गाँधी को ले आए अपने गाँव


चूँकि गाँधी को बहुत ही कम पढ़ा है इसलिए ठीक-ठीक नहीं कह सहता किन्तु कहने को जी कर रहा है रतलाम से कोई 25 किलोमीटर दूर के
तीन गाँवों (अम्बोदिया, रैन और मऊ) के पुरुषार्थी किसानों ने न्यूनाधिक, गाँधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को साकार किया है।

यह समाचार मुझे मिला, कल, 25 अक्टूबर को, ‘पत्रिका’ (इन्दौर) से।

मेरे अचंल में इस बार वर्षा कम हुई है। किसान चिन्तित भी हैं और परेशान भी। बरसात आने की अब आशा तो छोड़िए, कोई ‘आशंका’ भी नहीं रही। ऐसे में, इन गाँवों के कन्हैयालाल पाटीदार, जय प्रकाश धाकड़, डी. पी. धाकड़, मदन सिंह, भरत पाटीदार जैसे किसानों ने सोचा - ‘क्यों नहीं बहते नाले के पानी को रोक कर सिंचाई की जाए?’ और वे शुरु हो गए।

प्रति व्यक्ति 500-500 सौ रुपये के मान से रकम एकत्रित की गई और जेसीबी की मदद से, तीनों गाँवों में, नाले पर मिट्टी की भरपूर ऊँची पाल खड़ी कर, तीन स्‍टॉप डेमों की मदद से पानी को रोक लिया। आज एक किलो मीटर तक पानी रुका हुआ है। किसानों की समस्या तो हल हुई ही, भूमिगत जलस्तर भी बढ़ गया। न तो किसी इंजीनीयर की मदद ली और न ही किसी सरकारी अफसर के सामने अर्जी लगाई। सब कुछ खुद ही कर दिखाया भूमि पुत्रों ने।

जैसा कि चित्र में दिखाई दे रहा है, इन पुरुषार्थियों ने केवल पाल ही नहीं बनाई, पानी का रिसाव रोकने के लिए पूरी पाल को प्लास्टिक से ढक कर पर्याप्त बचाव भी कर लिया। लागत पूछने पर एक दूसरे की ओर देख कर हँसने लगते हैं। एक बाँध की लागत किसी भी दशा में दस हजार रुपयों से अधिक नहीं। कल्पना की जा सकती है कि कच्ची मिट्टी का यही बाँध यदि सरकारी विभाग बनाता तो लागत का आँकड़ा क्या होता? उस आँकड़े में मूल लागत से अधिक तो कमीशन का हिस्सा होता।

छोटी सी पहल और सबकी मदद का नतीजा यह है कि तीनों गाँवों के लोग खुश तो हैं ही, रबी की भरपूर फसल के प्रति निश्चिन्त भी हैं।

कहावत है कि कहे का असर हो न हो, किए का असर जरूर होता है। सो इसका असर भी हुआ और आसपास के अन्य गाँवों के लोग भी ऐसे स्टाप डेम बनाने में जुट गए हैं ताकि अपनी रबी की फसलें बचा सकें।

गाँधी ने और क्या चाहा, क्या कहा था? यही तो कि गाँवों की समस्या का निदान गाँववाले आपस में मिलजुल कर गाँवों में ही तलाशें और समस्या से छुटकारा पाएँ। शायद ऐसे ही सन्दर्भ में गाँधी ने उस व्यवस्थ को सर्वोत्कृष्ट व्यवस्था कहा होगा जो जन सामान्य के दैनन्दिन व्यवहार में कम से कम हस्तक्षेप करे।

अम्बोदिया, रैन और मऊ के इन लोगों को तो पता ही नहीं कि ये लोग अनजाने में ही गाँधी को अपने गाँवों में ले आए हैं।

(इस पोस्ट का आधार, ‘पत्रिका’ में प्रकाशित समाचार है। चित्र श्री स्वदेश शर्मा का है जो मुझे ‘पत्रिका’ के श्री नरेन्द्र जोशी के कृपापूर्ण सौजन्य से मिला है।)

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4 comments:

  1. आज ही हमने पत्रिका में पढ़ा. दूसरों को अनुकरण करना चाहिए.

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  2. आप ने सच कहा, अगर इन नेताओ ओर अफ़सरो के भरोसे रहे तो कोई भी काम नही हो सकता,करोडो का वजट बनेगा, ओर सब का सब यही चट कर जायेगे, इन कर्मयोगियो को मेरा नमन जिन्होने अपने विवेक से खुद ही यह काम कर दिया. आप का धन्यवाद

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  3. अपना हाथ जगन्नाथ। ग्रामीण शाखा में काम करते समय इस प्रकार के कई परिवर्तनकारी कार्यक्रम होते देखे हैं। तभी यह जाना कि देश के बहुत से कानून ग्रामीणों को स्वतः जल-संग्रहण/विद्युत-उत्पादन जैसे कार्यक्रम करने की इज़ाज़त नहीं देते हैं। शायद तब से अब तक समय काफी बदला है।

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