‘मेरा भारत सचमुच में महान् है जहाँ एम्बुलेन्स के मुकाबले पिज्जा पहले पहुँचता है और जहाँ कार के लिए ऋण सात-आठ प्रतिशत की ब्याज दर पर और उच्च शिक्षा के लिए ऋण बारह प्रतिशत की ब्याज दर पर मिलता है।’ ऐसे एसएमएस आए दिनों मुझे भी मिलते रहते हैं। कल मुझे ऐसे एसएमएस को अनुभव करने का अवसर मिला।
मेरे परिचित को अपनी बिटिया के लिए उच्च शिक्षा ऋण चाहिए था। बैंकवाले घास नहीं डाल रहे थे। लगभग प्रत्येक बैंक में मेरे मित्र को समझाइश तो पूरी मिल रही थी किन्तु नहीं मिल रहा था तो केवल ऋण, जिसका वह जरुरतमन्द था और बैंकों के चक्कर काट रहा था।
परेशानहाल मेरे मित्र ने मेरे सामने अपना दुखड़ा रोया। मैं कर ही क्या सकता था? किन्तु मेरा ‘बीमा एजेण्ट’ मुझे कभी निराश नहीं होन देता। कहता है - ‘कोशिश करो।’ मैंने मित्र से उसकी पसन्द के बैंक का नाम पूछा। रुँआसे स्वरों में जवाब मिला - ‘भैया! जो भी बैंक लोन दे दे, वही बैंक मेरी पसन्द का।’ मुझे खुद पर शर्म हो आई। भला मजबूर आदमी की भी कोई पसन्द हो सकती है?
जो बैंक सामने नजर आया, उसी में घुस गया अपने मित्र के साथ। तीन-चार कर्मचारी परिचित निकल आए। गर्मजोशी से अगवानी की और मेरी हैसियत (तथा अपेक्षा) से अधिक सम्मान से कुर्सी पेश की। मेरा मित्र हैरत में था। वह यहाँ पहले आ चुका था किन्तु जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा है, किसी ने भी उसे घास नहीं डाली थी। मैंने अपना मन्तव्य बताया। जवाब मिला - ‘अरे! आप कह रहे हैं तो लोन क्यों नहीं मिलेगा?’ ‘तो दे दीजिए।’ मैंने कहा। तत्काल ही आवेदन पत्र आ गया और कर्मचारी मित्र ने ही भरना शुरु कर दिया। बिटिया तो साथ थी ही नहीं, एक दो कागज भी कम थे। मैं तनिक निराश हुआ तो कर्मचारी मित्र ने ढाढस बँधाया - ‘बिटिया के दस्तखत भी हो जाएँगे और कागज भी आ जाएँगे। आप तो इस कागज पर हस्ताक्षर कर दीजिए।’ मैं चौंका। बोला - ‘ऋण मुझे नहीं, मेरे इन मित्र को चाहिए। इनकी बिटिया के लिए।’ कर्मचारी बोला - ‘मालूम है। ये तो पहले भी आ चुके हैं। पूरा केस मालूम है। बस, आप हस्ताक्षर कर दीजिए।’
अब मैंने ध्यान से उस कागज को देखा जिस पर मुझे हस्ताक्षर करने को कहा जा रहा था। वह जमानतनामा था जिस पर जरुरी टिकिट भी लगे हुए थे। मैंने कहा - ‘यह तो जमानतनामा है?’ ‘हाँ। यह जमानतनामा ही है।’ जवाब मिला। मुझे पता था कि उच्च शिक्षा ऋण के लिए किसी भी जमानत की आवश्यकता नहीं है। सो, पूछा -‘लेकिन इसमें तो जमानत का प्रावधान नहीं है?’ ‘आपने बिलकुल ठीक कहा। कानून इसमें जमानत की जरूरत नहीं है।’ कर्मचारी ने आँखों में आँखें डालकर जवाब दिया। मैंने पूछा - ‘फिर?’ उसने सहजता से कहा - ‘फिर क्या? जमानत के बिना तो लोन नहीं मिलेगा। (मेरे मित्र की ओर इशारा करते हुए) इनसे पहले ही कह दिया था। पूछ लीजिए इनसे।’ मित्र ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
अच्छी-खासी बहस हो गई इस मुद्दे पर। ज्ञान प्राप्ति यह हुई कि उच्च शिक्षा के लिए दिए जा रहे ऋणों की वसूली बराबर नहीं हो रही है। बच्चे और उनके पालक, ऋण लेकर फिर पलटकर नहीं देखते। परिणामस्वरुप, उच्च शिक्षा ऋण की रकम, ‘एनपीए’ (नान परफारमिंग असेट्स) में बदलती जा रही है और यह आँकड़ा बढ़ता जा रहा है। इसलिए जमानत माँगी जाने लगी है। एक कारण और बताया जमानत लेने का। पता नहीं यह कितना सच है, बैंकों ने कानून बना दिया है कि जब भी कोई कर्मचारी/अधिकारी सेवा निवृत्त होगा तब उसके द्वारा स्वीकृत ऋणों का ब्यौर खंगाला जाएगा और यदि कोई ऋण वसूली शेष होगी तो उस कर्मचारी/अधिकारी की पेंशन, ग्रेच्युटी से उसकी वसूली की जाएगी।
मुद्दे ने मुझे अब जिज्ञासु बना दिया। पूछा तो मालूम हुआ कि ‘एनपीए’ में बदलनेवाले उच्च शिक्षा ऋण की रकम पूरे देश में सौ करोड़ के आसपास हो रही है। मुझे यह आँकड़ा बहुत छोटा लगा। पूछा कि औद्योगिक ऋण, व्यापार हेतु दिए जानेवाले अग्रिम (एडवान्सेस), नगद साख सीमा (केश क्रेडिट लिमिट), वाहन, मकान आदि के लिए दिए जा रहे ऋणों की वसूली की स्थिति क्या है? माथे पर सिलवटें डालते हुए कर्मचारी ने कहा - ‘क्या बताएँ साहब! हजारों-लाखों करोड़ों की रकम एनपीए में बदलती नजर आ रही है।’ इनकी जमानत के बारे में बताया कि विभिन्न वाणिज्यिक सम्पत्तियाँ, मकान, वाहन, बिक्री योग्य तथा कच्चा माल (स्टाक्स) आदि को जमानत के तौर पर रखा जाता है। इनके लिए अलग से जमानत नहीं ली जाती। लेकिन जमानत के रूप में रखी गई सम्पत्तियाँ/सामान को नीलाम कर पाना मुश्किल होता है और नीलाम कर भी दो तो भी ऋण की रकम वसूल नहीं हो पाती।
निष्कर्ष यह रहा कि जिन ऋणों के लिए अच्छी-खासी जमानत की व्यवस्था देखी जाती है, वे ऋण ही झमेले में पड़ रहे हैं और जमानत व्यर्थ साबित हो रही है। जमीनों को छोड़ दें तो जमानत के रूप में रखे गए वाहन और सामान, घसारे (डेप्रिसिएशन) के कारण अपने मूल मूल्य से काफी कम कीमत के रह गए हैं।
मुझे याद आया, ‘जनसत्ता’ के 20-22 अगस्त के अंकों में, नई दिल्ली के झण्डेवालान की दूसरी मंजिल स्थित आईसीआईआई बैंक की शाखा के दो विज्ञापन छपे थे जिनमें कुल जमा 44 लोगों को, ऋण वसूली के लिए सार्वजनिक नोटिस दिए गए थे। इन दोनों विज्ञापनों में उल्लेखित ऋण की रकम साढे सोलह करोड़ रुपयों से अधिक (रुपये 16,52,90,492/-) थी जिसमें से रुपये 27,06,194/- ऋण के, केवल एक मामले में जमानतदार का उल्लेख था। शेष 43 मामलों में कोई जमानतदार नहीं था। इन 44 मामलों में सबसे छोटा ऋण रुपये 10,04,022/- का और सबसे बड़ा ऋण रुपये 2,72,05,070/- का था। दोनों विज्ञापनों की ‘स्पेस’, ‘जनसत्ता’ के पौन पृष्ठ के बराबर थी। याने, कोई ताज्जुब नहीं कि डूबते कर्ज की वसूली की तकनीकी खानापूर्ति के पहले चरण (विज्ञापन) के लिए खर्च की गई रकम, किसी गरीब बच्चे को दिए जानेवाले शिक्षा ऋण की अधिकतम रकम से भी ज्यादा हो। मैंने बैंक में बैठे-बैठे ही, अन्य बैंकों को फोन पर सम्पर्क किया तो मालूम हुआ कि मेरे कस्बे में दिए गए उच्च शिक्षा ऋणों में सबसे बड़ी रकम रुपये 3,25,000/- की थी और वह भी किसी अन्य व्यक्ति की जमानत पर दी गई थी।
वैश्विक मन्दी के दौर में हम सबने अभी-अभी देखा है कि वित्तीय संस्थाओं को हुए ऐसे घाटे का सार्वजनिकीकरण किया गया-सरकारों ने इन्हें डूबने से बचाने के लिए हिमालयी आकार के आर्थिक पेकेज दिए जबकि इन संस्थाओं को होनेवाले मुनाफे का सार्वजनिकीकरण कभी नहीं हुआ। सारा मुनाफा इन संस्थाओं ने अपनी जेबों में ही रखा। याने, मुनाफे का निजीकरण और घाटे का सार्वजनिकीकरण।
मुझे अपने मित्र की सहायता करनी थी, सो जमानतनामे पर हस्ताक्षर कर दिए। शेष खानापूर्ति एक-दो दिन में हो जाएगी और मेरे मित्र की बिटिया को, उसके कॉलेज के अगले सेमेस्टर की फीस की रकम का, कॉलेज के नाम का बैंक ड्राट बना कर दे दिया जाएगा। हाँ, इस उच्च शिक्षा ऋण पर ब्याज की दर 12 प्रतिशत होगी।
हम लोग निकलने लगे तो कर्मचारी मित्रों ने ‘ऐसे कैसे जा सकते हैं?’ कह कर अपने मेनेजर साहब से मिलवाया। उन्होंने भरपूर इज्जत बख्शी। वीआईपी टी सेट में चाय पिलाई। मेनेजर साहब ने मेरे काम-धन्ध के बारे में पूछा। मालूम पड़ा कि मैं बीमा एजेण्ट हूँ तो बोले - ‘फिर तो आपने कार कभी की खरीद रखी होगी?’ मैंने कहा - ‘नहीं खरीदी। मैं बे-कार हूँ।’ सुन कर उनके चेहरे पर आती हुई हँसी में तेज चमक आ गई। बोले - ‘तब तो आप हमसे कार-लोन ले लीजिए। सबके लिए इण्टरेस्ट रेट साढ़े आठ परसेण्ट है लेकिन आपको स्पेशल प्रिविलेज से आठ परसेण्ट पर मिल जाएगा।’ मैंने विनम्रतापूर्वक धन्यवाद देकर इंकार किया और कहा - ‘यदि आप प्रिविलेज दे सकें तो इस शिक्षा ऋण पर आठ परसेण्ट ब्याज करवा दीजिए।’ वे तनिक झेंपते हुए बोले - ‘माफ करें, सर! यह तो नहीं हो पाएगा। एज्यूकेशन लोन पर इण्टरेस्ट रेट कम करने का कहीं कोई प्रॉविजन नहीं है।’
मैंने भेदती नजर से उनकी ओर देखा। निश्चय ही वे समझदार आदमी थे। मेरी नजरें सहन नहीं कर पाए। नीची नजरें किए ही उन्होंने हमें विदा किया।
मित्र के साथ बाहर आया। मित्र गदगद् था। किन्तु मित्र की सहायता करने और मित्र की खुशी मे शामिल होने का मेरा उत्साह कपूर हो चुका था।
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एजूकेशन पर लोन मिलना चाहिये 4-5% के बीच, उसमें सरकार सहयोग करे, बल्कि पेमेन्ट सीधे बैंक व सरकार द्वारा सीधे कॉलेज को हो।
ReplyDeleteवैसे भी आदमी कितना मजबूर हो जाता है अगर पढा लिखा भी लिया तो लडका भी अच्छा ढूँढना पडेगा जिसे शायद कार भी देनी पडे ,सारी उम्र लोन की किश्तें देता रहेगा। लोन दे दे कर लोगों के ज़िन्दगी से खिलवाड किया जा रहा है और लोग भी बिना सोचे समझे इस दौड मे शामिल हो रहे है। अच्छी लगा आपका आलेख। धन्यवाद।
ReplyDeleteजिस देश में सांसद अपनी सेलरी तीन-चार गुना बढा लेते हैं उसे देश में और क्या उम्मीद की जा सकती है???
ReplyDeleteजनाब यह हमारा महान भारत हे, जिसे हमारे महान नेताओ ने बनाया है जहां रोटी ओर दाल मंहगी है, शराब सस्ती है, पढाई महंगी हे, लेकिन बाल मजदुरी सस्ती हे, लानत हे इन सब नेताओ पर...आप ने बहुत सुंदर लिखा धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन तरीके से, वास्तविकता के धरातल पर लिखा गया कठोर सत्य
ReplyDeleteलानत है @#$%^&*
अभी बहुत सारे सच और भी हैं भाई । वैसे यह सच नही है कि कर्मचारी / अधिकारी द्वरा स्वीकृत ऋण की भरपाई उसके प्राविडेंट फंड या लपेंशन से की जायेगी ।
ReplyDeleteसबसे पहले तो आभार इस विषय पर इतना विस्तार पूर्वक बताया आपने....
ReplyDeleteयह सही है की एजुकेशन लोन की प्रक्रिया को आसान बनाया जाना ज़रूरी है.....
स्पष्ट और संतुलित विवरण.
ReplyDeleteaapne jo likha sahi hai,log loan lene ke bad palat kar bhi nahi dekhate hai. bank wale to apne jese log jate hai to taktkal loan kar dete hai
ReplyDeleteनमस्ते
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