चीनी सामान का बहिष्कार याने रुई लपेटी आग

देश में इन दिनों उग्र राष्ट्रवाद और कट्टर धर्मान्धता की अफीम का समन्दर ठाठें मार रहा है। भ्रष्टाचार और कालेधन का खात्मा न होना, बढ़ती बेरोजगारी, स्कूलों-कॉलेजों में दिन-प्रति-दिन कम होते जा रहे शिक्षक, घटती जा रही चिकित्सा सुविधाएँ, किसानों की बढ़ती आत्महत्याएँ जैसे मूल मुद्दे परे धकेल दिए गए हैं। असहमत लोगों को देशद्रोही घोेषित करना और विधर्मियों का खात्मा मानो जीवन लक्ष्य बन गया है।

लेकिन सब लोगों को थोड़ी देर के लिए मूर्ख बनाया जा सकता है। कुछ लोगों को पूरे समय मूर्ख बनाए रखा जा सकता है। किन्तु सब लोगों को पूरे समय मूर्ख नहीं बनाए रखा जा सकता। 

जून और जुलाई के पूरे दो महीने मैं फेस बुक से दूर रहा। गए कुछ दिनों से सरसरी तौर पर देखना शुरु किया। इसी क्रम में राजेश कुमार पाण्डेय की एक पोस्ट नजर आई। घटना सम्भवतः बस्ती (उत्तर प्रदेश) की है। यह पोस्ट मैंने भी साझा की। उसके तीन स्क्रीन शॉट यहाँ दे रहा हूँ। इनमें पूरी पोस्ट पढ़ी जा सकती है। सारी बात अपने आप में स्पष्ट है। अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती।



लोग समझ तो शुरु से रहे थे और समझ रहे हैं लेकिन बोल कोई नहीं रहा था। अब लोगों ने बोलना शुरु कर दिया है। लोग ही क्यों? बोलना तो भाजपा सांसदों ने भी शुरु कर दिया है। यह अलग बात है कि वे चुप रह कर बोल रहे हैं। संसद के सदनों में अपने सांसदों की अनुपस्थिति से खिन्न प्रधान मन्त्री मोदी दो-दो बार उन्हें चेतावनी दे चुके लेकिन अनुपस्थिति का क्रम बना रहा। स्थिति यहाँ तक आ गई कि मोदी को धमकी देनी पड़ी - ‘2019 में देख लूँगा।’

यह सब देख-देख कबीर का एक दोहा बरबस ही याद आ गया। कबीरदासजी से क्षमा याचना सहित, उसमें ‘पाप’ को विस्थापित कर, ‘साँच’ का उपयोग कर रहा हूँ -

साँच छुपाए ना छुपे, छुपे तो मोटा भाग।
दाबी-दूबी ना रहे, रुई लपेटी आग।।

सच सामने आ रहा है। सच हमेशा ताकत देता है। इसी का असर है कि सच लोगों की जबान और सर पर चढ़कर बोलने लगा है। 

सत्य तो सनातन से परीक्षित है। झूठ को ही खुद को साबित करना पड़ता है। परास्त तो अन्ततः झूठ को ही होना है। तब तक सत्य को छोटे-छोटे संकट झेलते रहने पड़ेंगे।
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सेंसरशिप का अनूठा वैश्विक कीर्तिमान








आज सुबह लगभग सवा दस/साढ़े दस बजे मैंने यह पोस्ट लगाई थी। किन्तु थोड़ी ही देर बाद मैंने अनुभव किया कि यह पूर्ण सत्य नहीं थी। इसीलिए यह अनुचित भी थी।

मैं अपनी यह पोस्ट सखेद, क्षमा-याचना सहित हटा रहा हूँ।

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यह अभिलेखीकरण: अपने नायकों के साथ इतिहास में दर्ज होने का अवसर

नौ अगस्त को संसद में, ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के 75 वर्ष पूरे होने के प्रसंग पर बोलते हुए तमाम पार्टियों के नेताओं ने, स्वतन्त्रता संग्राम में अपने-अपने नेताओं के योगदान का उल्लेख किया। दूसरी पार्टियों के नेताओं को या तो भूल गए या जानबूझकर उनकी अनदेखी कर दी। भाजपा के पास अपना कोई स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी नहीं है। सो प्रधान मन्त्री ने उन नेताओं के नाम छोड़ दिए जिनसे उनका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ नफरत करता है। लगभग तमाम राजनीतिक दलों और तटस्थ प्रेक्षकों ने मोदी के इस व्यवहार को अशालीन निरूपित किया।


यह सब सुनते हुए, भाई साडॉक्टर बंसीधरजी बार-बार याद आने लगे। उनका गाँव भाटखेड़ी का पड़ौसी कस्बा मनासा मेरी जन्मस्थली है। वे बड़ौदा में बस गए हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा मनासा, इन्दौर में हुई। स्वर्गीय डॉक्टर शिव मंगल सिंहजी सुमन के निर्देशन में ‘मालवी की उत्पत्ति और विकास’ विषय पर 1968 में पी. एचडी. करने के बाद 1969 में बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ विश्व विद्यालय में सहायक व्याख्याता के रूप में पदस्थ हुए और पदोन्नत होते-होते 1996 में रीडर बने। नौकरी के दौरान गुजराती के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों की अनेक कृतियों के गुजराती अनुवाद किए। सयाजी राव गायकवाड़ (तृतीय) के जीवन ने उनका ध्यानाकर्षण किया। फलस्वरूप 1992 में ‘भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन में सयाजीराव का योगदान’ शीर्षक से उनकी पुस्तक सामने आई। इसका मराठी अनुवाद छपने की तैयारी में है। सन् 2000 में, सयाजी राव के 20 अंग्रेजी भाषणों का अनुवाद ‘दीर्घ दृष्टा सयाजीराव’ छपा। 2004 में ‘लोक स्मृति में सयाजीराव’ शीर्षक से संस्मरण संकलन पहले हिन्दी में और बाद में गुजराती में आया। सयाजी राव के 250 भाषणों का अनुवाद तीन खण्डों में प्रकाशित करने की योजना के तहत पहला खण्ड प्रकाशन की देहलीज पर है। सयाजी राव के प्रति इस रुझान के चलते 2007 में विश्व विद्यायलय में सयाजी फाउण्डेशन के समन्वयक बनाए गए। 

अपने ईलाज के लिए मैं मई 2016 में बड़ौदा में भर्ती रहा। बंसीधरजी लगातार पूछ-परख के लिए अस्पताल आते रहे। मेरे बहाने वे अपनेे अतीत में टहलते रहे और मैं उनके साथ चलता रहा - मौन। एक दिन उन्होंने ‘ओजस्वी आजाद’ शीर्षक पुस्तक दी। मूल लेखक बीरेन कोठारी हैं। बंसीधरजी ने उसका हिन्दी अनुवाद किया है। संसद में हमारे नेताओं द्वारा की जा रही, एक दूसरे की शिकायत ने मुझे इस पुस्तक की याद दिला दी।

बड़ौदा के मनहर भाई शाह ने बीरेन कोठारी की कलम से अपने स्वर्गीय काका, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रसिक भाई आजाद के व्यक्तित्व और स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी भूमिका का अभिलेखीकरण (डाक्यूमेण्टेशन) करवाया है। ऐसा करने का कोई विचार मनहर भाई के मन में नहीं था। किन्तु हुआ यह कि उनके एक मित्र ने उन्हें एक किताब भेजी। ‘पडकार सामे पुरुषार्थ’ (चुनौती को पार कर पाने का पुरुषार्थ) शीर्षक यह पुस्तक, अहमदाबाद के आदर्श प्रकाशन से जुड़े नवनीत भाई मद्रासी नामक सज्जन पर केन्द्रित थी। वे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। बीरेन कोठारी इसके लेखक थे। मनहर भाई न तो लेखक को जानते थे न ही पुस्तक के नायक को। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते ही मनहर भाई को अपने काका रसिक भाई याद आ गए। उन्होंने कई बार उनसे कहा था - ‘काका! आपके जीवन सम्बन्धी कुछ बातें बोलिए। मैं बैठकर उन्हें कागज पर उतारता जाऊँगा।’ लेकिन रसिक भाई को अपने बारे में बताना अच्छा नहीं लगता था। सो, वे हर बार कोई न कई बात बनाकर टाल देते थे। उनकी मृत्योपरान्त मिले उनके और उनके मित्रों के पुराने पत्रों से उनके काम और उनके व्यापक जीवन की हलकी सी झलक अनुभव हो पाई। मनहर भाई को लगा कि काका के संस्कारों की पूँजी से प्रगति करनेवाली पीढ़ी तो उन्हें जानती है। लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी यह जानकारी धुंधली होती जाएगी। तब, अगली कितनी पीढ़ियाँ उन्हें और उनके कामों को याद रख पाएँगी? इस विचार ने ही मनहर भाई के मन में ‘ओजस्वी आजाद’ का अंकुरण किया। उन्होंने बीरेन कोठारी से सम्पर्क किया। यह संयोग ही रहा कि कोठारीजी की ननिहाल उसी सांढासाल गाँव में थी जो रसिक भाई की मुख्य कार्यस्थली था। मनहर भाई ने अपने पास की सारी सामग्री और सूचनाएँ उन्हें सौंपी। कोठारीजी ने सामग्री का अध्ययन किया, रसिक भाई से जुड़े अधिकाधिक लोगों से भेंट की, उनकी कार्यस्थलियों की यात्रा की। पुस्तक का गुजराती (मूल) संस्करण फरवरी 2014 में प्रकाशित हुआ। हिन्दी के पाठकों को भी रसिक भाई के जीवन से प्रेरणा मिले, इस भावना से उन्होंने बंसीधरजी से इसका हिन्दी अनुवाद कराया।

इस पुस्तक ने मनहर भाई ने एक और महत्वपूर्ण जानकारी दी। कारगिल युद्ध के दौरान 1999 में बड़ौदा के दस गैर सरकारी संगठनों ने मिलकर ‘जन जागृति अभियान’ संगठन गठित कर, ‘याद करो कुर्बानी’ शीर्षक से, अंचल के 68 स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों से जुड़ी सन्दर्भ सामग्री संकलित कर पूरे गुजरात में प्रचारित-प्रसारित करने की योजना बनाई। मीरा बहन भट्ट रचित यह पुस्तक 2013 तक चार जिलों की शालाओं, महाशालाओं, पुस्तकालयों में निःशुल्क पहुँचाई जा चुकी थी। यह क्रम निरन्तर है। बंसीधरजी ने बताया कि ऐसे उपक्रम गुजरात के अन्य अंचलों में कभी व्यक्तिगत स्तर पर तो कभी सांगठनिक स्तर पर होते रहते हैं।

संसद में हमारे राजनेताओं की बातें और शिकायतें सुन कर मुझे ऐसी किताबों की आवश्यकता और प्रासंगिकता तेजी से अनुभव होने लगी। लड़ती तो बेशक पूरी फौज है लेकिन नाम तो सेनापति का ही होता है। इसके अतिरिक्त उन्हीं सैनिकों का उल्लेख हो पाता है जो महत्वपूर्ण घटनाओं या कि परिणामों को प्रभावित करते हैं। लड़नेवाले तमाम सैनिकों की बात तो कोसों दूर रही, मरनेवाले तमाम सैनिकों के नाम भी उल्लेखित कर पाना दुनिया के किसी भी इतिहासकार के लिए सम्भव न तो हो पाया है न ही कभी हो पाएगा। राष्ट्रीय स्तर पर कुछ नाम सामने आएँगे। प्रान्तीय स्तर पर तनिक अधिक नाम साने आ जाएँगे। लेकिन जिला, तहसील, नगर, कस्बा, गाँव स्तर पर अनेक सामने आ जाएँगे। ये सारे नाम प्रायः ही गुमनाम ही रहते हैं। यदा-कदा स्थानीय समारोहों या गोष्ठियों में सामने आ जाएँगे। तमाम लोगों या सूचीबद्ध करने की जिम्मेदारी निभाने में कोई भी सरकार कभी भी सफल नहीं हो सकती। ऐसे में अपने शहीदों, इतिहास पुरुषों की सार-सम्हाल की जिम्मेदारी हमें, स्थानीय स्तर पर ही लेनी पड़ेगी जिस तरह कि ‘जन जागृति अभियान’ और मनहर भाई ने किया। 

अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक मामलों के अलावा बाकी तमाम सामाजिक, सार्वजनिक कामों के लिए हम सरकारों पर आश्रित होते जा रहे हैं। ऐसे में स्थिति ‘महापुरुष हमारे, देखभाल तुम करो’ तक आ पहुँची है। अपने इस व्यवहार पर हमें गम्भीरता से, विस्तृतरूप से पुनर्विचार करना चाहिए। विभिन्न धार्मिक यात्राओं, भण्डारों, आयोजनों पर हम आए दिनों लाखों रुपये खर्च करते रहते हैं। जाहिर है, ऐसे कामों पर खर्च करने के लिए हमारी जेब और दिल बहुत बड़े हैं। अपने अंचल के महापुरुषों, शहीदों, कलाकारों, साहित्यकारों की याद के अभिलेखीकरण (डाक्यूमेण्टेशन) पर बहुत ही कम खर्च आएगा। हम सरकारों को कोसने  के बजाय इन कामों में अपनी भूमिका तय नहीं कर सकते? धार्मिक उपक्रम अखबारों की एक दिन की सुर्खी और लोगों के मन में कुछ दिनों की याद बन कर रह जाएँगे लेकिन यह अभिलेखीकरण हमारे नायकों को ही नहीं हमें भी इतिहास में दर्ज कर देगा। 

फूलों के साथ धागा भी देवताओं के कण्ठ तक पहुँच जाता है। हमारे अपने अंचल के अनगिनत फूल हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं। इन्हें  सहेज कर, इनके साथ हम खुद भी समय-देवता के कण्ठ तक नहीं पहुँचना चाहेंगे?
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 17 अगस्त 2017 को प्रकाशित)


मुख्यमन्त्री की चेतावनी: अफसरों का चुटकुला

मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम के प्रमुख अभियन्ता  अनिलचन्द सूर्या गए दिनों लेबड़-जावरा फोर लेन सड़क से गुजरे तो गड्ढों से परेशान हो गए। उन्होंने सड़क से ही, सड़क की देख-रेख की जिम्मेदार और टोल वसूल रही, एस्सेल कम्पनी के कर्ता-धर्ता कृष्णा माहेश्वरी को फटकार लगा कर फौरन ही मरम्मत कराने का आदेश देकर पूछा कि क्यों नहीं उनके टोल नाके बन्द कर दिए जाएँ? फटकार और पेट पर पड़ती लात के भय का असर हुआ और अगले ही दिन सड़क मरम्मत का काम शुरु हो गया। गड्ढों से उपजी परेशानी के समाचार अखबारों में लगातार छप रहे थे और लोग नेताओं से भी गुहार लगा रहे थे किन्तु  कोई असर नहीं हो रहा था। इस सड़क से मन्त्री भी आए दिनों यात्रा करते रहते हैं उन्होंने अखबार नहीं पढ़े होंगे लेकिन स्थानीय नेताओं ने तो कहा ही होगा। उन्होंने सुनने की खानापूर्ति कर ली होगी। या फिर हो सकता है, उन्हें अच्छी तरह पता रहा होगा कि उनके कहे का कोई असर नहीं होगा। कह कर बेइज्जती कराने से अच्छा है, कहा ही न जाए। लेकिन अफसर ने यह सब कुछ नहीं सोचा और ‘घण्टों का काम मिनिटों में’ हो गया।

साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में खबर पढ़ी कि प्रतिभावान छात्रों की फीस जमा करने के आदेश मुख्य मन्त्री ने महीनों पहले दे दिए। लेकिन फीस अब तक जमा नहीं हुई। अफसर ध्यान ही नहीं दे रहे। सम्वाददाता को मैं जानता था। उससे बात की। उसने एक कदम आगे बढ़कर ताज्जुबवाली बात बताई कि एक समारोह में खुद मुख्य मन्त्री ने यह जानकारी दी और कहा कि वे तो अपना काम कर चुके लेकिन अफसर कार्रवाई नहीं कर रहे। सम्वाददाता ने लगे हाथों एक और बात बताई कि कुछ ही दिन पहले मुख्य मन्त्री एक समारोह में धमकी दे चुके थे कि यदि उनके आदेश का क्रियान्वयन नहीं हुआ तो वे कलेक्टर को उल्टा लटका देंगे। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि कोई मुख्य मन्त्री सार्वजनिक रूप से ऐसा कह सकता है। एक कलेक्टर मेरे मित्र हैं। उनसे पूछा। उन्होने हँसते हुए पुष्टि की। मैंने पूछा कि उनकी (आईएएस अफसरों की) जमात ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई? हँसते हुए ही वे बोले - ‘क्या आपत्ति जताना? हम सब (अफसर) और प्रदेश की जनता जानती है कि मुख्य मन्त्रीजी जो कहते हैं वह करते नहीं। तालियाँ पिटवाने के लिए ऐसा कहना जरूरी था। कह दिया। तालियाँ पिटवा लीं। अफसरों को जो करना है, अपने हिसाब से करेंगे।’ सुनकर मुझे ताज्जुब तो हुआ, दुःख भी हुआ और बुरा भी लगा। हम जनप्रतिनिधित्व आधारित संसदीय लोकतन्त्र में रह रहे हैं और किसी कलेक्टर को अपने मुख्य मन्त्री के कहे (काम करने) की और चेतावनी की तनिक भी परवाह नहीं! यह तो लोकतन्त्र नहीं अफसर तन्त्र हुआ! लेकिन क्या दुखी होऊँ और क्या बुरा मानूँ। सूर्याजी का उदाहरण मेरे सामने था।

खुद ने देखा तो नहीं किन्तु बार-बार सुना कि मुख्यमन्त्री (स्वर्गीय) गोविन्द नारायण सिंहजी जब वल्लभ भवन के बरामदों से गुजरते थे तो अफसर लोग, सामने जो दरवाजा नजर आता (भले ही वह सुविधा घर का दरवाजा हो) उसमें घुस जाते। उनके सामने आने से घबराते थे। गोविन्द नारायण सिंहजी आईसीएस और आईपीएस, दोनों पात्रताधारी थे। कोई अफसर उन्हें ‘चलाने’ की कोशिश करता तो फौरन पकड़ लेते और भरी भीड़ में उसकी लू उतार देते। उन्हें मूर्ख बनाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन था। 

यह किस्सा खुद दादा ने सुनाया था। वे 1967 में पहली बार विधायक बने थे। पं. द्वारका प्रसादजी मिश्र ने उन्हें उम्मीदवार बनवाया था। अपने मन्त्री मण्डल मे उन्होंने दादा को सामान्य प्रशासन विभाग का संसदीय सचिव बनाया था। दादा को नियमित रूप से मिश्रजी के दफ्तर में उपस्थिति देनी होती थी। एक बार उन्होंने दादा से कहा - ‘बस्तर कलेक्टर से बात कराओ।’ दादा ने ट्रंक बुकिंग  नम्बर मिला कर कहा - ‘प्लीज बुक एन इमीजीएट कॉल फॉर बस्तर.......’ दादा इससे आगे कुछ बोलते, उससे पहले ही मिश्रजी ने डाँटते हुए कहा - ‘फोन रख दो।’  और उसी तरह डाँटते हुए बोले - ‘चीफ मिनिस्टर खुद कलेक्टर से बात करेगा? आगे से ध्यान रखना। चीफ मिनिस्टर को यदि कलेक्टर से बात करनी है तो कमिश्नर से कहो कि अपनी कमिश्नरी के फलाँ कलेक्टर से कहे कि वह सी एम से बात करे।’ लेकिन यह 1967 की बात है। तब से लेकर अब तक तो नदियों में इतना पानी बह गया कि मुख्यमन्त्री की, कलेक्टर को उल्टा टाँग देने की धमकी चुटकुले की तरह सुनी जाती है।

दा साहब स्वर्गीय माणक भाई अग्रवाल कहा करते थे - ‘सरकार नहीं चलती। सरकार का जलवा चलता है।’ यह ‘जलवा’ सेठीजी (स्व. प्रकाशचन्द्रजी सेठी) के मुख्यमन्त्रित्व काल में भी सतह पर ही नजर आता था। सेठीजी का आदेश अफसरों के लिए चेतावनी की तरह होता था। वे किसी का बुरा नहीं करते थे (सम्भवतः किसी का बुरा किया भी नहीं होगा) किन्तु बुरा हो जाने का भय बराबर बना रहता था। 

1977 से 1991 तक के चौदह वर्षों तक मैं एक दवा उत्पादक लघु उद्योग में भागीदार रहा। उसी दौरान 1987 में मुझे संभागीय उद्योग संघ का सचिव बनाया गया। तब तक मैं राजनीति, प्रशासन और पत्रकारिता के गलियारों में अपने स्तर के मुताबिक घूम चुका था। मुझे समझ आ गई थी कि समस्याओं के निदान के लिए अफसर ही उपयोगी और सहायक होते हैं। मुझे सचिव के प्रभार में दो समस्याएँ मिली थीं। पहली - छाता बनानेवाली चार इकाइयों की सेल्स टैक्स सबसीडी न मिलना और दूसरी - नायलोन रस्सी पर अनुचित कराधान। दोनों के लिए स्थानीय नेताओं और मन्त्रियों से भरपूर निवेदन-ज्ञापन हो चुके थे लेकिन निदान नहीं हो रहा था। हम लोगों ने तत्कालीन सेल्स टैक्स कमिश्नर प्रमोद कुमारजी दास को और तत्कालीन उद्योग सचिव (मुझे उनका नाम याद नहीं आ रहा) को अलग-अलग समाराहों में आमन्त्रित किया। पहली समस्या  हाथों हाथ निपट गई। दासजी के जाने से पहले ही सबसीडी जारी करने के आदेश हो गए। दूसरा मामला नीतिगत था। उद्योग सचिव को हमने नायलोन की रस्सी बनाने की पूरी प्रक्रिया मौके पर बताई। उनकी पीठ सुनती है, उन्होंने बड़प्पन बरतते हुए स्वीकार किया कि निर्माण प्रक्रिया देखने के बाद ही वे समस्या समझ पाए। उन्होंने वादा किया (उनके शब्द थे - आई प्रामिस यू) कि भोपाल जाते ही वे सबसे पहले उद्योगों के पक्ष में आदेश जारी करेंगे और उसकी एक प्रति हमें अलग से भिजवाएँगे। उन्होंने अपना वादा अक्षरशः निभाया।  

एक बतरस बैठक में स्वर्गीय सीतारामजी जाजू को कहते सुना था कि अफसरशाही से काम लेना याने शेर की सवारी करना। आपको, सुरक्षित रहते हुए, शेर को नियन्त्रित, लक्ष्य की ओर गतिवान बनाए रखते हुए मुकाम पर पहुँचना होता है। लेकिन मुकाम पर पहुँचना ही पर्याप्त नहीं। वहाँ पहुँच कर सुरक्षित रूप से उतरना भी उतना ही कौशल माँगता है जितना शेर की सवारी करने में। सवारी करने के पहले क्षण से लेकर उतरने के अन्तिम क्षण तक आपको शेर को यह अनुभूति भी करानी होती है कि आप उसके सवार नहीं, मित्र, शुभचिन्तक, हितरक्षक हैं।

प्रत्येक काल खण्ड के अपने मूल्य होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कार्य शैली। किन्तु लोक कल्याण स्थायी मूल्य है। यही शासक की कसौटी भी होता है। तब के नेता शायद इसी की चिन्ता करते रहे होंगे। आज उन्हें अपने-अपने हाई कमान की चिन्ता पहले करनी पड़ती है। लेकिन हाई कमान का भी एक हाई कमान होता है - नागरिक। उसकी दुआ भी लगती है और बददुआ भी। यह किसी ने नहीं भूलना चाहिए।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’ भोपाल में, 10 अगस्त 2017 को प्रकाशित)

चीनी सामान, देश-भक्ति याने फिक्र का जिक्र

हम प्रतीकीकरण के चरम समय में जी रहे हैं। पाखण्ड और प्रदर्शन ने आचरण को खारिज कर विस्थापित कर दिया है। देश-भक्ति इस पाखण्ड प्रदर्शन का सर्वोत्कृष्ट, श्रेष्ठ-उपयोगी और श्रेष्ठ परिणाम देनेवाला तत्व बन गया है। चोरी-कालाबाजारी करो, गरीबों को लूटो, सेक्स रेकेट चलाओ, देश के विरुद्ध जासूसी करो, संविधान की भावनाओं की हत्या करो लेकिन यदि वन्दे मातरम् का नारा लगा दिया तो आप प्रशंसनीय और अनुकरणीय देश भक्त हैं। आप ईमानदारी से देश के सारे कानून मान रहे हैं, सपने में भी देश का अहित नहीं सोचते, संविधान को अपने धार्मिक ग्रन्थ की तरह मानकर उसकी भावनाओं, उसके निर्देशों का पालन करते हैं लेकिन वन्दे मातरम् नहीं कह पाते हैं तो आप देशद्रोही हैं, आपने खुद को पाकिस्तान भेजे जाने की पात्रता हासिल कर ली है।

कोई बीस-बाईस बरस पहले एक सज्जन ने सुनाया था - ‘काम मत कर। काम की फिक्र कर। फिक्र का जिक्र कर। तेरा प्रमोशन पक्का।’ देशभक्ति के नाम पर आज यही हो रहा है। 

पहली अगस्त से देश में एक अभियान शुरु हुआ है - चीनी सामान का बहिष्कार करने का। वस्तुतः यह इस अभियान का दूसरा भाग है। पहला भाग गत वर्ष दीपावली पर सम्पन्न हुआ था। तब हमने चीन निर्मित पटाखों, फुलझड़ियों, झालरों का बहिष्कार किया था। देश भक्ति जताई थी। खूब खुश हुए थे। पटाखे फोड़ कर खुशी जताई थी। यह अलग बात है कि खुशी के आवेग में भूल कर चीनी पटाखे ही फोड़ बैठे। 

देश भक्ति और राष्ट्र प्रेम के अधीन अपनी शक्ति, अपनी क्षमता, अपना इतिहास ही भूल बैठे। यह भूलना कोई रणनीति है या भावावेग - इस पर बहस की जा सकती है। हम भूल गए कि चोर को नहीं, चोर की माँ को मारना चाहिए। हम भूल गए कि खरीदनेवालों के मुकाबले बेचनेवाले बहुत कम हैं। ये बेचनेवाले हमारे अपने ही लोग हैं। याद नहीं आया कि इनसे कहें कि चीनी सामान न बेचें। अपनी सरकार बनाने के लिए दूसरी पार्टी के विधायकों को खरीदने को सही बताते हुए, अभी-अभी अनुपम खेर ने कहा - ‘खरीदा वही जाता है जो बिकता है।’ इस सूत्र की तरफ ध्यान नहीं गया। सामान यदि बाजार में दुकानों पर उपलब्ध है तो बिकेगा ही। देश भक्ति और राष्ट्र प्रेम के भावावेग में हम भूल गए कि रोज सुबह हमारे साथ कवायद करनेवाले अनगिनत सेवक चीनी सामान के विक्रेता हैं। हम भूल गए कि इनसे कहें कि यह सामान मत बेचो। हम भूल गए कि अपनी संस्कृति और धर्म-रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरनेवाले अनगिनत सैनिक हमारे पास हैं। वेलेण्टाइन डे पर बधाई पत्रों की दुकानों को ध्वस्त कर देनेवाले अपने वीरों को हम भूल गए। हम उन्हें ही कह सकते थे कि चीनी सामान बेचनेवाली दुकानों पर अपनी ‘कृपा दृष्टि’ डाल दें। गौ रक्षा के लिए और लव जेहाद का नाश करने के लिए प्राण लेने में भी न हिचकनेवाले शूरवीर हमें याद नहीं आ रहे। पार्टी में संगठन मन्त्री और सरकार में मन्त्री कौन बने, इस व्यस्तता में हम भूल गए कि हम अपनी ही सरकार से चीनी सामान पर प्रतिबन्ध लगाने का आदेश जारी न करा पाए। हमें एक ही बात याद रही - देश के लोग देश भक्ति और राष्ट्र प्रेम भूल न जाएँ इसलिए घर-घर जाकर याद दिलाएँगे। लोगों को मालूम होना चाहिए कि हमें देश की और उनकी कितनी फिक्र है!


एक ऑडियो इन दिनों वाट्स एप पर खूब चल रहा है। मुझे अब तक सत्रह मित्रों से प्राप्त हो चुका है। इनमें से तीन ऐसे हैं जो खुद के सिवाय किसी को भी देश भक्त नहीं मानते। किन्हीं डाक्टर अनुराग के, लगभग साढ़े तेरह मिनिट के इस ऑडियो में अनेक छोटे-छोटे सवाल पूछे गए हैं और अनेक छोटी-छोटी जानकारियाँ दी गई हैं। जैसे, यदि चीन हमारा दुश्मन है तो प्रधान मन्त्री ने अब तक विरोध क्यों नहीं जताया? वे तीन बार चीन जाकर भारत में निवेश करने का आग्रह कर चुके हैं! हम कौन-कौन सा सामान नहीं वापरें या नहीं खरीदें? घर, दफ्तर, संस्थानों, हमारे दैनन्दिन जीवन में काम आ रहा कौन सा सामान ऐसा है जो चीन में न बना हो या जिसमें चीनी सामान न लगा हो? आधुनिक चिकित्सा उपकरणों के लिए हम विदेशों पर ही निर्भर हैं। इनमें से लगभग अस्सी प्रतिशत उपकरण पूर्णतः या आंशिक चीनी ही हैं। हम चीन से आयात बन्द क्यों नहीं कर देते? चीन अपने सकल निर्यात का अधिकतक तीन प्रतिशत ही भारत को निर्यात करता है। वह हम पर निर्भर नहीं है। इसके समानान्तर हम अपने सकल निर्यात का ग्यारह प्रतिशत निर्यात चीन को करते हैं। हम यह नुकसान उठाने को तैयार हैं? भारत में सत्ताईस हजार चीनी रहते हैं। इन्हें चीन क्यों नहीं भेज देते? लेकिन चीन में लगभग साढ़े चार लाख भारतीय काम कर रहे हैं। उनके लिए हमारे पास रोजगार हैं? चीनी सामान से जुड़े व्यापार, उत्पादन पर लगभग आठ करोड़ परिवार (लगभग चालीस करोड़ लोग) निर्भर हैं। इनके रोजगार का क्या होगा? खास कर तब जबकि आजादी के बाद से अब तक कुल नब्बे लाख सरकारी नौकरियाँ ही मिली हैं। 

अपनी गलती, अक्षमता, निष्क्रियता, अपनी काली करतूतें छुपाने का सबसे बढ़िया उपाय है - सामनेवाले को गलत, अक्षम, निकम्मा, चोट्टा-डाकू साबित करना शुरु कर दो। लेकिन इससे सचाई नहीं बदलती। डॉक्टर अनुराग के अनुसार स्कूलों में दिया जा रहा मध्याह्न भोजन तो स्थानीय स्वयम् सेवा समूहों द्वारा ही उपलब्ध कराया जा रहा है, चीन से नहीं। लेकिन सरकारी आँकड़ा है कि इस मध्याह्न भोजन से अब तक सोलह हजार बच्चे मर चुके हैं। नकली/घटिया स्वदेशी दवाओं से छियासी हजार लोगों की जानें चली गईं। ऐसी ही स्वदेशी दवाओं से कोलकोता में आठ हजार बच्चे मर गए। डॉक्टर अनुराग के अनुसार यह भी सरकारी आँकड़ा है। चीनी सामान के बहिष्कार के आह्वान को ‘ढकोसला’ बताते हुए डॉक्टर अनुराग पूछते हैं - ‘अपने पीएम चीनियों को भारत में आकर सामान बनाने को कह रहे हैं। उनका बनाया सामान न खरीद कर हम अपने पीएम का निरादर नहीं कर रहे? उनकी मेहनत पर पानी नहीं फेर रहे?’ डॉक्टर अनुराग के अनुसार हम चीन का फायदा कम और अपना फायदा ज्यादा कर रहे हैं। चीनी तकनीक का उपयोग कर हम आगे बढ़ रहे हैं। भारत में चीनी सामान की बिक्री का कुल चार प्रतिशत पैसा चीन को जाता है। शेष छियानवे प्रतिशत भारत में ही रहता है। साल में दो बार भारतीय और चीनी सेनाएँ साथ-साथ युद्धाभ्यास कर, परस्पर अनुभवों का लाभ लेती हैं। सच तो यह है कि हमारा स्वदेशी सामान चीनी सामान से कम गुणवत्तावाला और मँहगा है। देश भक्ति के नाम पर यह सब करने के बजाय हमें प्रतियोगिता कर खुद को बेहतर साबित करना चाहिए। यही चीन को सच्चा और प्रभावी जवाब होगा। 

मैं भी उलझन में हूँ। जिन तरीकों, माध्यमों से चीनी सामान के बहिष्कार का अभियान चलाया जा रहा है उनमें चीन है। मैं जिस कम्प्यूटर पर यह सब लिख रहा हूँ, वह चीनी पुर्जों से ही बना है। जिस इण्टरनेट से इसे अखबार तक भेज रहा हूँ, उसमें भी चीन शामिल है। जाहिर है, समूचा अभियान एक नकली लड़ाई है। योद्धा प्राणों की आहुति देने की मुद्रा में लकड़ी की तलवारों से दुश्मन को मौत के घाट उतारने के लिए जूझ रहे हैं। मुखौटों की त्यौरियाँ चढ़ी हुई हैं। देश की फिक्र का जिक्र करने में मुखौटों की आँखों से आँसू धार-धार बह रहे हैं। पपोटे सूज गए हैं।

ठीक वक्त है कि हम अपनी-अपनी भूमिका तय कर लें।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 03 अगस्त 2017 को प्रकाशित)

नए सर्वोच्‍च सेनापति : युध्‍द की आशंका का घटाटोप और ज्योतिषियाेें से उम्‍मीद


वे इस समय अपनी उम्र के सित्यासीवें बरस में चल रहे हैं। चुस्त-दुरूस्त। रोज चार-छः किलोमीटर पैदल चल लेते हैं। लोक जीवन के गहन जानकार और अनुभव-सम्पदा के छोटे-मोटे कुबेर। आते ही बोले - ‘तुम पूछो उससे पहले मैं ही कह देता हूँ। तीन बजे की घर की चाय छोड़ कर आया हूँ कि तुम्हारे यहाँ चाय पीयूँगा। ग्रीन टी। घर में न हो तो अपना टी बेग साथ लाया हूँ। बहू को चाय बनाने के लिए कहो और तुम सारे काम छोड़ कर मेरे पास बैठो। कुछ बातें करनी हैं।’ उनका आना किसी तीर्थ का आना होता। उत्तमार्द्धजी को चाय के लिए कहकर उनके पास बैठ गया। उन्होंने बात शुरु की-

‘आज राष्ट्रपतिजी की शपथ हो गई। तुमने देखा?’

‘नहीं। इन दिनों मैं टीवी, अखबार से दूर हूँ।’

‘कोई बात नहीं। लेकिन आज की खास बात नोट की?’

‘कौन सी?’

‘आज अमावस के बाद की दूज है।’

‘तो?’

‘अरे! कुछ याद नहीं आया?’

‘नहीं।’

‘तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। तुम्हें वो मालवी कहावत याद नहीं आई जिसमें कोई मुहूरत देखे बिना काम कर लेने की सलाह दी है?’

‘नहीं। अभी भी याद नहीं आ रही।’

‘हद है! उम्र मेरी ज्यादा है लेकिन बूढ़े तुम हो। याददाश्त साथ छोड़ने लगी है तुम्हारी।’

‘जी। हो सकता है। आप ही बता दीजिए।’

‘तो सुनो,

पूनम की पड़वा भली, अम्मावस की बीज।
बिन देख्या मोरत भला, के तीरस के तीज।।’

‘अरे! हाँ। याद आ गई। तो?’

‘देखो! अपने सारे नेता कितने ही गरजें-बरसें लेकिन सबके सब डरपोक, शक्की और अन्ध विश्वासी हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियों के उद्घाटन करते हैं, इन्हें अपने खाते मे जमा करते हैं, खुद भी इन गर्व करते हैं और लोगों से भी गर्व करने को कहते हैं लेकिन कुर्सी पर बने रहने के लिए यज्ञ-हवन, तन्त्र-मन्त्र कराते हैं। लोगों की आँख बचाकर ज्योतिषियों के सामने हथेलिया फैलाते हैं, अपनी जन्म-कुण्डलियॉं बँचवाते हैं।’

‘हाँ। तो?’

‘तो यह कि शपथ समारोह के लिए मोदी एण्ड कम्पनी ने ज्योतिषियों से सलाह ली ही होगी और महूरत भी निकलवाया होगा। लेकिन अमावास के बाद की बीज का संयोग अनायास ही बन गया। लोगों को अच्छा लगा होगा। लेकिन इसके साथ ही एक नई स्थिति बन गई है। उसी पर बात करने तुम्हारे पास आया हूँ।’

‘कैसी स्थिति?’

‘देखो! राष्ट्रपति देश की तीनों सेनाओं का सर्वाेच्च सेनापति होता है। वह युद्ध की भी घोषणा कर सकता है और युद्ध विराम की भी।’ 

‘हाँ। तो?’

‘आज की हालत देखो! युद्ध की हालत बनी हुई है। अखबारों और टेलीविजनों में युद्ध ही युद्ध छाया हुआ है। हर कोई डर रहा है, कहीं युद्ध शुरु न हो जाए। तुम नहीं डर रहे?’

‘हाँ। डर तो रहा हूँ।’

‘गए तीन बरसों से युद्ध की भूमिका बनी हुई है। बात कश्मीर की हो या चीन-पाकिस्तान की। हम कहीं भी सुखी नहीं हैं।’

‘हाँ। वो तो पहले से ही नजर आ रहा है।’

‘आतंकवादियों और नक्सलवादियों के खिलाफ हमने सेना को खुली छूट तो दे रखी है। लेकिन हो क्या रहा है? उनके तो आतंकवादी मर रहे हैं लेकिन हमारे तो जवान मर रहे हैं! हम या तो नुकसान बर्दाश्त कर रहे हैं या नुकसान टाल रहे हैं।’

‘हाँ। ये बात तो है।’

‘एक बात और। स्पष्ट बहुमत के चलते सरकार संसद में जरूर मजबूत है लेकिन यह बहुत कमजोर सरकार है। सब कुछ एक आदमी, मोदी पर टिका हुआ है। बाकी किसी का नाम सुनने को नहीं मिलता। राजनाथ सिंह, वैंकेया नायडू और सुषमा स्वराज के नाम सुनने को मिल जाते हैं लेकिन वैंकेया अब मन्त्रि मण्डल से बाहर हैं, राजनाथ नपा-तुला बोल पा रहे हैं और सुषमा तो उनचालीस लापता भारतीयों के बारे में गलतबयानी के आरोपों मे घिरी बैठी है। याने जो भी है, बस! मोदी है।’

‘ये सब तो ठीक है लेकिन मैं आपकी बात अब तक नहीं समझ पा रहा हूँ।’

‘जानता हूँ। अपनी बात ही समझा रहा हूँ। देखो! हम कितने ही दावे करें और चीन कितना ही गरजे लेकिन कोई भी युद्ध नहीं चाहता।’

‘वो तो है। भारत-चीन ही क्यों? दुनिया का कोई भी आदमी युद्ध नहीं चाहता।’ 

‘वही। लेकिन हकीकत क्या है? अपनी मोदी सरकार ले-दे कर राष्ट्रवाद के नारे पर टिकी हुई है। लोगों में फैला यह भावोन्माद ही इस सरकार की सबसे बड़ी ताकत है और युद्ध की आशंका का मौजूदा माहौल इसमें संजीवनी का काम कर रहा है। तुम्हें परसाई की वह बात याद नहीं आ रही जिसमें उन्होंने राष्ट्रवाद को कायरों की शरणगाह कहा था? सीएजी कह रहा है कि हमारी सेनाओं के पास दस दिनों का ही गोला-बारूद है जबकि कम से कम चालीस दिनों का होना चाहिए। धनुष तोपों में कमजोर चीनी पुरजे लगाने का भ्रष्टाचार सामने आया है। लेकिन हमारे प्रधान मन्त्री कुछ नहीं बोल रहे। वे कुछ बोल नहीं रहे और जो बोल रहे है, लोग उनकी बातों को बहुत हलके में लेते हैं। उन पर भरोसा नहीं करते। आज की तारीख में लोग केवल मोदी की बात पर भरोसा करते हैं। लोग सब कुछ मोदी के मुँह से सुनना चाहते हैं और मोदी हैं कि चुप हैं। मोदी के मन की मोदी जाने, मैं तो यही विश्वास करता हूँ कि मोदी भी युद्ध टालना चाहते हैं। इसीलिए चुप हैं। लेकिन जैसा कि मैंने कहा है, युद्ध की आशंका चौबीसों घण्टे बने रहना ही उनकी ऑक्सीजन है। अपनी सरकार की मजबूती से बेफिकर रहने के लिए वे पूरे देश को फिक्रमन्द ही नहीं, भयभीत बनाए रखना चाह रहे हैं। यह अच्छी बात नहीं है।’

‘आपकी बातें सुनने में अच्छी तो लग रही हैं लेकिन इस सबमें मैं क्या कर सकता हूँ?’

‘कर सकते हो। अभी तुमने देखा होगा, मध्य प्रदेश में अब ज्योतिषियों के जरिए बीमारों का ईलाज किया जाएगा। संघ के एक सज्जन ने सलाह दी है कि अपने पूजा-पाठ, नमाज के बाद लोग पाँच-पाँच बार मन्त्र पढ़ कर चीन को हराएँ। याने कि देश का भविष्य जानने के लिए हमेें अपने नेताओं के बजाय ज्योतिषियों से सम्पर्क करना चाहिए।  हमारे नेता पहले से ही ज्योतिषियों पर निर्भर हैं। अभी तुमने देखा होगा, मध्य प्रदेश में अब ज्योतिषियों के जरिए बीमारों का ईलाज किया जाएगा। संघ के एक सज्जन ने सलाह दी है कि अपने पूजा-पाठ, नमाज के बाद लोग पाँच-पाँच बार मन्त्र पढ़ कर चीन को हराएँ। याने कि जब मोदी कुठ बताने, बोलने को तैयार नहीं हैं तो देश का भविष्य जानने के लिए हमेें ज्योतिषियों से सम्पर्क करना चाहिए। ऐसे में देश के ज्योतिषी समुदाय आगे आकर खुद यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वे देश को बताएँ कि देश का सर्वाेच्च सेनापति बदल जाने के बाद की स्थिति में हमारा भविष्य क्या है।’

‘चलिए! यह भी ठीक है। लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूँ।’

‘हद है यार! तुम इतने नासमझ तो लगते नहीं! अरे भई! तुम लिखने-पढ़नेवाले आदमी हो। अखबारवालों से तुम्हारी यारी-दोस्ती है। अखबारों के जरिए देश के ज्योतिषियों तक यह बात पहुँचाओ और खुद भी युद्ध के डर से मुक्त होओ और पूरे देश को भी भय मुक्त करो।’

मैं अवाक् हो गया। मुझे इसी दशा में छोड़ वे निश्चिन्त भाव से चले गए। लगभग चौबीस घण्टे हो रहे हैं इस सम्वाद को। मैं अब तक न तो समझ पा रहा हूँ और न ही तय नहीं कर पा रहा हूँ-क्या करूँ? 
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(‘सुबह सवेरे’, भोपाल में 27 जुलाई 2017 को प्रकाशित)

जीएसटी: दरिद्र नागरिकों की अमीर सरकार

‘लोग जीएसटी को खामखाँ बदनाम कर रहे हैं। इसमें कुछ भी उलझनभरा नहीं। बहुत ही आसान। यह फार्मूला अपनाइये - जीतेन्द्र रतलाम में कपड़े का थोक व्यापार करता है। उसका साला वीरेन्द्र इन्दौर में होटल चलाता है। वीरेन्द्र का साला नरेन्द्र भोपाल में ट्रांसपोर्ट का धन्धा करता है। नरेन्द्र के चाचा का लड़का संजय रायसेन में बीमा एजेण्ट है। संजय का चचेरा भाई अजय झाँसी में प्रापर्टी ब्रोकर है। अजय का फूफा विजय लुधियाना में गारमेण्ट फैक्ट्री चलाता है। विजय का दामाद चंचल रोहतक में आरटीओ में बड़ा बाबू है। चंचल की सास आरती बेन सूरत में वार्ड पार्षद है। आरती बेन की बड़ी बेटी किंजल दादर (मुम्बई) में वकालात करती है। आपको करना क्या है? बस यही तलाश करना है कि जीतेन्द्र और किंजल का क्या रिश्ता हुआ? यह समझ गए तो जीएसटी समझ गए। बस! इतनी सिम्पल सी बात भी न समझ सके तो फिर धन्धा क्या खाक करेंगे? यह नासमझी आपकी प्राब्लम है। जीएसटी का कोई दोष नहीं।’ मैं हक्का-बक्का, उनका मुँह देखने लगा। मेरी दशा, ‘आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास’ जैसी हो गई। मैं गया था जीएसटी समझने और मुझे यह पहेली थमा दी गई।

मेरी दशा देख वे हँस पड़े। वे मेरे कस्बे के जाने-माने सी ए हैं। मुझे जीएसटी समझना था। सोचा, व्यापारियों और राजनेताओं से मिलने का कोई मतलब नहीं। उनके अपने-अपने आग्रह/पूर्वाग्रह हैं। इसलिए कुछ सी ए से मिलना तय किया। यह भी कि केवल भाजपाई सीए से मिलूँगा। पाँच सी ए से मिल चुका था। ये छठवें थे। इनकी और मेरी खूब पटती है। ये भी सीधे मुँह बात नहीं करते और मैं भी। बहुत ही परिहासप्रिय। बोले - ‘आपको क्या समझाऊँ? अभी तो हम सी ए ही इसका आदि और अन्त तलाश कर रहे हैं। इसकी सैद्धान्तिकता और व्याहारिकता का समन्वय बिन्दु खोज रहे हैं। आप पेरासिटामॉल की गोली की तरह समझना चाहे रहे हैं। गोली ली और बुखार दूर। लेकिन यह ऐसा नहीं है। चीज तो अच्छी है लेकिन अमल में आने पर ही सारी चीजें धीरे-धीरे साफ होंगी।’

पूरी बात मुझे किसी एक जगह नहीं मिली। लेकिन छहों जानकारों से मिली बातें कुल मिलाकर भयावह निराशाजनक चित्र ही बनीं।

सबका कहना था कि यह प्रणाली है तो बहुत अच्छी लेकिन इसका निकृष्ट क्रियान्वयन ‘सब-कुछ ध्वस्त होने की सीमा तक गुड़-गोबर कर देगा।’ इसकी परिणति साफ नजर आ रही है - ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम।’ सड़कछाप जबान में ‘खाया-पीया कुछ नहीं। गिलास फोड़ा छः आने।’ 

जीएसटी वस्तुतः कर चोरी को समूल नष्ट करदेनेवाली प्रणाली है। लेकिन कर चोरी हमारी आदत है और पडी आदत तो श्मशान में ही छूटती है। फिर, हम एक आदर्श अनुप्रेरित समाज हैं - ‘जैसा राजा, वैसी प्रजा।’ हम सब अपने राजा की जय भले ही बोलते हैं लेकिन जानते हैं कि हमारे शासक ईमानदार नहीं हैं। ऐसे में जीएसटी लागू करने का मतलब ‘बेईमान नेताओं द्वारा ईमानदार मतदाता की चाहत’ है जो चूँकि वाजिब नहीं है इसलिए सम्भव भी नहीं। इसलिए यह प्रणाली कर संग्रह के मामले में भले ही सरकार की मंशा पूरी कर दे लेकिन कर चोरी रुकने की रंचमात्र भी उम्मीद नहीं।  तब देश में ‘दरिद्र लोगों की अमीर सरकार’ होगी।

इन सी ए के अनुसार यह भाजपा का चारित्रिक बदलाव (रेडिकल चेंज) भी है। अब तक भाजपा को व्यापारियों की पार्टी कहा जाता है। लेकिन जीएसटी लागू कर भाजपा ‘कार्पोरेट घरानों की पार्टी’ में बदल गई है। अब छोटे व्यपारियों के लिए धन्धा कर पाना असम्भवप्रायः हो जाएगा। छोटी दुकानों पर सामान मँहगा मिलेगा और बड़े शो-रुमों/मॉलों में सस्ता। जीएसटी के मुताबिक अब वही व्यापारी काम कर सकेगा जिसके पास आईटी तकनीक के नवीनतम भरपूर साधन और जानकार लोग होंगे। यह सब कार्पोरेट घरानों के पास पहले से ही मौजूद है। जबकि छोटे व्यापारी को यह सब स्थापित करने के लिए ढेर सारी पूँजी लगानी पड़ेगी। पहले दुकानदार एमआरपी से कम पर माल बेच देता था। अब वह सम्भव नहीं होगा। अब उसे मुनाफे में भरपूर कमी करके माल बेचना पड़ेगा। परिणाम होगा कि ग्राहक को माल मँहगा मिलेगा और दुकानदार जिन्दा रहने के लिए संघर्ष करेगा। एक सी ए ने साफ-साफ कहा - ‘अब छोटे दुकानदार बड़े मॉलों में सेल्समेन या मुनीम की नौकरी करते नजर आएँ तो ताज्जुब मत कीजिएगा।’ 

एक सी ए ने बहुत ही आधारभूत बात कही - ‘अस्पष्ट और जटिल कर प्रणाली सदैव व्यापारी और ग्राहक के लिए दुःखदायी होती है। जीएसटी ऐसी ही है। इसकी व्याख्या करने का अधिकार और सुविधा अफसरों को दे दी गई है। अब उनका कहा अन्तिम होगा। इसके चलते मशीनरी खुल कर खेलेगी। अब हालत यह हो जाएगी कि ईमानदार कारिन्दे को भी रिश्वत लेनी ही पड़ेगी। इंस्पेक्टर राज खुलकर खेलेगा और अफसरशाही ताण्डव करेगी। 

एक सी ए ने मानो भविष्यवाणी की - ‘प्रदेश का सेल्स टैक्स (वाणिज्यिक कर) का अमला अब तक भोला था। व्यापारी जो कहता, देता था, प्रसन्नतापूर्वक ले लेता था। क्योंकि पहले सेल्स टैक्स और एक्साइज अलग-अलग लगता था और अधिकांश व्यापारी एक्साइज से मुक्त थे। एक्साइज के अमले के भाव, सेल्स टैक्स वालों के मुकाबले कई गुना होते हैं। अब जीएसटी में सेल्स टैक्स और एक्साइज एक हो गए हैं। इसके चलते सेल्स टैक्स का ‘भोला-भाला’ अमला खूँखार हो जाएगा। ऐसे में अब एक्साइज मुक्त व्यापारी भी एक्साइज का ‘जबराना’ चुकाने को मजबूर होगा।’

जीएसटी को अपने पेशे से जोड़ते हुए एक सी ए ने कहा - ‘अब हम लोग कम व्यापारियों में पहले से ज्यादा व्यस्त हो जाएँगे। पहले व्यापारी को साल भर में पाँच रिटर्न फाइल करने पड़ते थे। अब सैंतीस करने पड़ेंगे। व्यापारी के पास पहले पाँच के लिए ही वक्त नहीं होता था। वह सैंतीस के लिए वक्त कहाँ से लाएगा? जाहिर है कि हमारा काम नौ गुना बढ़नेवाला है।’

एक सी ए ने इसमें रोजगार की सम्भावनाएँ देखीं। कहा कि ऐसे अनेक युवा हैं जो सी ए बनना तो चाहते थे लेकिन बन नहीं पाए। ऐसे तमाम आधे-अधूरे सी ए को ‘पात्र’ (क्वालिफाइड) सी ए की हैसियत मिल जाएगी। इनके अलावा अनेक ‘नीम हकीम सलाहकार’ भी सामने आ जाएँगे। भय यह है कि कर प्रणाली की अस्पष्टता/जटिलता और अधकचरे सलाहकारों की भीड़ के चलते ऊँची दरों वाले बिचौलियों की नई किस्म न विकसित हो जाए।

एक सी ए ने मर्मान्तक पीड़ा से कहा - ‘मैं कट्टर भाजपाई हूँ और मोदी का समर्थक भी। लेकिन एक सी ए के रूप में सचाई से मुँह नहीं मोड़ सकता। मैं साफ देख रहा हूँ कि अपने इंटेंशन्स के मामले में यह (जीएसटी) बुरी तरह से विफल होगी। औंधे मुँह गिरेगी। अफसरों, इंस्पेक्टरों, बाबुओं की रिश्वतखोरी और नेताओं के भ्रष्टाचार में तिल भर भी कमी नही आएगी। सब कुछ वैसा का वैसा ही चलता रहेगा। सरकार को रेवेन्यू तो मिलेगा लेकिन लोगों की बददुआएँ भी मिलेंगी। तकलीफ की बात यह है कि मैं यह सब होते हुए देखूँगा, इसका पार्ट एण्ड पार्सल बनूँगा। लेकिन कर कुछ नहीं पाऊँगा।’

जिन छठवें सी ए सा’ब से बात शुरु की थी, उन्हीं से खतम कर रहा हूँ। मेरे मजे लेने के बाद संजीदगी से बोले - ‘यह सब देखते, कहते बहुत तकलीफ हो रही है। नोटबन्दी नाश थी। जीएसटी सर्वनाश नहीं तो सत्यानाश तो है ही। कोढ़ में खाज वाली कहावत भी इसके सामने कहीं नहीं लगती। भगवान सब ठीक करे।’

जीएसटी से मेरा दूर-दूर का वास्ता नहीं। लेकिन मैं डरा हुआ हूँ। बहुत ज्यादा। पता नहीं, जिनका इससे वास्ता है, उनका क्या हाल होगा।
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(दैनिक 'सुबह सवेरे', भोपाल में 20 जुलाई 2017 को प्रकाशित)

धर्म की समानता और जाति-वर्ण का भेद साथ-साथ नहीं निभता

यह इसी जुलाई के पहले सप्ताह की बात है। भोपाल से कोई चालीस किलो मीटर दूर स्थित जिला मुख्यालय सीहोर की। दलित युगल पंकज जाटव और वैजयन्ती ने, गंज इलाके में स्थापित डॉक्टर अम्बेडकर की मूर्ति के फेरे लेकर विवाह किया। दोनों के परिवारों के पास इतने पैसे नहीं थे कि विवाह आयोजन कर सके। जाटव समाज यूँ तो हिन्दू समाज है लेकिन इन दोनों ने पवित्र अग्नि और हिन्दू देवताओं की अदृष्य साक्ष्य में फेरे नहीं लिए। अम्बेडकर को गवाह बनाया।

बसन्त पंचमी पर सरस्वती पूजन के आयोजन व्यापक स्तर पर किए जाते हैं। यह दिन इसी प्रसंग के लिए जाना जाता है। लेकिन इस बरस की बसन्त पंचमी पर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड के अनेक गाँवों में सरस्वती पूजन नहीं हुआ। लोगों ने देवी सरस्वती के चित्र के स्थान पर सावित्री बाई फुले के चित्रों की पूजा कर बसन्त पंचती मनाई। उन्होंने कहा कि वही उनकी सरस्वती है। खबर है कि 2018 में ऐसे आयोजन अधिकाधिक स्थानों पर, अधिकाधिक भव्यता से किए जाने की तैयारी है।

घड़कौली, सम्भवतः बिहार का एक छोटा सा गाँव है। चमारों की बस्ती है। वहाँ के लोगों ने अपने गाँव का नाम बदल कर ‘डॉ. भीमराव अम्बेडकर ग्राम’ रख लिया है। वे यहीं नहीं रुके। गाँव के नामवाले बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘दा ग्रेट चमार’ लिख कर अपनी सामाजिक प्रताड़ना, उपेक्षा को अपना गर्व घोषित किया है।

2014 में दिल्ली में बड़ा हंगामा हुआ था।  मासिक पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ के सम्पादक, दलित लेखक-विचारक प्रमोद रंजन को कुछ महीने भूमिगत रहना पड़ा था। वे तभी बाहर आए थे जब उनकी अग्रिम जमानत हो गई। पत्रिका के इस अंक में, हिन्दू देवी दुर्गा और महिष का एक चित्र छपा था जिसमें, महिष वध के जरिए हिन्दू देवी-देवताओं द्वारा आदिवासी नायकों, देवी-देवताओं पर किए गए अत्याचारों का उल्लेख किया गया था। कट्टर हिन्दू समाज ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया की थी और अपने राजनीतिक प्रभाव का उपयोग कर प्रमोद रंजन तथा उनके सहयोगियों के विरुद्ध पुलिस कार्रवाई की थी। हिन्दू समाज की इस कार्रवाई की प्रतिक्रिया में बिहार, झारखण्ड के अन्तरवर्ती इलाकों में अनेक स्थानों पर महिष महात्सवों की खबरें आई थीं।

गए दिनों एक आई ए एस अधिकारी का भाषण फेस बुक और वाट्स एप पर ‘वायरल’ हुआ। दलित समुदाय से जुड़े ये अधिकारी स्थिर चित्त और शान्त भाव से श्रोताओं का आह्वान कर रहे थे - ‘गीता को समुद्र में फेंक दो।’ (क्योंकि यह मनुष्य-मनुष्य में भेद करती है।) लेकिन यह आह्वान महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है, हिन्दू समाज में हुई इसकी प्रतिक्रिया। कोई सामान्य आदमी यह आह्वान करता तो देशव्यापी हंगामा हो जाता। किन्तु इस मामले में ‘आहत भावनाएँ’ आक्रामक स्वरों में गर्जन-तर्जन करने के बजाय मिमिया कर रह गईं। निश्चय ही यह ‘आई ए एस’ के प्रभाव से ही हुआ होगा।

बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखण्ड के अनेक समुदायों के वैवाहिक निमन्त्रण-पत्रों का स्वरूप बदल गया है। इन पर अब किसी हिन्दू देवी-देवता का न तो नाम छप रहा है न ही चित्र। इनके स्थान पर अम्बेडकर, ज्योति बा फुले, काशीराम, विवेकानन्द, गौतम बुद्ध, मायावती, स्थानीय दलित नेताओं के चित्र और इन्हीं के उद्धरण छप रहे हैं। ऐसे निमन्त्रण-पत्र छपवानेवालों में उच्च शिक्षित और अशिक्षित समान रूप से शामिल हैं।

उत्तर प्रदेश में ‘धम्म सम्मेलनों’ की मानो बाढ़ आ गई है। बाढ़ नहीं तो फैशन तो आ ही गया है। छोटे-छोटे गाँवों से लेकर बड़े कस्बों, नगरों में धम्म सम्मेलनों के आयोजन एक के बाद एक होने की खबरें निरन्तर आ रही हैं। 

‘सेनाओं’ के मामले अब तक बिहार और राजस्थान से ही मुख्यतः जुड़े रहे हैं। लेकिन ‘भीम सेना’ या कि ‘भीम आर्मी’ अचानक ही एक धूमकेतु की तरह उभरी और छा गई। इसकी मौजूदगी अब गाँव-गाँव में नजर आने लगी है। चन्द्रशेखर ‘रावण’ के रूप में दलित युवकों को आवेशित, ऊर्जित करनेवालाएक नया नायक मिल गया। 

अभी-अभी, दो ही दिन पहले किन्हीं प्रो. जयराम (यही नाम या आ रहा है मुझे) का, तेरह मिनिट का एक भाषण देखने/सुनने को मिला। इसका विषय था - ‘एससी, एसटी, ओबीसी का हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं है।’ ऐसे व्याख्यान महानगरों के बड़े-बड़े आडिटोेरियमों में हो रहे हैं जिनमें खड़े रहने की जगह नहीं मिलती। आदिवासियों को याद दिलाया जा रहा है कि भारत के ‘मूल वासी’ वे ही हैं, हिन्दू नहीं। हिन्दू तो हमलावर बन कर यहाँ आये। 

ये सारी बातें, ये सारी घटनाएँ न तो अचानक हुई हैं न ही एक साथ हुई हैं। लेकिन इनका ‘कोलॉज’ अपने आप में एक सन्देश देता है। नहीं जानता कि आप इसका क्या अर्थ लेते हैं किन्तु मेरे तईं इसका सन्देश है - यदि सब कुछ ऐसा ही चलता रहा जैसा कि इस क्षण चलता नजर आ रहा है तो जल्दी ही इस देश में हिन्दू, अल्प संख्यक हो जाएँगे। और यह किसी ‘अल्पसंख्यकों के षड़यन्त्र’ के कारण नहीं, खुद हिन्दू समाज के कारण होगा। 

भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के मकसद से, गए तीन बरसों से देश में जो हो रहा है, यह उसी की प्रतिक्रिया है। हिन्दू राष्ट्र निर्मातओं को यह अन्तिम अवसर अनुभव हो रहा है और वे अपने जीते-जी अपना सपना-संकल्प पूरा करने के लिए पण-प्राण से जुटे हुए हैं। हिटलर का ‘रक्त शुद्धता और नस्लीय श्रेष्ठता’ उनका आदर्श और आधार है। लेकिन वे, परिणाम को आमूलचूल बदलदेनेवाली एक छोटी सी अनदेखी कर रहे हैं। जर्मनी में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था नहीं है। वहाँ जर्मन और यहूदी ही एकमात्र अन्तर था। भारत में वर्ण और जाति व्यवस्था के चलते इसका हिन्दू राष्ट्र बन पाना, उपरोल्लेखित तमाम घटनाओं के लिहाज से असम्भव ही है। धर्म सबको समान मानता है लेकिन जाति और वर्ण पूरी तरह से भेदभाव आधारित हैं। ऐसे में यदि हिन्दू राष्ट्र बनाना है तो सबको केवल हिन्दू मानकर ही व्यवहार करना पड़ेगा। धर्म की समानता और जाति-वर्ण का भेद साथ-साथ नहीं निभाया जा सकता। ऊना में जिन दलितों को नंगा करके पीटा गया वे हिन्दू थे। रोहित वेमुला भी हिन्दू था। वर्ण और जाति के नाम पर देहातों में आज भी हिन्दुओं पर भरपूर अत्याचार हो रहे हैं। वे जूते-चप्पल पहन कर नहीं निकल सकते। वे अपने बच्चों के विवाह की बनोरियाँ, बारातें गाजे-बाजे से नहीं निकाल सकते। दलित दूल्हों को पुलिस संरक्षण में, हेलमेट पहन कर निकलना पड़ रहा है। दलित हिन्दू महिलाएँ निर्वस्त्र कर, गाँवों में घुमाई जा रही हैं। दलित हिन्दू युवाओं, पुरुषों को मल-मूत्र खिलाया-पिलाया जा रहा है। धर्म, वर्ण और जाति के नाम पर नृशंसता और क्रूरता के चरम दृष्य आज भी देखने को मिल रहे हैं। अंग्रेजी कहावत ‘सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है’ बदल कर ‘सम्पूर्ण सत्ता चरम अमानवीयता, नृशंसता और क्रूरता सहित सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है’ में बदल गई है।

दलित, शोषित, पीड़ित समाज को विश्वास हो चला है कि वह केवल वोट लेने तक के लिए हिन्दू है, समानता और अवसरों के लिए नहीं। इस बार हुई और हो रही प्रतिक्रिया ने न्यूटन का, गति का तीसरा नियम बदल सा दिया है। इस बार प्रतिक्रिया विपरीत तो हो रही है किन्तु समान नहीं, समान से कहीं अधिक तेज। दीवार पर फेंकी जा रही रबर की गेंद इस बार दुगुनी ताकत से लौटती नजर आ रही है। यह देखना रोचक होगा कि अगली जनगणना में देश के कितने समुदाय खुद को हिन्दू लिखवाने से इंकार करते हैं।

धर्म सदैव ही नितान्त निजी मामला रहा है। वह जब भी सामूहिक होता है तब ध्वस्त करता भी है और  ध्वस्त होता भी है।
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(दैनिक 'सुबह सवेरे', भोपाल में 13 जुलाई 2017 को प्रकाशित)

एक स्वानुभूत, स्वप्रशिक्षित, स्वनिर्मित योग पेथी चिकित्सक

 रोग मुक्ति और कष्ट मुक्ति से जुड़ा अपना यह अनुभव मैं अपनी सम्पूर्ण सद्भावना और सदाशयता से साझा कर रहा हूँ। मेरी इस पोस्ट से प्रेरित हो यदि कोई इस पर अमल करे तो यह बिलकुल जरूरी नहीं कि उसका अनुभव भी ऐसा ही हो। 

मेरे बाँये हाथ की अनामिका (रिंग फिंगर) और कनिष्ठिका (लिटिल फिंगर) लगभग दो वर्ष से अधिक समय से सुन्न हो गई थी। लगता था, हाथ में तीन अंगुलियाँ ही रह गई हैं। लेकिन दो कारणों से इस ओर ध्यान नहीं दिया। पहला कारण, उस समय इससे बड़े कष्ट मुझे घेरे हुए थे। पहले यूरीनरी ट्रेक्ट इंफेक्शन से ग्रस्त रहा। तभी मालूम हुआ कि मेरी मूत्र नली बहुत ज्यादा सिकुड़ गई है। उसका ऑपरेशन कराना पड़ेगा। वह ऑपरेश करने से पहले सरकम सीजन (खतना) कराना पड़ेगा। दूसरा कारण, इन अंगुलियों के सुन्न होने से कोई काम नहीं रुक रहा था। तो पहले मार्च 2016 में सरकम सीजन और बाद में, मई 2016 में यूरोथ्रोप्लास्टी (मूत्र नली का पुनर्निमाण) ऑपरेशनों से गुजरना पड़ा। जब बड़े कष्टों ये मुक्ति मिली तो इस छोटे कष्ट की ओर ध्यान गया।

जुलाई 2016 के दूसरे पखवाड़े में अपने रक्षक डॉक्टर सुभेदार सा’ब को दिखाया। इस प्रभाव के उन्होंने दो कारण बताए - मधुमेह (डायबिटीज) या फिर सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस। चूँकि मैं मधुमेही (डायबिटिक) नहीं हूँ सो उन्होंने एक हड्डी रोग विशेषज्ञ से मिलने की सलाह दी। हड्डी रोग विशेषज्ञ ने जाँच के बाद पहला निष्कर्ष सुनाया कि मैं सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस से प्रभावित हूँ। उन्होंने कुछ दवाइयाँ लिखीं। समय-समय पर वे मुझे जाँचते रहे। कभी वे ही दवाइयाँ दुहराईं तो कभी दो-एक दवाइयाँ बदलीं। मुझे कोई राहत नहीं मिल रही थी। तीसरे महीने उन्होंने फिर दवाइयाँ बदलीं। लेकिन इन दवाइयों का असर यह हुआ कि मेरी आँखों ने खुली रहने से इंकार कर दिया। दिल की धड़कनों के सिवाय मुझे अपने जीवित रहने का कोई अहसास ही नहीं हो। चौबीसों घण्टे सोया रहूँ। घबरा कर सुभेदार साब को दिखाया। उन्होंने हड्डी रोग विशेषज्ञ द्वारा लिखी गोलियाँ तत्क्षण बन्द कराईं। सामान्य होने में मुझे चार दिन लगे। 

हड्डी रोग विशेषज्ञ को मैंने जब पहली बार दिखाया था उसके पाँच-सात दिनों के बाद ही मुझे एक के बाद एक, तीन-चार मित्रों ने सलाह दी कि मैं शास्त्री नगर में योग-प्राणायाम से चिकित्सा कर रहे ‘चौरसियाजी’ को दिखाऊँ। ‘चौरसियाजी’ मेरे लिए अपरिचित नहीं हैं। दुनियावालों के ‘चौरसियाजी’ मेरे लिए ‘ओम’ है। बरसों हो गए उसे देखे लेकिन मैं उसे बरसों से न केवल जानता हूँ बल्कि एक बार तो उसकी पैरवी करने के कारण उसके (अब स्वर्गीय) पिता रामनिवास भाई चौरसिया से खूब अच्छी तरह, भरपूर डाँट भी खा चुका हूँ। मुझे ओम के पास जाने में किसी प्रकार की कोई असुविधा नहीं थी। किन्तु मेरी आदत है कि दो को एक साथ कभी भी दाँव पर नहीं लगाता। इसलिए तय किया कि हड्डी रोग विशेषज्ञ के ईलाज से लाभ न होने की दशा में ओम से मिल लूँगा।

किन्तु योग-संयोग ऐसा रहा कि ओम से मिलने से पहले ही (अक्टूबर 2016 में) पहलेवाले हड्डी रोग विशेषज्ञ से बड़े हड्डी रोग विशेषज्ञ से मिलना हो गया। उन्होंने एक्स-रे करवाया। उनका निष्कर्ष था कि मैं सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस का ही मरीज हूँ और मुझे ऑपरेशन कराना पड़ सकता है। किन्तु उससे पहले वे कुछ दवाइयाँ देकर देखना चाहेंगे। उनकी दी हुई दवाइयों से भी मुझे कोई राहत नहीं मिली। एक महीने बाद उन्होंने वे ही दवाइयाँ दुहराईं। जब कोई फर्क नहीं पड़ा तो दिसम्बर 2016 में उन्होंने कहा कि मुझे ऑपरेशन कराना ही पड़ेगा। किन्तु वे मुझे ऑपरेशन से बचाना भी चाहते थे। उन्होंने सलाह दी कि मैं पहले किसी स्नायु विशेषज्ञ (न्यूरो फिजिशियन) से मिल लूँ। जनवरी 2017 के पहले सप्ताह में मैं इन्दौर जाकर स्नायु विशेषज्ञ से मिला। प्राथमिक परीक्षण कर उन्होंने सुखद सूचना दी कि मैं सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस का मरीज बिलकुल नहीं हूँ। उन्होंने नाड़ियों में बिजली के झटके देकर परीक्षणोपरान्त सूचित किया कि मेरे बाँये हाथ की, कोहनी से इन दोनों अंगुलियों तक जा रही एक नाड़ी निष्क्रिय होने से मेरी अंगुलियाँ सुन्न हो गई हैं। उन्होंने कहा कि मैं चिन्ता बिलकुल न करूँ। यह नाड़ी जिस तरह अपने आप निष्क्रिय हुई है उसी तरह अपने आप ही सक्रिय हो जाएगी। उन्होंने एक महीने की दवाइयाँ लिख दीं।
मैंने एक महीने तक उनकी दवाइयाँ लीं। लेकिन कहीं, कोई फर्क नहीं पड़ा। इस बीच मुझे, ‘चौरसियाजी’ से मिलने के परामर्शों की बाढ़ आ गई। मैं ‘चौरसियाजी’ से मिलने की सोच ही रहा था कि अचानक ही एक समारोह में एक परिजन समान डॉक्टर से मुलाकात हो गई। बातों ही बातों में मैंने सुन्न अंगुलियों का जिक्र किया और पूरी आपबीती सुनाकर कहा कि मुझे ‘चौरसियाजी’ से मिलने की सलाह लगातार दी जा रही है। वे तत्काल बोले - ‘फौरन चले जाइए। मैं भी परेशानी में आ गया था। उन्हीं ने ठीक किया।’ 
अनगिनत आत्मीय लोगों के पुरजोर आग्रह पर एक ‘पात्रताधारी’ (क्वालिफाईड) डॉक्टर ने ठप्पा लगा दिया था। 

इकतीस जनवरी 2017 की शाम मैं ओम (याने ‘चौरसियाजी’) से मिला। उसने अत्यधिक आदरभाव पूरी बात सुनी। मेरी समस्या को ध्यानपूर्वक सुनते हुए मुझसे दो-तीन सवाल किए। मेरी अंगुलियाँ टटोली और सम्पूर्ण आत्मविश्वास से भरोसा दिलाया कि मैं इस समस्या से मुक्त हो जाऊँगा। मुझे प्रतिदिन रात आठ बजे उसके ‘त्रिधा महायोग केन्द्र’ पर आना पड़ेगा। पहली फरवरी को अवकाश था। तय हुआ कि दो फरवरी से मेरा उपचार शुरु होगा।

दो फरवरी की रात तय समय पर पहुँचा। पाँच लोग हॉल में अपनी-अपनी चादर बिछाए हुए और लगभग इतने ही लोग बैठे हुए विभिन्न योग-क्रियाएँ कर रहे थे। ओम सब पर नजर रखे हुए था। आवश्यकतानुसार रोक-टोक कर आवश्यक निर्देश दे रहा था। पहले दिन उसने मुझे पाँच योग-क्रियाएँ बताईं। सब बहुत आसान थीं। एक-दो बार करके दिखाईं। जहाँ आवश्यक हुआ, ओम ने सुधरवाया। ओम ने कहा कि पहले वह यह देखेगा कि उसने रोग की पहचान सही की है या नहीं। यह तय होने के बाद ही वह आगे बढ़ेगा। उसने कहा कि मेरी नियमितता जरूरी है और यह भी कि योग-क्रियाओं से मुझे जो भी अन्तर अनुभव हो, वह कितना ही बारीक और छोटा हो, मैं उसे तत्काल सूचित करूँ। इससे उसे रोग पहचानने में मदद मिलेगी। उसके बाद क्रम चल पड़ा। तीसरा सप्ताह समाप्त होते-होते मुझे अनामिका (रिंग फिंगर) के सुन्नपन में तनिक कमी अनुभव हुई। मैंने ओम को बताया तो वह खुश होने के बजाय सन्तुष्ट हुआ। उसने रोग की सही पहचान कर ली थी। उसने उस दिन मुझे तीन और योग-क्रियाएँ निर्देशित कर दीं। चौथे सप्ताह मुझे और अधिक राहत अनुभव हुई। लगा कि इस (अनामिका/रिंग फिंगर) के निचले दो पोरों का सुन्नपन चला गया है। मैंने चिकोटी काट कर देखा। मुझे चुभन अनुभव हुई। पहले ओम सन्तुष्ट हुआ था, अब मैं उत्साहित हो गया। ओम ने सुना तो उसने शून्य में हाथ जोड़कर प्रभु को धन्यवाद दिया। उस दिन उसने दो योग-क्रियाएँ बढ़ा दीं। इनकी संख्या अब दस हो गई थी। 
योग क्रियाएँ कराते हुए ओम। चित्र में एकदम सामने, हाथ उठाए।

अप्रेल के पहले सप्ताह तक मेरी यह अंगुली (अनामिका/रिंग फिंगर) पूरी तरह सामान्य हो गई। पहले मैं अंगूठे और दो अंगुलियों (तर्जनी/इण्डेक्स फिंगर और मध्यमा/मिडिल फिंगर) से स्कूटर का हेंडल पकड़ पा रहा था। अब तीन अंगुलियों से पकड़ पा रहा था।

कभी व्यस्तता, कभी आलस्य के कारण छुटपुट अनुपस्थितियों के साथ मेरी योग चिकित्सा चलती रही। मई बीतते-बीतते मेरी कनिष्ठिका (लिटिल फिंगर) के निचले दो पोर सामान्य हो चले। जून मध्य तक तीसरा पोर भी सामान्य हो गया। केवल नाखून की जड़ों में सुन्न रह गई थी जो जून का तीसरा सप्ताह आते-आते चली गई।

मेरे तईं यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। मेरा बहुत बड़ा तनाव दूर हो चुका था। मेरा बीमे का काम ऐसा कि मुझे दिन भर स्कूटर चलाना पड़ता है। सुन्न अंगुलियों के चलते, स्कूटर चलाने का मेरा आत्म-विश्वास डगमगाने लगा था। डरता था, कभी कोई दुर्घटना न हो जाए। लेकिन इस समय जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ, मेरी दोनों अंगुलियाँ 95 प्रतिशत से अधिक सामान्य हो चली हैं। कभी-कभार भारीपन अनुभव हो रहा है लेकिन सुन्नपन शून्यप्रायः है।

अभी-अभी ओम ने चार योग-क्रियाएँ और बढ़ा दी हैं। मैं नियमितता बनाए रखने की यथासम्भव चेष्टा करता हूँ। कभी-कभी व्यवधान आ जाता है। 
योग क्रियाएँ कराते हुए ‘भय्यू’ प्रणव। चित्र में एकदम सामने, धारीदार टी शर्ट पहने।

ओम के केन्द्र पर जाने के बाद धीरे-धीरे उसके बारे में मेरी जानकारियाँ बढ़ती गईं। उसने किसी से कोई प्रशिक्षण नहीं लिया है न ही कोई ‘कोर्स’ किया है। वह स्वानुभूत, स्वप्रशिक्षित है। 1983 से उसने महायोग केन्द्र शुरु किया और 1989 से ‘योग थेरेपी चिकित्सा’ शुरु की। वह योग के जरिए स्नायु-तन्त्र आधारित चिकित्सा करता है। वह नाड़ियों को सहलाता, थपथपाता है, पुचकारता-फटकारता है। उसकी चिकित्सा से ठीक हुए मरीज पूरे देश में फैले हुए हैं। मैंने जानना चाहा कि उसने अब तक कितने लोगों का उपचार किया? उसने कहा - ‘शुरु-शुरु में तो मैंने भी मरीजों के नाम पते लिखने शुरु किए थे। लेकिन जब आँकड़ा एक हजार पार कर गया तो फिर लिखना बन्द कर दिया।’ उसने अपना रजिस्टर मेरे सामने सरका दिया। मैं एक नजर डालता हूँ। देश के विभिन्न प्रान्तों के हजार से अधिक नाम उसमें दर्ज हैं। इनमें अनेक नाम डॉक्टरों के हैं। मैंने फिर कुरेदा - ‘कोई तो आँकड़ा होगा?’ ससंकोच बोला - ‘कैसे बताऊँ बाबूजी! गिनती याद रखने की कोशिश ही नहीं की। हाँ, इस रजिस्टर में 92-93 तक के नाम हैं। इससे आप ही अन्दाज लगा लो।’ मैं भी क्या अनुमान लगाऊँ! स्ंक्षिप्त में कहूँ तो ‘हजारों’ रोगी ओम को दुआएँ दे रहे हैं। रजिस्टर में डॉक्टरों के नाम देखकर मुझे हैरत भी हुई थी और अविश्वास भी। लेकिन एक दिन मैंने देखा, सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस के रोगी, अहमदाबाद के एक हड्डी रोग विशेषज्ञ उसके सामने बैठे हैं। वे ऑपरेशन नहीं कराना चाहते। ओम का नाम सुनकर रतलाम आए हैं। इसी तरह भोपाल के दो डॉक्टरों को भी ओम से मदद लेते हुए देखा। कभी-कभार, स्वस्थ हुए कुछ रोगी मिलने आ जाते हैं। उनसे मालूम पड़ता है, वे ओम के यहाँ पहली बार आए तब चल भी नहीं पाते थे। लेकिन ईलाज कराने के बाद दौड़ कर गए। 

ओम के हाथों मे यह यश देखकर मैंने कहा - ‘अपनी मार्केटिंग क्यों नहीं करते?’ वह विनम्रता और सन्तोष-भाव से बोला - ‘क्या जरूरत है बाबूजी इसकी? ईश्वर की कृपा से मेरा काम चल रहा है। मेरे भाग्य में जितना होगा, मिल कर रहेगा। जिस तरह लोगों ने आपको भेजा उसी तरह आप लोगों को भेजोगे। यही मेरी मार्केटिंग है।’
एक रोगी की चिकित्सा करते हुए ओम।

सूर्योदय से ओम का ‘त्रिधा महायोग केन्द्र’ शुरु हो जाता है जो रात नौ बजे तक चलता है। यहाँ सभी वर्गों के लोग एक जाजम पर बैठकर योग-क्रियाएँ करते हैं। महिलाओं का भी एक बेच चलता है। ओम का बेटा प्रणव (जिसे सब लोग ‘भय्यू’ के नाम से पहचानते, पुकारते हैं) ओम का सहायक बन कर अगले योग चिकित्सक के रूप में विकसित हो रहा है। जो भी ओम के यहाँ नियमित आता है, ‘भय्यू’ को लेकर चिन्तित हो जाता है। उसका सीधापन, उसकी सरलता चिन्ता में डाल देती है - ‘क्या होगा इसका? इस जमाने में इतना सीधा रहेगा तो लोग इसे बेच खाएँगे।’ सुन-सुनकर भय्यू और ओम हँस देते हैं। 

ओम के केन्द्र पर योग क्रियाएँ कर रहे कुछ लोग मुझे रोगी नही लगे। मैंने अपनी जिज्ञासा जताई तो बोला - आपने ठीक पहचाना बाबूजी! ये रोगी नहीं हैं। जैसे कुछ लोग ‘नशेड़ी’ होते हैं, उसी तरह ये ‘योगड़िए’ हैं। कोई आठ साल से तो कोई दस साल से आ रहा है। आप इन्हीं से पूछ लो।

ओम का ‘त्रिधा महायोग केन्द्र’ रतलाम में शास्त्री नगर में, डॉटर सैय्यद के निवास के पास है। उसका मोबाइल नम्बर  99075 32433 है। ओम की चिकित्सा रोगी से धैर्य, समय और नियमितता की माँग करती है। बाहर से आनेवाले रोगियों को अपने रहने-खाने की व्यवस्था खुद करनी पड़ती है। 

जिला प्रशासन सहित रतलाम की अनेक संस्थाएँ, संगठन ओम को सम्मानित कर चुकी हैं। लेकिन ओम इन सबसे निस्पृह लगता है। उसकी बातों, क्रिया-कलापों से लगता नहीं कि ऐसे सम्मान उसे लुभाते, ललचाते हैं।

मुझसे ओम को एक कष्ट जरूर हो रहा होगा। उसके तमाम रोगी उसे गुरु-भाव से प्रणाम करते हैं, आते-जाते उसके पाँव छूते हैं। मैं ऐसा नहीं कर पा रहा। दो-एक बार सोचा भी। लेकिन नहीं कर पाया। पाँव छूने का भाव अन्तर्मन से उपजना चाहिए, दिखावे के लिए नहीं। मैं जब भी ओम को देखता हूँ तो मुझे वही युवा ओम नजर आता है जो जूडो-कराते को अपना केरीयर बनाना चाहता है और इसके लिए अपने पिता से आदरपूर्वक संघर्ष कर रहा है-चुपचाप लेकिन आत्मविश्वासपूर्वक, आँख से आँख मिलाते हुए। मैं और डॉक्टर मितना उसके लिए उसके पिताजी से झगड़ रहे हैं। उसके पिताजी हम दोनों को डाँट रहे हैं और हम दोनों हो-हो कर हँस रहे हैं।

फिलहाल तो मैं ओम को ‘ओम भैया’ कह कर ही काम चला रहा हूँ।
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उसे किसी से शिकायत नहीं थी

रेल का प्रस्थान का समय सवा आठ बजे है लेकिन मैं साढ़े सात बजे ही स्टेशन पहुँच गया हूँ। मेरा देहातीपन अब भी मेरे साथ बना हुआ है। ‘रेल छूट न जाए’ का डर घर से जल्दी निकाल देता है। जाती हुई रेल के अन्तिम डिब्बे के पीछे, डिब्बे के पूरे आकार में बने, अंग्रजी वर्णमाला के अन्तिम अक्षर एक्स को देखने की झुंझलाहट झेलने के बजाय स्टेशन पर राह देखना ज्यादा भला। स्टेशन पहुँचते-पहुँचते बरसात शुरु हो गई थी जो टिकिट लेकर प्लेटफार्म नम्बर दो पर पहुँचने तक तेज, मूसलाधार में बदल गई। दोहरी खुशी से लबालब हो गया। घर से देर से निकलने पर रेल छूटने के खतरे से भी बच गया और भीगने से भी। इससे पहले के दिनों में दो-चार बार पानी बरस चुका था लेकिन कहने भर को। आज की बारिश से लगा कि बरसात का मौसम शुरु हो गया है।

रेल, रतलाम से इन्दौर के बीच चलती है। रतलाम से इन्दौर आकर, दस मिनिट बाद ही वापस रतलाम के लिए चल देती है। रेल के आने के समय में होती कमी और बरसात की तेजी में मानो होड़ लग गई है। प्लेटफार्म पर लटकी घड़ी के चमकते अंक ज्यों-ज्यों 20:05 के नजदीक जा रहे हैं त्यों-त्यों बरसात तेज हो रही है। प्लेटफार्म पर जगह-जगह पानी टपकने लगा है। रतलाम की ओर जानेवालों की संख्या पल-पल बढ़ती जा रही है। बरसात ने प्लेटफार्म को छोटा कर दिया है। हर कोई सूखी जगह तलाश कर, भीगने से बचने की जुगत में है। रेल के आने से पहले ही रेल की क्षमता से कहीं अधिक लोग प्लेटफार्म पर मौजूद हैं। रेल के आने की सूचना मिलते ही सब प्लेटफार्म के किनारे पर खड़े हो गए हैं। हर कोई सबसे आगे रहने की कोशिश कर रहा है। लोग इस तरह खड़े हैं मानो पूरी रेल खाली आएगी और सबको अपने में समा लेगी। लेकिन सब यह भी जानते हैं कि ऐसा होगा नहीं। 

रेल आती है। खचाखच भरी है। बैठनेवालों में बेचैनी फैल जाती है। बैठने की जगह मिलेगी भी या नहीं? बाल-बच्चों के साथवाले अधिक चिन्तित हो रहे हैं। रेल के रुकते ही संघर्ष शुरु हो जाता है। पहले कौन सफल हो - उतरनेवाले या चढ़नेवाले। डिब्बों के दरवाजे सँकरे हो जाते हैं। वहाँ जाम लग जाता है। उतरनेवाले, चढ़नेवालों को डाँटना शुरु कर देते हैं। हमें नहीं उतरने दोगे तो चढ़ोगे कैसे? और चढ़ गए तो बैठोगे कहाँ, कैसे? इस बीच कुछ लोग खिड़कियों पास जाकर, अपने अंगोछे-टॉवेल अन्दर बैठे हुए यात्रियों की ओर फेंककर, अपने लिए जगह रोकने के लिए रिरियाते हैं। कुछ के लिए जगह रुक जाती है लेकिन अन्दर बैठे कई लोग इंकार कर देते हैं। कहते हैं कि उन्हें भी रतलाम ही जाना है जिसके लिए वे लक्ष्मीबाई नगर (इन्दौर से रतलाम की ओर, आनेवाला पहला स्टेशन) जाकर जगह रोक कर आ रहे हैं

युद्ध जैसा यह दृष्य देखकर मेरा हौसला पस्त हो जाता है। मोटापे की वजह से मैं यह सारी भागदौड़ नहीं कर पाता। इस तरह नहीं जूझ पाता। चुपचाप खड़ा हो जाता हूँ। जब सब लोग चढ़ जाते हैं, तब डिब्बे में चढ़ता हूँ। खूब अच्छी तरह जानता हूँ कि जगह नहीं मिलनेवाली। लेकिन आशावाद साथ नहीं छोड़ता। कई बार लोग इस उम्मीद में अपने पास एक-दो लोगों की जगह केवल इसलिए रोक लेते हैं कि कोई अपनेवाला आ जाएगा तो उसे जगह दे देंगे। सोचता हूँ, इतना बड़ा डिब्बा है। कोई न कोई ऐसा परिचित तो मिल ही जाएगा जिसने इसी तरह जगह रोक रखी होगी। कई बार ऐसे लोग मिल जाते हैं जिन्हें मैं नहीं जानता लेकिन जो मुझे जानते हैं।

लेकिन डिब्बे में चढ़ते ही यह आशावाद सबसे पहले साथ छोड़ देता है। यह पूरा डिब्बा नहीं है। डिब्बे के अन्तिम हिस्से को छोटे से डिब्बे का रूप दिया हुआ है। आमने-सामने के दोनों दरवाजों के पास, तीन लोगों के बैठनेवाली एक-एक सीट लगी हुई है-कुल जमा चार सीटें। याने बारह लोग ही बैठ सकते हैं। लेकिन डिब्बे में खुली जगह खूब सारी है। मैं नजर घुमा कर चारों ओर देखता हूँ। मर्द, औरतें, बच्चे मिला कर कम से कम तीस लोग तो होंगे ही। बैठे हुए लोगों के मुकाबले खड़े हुए लोग ज्यादा। इस बार मैं फटाफट निर्णय लेता हूँ। डिब्बे की दीवार से सटाकर अपनी चादर बिछा कर बैठ जाता हूँ। इतनी जगह मिल गई है कि टाँगे फैलाकर बैठ सकूँ। इस समझदारी और सफलता पर अपनी पीठ थपथपा लेता हूँ क्योंकि कुछ ही क्षणों बाद लोगों को यह सुविधा भी नहीं मिल पाती।

पीठ टिकाते ही पहला विचार मन में आया - ‘कौन अधिक गतिवान है? समय या मनुष्य?’ फिलवक्त तो मनुष्य ही अधिक गतिवान है। बैठ पाएँ हों या खड़े रहना पड़ रहा हो, दस मिनिट से पहले ही सबने अपनी-अपनी जगह ले ली। इतना ही नहीं, इतनी जल्दी सामान्य भी हो गए कि आपस में पूछने भी लगे - ‘कब चलेगी? सवा आठ तो बज गए!’ लेकिन सवाल दोहराया जाए, उससे पहले ही इंजन का हार्न बजता है और रेल चल पड़ती है। सब खुश हो जाते हैं, ‘वक्त पर चल दी है तो वक्त पर पहुँच भी जाएगी।’ 

रेल लक्ष्मीबाई नगर भी नहीं पहुँचती कि लोगों का बतियाना बन्द हो जाता है। सब शायद थके हुए हैं। बरसात का शोर भी बहुत ज्यादा है। कुछ लोग अभी से उनींदे होने लगे हैं। मेरे पास एक किशोर बैठा है। उससे सटा हुआ एक अधेड़। किशोर ने बैठते ही घुटने सिकोड़कर दोनों बाहों से गठरी बना ली है और सिर देकर सो गया है। अधेड़ ने पीठ टिका कर आँखें बन्द कर ली हैं। लोगों ने मानो मौन व्रत ले लिया है। और तो और, साथ-साथ बैठी हुई महिलाएँ भी चुप हैं। उनके साथ के बच्चे भी सयानों की तरह चुपचाप बैठे हैं। एक बच्चा तनिक जोर-जोर से पाँव पटक कर, रेल के पहियों के साथ तबले की तरह थाप मिला रहा है। वह पाँच-सात बार ही ऐसा कर पाता है कि उसकी माँ आँखें तरेर कर उसे घुड़क देती है। बच्चा सहम कर चुप बैठ जाता है।

अब डिब्बे में केवल बरसात की आवाज चहल-कदमी कर रही है। मैं आसपास देखता हूँ। चलती रेल के हिलते डिब्बे में सब कुछ मानो फ्रीज हो गया है। लेकिन नहीं। सब कुछ ऐसा नहीं है। डिब्बे के सामनेवाले आधे हिस्से में एक औरत खड़ी है। बाँहों में, लगभग एक बरस के बच्चेे को थामे। उसका पहनावा उसका धरम उजागर कर रहा है। निश्चय ही वह बहुत थकी हुई है। उसकी आँखें बराबर खुल नहीं पा रहीं। नींद से भरी हुई हैं। जब भी आँखें खोलती है, दयनीय मुद्रा में आसभरी नजर से देखती है, कहीं बैठने की जगह मिल जाए या कोई दयालु उसके लिए अपनी जगह छोड़ दे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। सीटों पर जो उनींदे बैठे हैं, वे तो देख ही नहीं पा रहे और गिनती के जो दो-चार लोग देखते हैं वे फौरन ही नजरें फेर लेते हैं। शायद खुद से ही डरते हैं-‘कहीं मन में आत्मघाती करुणा न उपज जाए।’ कोई उसकी मदद नहीं करता। न उसके धरमवाले न ही दूसरे धरमवाले। इस देखा-देखी से वह जल्दी ही उबर जाती है और नंगे फर्श पर बैठ जाती है। उसके पास बिछाने को कुछ नहीं। बच्चा शायद अपनी माँ का कष्ट समझ गया है। कुछ ही पलों में वह सो जाता है। सोये हुए बच्चे को गोद में लिए औरत भी बैठे-बैठे ही झपक जाती है। अब उसके चेहरे पर असीम शान्ति है। दुःख, थकान, पीड़ा कुछ भी नहीं है। 

बड़नगर में कई लोग उतरते हैं। लेकिन इतने नहीं कि उस औरत को और मुझे बैठने की जगह मिल जाए। हाँ, फर्श लगभग पूरा खाली हो गया है। अब कोई खड़ा हुआ नहीं है। बड़नगर से रतलाम का सफर लगभग एक घण्टे का है। लेकिन तब भी कोई उसके लिए जगह नहीं छोड़ता। सब बैठे हुए हैं। औरत, कपड़ों में लिपटे बच्चे को फर्श पर सुला देती है और एक सीट के कोने से माथा टिका कर सो जाती है।

रेल ने नौगाँव पार कर लिया है। अब रेल बीस मिनिट में ही रतलाम पहुँच जाएगी। लोग हरकत में आने लगे हैं। अपना-अपना सामान समेट रहे हैं। सबकी कोशिश रहेगी, सबसे पहले उतरें, भाग कर अपना वाहन पकड़ें और जल्दी से जल्दी घर पहुँच कर बिस्तर में दुबकें। लेकिन वह औरत वैसी की वैसी सोई हुई है। उसके पास कोई सामान नहीं है। न तो उसकी नींद खुल रही है न ही बच्चे की। 

रेल की गति धीमी हो गई है। रतलाम का आउटर सिगनल पार कर लिया है। लोग दरवाजे के पास पहुँच गए हैं। लेकिन दोनों माँ-बेटे जस के तस सोए हुए हैं। एक औरत से रहा नहीं जाता। सोई हुई औरत का कन्धा थपथपाते हुए, चिन्ता से डाँटते हुए कहती है - ‘अब तो उठ जा ए बेन। कब तक सोती रहेगी। रतलाम आ गया।’ औरत चमक कर जागती है। आँखें मसल कर सबसे पहले अपने बच्चे को देखती है। उसे सोया देख, मुस्कुरा देती है। लाड़ से गोद में लेती है और उठकर सबके पीछे खड़ी हो जाती है। उसकी शकल कह रही है, उसे और उसके बच्चे को जगह न देने के लिए उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। मैं भी अपनी चादर की घड़ी कर झोले में रखता हूँ और उस औरत के पीछे खड़ा हो जाता हूँ। मुझे कोई जल्दी नहीं है। मेरा स्कूटर स्टैण्ड पर रखा है। घर पर गरम रोटी तैयार मिलेगी।

रेल रुकती है। उतरनेवाले गिनती के हैं लेकिन फिर भी आपाधापी मच जाती है। लेकिन वह औरत बिलकुल भी जल्दबाजी नहीं करती। निश्चिन्त भाव से उतरती है। कुछ इस तरह मानो उसे लिवाने के लिए कोई बाहर खड़ा हो और घर पर गरम रोटी उसका भी इन्ताजर कर रही हो। हकीकत तो भगवान ही जाने किन्तु पता नहीं क्यों उसकी यह निश्चिन्तता मुझे खुश कर देती है।

सब यात्री उतर गए हैं। हमारा डिब्बा सबसे अखिर में था। प्लेटफार्म पर उतरनेवाला मैं अन्तिम यात्री हूँ। सब चले जा रहे हैं। मैं उस औरत के पीछे-पीछे चल रहा हूँ। सबको घर पहुँचने की उतावली है लेकिन वह शान्त भाव से, मन्थर गति से चल रही है।

रात के ग्यारह बजने वाले  हैं। रतलाम में बरसात हो चुकी है। वातावरण में ठण्डक घुल आई है। प्लेटफार्म पर नीरवता छाई हुई है।  सबके पीछे चलते हुए, उस औरत को देखते हुए मैं सोच रहा हूँ, सुख-दुःख और स्वार्थ का आपस में कोई रिश्ता होता है? इनका कोई धर्म होता है?   
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......वैसे ही सबके मनोरथ पूरे हों

यह, अचानक ही कोई मनोरथ पूरा हो जाने जैसा ‘सुखद हादसा’ था। मनोरथ भी ऐसा जिसके पूरा होने की उम्मीद तो छोड़िए, आशंका भी नहीं रह गई हो। मैं गया था केवल अपनी हाजरी दर्ज कराने लेकिन बैठा पूरे ढाई घण्टे।

कार्यक्रमों के उबाऊ संचालनों के कारण मैंने कार्यक्रमों मे जाना बन्द सा कर दिया है। संचालन प्रायः ही ‘नाक पर नथनी भारी’ जैसा होता है। संचालक, आयोजन को भूल, खुद को आगे ले आता है और अन्तिम क्षण तक आगे ही बनाए रखने में जुटा रहता है। उस पर कोढ़ में खाज जैसी दशा यह कि अकारण ही शेर-ओ-शायरी कुछ इस तरह घुसेड़ते रहता है मानो किसी डॉक्टर ने कह दिया हो। 

मैं उस संचालक को ‘आदर्श’ मानता हूँ जो ‘मैं’ का उपयोग न करे। मेरा मानना है कि किसी भी आयोजन में संचालक की अपनी कोई व्यक्तिगत हैसियत नहीं होती। लेकिन प्रायः प्रत्येक संचालक इस तरह पेश आता है मानो वही मेजबान हो। जबकि ऐसा होता ही नहीं है। उसकी जिम्मेदारी होती है-आयोजन को नायक बनाए, आयोजन को को सफल बनाए। लेकिन वह खुद को सफल, खुद को नायक बनाने में जुट जाता है और श्रोताओं के बीच खलनायक बन जाता है। इन्हीं सब बातों के चलते, मैं ऐसे संचालक की प्रतीक्षा करते-करते थक कर हताश हो गया जो केवल संचालक की तरह पेश आए। जो खुद को नेपथ्य में रखे। उस धागे की भूमिका निभाए जिसके सहारे बिखरे हुए फूल सुन्दर माला की शकल ले लेते हैं।

यह 30 मई की बात है। लघु पत्रिका ‘पर्यावरण डाइजेस्ट’ के प्रकाशन के तीन दशक पूरे होने के प्रसंग पर जलसा आयोजित था। पत्रिका के कर्ता-धर्ता और मैं एक ही मोहल्ले में रहते हैं। जलसा स्थल भी मोहल्ले में ही था। जलसे के समय पर ही भोपाल से मेरे कुछ मिलनेवाले पहुँचनेवाले थे। लेकिन मोहल्ले का मामला। टालना अशालीन ही नहीं आत्मघाती भी होता। उत्तमार्द्धजी को कहा कि भोपाल से आनेवालों को तनिक प्रतीक्षा करने को कह कर बैठा लें। सोचा था, मेजबान को शकल दिखाकर, हाजरी लगा कर जल्दी ही लौट आऊँगा। लेकिन प्रिय आशीष दशोत्तर ने, सर्वथा अनपेक्षित रूप से ऐसा नहीं होने दिया।

आशीष मेरे कस्बे का अब स्थापित साहित्यकार-गजलकार है। वह सम्मान सूचक सम्बोधनों का अधिकारी है। उसके लिए ऐसे ‘तू-तड़ाक’ जैसी भाषा मैंने नहीं वापरनी चाहिए। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ।  करूँगा तो असहज और कृत्रिम हो जाऊँगा और अपनी बात नहीं कह पाऊँगा। (आशीष मुझे क्षमा करे।)

आशीष अब किसी परिचय का मोहताज नहीं रहा। गजल, कविता, कहानी, आलेख, जैसे विधाओं पर उसकी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अंचल के अखबारों में उसे निरन्तर पढ़ना अब हमारी आदत में शुमार हो गया है। देश की ख्यात साहित्यिक पत्रिकाओं में उसकी रचनाएँ जगह पा रही हैं। साहित्य की वार्षिक रपटों/समीक्षाओं में उसकी पुस्तकें उल्लेखित की जाने लगी हैं। हमारा कस्‍बा उससे पहचाना जाने लगा है।लेकिन हममें से शायद ही किसी को यह सब एकमुश्त याद आता हो। वह ‘घर का जोगी जोगड़ा’ बने रहने को अभिशप्त है। मेरा कस्बा आए दिनों उसे भिन्न-भिन्न प्रकार के आयोजन का संचालन सौंपता रहता है। मुझे यह बहुत बुरा लगता है। लेकिन न तो आशीष कुछ कर सकता है न ही मैं। (आशीष की गजलें  आप ''आशीष 'अंकुर' की गजलें'' टेग के अन्‍तर्गत इस ब्‍लॉग पर पढ  सकते हैं।)

आयोजन में पहुँचा तो देखा, संचालन  आशीष के जिम्मे है। लेकिन चूँकि मुझे जल्दी ही लौटना था, लगभग उल्टे पाँव, सो मैंने तनिक भी ध्यान नहीं दिया। मेरा चित्त तो भोपाल से आनेवाले मित्रों में उलझा हुआ था।

‘नमस्कार। पर्यावरण डाइजेस्ट के इस आयोजन में आपका स्वागत है।’ कह कर आशीष ने शुरुआत की। पहले ही वाक्य ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। यह लीक से हटकर था। आम तौर पर कार्यक्रम संचालक ‘मैं आप सबका स्वागत करता हूँ।’ कहता है। लेकिन आशीष ने ऐसा नहीं कहा। मैं ढीला-ढाला बैठा था। अनायास ही तन कर बैठ गया। मेरा समूचा ध्यान आशीष के संचालन पर ही केन्द्रित हो गया। कार्यक्रम ज्यों-ज्यों अगली पायदान पर जा रहा था त्यों-त्यों मैं कुर्सी में धँसता जा रहा था। उद्बोधन के लिए वक्ता को आमन्त्रित करते समय ‘अब श्री फलाँ-फलाँ से सानुरोध निवेदन है कि हमें अपने उद्बोधन से लाभान्वित करें।’ जैसी शब्दावली वापर रहा था। संचालक प्रायः ही, उद्बोधन पूरा होने के बाद वक्ता की बात की संक्षेपिका प्रस्तुत करने का रोगी होता है। किन्तु आशीष ने अपनी विद्वत्ता जताने की यह मूर्खता एकबार भी नहीं की। और तो और, उसने किसी वक्ता के परिचय में या उसे वक्तव्य हेतु आमन्त्रित करते समय जबरन कोई शेर या कविता नहीं सुनाई। यह काम उसने किया जरूर लेकिन आवश्यक होने पर ही।

आशीष का यह ‘व्यवहार’ मुझे चौंका भी रहा था और लुभा भी रहा था। इसका असर यह रहा कि भोपाल से आनेवाले मेरे मित्र कब मेरे चित्त से उतर गए, मुझे मालूम ही नहीं हुआ। कार्यक्रम कम से कम ढाई घण्टे तो चला ही। लेकिन आशीष ने एक बार भी ‘मैं’ का उपयोग नहीं किया। यह असम्भवप्रायः काम आशीष सहजता से करता रहा। पता नहीं, सायास या अनायास। किन्तु मैं अपनी कहूँ। मैं होता तो शायद सायास भी ऐसा नहीं कर पाता।

पता ही नहीं चला कि कार्यक्रम कब पूरा हो गया। अन्तिम वक्ता के बैठते ही, आभार प्रदर्शन की औपचारिकता शुरु होने से पहले ही लोग उठने लगे तो मेरी तन्द्रा टूटी। मुझे अपने मेहमान याद आने लगे और मैं चुपचाप लौट आया।

आते हुए पूरे समय मैं, बरसों से कुँआरे बैठे अपने एक मनोरथ के पूरा होने के आनन्द से उल्लसित था। कुछ इस तरह से खुश था मानो किसी बच्चे को मनचाहा खिलौना मिल गया हो। 

दो दिन बाद मैंने आशीष को बधाई दी। उसकी यह विशेषता बताई तो ताज्जुब जताते हुए बोला - ‘ऐसा क्या? यह तो आपसे ही मालूम हो रहा है।’ उसने बताया कि उसने तो यह सब सहज भाव से ही किया था। सुनकर मुझे लगा, सहजता से किया तभी ऐसा हो पाया होगा। सायास करता तो कहीं न कहीं तो चूकता ही और उसका ‘मैं’ सामने आ जाता।

मैंने आशीष से कहा है कि उस आयोजन की पूरी रेकार्डिंग प्राप्त करे। विभिन्न विषयों पर बच्चों से बात करने के लिए मुझे यदा-कदा बच्चों के शिविरों में बुलाया जाता है। अगली बार किसी ऐसे शिविर में बुलाया गया तो इस रेकार्डिंग के अंश बच्चों को बताऊँगा और कहूँगा - ‘देखो! ऐसा होता है संचालन।’

जैसे मेरा मनोरथ पूरा हुआ, वैसे ही सबके मनोरथ पूरे हों।

(यह पोस्‍ट लिखते-लिखते मुझे, संचालकों से जुडे, दो-एक किस्‍से और याद आ गए। मौका मिलते ही लिखूँगा।) 

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(यहाँ दिया गया, आशीष का चित्र उसी आयोजन का है।)