‘बज’ पर श्रीयुत बी एस पाबलाजी ने श्री खुशदीप सहगल के ब्लॉग ‘देशनामा’ की देशनामा: ये पढ़कर ब्लॉगर नाम पर शर्म आ रही है...खुशदीप ’ शीर्षक पोस्ट की लिंक फारवर्ड की।
पहले खुशदीपजी की पोस्ट पढ़ी और उसमें दी हुई लिंक खोल कर गजेन्द्रसिंहजी के ब्लाग ‘थोड़ा मुस्कुरा कर देखो’ की ‘आपको कितने दिन लगेंगे, बताना जरुर?’ (इस पोस्ट पर्मा लिंक वाली) शीर्षक पोस्ट तथा (खुशदीपजी की ही बताई) दो अन्य दो पोस्टें (एक और धर्म को निशाना तथा बाकायदा वोटिंग पर्मालिंक वाली) पढ़ीं। पढ़कर साफ-साफ समझ आया कि गजेन्द्रसिंहजी को यह सब करने में न केवल आनन्द आया अपितु, जिस आत्म विश्वास और सहजता से उन्होंने अपनी बातों का औचित्य प्रतिपादित किया है उससे विश्वास किया जाना चाहिए कि वे ऐसा करना आगे भी जारी रखेंगे। आप-हम उनसे असहमत हो सकते हैं क्योंकि यह हमारा अधिकार है किन्तु इसके समानान्तर उन्हें भी हमसे असहमत होने का अधिकार है। हम सब अपने-अपने अधिकार का उपयाग करें और दूसरों को भी करने दें।
खुशदीपजी की पीड़ा आसानी से समझ आती है। लेकिन आप-हम कुछ भी नहीं कर सकते। सब तरह के लोग सब जगह होते हैं। हमारा नियन्त्रण केवल स्वयम् तक ही सीमित है, अन्य किसी पर नहीं। आप-हम आग्रह और आशा मात्र कर सकते हैं। अपेक्षा करेंगे तो खुशदीपजी की तरह दुःखी ही होना पड़ेगा क्योंकि अपेक्षा ही सारे दुःखों का मूल है।
प्रकृति में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसके पास बुद्धि भी है और विवेक भी। हम किससे संचालित होते हैं, यह हम पर ही निर्भर है। ‘बुद्धि’ और ‘विवेक’ के दो श्रेष्ठ उदाहरण हमें क्रमशः रावण और विभीषण के रूप में मिलते हैं। रावण केवल बुद्धि से नियन्त्रित रहा और विनाश को प्राप्त हुआ। विभीषण ने विवेक से काम लिय और न केवल लंकापति बना अपितु प्रभु श्रीराम के कार्य-साधन का श्रेयस्कर माध्यम भी बना।
मैं निपट देहाती आदमी हूँ और ससंकोच स्वीकार करता हूँ कि अब तक पिछड़ा हुआ ही हूँ। दुनिया काफी आगे चली गई है और मैं सबसे पीछे ही खड़ा हूँ। अपनी इस स्थिति पर मुझे न तो खेद और न ही असन्तोष क्योंकि अपनी यह जीवन शैली मैंने खुद तय की है। चतुर और बुद्धिमान लोग इसे मेरे ‘आलस्य का औचित्य प्रतिपादन’ भी कह सकते हैं। यह उनका अधिकार है।
मैं अपने बुजुर्गों तथा सयानों से सुनी बातों में विश्वास करता हूँ। वे कहते थे कि दूसरों की बेइज्जती करके आदमी अपनी इज्जत कभी नहीं बढ़ा सकता। दूसरों को दुःखी करके मैं कभी सुखी नहीं हो सकता। वे यह भी कहते थे कि मैं जैसा बोऊँगा, वैसा ही काटूँगा। दुनिया या समाज मुझे नया या अनूठा कुछ भी नहीं देगी। जो कुछ मैंने दिया है या दूँगा, वही मुझे लौटाया जाएगा।
इस प्रसंग मे मुझे तीन चीजें याद आ रही हैं - एक लोकोक्ति, एक लघु कथा और एक मेरा देखा-भोगा संस्मरण।
पहले लोकोक्ति।
एक आदमी ने दूसरे से कहा - ‘तुम्हारा बेटा हँसिये निगल रहा है। उसे समझाओ! रोको।’ आदमी ने कहा - ‘समझाया भी था और रोका भी था लेकिन वह न तो समझने को तैयार है न ही रुकने को। सो, उसे हँसिये निगलने दो। सवेरे जब ‘निपटने’ जाएगा तब सब समझ जाएगा।’
अब लघु-कथा, जो मुझे, पत्रकारिता के मेरे गुरु स्वर्गीय आदरणीय श्रीयुत हेमेन्द्र कुमारजी त्यागी ने सुनाई थी।
एक लड़का बकरियाँ चराने जंगल मे जाया करता था। जंगल में एक मस्जिद थी। एक दिन एक मुस्लिम मतावलम्बी उधर से निकला। नमाज का समय देख उसने सोचा - ‘यहीं नमाज पढ़ ली जाए।’ चादर बिछाकर नमाज पढ़ने लगा। बकरियाँ चरा रहा लड़का, पहली बार किसी को नमाज पढ़ते देख रहा था। वह कौतूहलवश नमाजी के पास आ खड़ा हुआ। नमाज पढ़ने के दौरान जैसे ही वह आदमी झुका, लड़के ने उसे अंगुली कर दी। नमाजी को गुस्सा तो बेहद आया किन्तु उसे याद आया कि उसे गुस्सा नहीं करना है। उसने लड़के को पुचकार कर एक अठन्नी दे दी। इस तरह उस दिन लड़के ने तीन अठन्नियाँ हासिल कर लीं। नमाजी ने, बड़े ही दुःखी मन से अपना रास्ता पकड़ा।
लड़के को मजा आ गया। मजे का मजा और आमदनी अलग से! सो अब वह अगले नमाजी की ताक में रहने लगा। उसे ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। कुछ ही दिनों में, जिरह-बख्तर पहने एक पठान उधर से निकला। उसने भी नमाज का समय देख, जिरह-बख्तर एक तरफ रख, नमाज पढ़ना शुरु किया। लड़का ताक में ही था। जैसे ही पठान झुका, लड़के ने अपनी हरकत कर दी। पठान को गुस्सा आ गया। उसने आव देखा न ताव, तलवार निकाली और लड़के की गरदन काट दी।
त्यागीजी कहते थे - ‘किसी की बदतमीजी पर गुस्सा मत होना। बस! अठन्नियाँ देते रहना। पठान को आने में देर नहीं होगी।’
और अब मेरा देखा-भोगा संस्मरण।
यह मेरे स्कूली दिनों की बात है। मेरे मित्र के बड़े भाई (जिन्हें हम सब ‘भैया’ कह कर पुकारते) अच्छी-खासी ऊपरी कमाईवाली नौकरी में थे। पड़ौस के कस्बे में नौकरी करते थे। पद बहुत बड़ा नहीं था किन्तु अपने अफसरों को साधकर उन्होंने विभाग में अच्छी हैसियत प्राप्त कर ली थी। ऐसी कि उनके सहकर्मी उनसे ईर्ष्या करते। किन्तु भैया ने यह सब आसानी से और एक दिन में ही हासिल नहीं कर लिया था। वे नौकरी कम करते और अफसरों की चापलूसी और उनकी अनुचित, अशालीन इच्छाएँ पूरी करने में जुटे रहते। उनके एक अधिकारी नारी-देह के शौकीन थे। वे अधिकारी जब भी भैया के कार्यालय के दौरे पर आते, भैया हर बार उनके लिए नारी-देह की व्यवस्था करते। भाभी सहित उनके तमाम परिजन उन्हें इसके लिए मना करते, समझाते, प्रताड़ित करते लेकिन भैया किसी की नहीं सुनते। वे कहते - ‘नौकरी में तरक्की के लिए यह सब करना पड़ता है। और फिर यह सब मैं अपने लिए थोड़े ही कर रहा हूँ? तुम सबके लिए ही तो कर रहा हूँ? आज घर में जो कुछ है उसके लिए मेरे साथवाले सब लोग तरसते हैं।’ उन्होंने तय कर लिया था कि वे किसी की नहीं सुनेंगे। यह क्रम निरन्तर रहा।
एक बार ऐसा हुआ कि अधिकारी आए तो भैया उनके लिए नारी-देह नहीं जुटा पाए। उन्होंने अधिकारी से क्षमा याचना की तो अधिकारी उखड़ गए। बोले - ‘तुम क्या समझते हो मैं यहाँ सरकारी काम करने आता हूँ? तुम जानते हो कि मैं यहाँ क्यों आता हूँ। तुम्हें पता था कि मैं आज आनेवाला हूँ तो यह व्यवस्था करना तुम्हारी जिम्मेदारी थी। मैं कुछ नहीं जानता। रात होनेवाली है। तुम कहीं से भी व्यवस्था करो। कोई नहीं मिले तो अपनी औरत लाओ लेकिन मुझे औरत चाहिए।’
अब इस बात में मत पड़िए कि सुनकर भैया को कैसा लगा होगा। भैया वहाँ से ‘जी, सर’ कह कर लौटे और घर आकर खुद को कमरे में बन्द कर लिया और पंखे से लटक कर अपने प्राण दे दिए।
किस्सा तो बहुत लम्बा है किन्तु बाकी हिस्सा यहाँ आवश्यक नहीं है।
सो, जिसके मन में जो आए, उसे वैसा करने दीजिए। हँसिये निगलनेवाले को हँसिये निगलने दीजिए, अठन्नियाँ इकट्ठी करनेवाले को अठन्नियाँ इकट्ठी करने दीजिए और नारी-देह उपलब्ध करानेवाले को नारी-देह उपलब्ध कराने दीजिए। वे अपना काम करें, हम अपना काम करें। आप-हम इतना ही कर सकते हैं कि यदि उनका किया हुआ अच्छा नहीं लगे तो हम वैसा नहीं करें। बुद्धिमान वही तो होता है जो दूसरों की मूर्खताओं से सीखता है!
मुझे लगता है, मैंने अपनी बात यहीं खत्म कर देनी चाहिए।
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पुन: ब्लाग लेखन आरम्भ करने का शुक्रिया
ReplyDeleteअजी वो बच्चा हे, अब उसे क्षमा कर दे ,अब जरुर सुधर जायेगा, आप का धन्यवाद
ReplyDeleteकभी मदरासी, कभी पारसी तो कभी सरदार ति कभी कुछ.... मज़ाक या केरिकेचर हंसने के लिए होते है.... पर आज शायद हम हंसना भूल रहे हैं इसलिए हमे किसी मज़ाक पर गुस्सा आ जाता है। यदि मज़ाक किसी व्यक्ति विशेष को अपमानित करने के लिए है तो वह मज़ाक नहीं रह जाता। यदि हमारी सहनशीलता लुप्त होती गई तो पडोसन जैसी फ़िल्में बनना बंद हो जाएगी :)
ReplyDelete3/10
ReplyDeleteटाईम पास
हम सब अपने-अपने अधिकार का उपयाग करें और दूसरों को भी करने दें। लघु कथा और संस्मरण नीति कथाओं की तरह लगे.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteविष्णु बैरागी जी,
ReplyDeleteआपकी बातो से सहमत तो नहीं हूँ, पर आपकी कथाये बहुत अच्छी लगी ....
मेरे ब्लॉग पर जो भी जोक्स है वो मैंने नहीं बनाये है वो या तो सुने हुए है या
फिर कही से कॉपी किये गए है ....
आज मेने सरदार जी पर जोक लिखा तो लोगो ने मेरा विरोध किया, किसी
भी जोक में कोई न कोई पात्र तो होता ही है .. कल को लोग विरोध करेंगे
इस पर मत लिखो उस पर मत लिखो .... मैंने जन भावनाओ का सम्मान
करते हुए अपनी पोस्ट में परिवर्तन भी कर दिया .... लेकिन किस किस को
रोक पाएंगे लोग .....
अब मेरा विरोध करने वाले लोगो को इन्हें भी रोकना चाहिए -
http://www.santabanta.com/trivia.asp?sms=1&catid=40
और इन्हें भी
http://www.dinesh.com/india_jokes-humor/sardar_jokes.html
http://www.litejokes.com/hindi/jokes002.html
आपके पास प्रसंगों, कथाओं व संस्मरणों की कमी नहीं है.
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