माँगीलालजी यादव ने आज उलझन में डाल देनेवाला सवाल किया - ‘भाई साहब! हिन्दू-मुसलमानों का घरोपा क्या ऐसी बिरली चीज हो गया है कि अखबारवाले ढूँढ- ढूँढ कर इनके किस्से छापें?’
हुआ यूँ कि अयोध्या प्रकरण के निर्णय का समाचार मुख मृष्ठ पर प्रमुखता से देने के साथ ही साथ लगभग सारे अखबारों ने विभिन्न गाँवों, कस्बों, नगरों के वे किस्से छापे जिनमें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारिवारिक रिश्ते बने चले आ रहे हैं। कुछ किस्से ऐसे छापे जिनमें एक धर्म के लोगों ने दूसरे धर्म की अनाथ लड़की का ब्याह कराया या कि एक के धर्म स्थल की देखरेख दूसरे ने की या कि एक पर आए संकट को दूसरे ने झेला।
मेरे पास कोई जवाब नहीं था। जानता हूँ कि यह सब तो हमें हमारी परम्पराओं से हमारे खून में ही मिला है लेकिन यह भी तो सच है कि सहिष्णुता और सहनशीलता का स्थान तेजी से बैर-भाव और प्रतिशोध-भाव लेते जा रहे हैं।
किन्तु यदि मैं चुप रहा तो किसी न किसी सुखद और प्रेरक संस्मरण से वंचित रह जाऊँगा, यही बात मेरे में उठी उनकी बात सुनकर। मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘आपको यह सब सहज लगता है?’
‘आप लगता है कि बात कर रहे हैं, अरे! भाई साहब! यह सब सहज है। जब से होश सम्हाला है है, तब से यही सब तो देख और भोग रहा हूँ। लोगों को यह सब अजीब और अविश्वसनीय लग रहा है, यही मुझे अजीब लग रहा है।’
मेरे स्वार्थी मन ने उन्हें उकसाया - ‘है ऐसी कोई बात या घटना जिससे आप अपनी बात साबित कर सकें?’
‘एक बात? यह बताइए कि आप कितने संस्मरण सुनना चाहेंगे?’ यादवजी ने सवाल दागा।
मैंने कहा - ‘अपने रतलाम में अभी-अभी तीन और चार सितम्बर के बीचवाली रात में कर्फ्यू लग गया था। बात बहुत छोटी थी। किसी ने मस्जिद पर गोबर फेंक दिया था। आप होते तो क्या करते?’
मेरे प्रश्न ने यादवजी को अतीत की यात्रा करा दी। बोले - ‘आपने बहुत छोटी बात पूछी है। जवाब में उससे भी छोटी बात बताता हूँ। लेकिन आज की दशा देख कर और आपकी बातें सुनकर लगता है कि इस बात पर आज कोई विश्वास नहीं करेगा।’
‘मैं करूँगा। आप बताइए तो सही!’ मैंने निमन्त्रण दिया।
यादवजी ने बोलना शुरु किया - ‘तो सुनिए! यह भारत विभाजन के ठीक बाद वाले समय की बात है। सन् 1948 के आसपास की होगी। मेरी उम्र तब छ-सात साल की रही होगी। मैं पिताजी के साथ होटल पर बैठा था। शाम होनेवाली थी। तभी फारुख चाचा आए। वे परेशान थे। पिताजी ने पूछा तो उन्होंने बताया कि कुछ लोग मस्जिद में मूर्तियाँ रखने की योजना बना रहे हैं।
‘मस्जिद याने माणक चौक वाली मस्जिद जो महा लक्ष्मी मन्दिर के ठीक पास में बनी हुई है और जहाँ से सत्यनारायण मन्दिर मुश्किल से सौ-डेड़ सौ फीट दूर है। फारुख चाचा ने पिताजी को कहा कि कुछ लोग मस्जिद में शिव लिंग स्थापित करना चाहते हैं।
‘पिताजी को विश्वास नहीं हुआ। किन्तु जब फारुख चाचा ने ऐसी बात कहनेवालों का नामजद हवाला दिया तो पिताजी को विश्वास करना पड़ा क्योंकि इन्हीं लोगों ने हमारे मकान के पिछवाड़ेवाली गली स्थित पीपल के झाड़ पर, ऊँची से ऊँची डाल पर रातों-रात भगवा झण्डा लगाया था। पिताजी को भगवा झण्डा लगाने पर कोई ऐतराज नहीं था किन्तु जिस तरह से छुप कर, रात के अँधेरे में झण्डा लगाया गया था उससे पिताजी असहमत थे। उनका कहना था कि केवल आपराधिक मानसिकता के लोग ही इस तरह छुपकर काम करते हैं। सो, पिताजी को फारुख चाचा की बात पर फौरन विश्वास हो गया। उन्होंने फारुख चाचा को भरोसा दिलाया कि वे बेफिकर रहें, ऐसी हरकत नहीं करने दी जाएगी।
‘यह कह कर पिताजी ने हिन्दू समाज के कुछ लोगों से सम्पर्क किया। सबने कहा कि यदि ऐसी बात है तो यह गलत है और मस्जिद में मूर्तियाँ रखना गैरवाजिब हरकत है। पिताजी सहित इन सब लोगों ने तय किया कि वे सब रात में मस्जिद पर पहरा देंगे, कोई अपने घर नहीं जाएगा। रात को वहीं सोएँगे। मस्जिद में तो किसी का भी सोना वर्जित है। सो, हिन्दू समाज के ये सभी पाँच-सात लोग, तब तक मस्जिद के बाहर रातें गुजारते रहे जब तक कि मुसलमान समाज ने बेफिकर होने की बात नहीं कह दी।’
किस्सा सुना कर यादवजी ने पूछा - ‘आपको इसमें कोई अनूठी बात लगी?’ मैंने कहा - ‘मुझे तो नही लगी किन्तु आज की पीढ़ी को यह बात शायद भरोसेलायक न लगे।’
यादवजी को विश्वास नहीं हुआ। हैरत से बोले - ‘ऐसी हालत हो गई है क्या?’ मैने कहा - ‘नहीं होती तो अखबारवाले ऐसे किस्से ढूँढ-ढूँढ कर क्यों लाते और क्यों इस तरह प्रमुखता से छापते?’
यादवजी से बोला नहीं गया। गहरी निःश्वास लेकर बोले - ‘फिर तो मैं अपने दोस्तों को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा!’ मैंने पूछा - ‘कौन से दोस्त?’
‘अब आपको नाम बताने से क्या फायदा! अब तो आपको उनसे मिलाऊँगा, मेरे मन की बातें वे ही आपको बताएँगे तभी बात बनेगी।’
‘कब मिलवाएँगे?’ मैंने अधीरता से पूछा।
यादवजी बोले - ‘अभी नहीं कह सकता। लेकिन अब तो मेरा भी जी कर रहा है कि आपको जल्दी ही मेरे दोस्तों से मिलवा दूँ ताकि वक्त-जरूरत, आप गवाह रहें।’ कह कर यादवजी बुझे मन से चले गए।
अब मैं यादवजी के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
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ऐसी हालत हो गई है क्या?’ मैने कहा - ‘नहीं होती तो अखबारवाले ऐसे किस्से ढूँढ-ढूँढ कर क्यों लाते और क्यों इस तरह प्रमुखता से छापते?
ReplyDeleteदुख की बात है कि "विश्वगुरू" शिक्षा देने के बजाय अशिक्षा ले रहा है।
अब मैं यादवजी के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
उत्सुकता है!
आशा है कि यादवजी का बुलावा जल्द आयेगा।
ReplyDeleteसहिष्णुता की कहानियाँ अखबार वाले छापेंगे नहीं।
ReplyDeleteआप की बात से सहमत हुं, यह काम सिर्फ़ बदमाश ओर शेतान लोगो का ही होता है, आम लोग ऎसी बातो से दुर ही रहते है, जेसे हम अपने धर्मिक स्थान को पबित्र रखना चाहते है, वेसे ही अन्य सभी धर्मो के लोग भी अपने पुजा या नमाज या प्रथना स्थल को पबित्र रख्ना चाहते है ओर हमे अपने धर्म के संग संग दुसरो के धर्म ओर दुसरो की भावनाओ का भी ख्याल रखना चाहिये, ओर भडकाऊ लोगो ओर उन की बातो मे नही आना चाहिये
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