‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का समय

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके बारे में बताना गौरवानुभूति तो देता ही है, उनसे जुड़ना गर्वानुभूति भी देता है। जमनालाल के साथ भी ऐसा ही है। यूँ तो हम, आठवीं से लेकर ग्यारहवीं तक, कक्षापाठी हैं किन्तु वह इतना ‘शानदार आदमी’ है कि हमारे सहपाठी होने की बात को यूँ कहता हूँ - ‘यह जमनालाल है। मैं इसके साथ पढ़ा हुआ हूँ।’ मेरे महापुरुषों की सूची में यह प्रथम स्थान पर है। इस पर मैं सैंकड़ों/हजारों पन्ने लिख सकता हूँ। लेकिन यदि एक वाक्य में इसके बारे में कहना पड़े तो वह कुछ यूँ होगा - ‘काश! भगवान ने हर आदमी को जमनालाल बनाया होता।’ यहाँ दिया चित्र जमनालाल का ही है।

जमनालाल का पूरा नाम जमनालाल राठौर है। कुछ बरस पहले इसने ‘भेल’ (भारत हेवी इलेक्ट्रीकल्स) के वरिष्ठ प्रबन्धक (सीनीयर मैनेजर) पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली है। तीन बच्चों का पिता। हर हाल में सुखी और सन्तुष्ट रहने के अनवरत, मूक प्रयत्न करते रहनेवाला। कल अपराह्न कोई साढ़े तीन बजे आया था। अभी, सुबह 6 बजे, भोपाल के लिए इसे स्टेशन पर छोड़ कर आया हूँ। लेकिन इस पर लिखने का मनपसन्द काम फिर कभी। आज वह एक बात, जो अचानक ही कल, हमारी गप्पेबाजी में प्रमुख बन कर उभर आई।

कल हम दोनों ने हमारे कुछ अध्यापकों, व्याख्याताओं को याद किया-प्रेमपूर्वक भी और अदरपूर्वक भी। बातों ही बातों में उसने अपने, कक्षा छठवीं और सातवीं पढानेवाले प्रधानाध्यापक स्वर्गीय श्री माँगीलालजी जैन के बारे में जिस प्रकार और जो कुछ बताया, उस विवरण ने ही यह पोस्ट लिखने के लिए मुझे बाध्य कर दिया।

मनासा में अपनी पढ़ाई के दौरान जमनालाल, संस्कृत व्याख्याता शास्त्रीजी का सर्वाधिक प्रिय छात्र था। शास्त्रीजी का नाम तो हम तभी भूल चुके थे जब वे हमें पढ़ाया करते थे। उनकी अदा और कमोबेश शकल-सूरत के कारण हम सब उन्हें ‘दिलीप कुमार’ कहते और हमारे कहने का परिणाम यह हुआ कि शास्त्रीजी भी अपना मूल नाम भूल गए। वे जब तक मनासा रहे, श्री दिलीप कुमार शास्त्री ही बने रहे। संस्कृत हमारे लिए ‘जी का जंजाल’ विषय था जबकि शास्त्रीजी जो भी पढ़ाते, जमनालाल पहली ही बार में इतना समझ जाता था कि शास्त्रीजी को भी हैरत होती। वह इसलिए भी कि जमनालाल के पास तो पाठ्य पुस्तकें भी नहीं होती थीं! संस्कृत के सन्दर्भ में जमनालाल हमारे लिए ‘ईर्ष्‍याजनक अजूबा’ था। बाद-बाद के दिनों में तो यह होने लगा कि शास्त्रीजी कक्षा में आते, किताब में से कोई श्लोक या उद्धरण पढ.कर सुनाते और जमनालाल से कहते - ‘जमनालाल! इसे हिन्दी में समझाओ।’ और जमनालाल शुरु हो जाता। शास्त्रीजी ध्यानपूर्वक सुनते-देखते और जहाँ आवश्यक होता, हस्तक्षेप करते। किन्तु जमनालाल ने उन्हें हस्तक्षेप करने के अवसर बहुत ही कम दिए। हम पूछते - ‘जमनालाल! यार! तू यह सब कैसे कर लेता है?’ उसके पास कोई जवाब नहीं होता।

यह जवाब उसे और मुझे कल मिला। अचानक ही।

जमनालाल का गाँव भाटखेड़ी, मेरे गाँव मनासा से कोई दो किलोमीटर दूरी पर है। वहाँ, सातवीं कक्षा तक ही पढ़ाई होती थी। आठवीं और उससे आगे की पढ़ाई के लिए भाटखेड़ी के बच्चों को मनासा आना पड़ता था।

यह सन् 1958 की बात है। भाटखेड़ी के स्कूल में उसी साल छठवीं कक्षा खुली थी और जमनालाल भी उसी साल छठवीं कक्षा में पहुँचा था। माँगीलालजी जैन प्रधानाध्यापक थे। वे भाटखेड़ी के ही निवासी थे। बच्चों को पढ़ाने का उनका शौक, शौक से कोसों आगे बढ़कर मानो सनक और व्यसन तक पहुँच चुका था। बच्चों को पढ़ाने के लिए वे चैबीसों घण्टों मानों ‘पगलाए’ रहते थे। कुछ ऐसे कि उनका बस चले तो न तो खुद और कुछ करें और न ही बच्चों को कुछ और करने दें - बस, वे पढ़ाएँ और बच्चे पढ़ते रहें, जगातार चैबीसों घण्टे। इस ‘पागलपन’ ने उनके नाम में लगा ‘जैन’ लुप्त कर दिया था और वे ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ बनकर रह गए थे।

भाटखेड़ी में छठवीं कक्षा शुरु हुई तो माध्यमिक शिक्षा स्तर का पाठ्यक्रम प्रभावी होना ही था। उसमें संस्कृत भी एक विषय था। शासन ने स्कूल को ‘पदोन्नत’ तो कर दिया किन्तु नए जुड़े विषयों के अध्यापक नहीं भेजे। अन्य विषय तो ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ ने स्वयम् सहित सारे अध्यापकों में बाँट दिए किन्तु संस्कृत पढ़ाने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। आज जैसा समय होता तो प्रधानाध्यापकजी, सरकार को पत्र लिखने की खानापूर्ति करते रहते। तब भी संस्कृत अध्यापक की नियुक्ति नहीं होती। तब वे, मनासा में किसी संस्कृत अध्यापक से ‘भागीदारी’ कर, भाटखेड़ी में छोटी-मोटी ‘संस्कृत कोचिंग क्लासेस’ शुरु करवा देते। संस्कृत अध्यापक भी मलाई मारता और खुद ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ भी मोटी रकम प्राप्त कर लेते। किन्तु शुक्र है कि वह ‘आज का समय’ नहीं था। वह ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का समय था। जो कुछ करना था, ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ को ही करना था। संस्कृत अध्यापक के न होने के नाम पर कक्षाएँ बन्द कर दें तो भाटखेड़ी का जो स्कूल बड़ी मुश्किल से प्राथमिक से माध्यामिक स्तर पर पदोन्नत हुआ था, फिर से प्राथमिक स्तर का विद्यालय बनकर रह जाए!

सो, ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ ने खुद संस्कृत विषय पढ़ाने का निर्णय किया। किन्तु उन्हें तो संस्कृत का ‘क, ख, ग’ भी नहीं आता था? उन दिनों ‘लर्न संस्कृत इन वन डे’ जैसी गाइडों का चलन भी शुरु नहीं हुआ था। तब क्या किया जाए? ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ ने, मनासा में किसी से सम्पर्क किया और अगली सुबह से (यहाँ ‘सुबह’ के स्थान पर ‘अँधेरे-अँधेरे ही’ लिखा जाना चाहिए था) भाटखेड़ी के लोगों ने ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ को मनासा जाते देखा।

यह शुरुआत थी। वे प्रतिदिन मनासा जाकर दो घण्टे संस्कृत पढ़ते और लौट कर छठवीं के बच्चों को संस्कृत पढ़ाते। प्रतिदन चार किलोमीटर की यात्रा और दो घण्टों की पढ़ाई। यह क्रम दो वर्षों तक चलता रहा क्योंकि अगले साल भाटखेड़ी में सातवीं कक्षा शुरु हो गई किन्तु सरकार ने संस्कृत शिक्षक तब भी नहीं भेजा। ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ ने स्थिति ही ऐसी बना दी थी कि किसी को संस्कृत अध्यापक की आवश्यकता अनुभव ही नहीं हुई।

जमनालाल ने बताया कि उन दोनों वर्षों में भाटखेड़ी स्कूल का, संस्कृत विषय का परीक्षा परिणाम न केवल शत-प्रतिशत रहा अपितु किसी भी विद्यार्थी ने प्रथम श्रेणी से कम अंक प्राप्त नहीं किए।

भाटखेड़ी से सातवीं कक्षा पास कर, आठवीं की तथा आगे की पढ़ाई के लिए जमनालाल मनासा आया। यह सन् 1960-61 की बात है। उन दिनों आठवीं परीक्षा, बोर्ड से हुआ करती थीं। मनासा के सेठ श्रीरामनारायणजी झँवर ने सार्वजनकि घोषणा की कि आठवीं बोर्ड की परीक्षा में, मनासा स्कूल में प्रथम आनेवाले बच्चे को वे स्वर्ण पदक देंगे। इस घोषणा ने झँवर सेठ को लम्बे समय तक (आठवीं बोर्ड का परीक्षा परिणाम आने तक) ‘लोक चर्चा पुरुष’ (टॉक आफ टॉउन) बनाए रखा। उनका बेटा गोपाल भी आठवीं कक्षा में पढ़ रहा था। उसके लिए झँवर सेठ ने, लगभग प्रत्येक विषय की ट्यूशन लगा रखी थी। पूरे मनासा ने मान लिया था कि गोपाल ही प्रथम आएगा और झँवर सेठ का स्वर्ण पदक घर का घर में ही रहेगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उस परीक्षा में जमनालाल प्रथम आया। वह भी तब, जबकि परीक्षा के दौरान ही जमनालाल के पिताजी की मृत्यु हो गई थी। यह अप्रत्याशित था-खुद झँवर सेठ के लिए भी। पूरे मनासा में अफरा-तफरी मच गई। गोपाल के प्रथम न आने से झँवर सेठ को कैसा लग रहा है - यह देखने/जानने के लिए ‘वाणी विलासी रसिक’, बिना काम के ही झँवर सेठ से मिलने जाते और लौटकर कहते - ‘झँवर सेठ गोल्ड मेडल शायद ही दें।’ किन्तु झँवर सेठ ने ऐसा कहनेवाले सारे लोगों को झूठा साबित किया। उन्होंने स्कूल में समारोह आयोजित कर खुद अपने हाथों जमनालाल को यह स्वर्ण पदक दिया। उस समय बजीं तालियाँ आज तक हमारे कानों में ही नहीं पूरे मनासा में सुनाई दे रही हैं। (बाद में, वही स्वर्ण पदक बेच कर, जमनालाल अपनी पढ़ाई आगे जारी रख पाया।)
कल जमनालाल ने रुँधे कण्ठ से कहा - ‘अब समझ में आता है कि वह सब ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का ही किया-कराया था। मैं तो कठपुतली मात्र था।’

बच्चों को संस्कृत पढ़ाने के लिए, पदोन्नत हुए अपने स्कूल को पदोन्नत बनाए रखने के लिए ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ खुद विद्यार्थी बने, दो बरसों तक बने रहे।

‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ के पढ़ाए बच्चे, पढ़-पढ़कर भाटखेड़ी से निकलते गए और ‘माँगीलालजी माट्सा‘ब’ वहीं के वहीं रहे। लगता है, मैं कुछ गलत कह रहा हूँ, गलत कर रहा हूँ। सही तो यह होगा कि ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का शरीर भाटखेड़ी में रह गया था और अपने पढ़ाए बच्चों के माध्यम से वे न जाने कितने शहरों/नगरों में व्याप्त हो गए थे।

‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ की दुहाई दे कर आज को कोसना और ठण्डी साँसे भर-भर कर किसी किस्म की तुलना करना व्यर्थ और मूर्खता ही होगी। वह समय ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का समय था और आज का समय आज का है।

किन्तु ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का समय आज भी कहीं न कहीं ठहरा हुआ है - उनके पढ़ाए हुए, जमनालाल जैसे बच्चों में।
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5 comments:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

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  2. यह सम्बन्धों का स्तर इतना ऊँचा है कि बाजारपूरित मानसिकताओं को समझ न आयेगा। स्वयं पढ़कर पढ़ाने का तो भूल ही जाईये, जो आता है वही पढ़ाने के लिये ट्यूशन देने को तैयार हैं आज के अध्यापकगण। यह भावानात्मकता देख हृदय द्रवित नहीं, मुग्ध हो जाता है।

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  3. ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ की तपसया कहे ओर बच्चो की (जमनालाल जी की ) मेहनत काश आज भी ऎसे ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ होते ओर जमना लाल.... लेकिन आज तो बजार वाद ओर अधिकार वाद चल रहा हे, बहुत सुंदर लेख धन्यवाद

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  4. पढ़ कर मन भर आया. मै भी आपके इलाके(रामपुरा) की हूँ . इसलिए और भी अच्छा लगता है.

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  5. आज के समय में भी मांगीलाल माट्साब कहीं न कहीं मिल जाएंगे. एक को मैं भी जानता हूँ. जबलपुर नवोदय में एक माट्साब हैं. अभी उनकी 50 वीं सालगिरह पर देश विदेश से तीन हजार से ऊपर विद्यार्थी आए - अपने तमाम काम-धाम छोड़कर.
    पर, काश सभी अध्यापक मांगीलाल माट्साब होते. इक्का-दुक्का से क्या होगा? बस उदाहरण मात्र बने रहेंगे.

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