त्यौहार सामने है और मेरी उत्तमार्द्ध, दोनों बेटे और बहू, चारों के चारों मुझसे खिन्न हैं। मजे की बात यह है कि ये चारों मेरी प्रत्येक बात से सहमत हैं फिर भी चाहते हैं कि मैं अपनी बातें एक तरफ सरका कर उनकी बात मान लूँ - बिना कुछ बोले। आँखें मूँद कर।
कहते हुए मुझे संकोच हो रहा है कि मेरे पास इस समय लगभग ग्यारह जोड़ कपड़े हैं। आठ जोड़ पतलून-कमीजें और तीन जोड़ कुर्ते-पायजामे। हो सकता है, कुर्ते-पायजामे एक-दो जोड़ ज्यादा ही हों। वास्तविकता मेरी उत्तमार्द्ध ही जानती है। पूरी तरह से उन्हीं पर निर्भर जो हूँ! यह बात कहने के लिए नहीं कह रहा, इस ब्लॉग पर प्रकाशित मेरे आत्म-परिचय में यह बात पहले ही दिन से कही हुई है।
दिसम्बर 2004 में, गृह-प्रवेश के समय चार जोड़ पतलून-कमीजें एक साथ बनवा ली थीं। बड़े बेटे वल्कल के विवाह के समय, 2008 में तीन जोड़ कपड़े और बन गए - दो जोड़ पतलून-कमीज और एक जोड़ कुर्ता-पायजामा। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, 2002 या 03 में दो-एक जोड़ कुर्ते-पायजामे सिलवाए थे।
2004 वाले पतलून-कमीजों का रंग अवश्य तनिक फीका पड़ गया है, कमीजों के कॉलर अल्टर करवाए गए हैं किन्तु कपड़े न तो फटे हैं और न ही गले हैं। 2008 वाले कपड़े तो नए-नकोर लगते हैं। कुर्तों-पायजामों पर तो समय और मौसम का कोई असर हुआ लगता ही नहीं।
मुझे कहीं कोई कारण और औचित्य नजर नहीं आता - नए कपड़े सिलवाने का। किन्तु चारों के चारों दीपावली की दुहाई दे कर नए कपड़े सिलवाने का आग्रह कर रहे हैं। अधिक नहीं तो कम से कम एक जोड़ तो सिलवा ही लूँ ताकि ‘दीपावली मिलन’ के लिए आने-जाने में काम आ जाएँ। मैंने साफ मना कर दिया है।
वे मुझसे कारण पूछते हैं। मैं चाह कर भी नहीं बता पा रहा हूँ। मेरी गली के सामनेवाले बाँये कोने पर एक मिस्त्री परिवार रहता है। चार भाइयों का, लगभग बारह सदस्यों का संयुक्त परिवार है। सरकारी जमीन पर अतिक्रण कर बसे हुए हैं वे लोग। काम-काज ठीक-ठीक चल रहा है। इतनी कमाई हो जाती है कि गुजारा भी हो जाए और त्यौहार भी मन जाए। फिर भी उनका ‘अधिकतम’ मेरे परिवार के ‘न्यूनतम’ से भी कम है, बहुत कम। ऐसा भी नहीं है कि उनके बच्चे-स्त्रियाँ कपड़े-लत्तों की मोहताज हों। फिर भी अभाव छुपाए नहीं छुपते। होली-दीवाली और दूसरे त्यौहारों पर जब मेरे मुहल्ले के परिवारों के बच्चे खुले हाथों पटाखे फोड़ रहे होते हैं, रंग खेल रहे होते हैं तो इस परिवार के बच्चे कुछ ही पटाखे जला कर या नाम मात्र का रंग खेल कर, बाकी बच्चों को टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं। इनकी यह नजर मुझसे सहन नहीं होती। अपराध-बोध होता है इन्हें इस तरह देखते हुए। मुझे हर साल, हर बार लगता है कि मेरे पास सब कुछ मेरी आवश्यकता से कहीं अधिक है, बहुत अधिक। जबकि इनकी तो जरुरतें भी पूरी नहीं हो पातीं। ऐसे में अपना त्यौहार मनाना मुझे शोकग्रस्त तक कर देता है। तब, त्यौहार का उल्लास चेहरे पर लाने और उसे बनाए रखने में मुझे अपने आप से जूझना पड़ता है। बहुत कठिन और पीड़ादायक होता है यह जूझना। मर्मान्तक पीड़ादायक। यह सब अपने इन चारों परिजनो को कैसे बताऊँ? कैसे समझाऊँ?
इधर इन चारों की बात केवल कहने और चाहने तक ही सीमित नहीं है। दोनों बेटे और बहू इन्दौर रहते हैं। गए दिनों उत्तमार्द्ध कोई एक सप्ताह के लिए इन्दौर गई थीं। वल्कल और उसकी माँ कुछ खरीददारी करने बाजार गए थे। दोनों ने मेरे लिए कपड़े देखे तो किन्तु खरीदे नहीं। यह सोच कर कि पता नहीं रंग वगैरह मुझे पसन्द आए या नहीं, या मुझ पर फबें या नहीं। लेकिन ये सब बहाने हैं। दोनों भली प्रकार जानते हैं कि मैं अपने लिए नए कपड़े खरीदने या सिलवाने के पक्ष में हूँ ही नहीं।
चारों के चारों, मेरे इस नकार को, घुमा-फिराकर मेरी कंजूसी साबित करना चाह रहे हैं। मुझे हँसी आती है किन्तु हँस नहीं पाता। डरता हूँ कि ये सब बुरा न मान जाएँ। मैंने प्रस्ताव किया कि नए कपड़ों के मूल्य की रकम वे मुझसे ले लें और त्यौहार की किसी दूसरी मद पर या फिर घर की किसी और आवश्यकता पर खर्च कर लें। लेकिन वे इस पर तैयार नहीं। वे दीपावली का हवाला देकर अपने आग्रह पर अड़े हुए हैं और मैं अपनी मनस्थिति के अधीन विवश हूँ।
मैंने अपना अन्तिम निर्णय चारों को सुना दिया है - ‘मुझे आवश्यकता बिलकुल ही नहीं है इसलिए मैं नए कपड़े नहीं सिलवाऊँगा।’ चारों निराश हैं और खिन्न भी, जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा है।
मेरे मुहल्ले का रिवाज है, हम सारे परिवार दीवाली पर एक दूसरे के घर जाते हैं, यथा सम्भव सपरिवार। मैं चाहता हूँ कि इस बार दीवाली मिलन के लिए जब यह मिस्त्री परिवार मेरे घर आए तो इनके कपड़े मेरे कपड़ों से बेहतर हों। तब इनके चेहरों पर जो उजास आएगा उसके सामने, मेरे मुहल्ले के सारे मकानों पर की गई बिजली की रोशनी का उजाला जुगनू बन कर रह जाएगा।
अब तक ये लोग मेरी दीवाली में शरीक होते रहे हैं। इस बार से मैं इनकी दीपावली में शरीक होना चाहता हूँ। इस दीपावली से अब मैं हर दीपावली पर इसी रोशनी में नहाना चाहता हूँ।
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"मेरी कंजूसी साबित करना चाह रहे हैं।"
ReplyDeleteनाम में क्या रखा है? बडी टिप्पणी नहीं लिख सकता क्योंकि मुझे कल दफ्तर पहनकर जाने के लिये कमीज़-पतलून ढूंढनी है।
आपकी संवेदनशीलता को नमन.
ReplyDeleteघर के सभी सदस्य आपकी संवेदनाओं को जरुर समझते होंगें जी। फिर भी उनके अपने दिली भाव हैं।
ReplyDeleteआपके विचार और मानसिकता प्रेरक हैं।
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कपडे तो मै भी कम ही बनवाता हुं, लेकिन जब आप के बच्चे आप कॊ नये कपडो मै देखना चहाते हे तो उन की खुशी के लिये आप क्यो नही नये कपडे बनवा लेते, यह मिस्त्री परिवार क्या पता सच मे ही कंजुस हो या सच मे गरीब ही हो, तो आप अपने पुराने कपडे या उपहार के रुप मै कुछ पेसे या मिठाई उन्हे दे दे, लेकिन आपकी संवेदनशीलता उन के प्रति हे तो आप के बच्चो का मन भी तो हे कि उन के पिता अच्छे ओर नये कपडे पहने, वर्ना आज कल के बच्चे केसे हे यह लिखने की जरुरत नही,आप किस्मत वाले हे आप को अच्छॆ बच्चे मिले हे, चलिये आज बच्चो की पसंद के कपडे खरीद कर उन्हे दिपावली का उपहार दे दे, ओर फ़िर देखे उन के चेहरे की खुशी, हमे दुसरो के बार मे जरुर सोचना चाहिये लेकिन अपनो को भी नही भुलना चाहिये
ReplyDeleteअपकी इस सोच को नमन है। काश ऐसा हे हम सब सोचने लगें तो देश स्वर्ग बन जाये। इस बार मै भी यही प्रण लेती हूँ। कि साधारण ढंग से दीपावली मनाऊँगी। बस मन का दीप जलता रहे यही इस त्यौहार का औचित्य है। दीपावली की अग्रिम शुभकामनायें।
ReplyDeleteकम कपड़ों में काम चलाने का गुण जीवन में हमें संस्कारों और संस्कृति से मिला है, मैं उसी का पक्षधर हूँ और कपड़ों को कम करने में लगा हूँ। चमक चेहरे से आती है।
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