किया तो तुम्हारी खैर नहीं। हिन्दू अस्मिता के, तुम्हारे इस दुष्कर्म के विरुद्ध हम किसी भी हद तक चले जाएँगे।

याद रखो! इनके साथ दुराचार, बलात्कार करना हम हिन्दुओं का ही अधिकार है। यह सब, हम हिन्दू ही करेंगे। और यदि प्रदेश में हमारी ही सरकार हुई तो हम ऐसा करनेवाले हिन्दुओं के विरुद्ध कुछ करना तो दूर रहा, उनकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखेंगे, उनका नाम भी नहीं लेंगे। यही हमारा हिन्दुत्व है और यही हमारी, 'हिन्दू अस्मिता रक्षा' की परिभाषा भी।

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हिन्दुओं ने नहीं रखने दी मस्जिद में मूर्तियाँ

माँगीलालजी यादव ने आज उलझन में डाल देनेवाला सवाल किया - ‘भाई साहब! हिन्दू-मुसलमानों का घरोपा क्या ऐसी बिरली चीज हो गया है कि अखबारवाले ढूँढ- ढूँढ कर इनके किस्से छापें?’

हुआ यूँ कि अयोध्या प्रकरण के निर्णय का समाचार मुख मृष्ठ पर प्रमुखता से देने के साथ ही साथ लगभग सारे अखबारों ने विभिन्न गाँवों, कस्बों, नगरों के वे किस्से छापे जिनमें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारिवारिक रिश्ते बने चले आ रहे हैं। कुछ किस्से ऐसे छापे जिनमें एक धर्म के लोगों ने दूसरे धर्म की अनाथ लड़की का ब्याह कराया या कि एक के धर्म स्थल की देखरेख दूसरे ने की या कि एक पर आए संकट को दूसरे ने झेला।

मेरे पास कोई जवाब नहीं था। जानता हूँ कि यह सब तो हमें हमारी परम्पराओं से हमारे खून में ही मिला है लेकिन यह भी तो सच है कि सहिष्णुता और सहनशीलता का स्थान तेजी से बैर-भाव और प्रतिशोध-भाव लेते जा रहे हैं।

किन्तु यदि मैं चुप रहा तो किसी न किसी सुखद और प्रेरक संस्मरण से वंचित रह जाऊँगा, यही बात मेरे में उठी उनकी बात सुनकर। मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘आपको यह सब सहज लगता है?’

‘आप लगता है कि बात कर रहे हैं, अरे! भाई साहब! यह सब सहज है। जब से होश सम्हाला है है, तब से यही सब तो देख और भोग रहा हूँ। लोगों को यह सब अजीब और अविश्वसनीय लग रहा है, यही मुझे अजीब लग रहा है।’

मेरे स्वार्थी मन ने उन्हें उकसाया - ‘है ऐसी कोई बात या घटना जिससे आप अपनी बात साबित कर सकें?’

‘एक बात? यह बताइए कि आप कितने संस्मरण सुनना चाहेंगे?’ यादवजी ने सवाल दागा।

मैंने कहा - ‘अपने रतलाम में अभी-अभी तीन और चार सितम्बर के बीचवाली रात में कर्फ्यू लग गया था। बात बहुत छोटी थी। किसी ने मस्जिद पर गोबर फेंक दिया था। आप होते तो क्या करते?’

मेरे प्रश्न ने यादवजी को अतीत की यात्रा करा दी। बोले - ‘आपने बहुत छोटी बात पूछी है। जवाब में उससे भी छोटी बात बताता हूँ। लेकिन आज की दशा देख कर और आपकी बातें सुनकर लगता है कि इस बात पर आज कोई विश्वास नहीं करेगा।’

‘मैं करूँगा। आप बताइए तो सही!’ मैंने निमन्त्रण दिया।

यादवजी ने बोलना शुरु किया - ‘तो सुनिए! यह भारत विभाजन के ठीक बाद वाले समय की बात है। सन् 1948 के आसपास की होगी। मेरी उम्र तब छ-सात साल की रही होगी। मैं पिताजी के साथ होटल पर बैठा था। शाम होनेवाली थी। तभी फारुख चाचा आए। वे परेशान थे। पिताजी ने पूछा तो उन्होंने बताया कि कुछ लोग मस्जिद में मूर्तियाँ रखने की योजना बना रहे हैं।

‘मस्जिद याने माणक चौक वाली मस्जिद जो महा लक्ष्मी मन्दिर के ठीक पास में बनी हुई है और जहाँ से सत्यनारायण मन्दिर मुश्किल से सौ-डेड़ सौ फीट दूर है। फारुख चाचा ने पिताजी को कहा कि कुछ लोग मस्जिद में शिव लिंग स्थापित करना चाहते हैं।

‘पिताजी को विश्वास नहीं हुआ। किन्तु जब फारुख चाचा ने ऐसी बात कहनेवालों का नामजद हवाला दिया तो पिताजी को विश्वास करना पड़ा क्योंकि इन्हीं लोगों ने हमारे मकान के पिछवाड़ेवाली गली स्थित पीपल के झाड़ पर, ऊँची से ऊँची डाल पर रातों-रात भगवा झण्डा लगाया था। पिताजी को भगवा झण्डा लगाने पर कोई ऐतराज नहीं था किन्तु जिस तरह से छुप कर, रात के अँधेरे में झण्डा लगाया गया था उससे पिताजी असहमत थे। उनका कहना था कि केवल आपराधिक मानसिकता के लोग ही इस तरह छुपकर काम करते हैं। सो, पिताजी को फारुख चाचा की बात पर फौरन विश्वास हो गया। उन्होंने फारुख चाचा को भरोसा दिलाया कि वे बेफिकर रहें, ऐसी हरकत नहीं करने दी जाएगी।

‘यह कह कर पिताजी ने हिन्दू समाज के कुछ लोगों से सम्पर्क किया। सबने कहा कि यदि ऐसी बात है तो यह गलत है और मस्जिद में मूर्तियाँ रखना गैरवाजिब हरकत है। पिताजी सहित इन सब लोगों ने तय किया कि वे सब रात में मस्जिद पर पहरा देंगे, कोई अपने घर नहीं जाएगा। रात को वहीं सोएँगे। मस्जिद में तो किसी का भी सोना वर्जित है। सो, हिन्दू समाज के ये सभी पाँच-सात लोग, तब तक मस्जिद के बाहर रातें गुजारते रहे जब तक कि मुसलमान समाज ने बेफिकर होने की बात नहीं कह दी।’

किस्सा सुना कर यादवजी ने पूछा - ‘आपको इसमें कोई अनूठी बात लगी?’ मैंने कहा - ‘मुझे तो नही लगी किन्तु आज की पीढ़ी को यह बात शायद भरोसेलायक न लगे।’

यादवजी को विश्वास नहीं हुआ। हैरत से बोले - ‘ऐसी हालत हो गई है क्या?’ मैने कहा - ‘नहीं होती तो अखबारवाले ऐसे किस्से ढूँढ-ढूँढ कर क्यों लाते और क्यों इस तरह प्रमुखता से छापते?’

यादवजी से बोला नहीं गया। गहरी निःश्वास लेकर बोले - ‘फिर तो मैं अपने दोस्तों को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा!’ मैंने पूछा - ‘कौन से दोस्त?’

‘अब आपको नाम बताने से क्या फायदा! अब तो आपको उनसे मिलाऊँगा, मेरे मन की बातें वे ही आपको बताएँगे तभी बात बनेगी।’

‘कब मिलवाएँगे?’ मैंने अधीरता से पूछा।

यादवजी बोले - ‘अभी नहीं कह सकता। लेकिन अब तो मेरा भी जी कर रहा है कि आपको जल्दी ही मेरे दोस्तों से मिलवा दूँ ताकि वक्त-जरूरत, आप गवाह रहें।’ कह कर यादवजी बुझे मन से चले गए।

अब मैं यादवजी के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

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सरकार ने सौ जूते भी खाए और सौ प्याज भी


अपनी बात कहूँ उससे पहले, ‘बिजनेस स्टैण्डर्ड‘ में, दिनांक 02 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित यह समाचार पढ़िए -

''खादी उत्पादन पर 20 फीसदी वित्तीय सहायता

बीएस संवाददाता: नई दिल्ली अक्टूबर 01, 2010

खादी और पॉलिवस्त्र के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) मंत्रालय ने मार्केट डेवलपमेंट असिस्टेंस (एमडीए) स्कीम 2011-12 तक के लिए प्रारंभ की है। इस स्कीम के तहत खादी और पॉलिवस्त्र के उत्पादन पर 20 फीसदी वित्तीय सहायता दी जाएगी।

केंद्रीय एमएसएमई राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) दिनशा पटेल ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि खादी और पॉलिवस्त्र के उत्पादन पर वित्तीय सहायता खादी ग्रामोद्योग आयोग के जरिये दी जाएगी। पटेल ने कहा कि 20 फीसदी वित्तीय सहायता में बुनकरों की 25 फीसदी, उत्पादन करने वालों की 30 फीसदी और बिक्री करने वालों की 45 फीसदी हिस्सेदारी होगी। इस स्कीम के जरिये खादी और पॉलिवस्त्रों की बिक्री में काफी इजाफा होने की उम्मीद है।
शुरुआत में एमडीए स्कीम को पायलट प्रोजेक्ट के रूप में शुरू किया गया था। इस स्कीम में लोगों की रुचि को देखते हुए इसे आगे बढ़ा दिया गया है।''

मेरी कल वाली गाँधी: मेड इन यू. एस. ए.पोस्ट पढ़कर, श्रीयुत रमेश चोपड़ा (बदनावर, जिला धार, मध्य प्रदेश) ने मुझे उपरोक्त समाचार की प्रति मेल की।

कल मेरी पोस्ट में एक बात छूट गई थी। सरकार ने खादी बिक्री पर दी जानेवाली 20 प्रतिशत छूट समाप्त कर, 01 अप्रेल 2010 से, विपणन विकास सहायता देनी शुरु करने का निर्णय लिया था। इसके परिणामस्वरूप खादी ग्राहकों को मिलनेवाली छूट घटकर 4-5 प्रतिशत रह गई थी।

देश की सभी खादी संस्थाओं ने 14 अक्टूबर 2009 को, प्रधानमन्त्री को एक ज्ञापन देकर सरकार की खादी विरोधी नीतियों का विरोध करते हुए सरकार के इस निर्णय को लागू करने में अपनी असमर्थता प्रकट की थी। इनमें से कुछ संस्थाओं ने तो असहयोग आन्दोलन तक की चेतावनी दे दी थी। इस ज्ञापन में चरखे के सौर ऊर्जाकरण का भी विरोध किया गया था।

14 अक्टूबर 2009 को दिए गए ज्ञापन को सरकार ने ठण्डे बस्ते में डाल दिया था। चूँकि बिजनेस स्टैण्डर्ड में यह समाचार 02 अक्टूबर को प्रकाशित हुआ है इसलिए सहज अनुमान लगता है कि सरकार ने यह निर्णय अथवा आदेश 01 अक्टूबर 2010 को प्रसारित किया है। अर्थात् 14 अक्टूबर 2009 वाले ज्ञापन पर सराकर ने कार्रवाई या तो साल भर बाद की या फिर की गई कार्रवाई की जानकारी कोई एक वर्ष बाद दी।

श्री रमेश चोपड़ा को मैंने लिखा -

''नौकरशाहों के भरोसे चलनेवाली सरकारें इसी तरह सौ जूते भी खाती हैं और सौ प्याज भी। समाचार से अनुमान लग रहा है कि सराकर ने यह आदेश एक अक्टूबर को जारी किया है। तब तक सारे अखबारों में सरकार की आलोचना जम कर हो चुकी थी।

''यह हमारे राजनीतिक नेतृत्व की असफलता और नौकरशाही की सफलता है। ''

अपनी इसी बात को आगे बढ़ा रहा हूँ।

हमारी सरकारों (अर्थात् हमारे निर्वाचित, उत्तरदायी जन प्रतिनिधियों) के माध्यम से जन आकांक्षाएँ प्रकट होती हैं जिन्हें साकार करने की जिम्मेदारी प्रशासकीय तन्त्र की होती है।

इस मामले में बिना अतिरिक्त मेहनत किए यह बात साफ नजर आ रही है कि हमारी सरकार ने यह मामला पूरी तरह से नौकरशाहों पर छोड़ दिया था और उनका (जन प्रतिनिधियों का) ध्यान इस ओर, तभी गया जब गाँधी जयन्ती सामने आ गई। तब, ताबड़तोड़ यह आदेश जारी किया लगता है। याने, हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को अब जनाकांक्षाओं की चिन्ता करने का अवकाश और आवश्यकता अनुभव नहीं होती।

खादी बिक्री पर मिलनेवाली छूट वापसी के इस निर्णय की खूब आलोचना हुई थी। देश के लगभग प्रत्येक प्रमुख अखबार ने इस समाचार को प्रमुखता से छापा था और सरकार की भरपूर छिछालेदारी हुई थी। किन्तु तब किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया। अब, गया भी तो एकदम अन्तिम क्षणों में। इसीलिए मैंने कहा कि इस मामले में सरकार ने सौ जूते भी खाए और सौ प्याज भी।

भारतीय जीवन बीमा निगम में हुए ‘मूँदड़ा घोटाला काण्ड’ के बाद तत्कालीन प्रधान मन्त्री नेहरु ने ब्रिटेन के एक नौकरशाह मिस्टर पर्किन्सन्स को इस घपले के सन्दर्भ में शासन-प्रशासन के अन्तर्सम्बन्धों और भारतीय प्रशासकीय तन्त्र पर विस्तृत रिपोर्ट देने के लिए तैनात किया था।

मिस्टर पर्किन्सन्स ने जो निष्कर्ष दिए थे उनमें दो प्रमुख निष्कर्ष निम्नानुसार थे -
पहला - भारतीय मन्त्री बिन्दु-रेखाओं पर हस्ताक्षर करते हैं। (इण्डियन मिनिस्टर्स पुट देयर सिगनेचर्स आन डाॅटेड लाइन्स।) तथा
दूसरा - भारतीय प्रशासकीय तन्त्र खुद को (अपने अस्तित्व को) बनाए रखने के लिए सतत् चेष्टारत ही नहीं रहता, वह खुद के आकार में बढ़ोतरी भी करता रहता है।

बाद में लोहिया ने इसी बात को राजनीतिक स्वरूप और सन्दर्भ देते हुए कहा था कि भारत सरकार के मन्त्री ‘नौकरों के नौकर’ होते हैं। अर्थात् वे जनाकांक्षाएँ भूलकर, भारत सरकार के नौकर अफसरों के कहे अनुसार चलते हैं।

खादी बिक्री की छूट निरस्त करने और बाद में, अन्तिम क्षणों में उसे निरन्तर किए जाने के आदेश जारी करने की यह घटना उपरोक्त सारी बातें प्रमाणित करती हैं।

यह भारतीय लोकतन्त्र का दुभाग्य ही है कि जिन लोगों को अपने मतदाताओं के हितों के लिए अपना दिन का चैन और रातों की नींद त्याग कर काम करना चाहिए उनके लिए, वही मतदाता उनकी चिन्ता सूची मे से नदारद हो गया है। ये उस अंगे्रजी कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं जिसमे कहा गया है कि नेता अपने समर्थकों के कन्धों पर चढ़कर कुर्सी पर बैठता है और वहाँ बैठकर अपने विरोधियों से मिल कर राज करता है।

व्यक्तिगत स्तर पर मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि खादी बिक्री को मिलने वाली छूट के निरन्तर होने पर खुश होऊँ या हमारे राजनीतिक नेतृत्व की अकर्मण्यता का स्यापा करूँ?

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

गाँधी: मेड इन यू. एस. ए.


नहीं जानता कि यह सुझाव मैं किसे दे रहा हूँ। यह भी नहीं जानता कि मेरे इस सुझाव को पढ़ेगा/सुनेगा कौन? और यह तो बिलकुल भी नहीं जानता कि यदि किसी ने, भूले भटके पढ़/सुन लिया भी तो इस पर अमल करवा पाएगा भी या नहीं?

मेरा सुझाव है कि गाँधी के 142वें जन्म दिवस पर यह देश उन्हें मुक्त कर दे। गाँधी के नाम की दुहाई देना बन्द कर दे। बहुत हो गया गाँधी! गाँधी!! यदि ऐसा कर लिया तो यह गाँधी की सबसे बड़ी सेवा होगी।

आजादी मिलने के साथ ही कांग्रेस को विसर्जित करने की, गाँधी की इच्छा का तिरस्कार करने के पहले ही क्षण से कांग्रेस ने गाँधी से पल्ला झाड़ना शुरु कर दिया था। गाँधी का अर्थ एक आदमी न होकर ‘आचरण’ था जिसे देश ने ‘प्रतीक’ में बदल कर रख दिया। गाँधी ने कभी सोचा भी नहीं था कि उन्हें ‘वाद’ में बाँध दिया जाएगा। आज, गाँधीवाद जरूर है, गाँधी के अते-पते नहीं।

पहले तो आँख की शरम पाली जा रही थी। किन्तु 1991 में, मनमोहन सिंह के वित्त मन्त्री बनने के साथ ही आँख का पानी मर गया। मनमोहन सिंह के पहले बजट से ही घोषित कर दिया गया था कि गाँधी का ‘अन्तिम आदमी’ अब इस देश की प्राथमिकता सूची से हटा दिया गया है।

जिस नमक को हथियार बना कर गाँधी ने अंग्रेजी राज की चूलें हिला दी थीं, वही नमक इस देश के ‘अन्तिम आदमी’ से छीन लिया गया। इस हरकत के लिए शर्म आनी चाहिए थी लेकिन इसे उदारीकरण, वैश्वीकरण का नाम देकर बेशर्मी को गहना बना लिया गया।

जिस खादी को गाँधी ने वस्त्र क्रान्ति में बदल दिया था, जिसके जरिए करोड़ों हाथों को काम दिया था, जिससे करोड़ों अधनंगे शरीरों की लाज ढँकी थी, उसी खादी को आज बाजार की शक्तियों के हाथों में सौंपा जा रहा है। ‘गाँधी-बिक्री’ पर एकाधिकार रखनेवाली कांग्रेस के नेतृत्ववाली केन्द्र सरकार ने, खादी को दी जा रही 20 प्रतिशत की छूट वापस लेने का फैसला ले लिया है। 1920 से निरन्तर दी जा रही यह छूट प्रति वर्ष 2 अक्टूबर से शुरु होती थी और पूरे 108 दिनों तक मिलती थी। इस छूट के आकर्षण के कारण ही, खादी की पूरे साल की बिक्री की 85 प्रतिशत बिक्री इन 108 दिनों में होती रही है। गाँधी ने कहा था - ‘खादी से ऐसे प्यार करो जैसे कोई माँ अपनी कुरूप सन्तान से करती है।’ प्यार करना तो दूर रहा, सरकार ने इस कुरूप सन्तान की मृत्यु सुनिश्चित कर दी। ठीक भी है, कुरूप सन्तान न केवल परिवार का संकट होती है बल्कि परिवार की सुन्दरता भी नष्ट करती है।

रोजगार के अवसर बढ़ाने को अपनी प्राथमिकता बतानेवाली सरकार के इस कदम से देश के लगभग 1950 मान्यता प्राप्त खादी संस्थान, इनसे जुड़े 55 हजार वेतनभोगी कर्मचारी तथा लगभग तीन लाख कतिन-बुनकर सीधे-सीधे नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि ये सब के सब बेरोजगार होकर सड़क पर आ खड़े हों। बाजारवाद के इस समय में निगमित संस्थानों द्वारा ग्राहकों को दी जा रही आकर्षक छूट तथा अन्य प्रलोभनों के चलते खादी से जुड़े तमाम संस्थानों, उपक्रमों पर तालाबन्दी की नौबत आनी ही आनी है।

मजे की बात यह है कि खादी पर दी जा रही यह छूट वापस लेने का मूल प्रस्ताव, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली ‘राजग’ सरकार ने लिया था। किन्तु राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ पर लगे हुए, गाँधी हत्या के आरोप के चलते ‘राजग’ सरकार अपने इस प्रस्ताव को लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। यह ‘नेक काम’ अब कांगे्रस नेतृत्ववाली संप्रग सरकार कर रही है। गोया, गाँधी की हत्या एक बार ही पर्याप्त नहीं थी!

एक काम और किया जा रहा है। गाँधी के चरखे को बिजली (सौर ऊर्जा) से चलाने का जतन किया जा रहा है और ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि सूरज की रोशनी न मिलने पर भी सौर ऊर्जा बराबर मिलती रहे और चरखा चलता रहे।

जिस खादी को नेहरु ने ‘आजादी का बाना’ कहा था उसकी एक मात्र व्याख्या है - ‘हाथ कती, हाथ बुनी।’ अब यह ‘हाथ कती’ नहीं रह जाएगी। यदि ऐसा हो गया तो खादी का ‘स्वत्व’ और खादी वस्त्रों का महत्व ही समाप्त हो जाएगा।

गाँधी की अध्यक्षता में स्थापित ‘अखिल भारतीय चरखा संघ’ ने भारत के कोई 30 हजार गाँवों के 20 लाख बुनकरों और कारीगरों को संगठित कर उन्हें जीवन निर्वाह का पारिश्रमिक दिया था। चरखे के बिजली से चलने के कारण इन कामगारों की संख्या मे गिरावट सुनिश्चित है। चरखे में बिजली लग जाने के बाद एक चरखा कोई चार-पाँच कतिनों का काम छीन लेगा। इसका एक ही परिणाम और अर्थ होगा - बेरोजगारों की भीड़ में वृद्धि। कहाँ तो इस देश के अधिक से अधिक लोगें को रोजगार दिए जाने की आवश्यकता है और कहाँ, इसके उलट सरकार का यह काम? वह भी गाँधी के नाम पर? लगता है, राजघाट को नीलाम करके ही दम लेंगे।

समाज के अन्तिम आदमी के नाम पर मनमोहन सिंह और उनकी सरकार को अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा नजर आते हैं जिनकी प्रसन्नता की चिन्ता करते हुए, हमारी आणविक जवाबदारी सन्धि में, देश के हितों की रक्षा और चिन्ता को परे सरका कर, अमरीकी हितों की चिन्ता की जा रही है।

लेकिन कांग्रेस ही क्यों? अब तो ‘संघ परिवार’ भी गाँधी की दुहाइयाँ देने लगा है। इससे यह तो साबित होता है कि इस देश में गाँधी के बिना किसी काम चलनेवाला नहीं। किन्तु ‘संघ’ जब गाँधी को उद्धृत करता है तो लगता है, शैतान बाइबिल का पाठ कर रहा है।

कहता तो हर कोई यही है कि केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में गाँधी आवश्यक भी हैं और सदैव प्रासंगिक भी। किन्तु सबको ‘गाँधी बिक्री से लाभ’ ही चाहिए। गाँधी, गाँधी परम्परा और गाँधी आचरण की चिन्ता किसी को नहीं।

आज गाँधी ‘घर का जोगी’ की दशा प्राप्त कर चुके हैं। घर में उनकी कोई पूछ परख नहीं रह गई है। हाँ, विदेशों में उनकी स्वीकार्यता पल-पल बढ़ रही है, उनके माननेवालों की संख्या विदेशों में निरन्तर बढ़ रही है। उपेक्षा या अनदेखी कहीं हो रही है तो केवल भारत में ही।

इसलिए, गाँधी के 142वें जन्म दिवस पर मेरा सुझाव है कि यह देश गाँधी का नाम लेना, गाँधी के नाम की दुहाइयाँ देना बन्द कर, उन्हें निर्वासित कर दे। विदेशों में उनके लिए असीमित सम्मान भाव उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।

वैसे भी, गाँधी की कुर्बानी से मिली आजादी के बाद भी हम लोग आज भी मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पाए हैं। हमें अपने देश पर, अपने देश के व्यक्तित्वों पर, अपने देश की बनी चीजों पर न तो गर्व है और न ही विश्वास। हमें वही चीज अच्छी और विश्वसनीय लगती है जिस पर विदेशी ठप्पा लगा हो।

इसलिए आज गाँधी को निर्वासित कर दें ताकि आनेवाले कुछ बरसों के बाद हम उन्हें स्वीकार कर सकें - जब उन पर ‘मेड इन यू एस ए’ का ठप्पा लग जाए।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

मेरा मोहल्ला याने अयोध्या


कल का दिन तनाव भरा तो नहीं रहा किन्तु सामान्य और सहज भी नहीं रहा।

अल्पाहार की होटलें और चाय की गुमटियाँ, ठेले सुबह सामान्य रूप से खुले। जलेबी-पोहे का नाश्ता करने के साथ-साथ अखबार पढ़ते लोग नजर आ रहे थे। दस बजते-बजते बाजार खुलने लगा किन्तु दुकानदार सावधानी बरत रहे थे। केवल मुख्य दरवाजे का शटर खोला। काँच ढकनेवाले शटर नहीं उठाए। चिन्ता सबकी एक ही थी - बिक्री हो न हो, नुकसान न हो।

लेकिन ग्यारह बजते-बजते सब कुछ बदल गया। पुलिस के जो जवान सवेरे, जन सामान्य के साथ होटलों, गुमटियों, ठेलों पर चाय पी रहे थे, अनायास ही अतिरिक्त सक्रिय हो गए। दुकानें बन्द करने और लोगों को घर जाने की ‘विनम्र सलाह’ देने लगे। सलाह और वह भी पुलिसवालों की? लोगों ने कहा मानने में ही खैर समझी। दोपहर बारह बजते-बजते तो डालु मोदी बाजार, चैमुखी पुल, चाँदनी चौक, बजाजखाना, माणक चौक जैसे सारे प्रमुख बाजार बन्द हो चुके थे। यह शब्दशः कर्फ्यू ही था किन्तु अघोषित।

स्कूलों की पालियाँ सुबह की कर दी गई थीं। दोपहर एक बजे तक ही स्कूल लगने थे। किन्तु बच्चे आएँ तो स्कूल लगे! सो, वहाँ भी बारह बजने से पहले ही ताले लगने लगे।

केन्द्र और राज्य सरकारों के दफ्तर खुले अवश्य। कर्मचारी भी आए तो किन्तु उनकी ‘चाय पानी’ करनेवालों का अता-पता नहीं था। लिहाजा, सरकारी दफ्तरों के आसपास (अपवादस्वरूप) खुली होटलवालों को मजबूरी में इन बाबुओं से ही अपना भुगतान प्राप्त करना पड़ा। ऐसे अनूठे अनुभव इन दुकानदारों को गलती से ही मिलते हैं।

बैंकों में छःमाही लेखाबन्दी के कारण ग्राहकों की आवाजाही बन्द थी। बीमा कम्पनियों के दफ्तर खुले रहे। भारतीय जीवन बीमा निगम की तीनों शाखाओं में काम काज चल रहा था किन्तु सर्वाधिक भीड़ मेरेवाले शाखा कार्यालय में रही। यह कार्यालय मुख्य सड़क पर है सो यहाँ वैसे भी दोनों अन्य कार्यालयों की अपेक्षा अधिक भीड़ रहती है। किन्तु दोनों कार्यालयों की अपेक्षा अधिकवाली आज की भीड़, रोज की भीड़ से बहुत कम थी। सामने, सड़कपार चाय की दुकान चला रहा मनोज रोज की तरह चाय उबाल रहा था। किन्तु उसकी दुकान पर ग्राहक नाम मात्र के ही थे। हाँ, हमारे कार्यालय मे आज उसने खूब चक्कर लगाए। हम कोई उन्नीस-बीस एजेण्ट थे। हममें से किसी न किसी के पॉलिसीधारक आ रहे थे। हम लोग उनकी खिदमत कर रहे थे।

मेरेवाले शाखा कार्यालय के कर्मचारी समय पर तो आ गए थे किन्तु काम करने में किसी का मन नहीं लग रहा था। दो बजे जब भोजनावकाश हुआ तो केवल शाखा प्रबन्धक, एक खजांची, दो सेवक और हम नौ-दस एजेण्ट ही रह गए। ढाई बजते-बजते सन्नाटा पसर गया।

बीमा एजेण्टों के संगठन ‘लियाफी’ (‘लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया’ के, अंग्रेजी प्रथमाक्षरों से बना संक्षिप्त नाम) के लिए अगले कार्यक्रम बनाने के लिए हम लोगों को अनायास ही ढेर सारा समय मिल गया था। दफ्तर की दशा देख एक उत्साही एजेण्ट ने शाखा प्रबन्धकजी पर व्यंग्योक्ति उछाली - ‘देखा साहब! आपके सारे कर्मचारी भाग गए और हम एजेण्ट जान पर खेलकर आपके लिए काम कर रहे हैं।’ शाखा प्रबन्धकजी ने व्यंग्योक्ति को परिहास में लेकर हवा में उड़ा दिया।

किन्तु हम लोग ज्यादा देर तक नहीं बैठ पाए। पुलिस के सन्देश आने लगे - ‘अपने-अपने घर जाइए।’ शाखा प्रबन्धकजी को तो रहना ही था। उन्होंने भी अपनी टेबल पर पड़ा, ढेर सारा लम्बित काम निपटाया।

तीन बजे जब घर पहुँचा तो पूरा मुहल्ला साँय-साँय कर रहा था। बच्चे भी घरों में ही दुबके हुए थे। पालकों ने ऐसी अतिरिक्त सावधानी बरती कि घर के बाहर भी नहीं निकलने दिया। घरों से टेलीविजन की आवाजें आ रही थीं।

शाम साढ़े चार बजे के आसपास जब निर्णय आया तो मैंने बाहर जा कर देखा। लोग अभी भी घरों में बन्द ही थे। निर्णय को लेकर कहीं कोई जिज्ञासा, रोमांच, उत्तेजना नहीं थी। मुझे अचरज हुआ। इतनी उदासीनता!

जैसे-तैसे साँझ ढली तो महिलाओं की आवाजें सुनाई देने लगीं। किसी को समझ नहीं पड़ रहा था कि निर्णय क्या आया है। तब तक बच्चे भी बाहर निकल आए और झुटपुटे में ही क्रिकेट खेलने लगे। अब मुहल्ला रोशन और जिन्दा था। किन्तु रात आठ बजते-बजते ही मानो आधी रात हो गई। अब घरों से टेलीविजन की आवाजें भी नहीं आ रही थीं।

और इस तरह बहुप्रतीक्षित दिन का समापन हुआ। मुहल्ले में नीरवता थी। लोग चैन से अपने-अपने बिस्तरों में दुबक गए थे।

आज सुबह अखबारों में पढ़ा, कल की रात अयोध्या में भी ऐसी ही सुख-शान्ति भरी रही।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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