रोग मुक्ति और कष्ट मुक्ति से जुड़ा अपना यह अनुभव मैं अपनी सम्पूर्ण सद्भावना और सदाशयता से साझा कर रहा हूँ। मेरी इस पोस्ट से प्रेरित हो यदि कोई इस पर अमल करे तो यह बिलकुल जरूरी नहीं कि उसका अनुभव भी ऐसा ही हो।
मेरे बाँये हाथ की अनामिका (रिंग फिंगर) और कनिष्ठिका (लिटिल फिंगर) लगभग दो वर्ष से अधिक समय से सुन्न हो गई थी। लगता था, हाथ में तीन अंगुलियाँ ही रह गई हैं। लेकिन दो कारणों से इस ओर ध्यान नहीं दिया। पहला कारण, उस समय इससे बड़े कष्ट मुझे घेरे हुए थे। पहले यूरीनरी ट्रेक्ट इंफेक्शन से ग्रस्त रहा। तभी मालूम हुआ कि मेरी मूत्र नली बहुत ज्यादा सिकुड़ गई है। उसका ऑपरेशन कराना पड़ेगा। वह ऑपरेश करने से पहले सरकम सीजन (खतना) कराना पड़ेगा। दूसरा कारण, इन अंगुलियों के सुन्न होने से कोई काम नहीं रुक रहा था। तो पहले मार्च 2016 में सरकम सीजन और बाद में, मई 2016 में यूरोथ्रोप्लास्टी (मूत्र नली का पुनर्निमाण) ऑपरेशनों से गुजरना पड़ा। जब बड़े कष्टों ये मुक्ति मिली तो इस छोटे कष्ट की ओर ध्यान गया।
जुलाई 2016 के दूसरे पखवाड़े में अपने रक्षक डॉक्टर सुभेदार सा’ब को दिखाया। इस प्रभाव के उन्होंने दो कारण बताए - मधुमेह (डायबिटीज) या फिर सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस। चूँकि मैं मधुमेही (डायबिटिक) नहीं हूँ सो उन्होंने एक हड्डी रोग विशेषज्ञ से मिलने की सलाह दी। हड्डी रोग विशेषज्ञ ने जाँच के बाद पहला निष्कर्ष सुनाया कि मैं सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस से प्रभावित हूँ। उन्होंने कुछ दवाइयाँ लिखीं। समय-समय पर वे मुझे जाँचते रहे। कभी वे ही दवाइयाँ दुहराईं तो कभी दो-एक दवाइयाँ बदलीं। मुझे कोई राहत नहीं मिल रही थी। तीसरे महीने उन्होंने फिर दवाइयाँ बदलीं। लेकिन इन दवाइयों का असर यह हुआ कि मेरी आँखों ने खुली रहने से इंकार कर दिया। दिल की धड़कनों के सिवाय मुझे अपने जीवित रहने का कोई अहसास ही नहीं हो। चौबीसों घण्टे सोया रहूँ। घबरा कर सुभेदार सा’ब को दिखाया। उन्होंने हड्डी रोग विशेषज्ञ द्वारा लिखी गोलियाँ तत्क्षण बन्द कराईं। सामान्य होने में मुझे चार दिन लगे।
हड्डी रोग विशेषज्ञ को मैंने जब पहली बार दिखाया था उसके पाँच-सात दिनों के बाद ही मुझे एक के बाद एक, तीन-चार मित्रों ने सलाह दी कि मैं शास्त्री नगर में योग-प्राणायाम से चिकित्सा कर रहे ‘चौरसियाजी’ को दिखाऊँ। ‘चौरसियाजी’ मेरे लिए अपरिचित नहीं हैं। दुनियावालों के ‘चौरसियाजी’ मेरे लिए ‘ओम’ है। बरसों हो गए उसे देखे लेकिन मैं उसे बरसों से न केवल जानता हूँ बल्कि एक बार तो उसकी पैरवी करने के कारण उसके (अब स्वर्गीय) पिता रामनिवास भाई चौरसिया से खूब अच्छी तरह, भरपूर डाँट भी खा चुका हूँ। मुझे ओम के पास जाने में किसी प्रकार की कोई असुविधा नहीं थी। किन्तु मेरी आदत है कि दो को एक साथ कभी भी दाँव पर नहीं लगाता। इसलिए तय किया कि हड्डी रोग विशेषज्ञ के ईलाज से लाभ न होने की दशा में ओम से मिल लूँगा।
किन्तु योग-संयोग ऐसा रहा कि ओम से मिलने से पहले ही (अक्टूबर 2016 में) पहलेवाले हड्डी रोग विशेषज्ञ से बड़े हड्डी रोग विशेषज्ञ से मिलना हो गया। उन्होंने एक्स-रे करवाया। उनका निष्कर्ष था कि मैं सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस का ही मरीज हूँ और मुझे ऑपरेशन कराना पड़ सकता है। किन्तु उससे पहले वे कुछ दवाइयाँ देकर देखना चाहेंगे। उनकी दी हुई दवाइयों से भी मुझे कोई राहत नहीं मिली। एक महीने बाद उन्होंने वे ही दवाइयाँ दुहराईं। जब कोई फर्क नहीं पड़ा तो दिसम्बर 2016 में उन्होंने कहा कि मुझे ऑपरेशन कराना ही पड़ेगा। किन्तु वे मुझे ऑपरेशन से बचाना भी चाहते थे। उन्होंने सलाह दी कि मैं पहले किसी स्नायु विशेषज्ञ (न्यूरो फिजिशियन) से मिल लूँ। जनवरी 2017 के पहले सप्ताह में मैं इन्दौर जाकर स्नायु विशेषज्ञ से मिला। प्राथमिक परीक्षण कर उन्होंने सुखद सूचना दी कि मैं सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस का मरीज बिलकुल नहीं हूँ। उन्होंने नाड़ियों में बिजली के झटके देकर परीक्षणोपरान्त सूचित किया कि मेरे बाँये हाथ की, कोहनी से इन दोनों अंगुलियों तक जा रही एक नाड़ी निष्क्रिय होने से मेरी अंगुलियाँ सुन्न हो गई हैं। उन्होंने कहा कि मैं चिन्ता बिलकुल न करूँ। यह नाड़ी जिस तरह अपने आप निष्क्रिय हुई है उसी तरह अपने आप ही सक्रिय हो जाएगी। उन्होंने एक महीने की दवाइयाँ लिख दीं।
मैंने एक महीने तक उनकी दवाइयाँ लीं। लेकिन कहीं, कोई फर्क नहीं पड़ा। इस बीच मुझे, ‘चौरसियाजी’ से मिलने के परामर्शों की बाढ़ आ गई। मैं ‘चौरसियाजी’ से मिलने की सोच ही रहा था कि अचानक ही एक समारोह में एक परिजन समान डॉक्टर से मुलाकात हो गई। बातों ही बातों में मैंने सुन्न अंगुलियों का जिक्र किया और पूरी आपबीती सुनाकर कहा कि मुझे ‘चौरसियाजी’ से मिलने की सलाह लगातार दी जा रही है। वे तत्काल बोले - ‘फौरन चले जाइए। मैं भी परेशानी में आ गया था। उन्हीं ने ठीक किया।’
अनगिनत आत्मीय लोगों के पुरजोर आग्रह पर एक ‘पात्रताधारी’ (क्वालिफाईड) डॉक्टर ने ठप्पा लगा दिया था।
इकतीस जनवरी 2017 की शाम मैं ओम (याने ‘चौरसियाजी’) से मिला। उसने अत्यधिक आदरभाव पूरी बात सुनी। मेरी समस्या को ध्यानपूर्वक सुनते हुए मुझसे दो-तीन सवाल किए। मेरी अंगुलियाँ टटोली और सम्पूर्ण आत्मविश्वास से भरोसा दिलाया कि मैं इस समस्या से मुक्त हो जाऊँगा। मुझे प्रतिदिन रात आठ बजे उसके ‘त्रिधा महायोग केन्द्र’ पर आना पड़ेगा। पहली फरवरी को अवकाश था। तय हुआ कि दो फरवरी से मेरा उपचार शुरु होगा।
दो फरवरी की रात तय समय पर पहुँचा। पाँच लोग हॉल में अपनी-अपनी चादर बिछाए हुए और लगभग इतने ही लोग बैठे हुए विभिन्न योग-क्रियाएँ कर रहे थे। ओम सब पर नजर रखे हुए था। आवश्यकतानुसार रोक-टोक कर आवश्यक निर्देश दे रहा था। पहले दिन उसने मुझे पाँच योग-क्रियाएँ बताईं। सब बहुत आसान थीं। एक-दो बार करके दिखाईं। जहाँ आवश्यक हुआ, ओम ने सुधरवाया। ओम ने कहा कि पहले वह यह देखेगा कि उसने रोग की पहचान सही की है या नहीं। यह तय होने के बाद ही वह आगे बढ़ेगा। उसने कहा कि मेरी नियमितता जरूरी है और यह भी कि योग-क्रियाओं से मुझे जो भी अन्तर अनुभव हो, वह कितना ही बारीक और छोटा हो, मैं उसे तत्काल सूचित करूँ। इससे उसे रोग पहचानने में मदद मिलेगी। उसके बाद क्रम चल पड़ा। तीसरा सप्ताह समाप्त होते-होते मुझे अनामिका (रिंग फिंगर) के सुन्नपन में तनिक कमी अनुभव हुई। मैंने ओम को बताया तो वह खुश होने के बजाय सन्तुष्ट हुआ। उसने रोग की सही पहचान कर ली थी। उसने उस दिन मुझे तीन और योग-क्रियाएँ निर्देशित कर दीं। चौथे सप्ताह मुझे और अधिक राहत अनुभव हुई। लगा कि इस (अनामिका/रिंग फिंगर) के निचले दो पोरों का सुन्नपन चला गया है। मैंने चिकोटी काट कर देखा। मुझे चुभन अनुभव हुई। पहले ओम सन्तुष्ट हुआ था, अब मैं उत्साहित हो गया। ओम ने सुना तो उसने शून्य में हाथ जोड़कर प्रभु को धन्यवाद दिया। उस दिन उसने दो योग-क्रियाएँ बढ़ा दीं। इनकी संख्या अब दस हो गई थी।

योग क्रियाएँ कराते हुए ओम। चित्र में एकदम सामने, हाथ उठाए।
अप्रेल के पहले सप्ताह तक मेरी यह अंगुली (अनामिका/रिंग फिंगर) पूरी तरह सामान्य हो गई। पहले मैं अंगूठे और दो अंगुलियों (तर्जनी/इण्डेक्स फिंगर और मध्यमा/मिडिल फिंगर) से स्कूटर का हेंडल पकड़ पा रहा था। अब तीन अंगुलियों से पकड़ पा रहा था।
कभी व्यस्तता, कभी आलस्य के कारण छुटपुट अनुपस्थितियों के साथ मेरी योग चिकित्सा चलती रही। मई बीतते-बीतते मेरी कनिष्ठिका (लिटिल फिंगर) के निचले दो पोर सामान्य हो चले। जून मध्य तक तीसरा पोर भी सामान्य हो गया। केवल नाखून की जड़ों में सुन्न रह गई थी जो जून का तीसरा सप्ताह आते-आते चली गई।
मेरे तईं यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। मेरा बहुत बड़ा तनाव दूर हो चुका था। मेरा बीमे का काम ऐसा कि मुझे दिन भर स्कूटर चलाना पड़ता है। सुन्न अंगुलियों के चलते, स्कूटर चलाने का मेरा आत्म-विश्वास डगमगाने लगा था। डरता था, कभी कोई दुर्घटना न हो जाए। लेकिन इस समय जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ, मेरी दोनों अंगुलियाँ 95 प्रतिशत से अधिक सामान्य हो चली हैं। कभी-कभार भारीपन अनुभव हो रहा है लेकिन सुन्नपन शून्यप्रायः है।
अभी-अभी ओम ने चार योग-क्रियाएँ और बढ़ा दी हैं। मैं नियमितता बनाए रखने की यथासम्भव चेष्टा करता हूँ। कभी-कभी व्यवधान आ जाता है।
योग क्रियाएँ कराते हुए ‘भय्यू’ प्रणव। चित्र में एकदम सामने, धारीदार टी शर्ट पहने।
ओम के केन्द्र पर जाने के बाद धीरे-धीरे उसके बारे में मेरी जानकारियाँ बढ़ती गईं। उसने किसी से कोई प्रशिक्षण नहीं लिया है न ही कोई ‘कोर्स’ किया है। वह स्वानुभूत, स्वप्रशिक्षित है। 1983 से उसने महायोग केन्द्र शुरु किया और 1989 से ‘योग थेरेपी चिकित्सा’ शुरु की। वह योग के जरिए स्नायु-तन्त्र आधारित चिकित्सा करता है। वह नाड़ियों को सहलाता, थपथपाता है, पुचकारता-फटकारता है। उसकी चिकित्सा से ठीक हुए मरीज पूरे देश में फैले हुए हैं। मैंने जानना चाहा कि उसने अब तक कितने लोगों का उपचार किया? उसने कहा - ‘शुरु-शुरु में तो मैंने भी मरीजों के नाम पते लिखने शुरु किए थे। लेकिन जब आँकड़ा एक हजार पार कर गया तो फिर लिखना बन्द कर दिया।’ उसने अपना रजिस्टर मेरे सामने सरका दिया। मैं एक नजर डालता हूँ। देश के विभिन्न प्रान्तों के हजार से अधिक नाम उसमें दर्ज हैं। इनमें अनेक नाम डॉक्टरों के हैं। मैंने फिर कुरेदा - ‘कोई तो आँकड़ा होगा?’ ससंकोच बोला - ‘कैसे बताऊँ बाबूजी! गिनती याद रखने की कोशिश ही नहीं की। हाँ, इस रजिस्टर में 92-93 तक के नाम हैं। इससे आप ही अन्दाज लगा लो।’ मैं भी क्या अनुमान लगाऊँ! स्ंक्षिप्त में कहूँ तो ‘हजारों’ रोगी ओम को दुआएँ दे रहे हैं। रजिस्टर में डॉक्टरों के नाम देखकर मुझे हैरत भी हुई थी और अविश्वास भी। लेकिन एक दिन मैंने देखा, सर्वाइकल स्पेण्डिलाइटिस के रोगी, अहमदाबाद के एक हड्डी रोग विशेषज्ञ उसके सामने बैठे हैं। वे ऑपरेशन नहीं कराना चाहते। ओम का नाम सुनकर रतलाम आए हैं। इसी तरह भोपाल के दो डॉक्टरों को भी ओम से मदद लेते हुए देखा। कभी-कभार, स्वस्थ हुए कुछ रोगी मिलने आ जाते हैं। उनसे मालूम पड़ता है, वे ओम के यहाँ पहली बार आए तब चल भी नहीं पाते थे। लेकिन ईलाज कराने के बाद दौड़ कर गए।
ओम के हाथों मे यह यश देखकर मैंने कहा - ‘अपनी मार्केटिंग क्यों नहीं करते?’ वह विनम्रता और सन्तोष-भाव से बोला - ‘क्या जरूरत है बाबूजी इसकी? ईश्वर की कृपा से मेरा काम चल रहा है। मेरे भाग्य में जितना होगा, मिल कर रहेगा। जिस तरह लोगों ने आपको भेजा उसी तरह आप लोगों को भेजोगे। यही मेरी मार्केटिंग है।’
एक रोगी की चिकित्सा करते हुए ओम।
सूर्योदय से ओम का ‘त्रिधा महायोग केन्द्र’ शुरु हो जाता है जो रात नौ बजे तक चलता है। यहाँ सभी वर्गों के लोग एक जाजम पर बैठकर योग-क्रियाएँ करते हैं। महिलाओं का भी एक बेच चलता है। ओम का बेटा प्रणव (जिसे सब लोग ‘भय्यू’ के नाम से पहचानते, पुकारते हैं) ओम का सहायक बन कर अगले योग चिकित्सक के रूप में विकसित हो रहा है। जो भी ओम के यहाँ नियमित आता है, ‘भय्यू’ को लेकर चिन्तित हो जाता है। उसका सीधापन, उसकी सरलता चिन्ता में डाल देती है - ‘क्या होगा इसका? इस जमाने में इतना सीधा रहेगा तो लोग इसे बेच खाएँगे।’ सुन-सुनकर भय्यू और ओम हँस देते हैं।
ओम के केन्द्र पर योग क्रियाएँ कर रहे कुछ लोग मुझे रोगी नही लगे। मैंने अपनी जिज्ञासा जताई तो बोला - “आपने ठीक पहचाना बाबूजी! ये रोगी नहीं हैं। जैसे कुछ लोग ‘नशेड़ी’ होते हैं, उसी तरह ये ‘योगड़िए’ हैं। कोई आठ साल से तो कोई दस साल से आ रहा है। आप इन्हीं से पूछ लो।”
ओम का ‘त्रिधा महायोग केन्द्र’ रतलाम में शास्त्री नगर में, डॉटर सैय्यद के निवास के पास है। उसका मोबाइल नम्बर 99075 32433 है। ओम की चिकित्सा रोगी से धैर्य, समय और नियमितता की माँग करती है। बाहर से आनेवाले रोगियों को अपने रहने-खाने की व्यवस्था खुद करनी पड़ती है।
जिला प्रशासन सहित रतलाम की अनेक संस्थाएँ, संगठन ओम को सम्मानित कर चुकी हैं। लेकिन ओम इन सबसे निस्पृह लगता है। उसकी बातों, क्रिया-कलापों से लगता नहीं कि ऐसे सम्मान उसे लुभाते, ललचाते हैं।
मुझसे ओम को एक कष्ट जरूर हो रहा होगा। उसके तमाम रोगी उसे गुरु-भाव से प्रणाम करते हैं, आते-जाते उसके पाँव छूते हैं। मैं ऐसा नहीं कर पा रहा। दो-एक बार सोचा भी। लेकिन नहीं कर पाया। पाँव छूने का भाव अन्तर्मन से उपजना चाहिए, दिखावे के लिए नहीं। मैं जब भी ओम को देखता हूँ तो मुझे वही युवा ओम नजर आता है जो जूडो-कराते को अपना केरीयर बनाना चाहता है और इसके लिए अपने पिता से आदरपूर्वक संघर्ष कर रहा है-चुपचाप लेकिन आत्मविश्वासपूर्वक, आँख से आँख मिलाते हुए। मैं और डॉक्टर मितना उसके लिए उसके पिताजी से झगड़ रहे हैं। उसके पिताजी हम दोनों को डाँट रहे हैं और हम दोनों हो-हो कर हँस रहे हैं।
फिलहाल तो मैं ओम को ‘ओम भैया’ कह कर ही काम चला रहा हूँ।
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