यह कितना उपकार कर दिया

श्री बालकवि बैरागी

के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की छठवीं कविता





दो पल से भी अधिक नहीं है उम्र हमारे परिचय की

पल भर में ही तुमने मुझ पर यह कितना उपकार कर दिया!



अनजानी जिज्ञासा तुमने मेरे अन्तर की पहचानी

चिर निन्द्रा से जगा दिया है, तुमने मेरा विज्ञानी,

तुमने मुझे विवश कर डाला, मैं यह बाह्य जगत निरखूँ,

बनूँ प्रयोगी और यहाँ के कण-कण, अणु-अणु को परखूँ


भौतिकता से भाँवर करके, पहले रथ में बैठा लूँ

नौसिखिया मन सारथि मेरा, कितना पटु, हुशियार कर दिया!

                                        यह कितना उपकार कर दिया..



आत्म-मनन, चिन्तन, परिशीलन बिलकुल ही अनिवार्य हो गया

कण्टक पथ का निर्धारण भी मुझसे तो सत्कार्य हो गया,

द्वार-द्वार से दर्द माँग कर अपने घर में लाना होगा

शशि-शेखर बनने से पहले, नीलकण्ठ कहलाना होगा,


भौतिकता में लिप्त प्रयोगी, योगी बन कर विचरेगा

सचमुच में तुमने अधोन्मुखी को अर्चनीय अवतार कर दिया

                                        यह कितना उपकार कर दिया..



बिना छुुए ही तुमने मेरा रोम-रोम झकझोर दिया है

शिव, सुन्दर के साथ सत्य के रस में पूरा बोर दिया है,

तर्कहीन मेरे मानस को, तुमने तर्क प्रदान किया है

जनम-मरण औ’ आदि-अन्त का, तर्कशील नवज्ञान दिया है,


जीवन की ही भाँति मृत्यु के ओठ चूमना सिखलाया

ओ! जीवन के शिल्पी तुमने, निराकार साकार कर दिया!

                                        यह कितना उपकार कर दिया..



प्राण! तुम्हारी दीक्षा को मैं चरणामृत सी पी लूँगा

और आचरण के आँचल से, साँस-साँस को सी लूँगा,

आदर्शों की रोली अपने, अंग-अंग पर मल लूँगा

ज्वालामुखियों पर भी अब तो हँसते-हँसते चल लूँगा,


मुझे परखनेवाले मेरी अर्थी पर पछतायेंगे

यह लो! जग की अमर चुनौती को मैंने स्वीकार कर लिया!

                                        यह कितना उपकार कर दिया..



तत्व-ज्ञान, दर्शन मन-मन्थन, बाह्य जगत का अवलोकन

आत्म-परीक्षण, स्तुत्य-आचरण, शिव-सुन्दर-सत्यान्वेषण

परिचय के इस प्रथम प्रहर में, मैंने जो कुछ पाया है

वह कुबेर ने कोटि जन्म लेकर भी नहीं जुटाया है,


ओ! मेरे अकलंक देवता! ओ! मेरे भोले भण्डारी!

जाने या अनजाने तुमने मेरा तो भण्डार भर दिया!

                                        यह कितना उपकार कर दिया.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963











या तो मेरे देस पधारो

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की पाँचवीं कविता






                                या तो मेरे देस पधारो

                                या फिर अपने देस बुलाओ


        ना सन्देशे देते ही हो, ना सन्देशे लेते हो

        ना मुझको बुलवाते हो और ना ही आने की कहते हो

                                क्या पाओगे पाहनपन में 

                                पी, पल भर पाहुन बन जाओ

                                        या तो मेरे देस पधारो...


        मैं चाहूँ तो अगले पल ही, देस तुम्हारे आ सकती हूँ

        पंख कटे हैं, पैर बँधे हैं, फिर भी मंजिल पा सकती हूँ

                                पर तुम भी मेरे मंगल की

                                मान-मनौती तो मनवाओ

                                        या तो मेरे देस पधारो.....


        आठ पहर प्रियतम मैं तेरा पंथ बुहारा करती हूँ

        आस भरी आँखों से सूनी राह निहारा करती हूँ

                                या तो रथ की रास मरोड़ो

                                या मेरी डोली भिजवाओ

                                        या तो मेरे देस पधारो.....


        दुनिया से यदि डरते हो तो, में तरकीब बताती हूँ

         तुम उतरो अट्टा से नीचे, मैं कुछ ऊपर आती हूँ

                                और क्षितिज के पार सलौने

                                सचमुच का संसार बसाओ

                                        या तो मेरे देस पधारो.....


        ना आना और ना बुलवाना, रीत कहाँ की है प्यारे?

        जीना मुश्किल, मरना मुश्किल, ऐसी तो मत तड़पा रे!

                                पार लगाने आ न सको तो

                                नाव डुबाने ही आ जाओ

                                        या तो मेरे देस.....

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दरद दीवानी

कवि - बालकवि बैरागी

प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट

प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ

मूल्य - दो रुपये

आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन

मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर

प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963









रीता पेट भरूँगा कैसे


श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की चौथी कविता



प्रतिदिन सौ-सौ गीत लिखे पर कागज रीते पड़े हुए

कठिन प्रश्न है इन गीतों से रीता पेट भरूँगा कैसे?


ये चपटे, चौकर, त्रिकोण कपासी टुकड़े कागज के

अर्द्ध नग्न ही रह जाते हैं कवि को नगन-भगन करके,

आँसू औ’ छालों में मैंने कितनी स्याही घोली है

फिर भी इनकी भूख-प्यास तो इक रीती मरु झोली है


शोषक स्याही-चूस अभी देख रहा टेड़ा-तिरछा

रक्तहीन इस अस्थि चर्म को उसकी भेंट करूँगा कैसे?

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे?


रत्नाकर से रत्न निकाले और हुआ जब बँटवारा

सबको कुछ तो प्राप्त हुआ ही अमृत या विष की धारा

अपना चाहा पाने वाले दैव-दैत्य सब साक्षी हैं

मेरू दण्ड और महाशेष के कर्ज अभी तक बाकी हैं


कवि के रतन लूटनेवाले देव! दानवों! बतलाओ

मेरू-शेष का वंशज मैं अब लम्बा हाथ करूँगा कैसे

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे?


गीत भला मैं खाऊँ कैसे, गीत भला ओढ़ूँ कैसे?

दो दानों के दीप-महल तक, गीतों पर दौड़ू कैसे?

मातम में मर जानेवालों, तुम तो सिर्फ बराती हो

ये हैं मेरे साथी तो ही, तुम भी मेरे साथी हो


जिस साथी को खून पिलाया, पाला, पोसा, बड़ा किया

एक गढ़ा भरने को उससे दूजी बात करूँगा कैसे?

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे?


तुम जैसे ही गोरे-काले, मुझको भी दिन-रात मिले हैं

देह मिली है तुम जैसी ही, ये देखो, दो हाथ मिले हैं,

पर, एक बार में एक काम ही इन हाथों से करवा लो

या तो दाने गिनवा लो या अपनी फिर पीर सँवरवा लो


अगर विषमता को न ओढ़ाई तुमने काली चूनरिया

बतलाओ मैं उस डायन की रीती माँग भरूँगा कैसे?

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे?


जिसने चोंच बनाई वह ही चुगा जुटाया करता है

मित्र पेट इन आशाओं से नहीं भराया करता है,

माना अपनी माँ के स्तन में दूघ नहीं रख आया था मैं

तो क्या केवल माँ के आँचल लिपट, लूटने आया था मैं?


केवल माँ के दूध तलक ही कवि को जीवित रखनेवालों

अपना जीवन जी न सका तो अपनी मौत मरूँगा कैसे?

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963











मन बंजारा

श्री बालकवि बैरागी

के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की तीसरी कविता





तन को तो मिल गई शरण ओ! दाता तेरे आँगन में

बता देवता कब तक भटकेगा मेरा यह मन बंजारा।


जिस-जिस हाट गया यह निर्धन, उसमें इसको मिली निराशा

इसकी पूँजी गई न परखी, क्वाँरी रही युवा अभिलाषा,

इसको देख, समेट दुकानें, चले गये सारे व्यापारी

भरी दुपहरिया साँझ हो गई, ज्यों ही इसने गाँठ पसारी,


ठहरा दिया इसे तूने भी अपनी अतिथि शाला में

बँधी गाँठ ले काटे कैसे रजनी, यह दर-दर का मारा

                                        बता देवता कब तक.....


सोचा था, तू इसे देखकर रंग महल खुलवायेगा

तू परखेगा इसके मोती, कुछ सौदा हो तायेगा,

पर, माखन से मुँह बिचका कर तू सिर्फ देखता रहा गगरिया

तेरे आँगन आकर मैंने लम्बी कर ली और उमरिया,


जीने को जी लूँगा मैं, चल भी लूँगा काँटों में

किन्तु कहाँ तक रख पाऊँगा, छालों में मैं सागर खारा

                                        बता देवता कब तक.....


सुनता था तू परखैया है, लाखों और हजारों में

तेरी साख बहुत चलती है बड़े-बड़े बाजारों में,

तेरे एक इशारे भर से नीलामी रुक जाती है,

तेरे आगे लाख कुबेरों की पूँजी चुक जाती है,


बता कौनसी खोट दिखाई देती मेरी गठरी में

निर्मम! जो तू कहता मुझसे, आ जाना फिर कभी दुबारा

                                        बता देवता कब तक.....


चाहे मेरा तन ठुकरा दे, पर मन को तो मत ठुकरा

चाहे मेरा मूल्य भुला दे, पर धन को तो मत बिसरा,

यह तेरा निर्माल्य बता मैं वापस कैसे लेकर जाऊँ

तेरे इस अकलंक विरद पर, मैं कलंक कैसे कहलाऊँ,


मैंने कब कीमत माँगी है, मेरे मूक समर्पण की

कब ललचा कर मैंने तेरे आगे रीता हाथ पसारा

                                        बता देवता कब तक.....


मन-महलों में रखा उन्हें जो मुझसे पीछे आये थे

बतला क्या वे मुझसे ज्यादह मँहगे मोती लाये थे,

मुझको ईर्ष्या-द्वेष नहीं है तेरे किसी पुजारी से

रार नहीं है मुझको तेरे द्वारा तृप्त भिखारी से


मेवल मेरा तन सहला कर पल-दो-पल को मत बहला

वर्ना तेरे आँगन में ही होगा मरघट का उजियारा

                                        बता देवता कब तक.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963


पूर्व कथन - ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले’ यहाँ पढ़िए

दूसरी कविता: ‘राधाएँ तो लाख मिलीं’ यहाँ पढ़िए 

चौथी कविता: ‘रीता पेट भरूँगा कैसे’ यहाँ पढ़िए








राधाएँ तो लाख मिलीं

श्री बालकवि बैरागी

के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की दूसरी कविता







कलाकार की अन्तर्वेदना


जीवन के इस वृन्दावन की महकी-महकी गलियों में

राधाएँ तो लाख मिलीं पर, जसुदा एक न मिल पाई।


ज्यों ही मेरे वृन्दावन पर, फागुन ने डेरा डाला

त्यों ही ऐसा शोर उठा कि मान लग गई हो ज्वाला,

दल के दल तितली-भँवरों के प्यास बुझाने दौड़ पड़े

सबने पाया भाग बराबर फिर भी करते हैं झगड़े


इन कुंजों के शुचि संयम का बाँध तोड़ती, बल खाती

सरिताएँ तो लाख मिलीं पर, जमना एक न मिल पाई

राधाएँ तो लाख मिलीं.....



मुझे निमन्त्रण मिले हजारों, माखन चोरी कर जाओ

जमना तट पर चीर चुरा कर बंसी वट पर चढ़ जाओ

गागर फोड़ो, बाँह मरोड़ो, कर लो कुछ तो मनमानी

वेणु बजाओ, रास रचाओ, हमें नचाओ अज्ञानी,


मचलो-रूठो, मनो-मनाओ, मुकर-मुकर बदनाम करो

ललनाएँ तो लाख मिलीं पर श्रद्धा एक न मिल पाई

राधाएँ तो लाख मिली.....



मेरा ग्वाला वेश देखकर लाखों ने कजरी पाली

साँझ-सवेरे पंथ निहारे, ललक-ललक लट घुँघराली

लाखों अधरों ने चोरी से मेरी मुरली को चूमा है

पनघट जाते इसको सुनकर, लाखों का यौवन झूमा है


यमुना तीरे, कुंज-कुटीरे, इस अल्हड़ आवारा को

मुग्धाएँ तो लाख मिलीं पर ममता एक न मिल पाई

राधाएँ तो लाख मिलीं.....



मैं ममता का प्यासा लेकिन मेरी प्यास रही अनजानी

जो भी मिलती है, कहती है, तुम्हें पड़ेगी भूख मिटानी

किस भाषा में बात करूँ मैं, कैसे अपनी प्यास जताऊँ

कैसे भक्ष्य बनूँ मैं इनका, कैसे इनकी भूख मिटाऊँ


मुझ प्यासे को इन नंगों की इस नंगी रजधानी में

वनिताएँ तो लाख मिलीं पर वरदा एक न मिल पाई

राधाएँ तो लाख मिलीं.....



यह सच है, मैं आँसू पीकर, साँसों को बहला लेता हूँ

आतप, आकुल प्राण पपीहे को समझा-सहला लेता हूँ

कहीं किसी का दर्द मिला तो अंजुरी भरकर पी लेता हूँ

बन्दीगृह का परबस जीवन जैसे-तैसे जी लेता हूँ


इस कारा में आत्म शान्ति के अधिवेशन की अध्यक्षा-

विपदाएँ तो लाख मिलीं पर, सुखदा एक न मिल पाई

राधाएँ तो लाख मिलीं.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963





कविता संग्रह ‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह ‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिल जाएँगी

बाल-गीत संग्रह ‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

मालवी कविता संग्रह  ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  




तन को तो मैं समझा लूँगी

श्री बालकवि बैरागी

के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की पहली कविता






                तन को तो मैं समझा लूँगी

                मन समझाने तुम आ जाओ

यूँ न समझो पग न उठेंगे, छलिये क्या फिर  दुहराऊँ

पग संचालित हैं नयनों से, तुमको कैसे समझाऊँ

                नैन मिला कर भी तो देखो

                ना न कहो, लो पलक उठाओ

                                    तन को तो मैं.....


मन ने मीत बना कर तुमको पाया कुछ भी सार नहीं है

तड़फाते हो, तरसाते हो, फिर भी तुमसे रार नहीं है

                जिसने तुमको मीत कहा है

                उससे कुछ तो प्रीत निभाओ

                                    तन को तो मैं.....


मेरी गली के दो शूलों से, इतने तो मत घबराओ

जग की लछमन रेखाओं से प्रियतम तुम मत  सकुचाओ

                सौ सागर मैं कूद पड़ूँगी

                तुम तो बस दो पग आ जाओ

                                    तन तो तो मैं.....


केवल मेरा मन प्यासा है, तन को तिल भर प्यास नहीं है

इस पिंजरे के पंछी को अब साँसों पर विश्वास नहीं है

                ऐसा याचक फिर न मिलेगा

                ओ दाता! यूँ मत तरसाओ

            तन को तो मैं.....


मरघट में तो आओगे ही, अच्छा है यूँ ही आ जाओ

नैन खुले हैं तब तक मुझको, लाल चुनरिया ओढ़ा जाओ

                रो रो कर जीवन बीता है

                शुभ घड़ियों में अब न रुलाओ

                                    तन को तो मै.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963



पूर्व कथन - ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले’ यहाँ पढ़िए

दूसरी कविता: ‘राधाएँ तो लाख मिलीं’ यहाँ पढ़िए



‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले



दादा श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह अपने ब्लॉग पर देने की शुरुआत कर रहा हूँ। जो संग्रह मुझे मिल गए हैं, उन्हें एक के बाद एक, यहाँ देना जारी रखूँगा। उनके बाद जैसे-जैसे संग्रह मिलते जाएँगे, उनकी कविताएँ देता रहूँगा।

शुरुआत ‘दरद दीवानी’ से कर रहा हूँ।

‘दरद दीवानी’ दादा श्री बालकवि बैरागी का पहला काव्य संग्रह है। इसका प्रकाशन वर्ष किताब में कही नहीं दिया गया है। लेकिन डॉक्टर चिन्तामणिजी उपाध्याय की भूमिका में ‘नव वर्ष 2020’ लिख हुआ है। यह विक्रम संवत की तिथि है। जानकारों, मित्रों से तलाश किया तो इसकी तारीख 26मार्च 1963 निकली। 

यदि मार्च 1963 को ही इसका प्रकाशन वर्ष मान लें तो उस समय दादा की अवस्था 32 वर्ष और डेढ़ महीना थी। जाहिर है कि ये कविताएँ इस उम्र से पहले की लिखी हुई हैं। ये कविताएँ दादा की, आज की छवि से शायद कुछ अलग ही छवि प्रस्तुत करे। इसीलिए मुमकिन है, दादा के अधिसंख्य प्रशंसकों को ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ चौंकाएँ भी और असहज भी करें। लेकिन यदि आज से 58 वर्ष पहले के काल-खण्ड के साहित्यिक वातावरण, सामाजिक परिस्थितियों, दादा की वय और पारिवारिक दशा को ध्यान में रखते हुए इन्हें पढ़ा जाएगा तो इन कविताओं का अधिक आनन्द मिल सकेगा।

महाविद्यालयीन शिक्षा में दादा दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी रहे थे। वे दर्शन शास्त्र के ख्यात प्राध्यापक श्री ग. वा. कविश्वर साहब के प्रिय विद्यार्थी थे। कविश्वर साहब उस समय शासकीय महाविद्यालय मन्दसौर के प्राचार्य थे। दादा पर उनका और दर्शन शास्त्र का पर्याप्त प्रभाव रहा। सम्भवत इसी कारण, इस संग्रह की कुछ कविताएँ, दार्शनिकता से सराबोर हैं।

यह कविता संग्रह दादा ने मेरी भाभीजी श्रीमती सुशील चन्द्रिका बैरागी को अर्पित किया है। किन्तु अर्पण में उनका नामोल्लेख न कर, ‘पिया’ उल्लेखित किया है। दादा, भाभी को आजीवन इसी सम्बोधन से पुकारते रहे। इस सम्बोधन के एक विरोधाभास की ओर शायद कभी, किसी का ध्यान गया हो। व्याकरण के लिहाज से ‘पिया’ पुल्लिंग है। यह तो सम्भव नहीं लगता कि यह बात दादा को मालूम नहीं रही हो। दो-एक बार मैंने यह ‘रहस्य’ जानना चाहा तो दादा ने मुझे ‘ऐसी फालतू बातों’ में न उलझने की सलाह दी।

इस संग्रह में दादा की सैंतीस कविताएँ हैं। सारी कविताएँ गीत-विधा में, गेय हैं जिन्हें संगीतबद्ध किया जा सकता है।

ब्लॉग पर पोस्टों/पन्नों की संख्या बढ़ाने से बचने के लिए मैं, संग्रह से जुड़ी सूचनाएँ, समर्पण, चिन्तामणिजी लिखित भूमिका, दादा का वक्तव्य और कविताओं से पहले दिए गए दो मुक्तक इसी पोस्ट/पन्ने पर दे रहा हूँ। 

कल से अगले सैंतीस दिनों तक, प्रतिदिन एक कविता ब्लॉग पर प्रकाशित होती रहेगी।

- विष्णु बैरागी

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समर्पण

मेरी उस खामोश ‘पिया’ को -

जिसने दर्द पिया उमर भर

              -बालकवि बैरागी

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मुक्तक

आज भले ही पत्थर बनकर तू मुझको ठुकरायेगी

मुझे छोड़ कर किसी और के सपनों में बस जायेगी,

तुझसे जितना हो तू करले, लेकिन ये भी सुन लेना

मैं तो परघट तक ही आया तू मरघट तक आयेगी।

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मेरी विवशता

पैदा तो हो गए अभागे, कब रुकते ये मेरे रोके

दे दूँ इनको देश निकाला, आये ऐसे लाखों मौके

लेकिन तुम ही फिरे घूमते, इनको होठों से लिपटाये

बुरा न मानो, सच कह दूँ, मुझसे ज्यादा तुमने गाये


आज तोड़ दो, अभी तोड़ दो, बेशक इनसे नेह पुराना

लेकिन यूँ तो मत कतराओ, मत सीखो यूँ आँख चुराना

यदि तुम मेरे गीत न गाओ, कोई हर्ज नहीं मत गाना

                                                 -बालकवि बैरागी

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आभार -

केवल चार महानुभावों का जिन्होंने ‘दरद दीवानी’ को यह रूप दिया और मुझे पहली बार प्रकाशन का पनघट दिखलाया।

श्री भानु भाई त्रिवेदी, बालाघाट (म. प्र.) 

श्री शम्भू नेमा, बालाघाट (म. प्र.) 

सुश्री छाया उपाध्याय

और

श्री डॉ. चिन्तामणि उपाध्याय, उज्जैन (म. प्र.)

श्री शम्भू दादा एवं छाया बहिन ने मुझे भानु भाई तक पहुँचाया और भानु भाई ने ‘दरद दीवानी’ के गरीब गीतकार का दर्द समझा तथा ये गीत आप तक पहँचाने के लिये सरस्वती और लक्ष्मी का संयोग जुटाया। दादा श्री चिन्तामणिजी ने इस पुस्तक की भूमिका लिखी। मैं जानता हूँ कि उनके पास समय की कमी है किन्तु दर्द की नहीं।

आपके सिवाय और कोई दिखाई नहीं पड़ता जिसका कि मैं आभार प्रदर्शित करूँ। बस।

                                                                                              - बालकवि बैरागी


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भूमिका -

यह दर्दायन

‘बालकवि बैरागी’ अपनी सहज प्रवृत्ति से ‘‘मालवी’’ के कवि हैं। और मालवी के माध्यम से ही जन-हृदय को स्पर्श कर भूमि की सार-सत्ता को उन्होंने सजीव रूप प्रदान किया है। आंचलिक भाषाओं में अपनी अनुभूतियों को, जन और संस्कृति की समस्त चेतनाओं को, व्यक्त करने में काव्य का क्षेत्र संकुचित हो जाता है, यह हम नहीं मानते। गर्व के साथ यह कहा जा सकता है कि अपनी मातृभाषा से संबंधित एवं संचित चेतना को कवि ने उसी मर्म के साथ राष्ट्रभाषा-हिन्दी में उतारने का प्रयास किया है और वह सफल भी हुआ है। इसके लिए मुझे प्रमाण या प्रशस्ति-पत्र देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। देश के किसी भी कोने में जिस किसी व्यक्ति ने एक बार ही ‘बालकवि’ को सुना है वह बरबस ही उसकी प्रौढ़ काव्य-साधना की ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सका होगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।

आजकल साहित्य के क्षेत्र में काव्य सृजन की साधना एवं उसकी प्रेषणीयता का एक ज्वलन्त प्रश्न उपस्थिति होता है। काव्य का केवल प्रकाशन या मुद्रण ही पर्याप्त नहीं होता। कवि के हृदय में उर्मिल भावनाओं ने संवेदन की आंच पर तपकर, निखर कर जो तेजस्वी रूप धारण किया है, उसकी अनुभूति एवं रस की प्रतीति में मुद्रण की अपेक्षा वाणी का माध्यम ही अधिक सशक्त होता है। इस शक्ति परीक्षा में ‘बालकवि बैरागी’ पूर्ण रूप से सौ टंच खरे उतरने के बाद यदि अपनी गेय भावनाओं को लिपिबद्ध कर पुस्तकाकार करने के लिए तत्पर होते हैं तो उनका यह प्रयास रस-पिपासुओं के लिये कवि की कण्ठ-माधुरी से सिक्त वाणी की तरह आनन्द प्रदायक ही होगा।

‘दरद-दीवानी’ कवि की गेय रचनाओं का प्रथम संकलन है जो आपके हाथों में है। वैसे कवि की काव्य-साधना में राष्ट्रीयता का उद्दाम आवेग, पीड़ित मानवता की छटपटाहट, करुणा एवं प्यार और मनुहार की गुदगुदी ये सभी भावनाएँ उर्मिल हुई हैं, किन्तु जहाँ तक जोश की बात है उसमें वह शक्ति नहीं जो करुणा प्लावित हृदय को उस स्थिति तक ले जाय जहां कवि और श्रोता, भक्त और भगवान, प्रेमी और प्रेय एकाकार हो जायें। पीड़ा और दर्द का प्रसंग प्रणय के क्षेत्र में केवल वियोग श्रृंगार की रूढ़ियों को ही यदि छूकर रह जायेगा तो उसका संवेदनशील मार्मिक प्रभाव सर्व व्यापी नहीं बनेगा। और यही कारण है कि आदिकवि की वाणी से लेकर आज तक मानवीय संवेदनाओं को जगाने में जितने भी कवि समर्थ हुए हैं उनकी व्यक्तिगत, लौकिक आधार से प्रेरित भाव-चेतना, समष्टि की अनुभूतियों से घुल मिलने पर ही अपना शाश्वत प्रभाव स्थापित कर सकी हैं। वस्तुतः वही कवि या काव्य-साधक पूजा गया है जो जीवन और जगत की समस्त अनुभूतियों को पीकर, अपनी व्यष्टि सत्ता में उनको समेट कर फिर समाज को उन्मुक्त होकर  दरद-दीवाना बनानने की कला में समर्थ हुआ हो। यह बात दूसरी है कि जहाँ लौकिक भावनाओं का उदात्तीकरण होता है वहाँ काव्य के क्षेत्र की भावभूमि कुछ आध्यात्मिक हो उठती है। लेकिन जिस आध्यात्मिक प्रेम की ओर हमारे मध्ययुगीन संत और कवि उन्मुख हुए उनकी अनुभूति का आधार भी तो लौकिक ही था। प्रेम की मधुर पीर के दीवाने हिन्दी के सूफी कवि, या कृष्ण की प्रेम-दीवानी चिर चिरहिणी राधा की प्रतिमूर्ति मीरा, या परलोेक के प्रियतम के विरह में छटपटाती हुई महादेवी, इन सब में जिस दर्द की, जिस व्यथा की, जिस तड़पन की व्यंजना हुई है, वह चाहे काव्य और भक्ति के क्षेत्र में जो भी स्थान रखे, भौतिक पीड़ा से त्रस्त साधारण मानव को अपनी उदात्त स्थिति में ही आकर्षित कर पाती है। इस पीड़ा को स्वयं में जगाना, और जगी हुई पीड़ा को उभार कर व्यक्त करना काव्य-कला के लिए खिलवाड़ मात्र नहीं है। ‘बालकवि’ दर्द के इस मर्म को समझता है। और इसीलिए:-

..... ‘द्वार द्वार से दर्द मांगकर अपने घर में लाना होगा’....

.....‘पीड़ाओं के सौ-सौ सागर मैंने हँस-हँस पी डाले’ .....

.........‘कहीं किसी का दर्द मिला तो अंजली भर कर पी लेता हूँ’.....

आदि भावना-प्रवण पंक्तियाँ केवल सामान्य उक्तियाँ मात्र ही नहीं हैं, किन्तु उनमें कवि की आत्मा का रस घुलमिल गया है और यही कारण है। कि कवि के गीत दूसरों के हृदय में मानवीयता संवेदनशील तत्व प्रस्थापित करने में पूर्ण समर्थ हैं। 

यह प्रसन्नता की बात है कि कवि आजकल काव्य-क्षेत्र में व्याप्त आडम्बर एवं व्यक्ति-प्रदर्शन की प्रवृत्ति से बच सका है। आज जिस तरह की गद्यात्मक रचनाएँ ‘नई कविता’ के नाम से चर्चा का विषय बनी हुई हैं, तब कवि के इन गीतों को श्रेणी विभाजन की दृष्टि से क्या स्थान मिलेगा यह कहना कठिन है, किन्तु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जिन तथ्यों को लेकर नई कविता का आधार खड़ा होता है वह सब ‘दरद-दीवानी’ के इन गीतों में मिल जायेगा। प्रस्तुत संग्रह के गीतों की जो विशेषता है वह मध्ययुगीन काव्य की तरह साधारणीकरण की क्षमता है। जो प्रायः आज के काव्य में नहीें मिल पाती। कवि और श्रोता की तदात्मक स्थिति कवि की रससिद्धि होती है। बैरागी ने भाव, कला और संगीत से सम्पृक्त इन गीतों में जिस दर्द को जगाया है उसमें लौकिकों को अपने प्रणय के क्षेत्र की अडिग निष्ठा मिलेगी तो दूसरी ओर संत और भक्त प्रवृत्ति के लोगों को कबीर और मीरा के भाव, कला के भी दर्शन होंगे। किन्तु मेरी ऐसी धारणा है कि ‘बालकवि बैरागी’ सचमुच इसी मिट्टी का कवि है और उसमें यत्र तत्र कुछ ‘उस पार’ की, ‘क्षितिज’ की, ‘कफन’ और ‘चदरिया’ की जो बातें आ गई हैं वे किन्हीं विशिष्ट क्षणों की देन ही कही जायेंगी। कुछ गीत अवश्य ऐसे हैं जिनमें बालकवि ‘‘प्रौढ़’’ दिखाई देते हैं। यह प्रौढ़ता बुढ़ापे का लक्षण है। अभी वे साधना के ‘इस पार’ ही रहें। यह तो दर्द जगाने का श्री गणेश है। आशा है दर्द के अलख जगाने में कवि साहित्य को बहुत कुछ दे सकेगा।

                   - ‘कबीरा सोई पीर है जो जाने पर पीर’

                                                                                                                                       -चिन्तामणि उपाध्याय

नव वर्ष 2020

माधव कालेज

उज्जैन (म. प्र.)


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संग्रह से जुड़ी सूचनाएँ -

दरद दीवानी’
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट (म. प्र.)
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिण्टरी, इन्दौर
मूल्य - दो रुपये
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पहली कविता: ‘तन को तो मैं समझा लूँगी’ यहाँ पढ़िए 


‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

मालवी कविता संग्रह  ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिल जाऍंगी 





बब्बू के मुँह से बोली भारत की असली ताकत

यह इसी तेरह मार्च की बात है। अपराह्न लगभग तीन बजे बब्बू को फोन किया - ‘दुकान कतरी वजाँ तक खुली रेगा?’ (दुकान कितनी बजे तक खुली रहेगी?) जवाब में उसकी आवाज से लगा, उछलकर बोल रहा हो - ‘अरे! आप! मूँ तो समझो थो के आप मने ने म्हारी दुकान ने भूली ग्या। दुकान कित्ती बजे तक खुली रेगा या छोड़ो। आप तो वताओ, आप कितरी वजाँ पधारोगा? आप आओगा तब तक दुकान खुली रेगा।’ (अरे! आप! मैं तो समझ बैठा था कि आप मुझे और मेरी दुकान को भूल गए हैं। दुकान कितनी बजे तक खुली रहेगी यह बात छोड़ो। आप तो बताओ, आप कितनी बजे पधारेंगे? आप आएँगे तब तक दुकान खुली रहेगी।) सुनकर मैं झेंप गया। कहा - ‘साढ़े सात वजाँ के आसपास अऊँगा।’ (साढ़े सात बजे के आसपास आऊँगा।) खनकती खुश-आवाज में जवाब आया - ‘पधारो! पधारो! मूँ आपकी वाट नारूँगा।’ (पधारिए! पधारिए! मैं आपकी बाट जोहूँगा।)

बब्बू याने लक्ष्मीनारायण सोलंकी। कोई तीस बरसों से मेरे बालों की देखरेख का (और मुझे ‘ढंग-ढांग का आदमी’ दिखाए रखने का) जिम्मा उसी ने ले रखा है। सैलाना मार्ग पर,  राम मन्दिर की दुकानों में से एक में उसका ‘जयश्री हेयर कटिंग सेलून’ है। बरसों पहले मैंने, ‘उपग्रह’ में, अपने स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में उस पर लम्बा आलेख लिखा था। तब मैंने लिखा था कि ईश्वर की कृपा और उसका व्यवहार उसकी ऐसी परिसम्पत्तियाँ हैं कि उसे ग्राहक की बाट नहीं जोहनी पड़ती। प्रतिदिन शटर उठाते समय एक न एक ग्राहक उसकी प्रतीक्षा में पहले ही खड़ा मिलता है।

लेकिन कोरोना-काल ने काफी-कुछ गड़बड़ा दिया। उसकी चपेट से जब अच्छे-अच्छे नहीं बच पाए तो भला बब्बू कैसे बच पाता? सबसे पहले तो सख्त तालाबन्दी ने घर में बाँध कर रख दिया और दूसरे, लोगों में दहशत भर दी। दूसरों की नहीं खुद अपनी कहूँ तो मैं चाह कर भी बब्बू की दुकान पर नहीं जा सका। अव्वल तो  मैं ही डरा हुआ और दूसरे, भयभीत बच्चों की टोका-टाकी। कभी बेटे वल्कल से, कभी सहायक नवीन भाई शर्मा से, कभी किरायेदार प्रतीक शिन्दे से, कभी पड़ौसी गुड्डु (अक्षय छाजेड़) से, घर पर ही कटिंग करवाता रहा। तालाबन्दी में जब आंशिक छूट मिलनी शुरु हुई तो बब्बू ने दो बार फोन किया। दोनों ही बार मैंने इस तरह जवाब दिया कि बब्बू ने फौरन भाँप लिया। पहली बार तो वह कुछ नहीं बोला लेकिन दूसरी बार हँस कर बोला - ‘अरे! सा‘ब! कटिंग मत कराजो पण दर्शन देवा ने पधारो। आपकी शकल देख्याँ ने घणा दन वेईग्या।’ (अरे! साहब! कटिंग मत कराइएगा लेकिन दर्शन देने पधारिए। आपकी शकल देखे बहुत दिन हो गए हैं।) जवाब में मैं ‘हाँ, हूँ’ करके और ‘हें! हें! कसी वात करी र्यो यार तू? थारे पास नी अऊँगा तो कटे जऊँगा? थारे वना म्हारो काम चालेगा? अऊँगा-अऊँगा। जल्दी अऊँगा।’ (कैसी बात कर रहा यार तू? तेरे पास नहीं आऊँगा तो कहाँ जाऊँगा? तेरे बिना मेरा काम चलेगा? आऊँगा-आऊँगा। जल्दी आऊँगा।)

लेकिन यह ‘जल्दी’, जल्दी नहीं, पूरे पौने चौदह महीनों के बाद आया। 19 जनवरी 2020 को मैं बब्बू की दुकान पर गया था। उसके बाद अब, 13 मार्च 2021 को गया।

मैं पहुँचा तो जी धक् से रह गया। दुकान में वह अकेला था। तीस बरसों में मैंने पहली बार बब्बू को ग्राहक की प्रतीक्षा करते देखा। मुझे उदासी ने घेर लिया लेकिन बब्बू खुश था। छलकती आत्मीयता और पुरजोर ऊष्मा से उसने मेरी अगवानी की। मैं कुर्सी पर बैठा और वह शुरु हो गया। मैं उससे बहुत कुछ जानना चाहता था लेकिन मेरे बोल नहीं फूट रहे थे। बातों का सिलसिला उसी ने शुरु किया।

मालूम हुआ कि तालाबन्दी के शुरुआती तीन महीने तो घर में ही कटे। दुकान की झाड़ू भी नहीं लग पाई। उसके बाद दुकान खुली तो ग्राहक का नाम-ओ-निशान नहीं। छुट-पुट ग्राहकी शुरु हुई तो हर ग्राहक डरा हुआ। सुरक्षा उपायों के प्रति अतिरिक्त और अत्यधिक चौकस। पढ़े-लिखे, ज्ञानी-बुद्धिजीवी ग्राहक सबसे ज्यादा डरे हुए मिले। औसत-मध्यमवर्गीय, कम पढ़े-लिखे, श्रमजीवी ग्राहक बेधड़क आए। धीरे-धीरे ग्राहक संख्या बढ़ने लगी। लेकिन अब, साल भर बाद भी ग्राहकी आधी ही है।

मेरी कटिंग वह सामान्यतः बारह-पन्द्रह मिनिट में निपटा देता था। लेकिन इस बार उसने लगभग आधा घण्टा लिया। उसकी बातों से लग रहा था मानो वह अपनी बात सुनाने के लिए मौका और श्रोता तलाश कर रहा हो। उसकी बातों के जवाब में मेरे पास कुछ नहीं था। सहानुभूति-सांत्वना के दो बोल भी मेरे मुँह से नहीं फूट रहे थे। वस्तुतः उसका प्रत्येक वाक्य, उसकी हर बात मुझे अवाक्, निःशब्द कर रही थी। उसके स्वरों में निराशा, उदासी, थकान, किसी के प्रति शिकायत, उलाहना कुछ नहीं था। मुझे लगता रहा कि उससे सहानुभूति जता कर, उसे सांत्वना दे कर मैं उसकी अवमानना कर दूँगा। मैं चुप ही बना रहा।

चलते-चलते, उसकी प्रशंसा करते हुए, उसका हौसला बढ़ाने की मंशा से मैंने कहा - ‘थने अणी तरे देखी ने, थारी वाताँ हुणी ने हिवड़ो ठण्डो वेईग्यो बब्बू! हिम्मत राखजे। घबराजे मती। रामजी सब हऊ करेगा।’ (तुझे इस तरह काम करते देख कर, तेरी बातें सुन कर जी को बड़ी ठण्डक मिली बब्बू! हिम्मत रखना। घबराना मत। ईश्वर सब अच्छा करेगा।)

जवाब में बब्बू ने जो कहा, उसने मुझे ठेठ जड़ों तक हिला दिया - ‘सई क्यो आपने! रामजी सब हऊ ई ऽ ज करेगा। पण सा‘ब! आपका-म्हारा जसा लोग तो यो झटको झेली ग्या। मालम नी, गरीबाँ पर कई गुजरी वेगा। रामजी वणा की राखे।’ (आपने सही कहा! ईश्वर सब ठीक ही करेगा। लेकिन साहब! आपके-मेरे जैसे लोग तो यह झटका सहन कर गए। मालूम नहीं, गरीबों पर क्या गुजरी होगी। ईश्वर उनकी रक्षा करे।)

बब्बू की बात सुनकर मेरे पैर मानो जमीन में गहरे धँस गए। मन कैसा हो गया, यह कहने के लिए मेरे पास, बीस दिनों के बाद, अब तक भी उपयुक्त और समुचित शब्द नहीं है।

मैं उसकी दुकान से चला तो, लेकिन ज्यादा दूर तक नहीं जा पाया। आँखें बरसने लगीं। रास्ता दिखना बन्द हो गया। सौ-पचास कदम, चेतक सेतु के मुहाने पर स्कूटर खड़ा कर, देर रोता रहा।  

बब्बू की यह बात ही भारत की वास्तविक शक्ति है - अपने से कमजोर, कमतर की चिन्ता करना। छोटी सी दुकान में, सीमित साधनों-संसाधनों वाला साधारण सैलून चला रहा बब्बू, आर्थिक सन्दर्भों में कहाँ खड़ा होगा, यह कल्पना आप-हम आसानी से कर सकते हैं। लेकिन विपत्ति काल में उसे अपने से कमतर, कमजोर की चिन्ता रही।   यह चिन्ता भारत का कोई ‘बब्बू’ ही कर सकता है - कोई धन कुबेर नहीं।

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मेरी कटिंग करता हुआ बब्बू


घर पर अपनेवालों से कटिंग करवा कर इस स्परूप में रहा मैं


 

यह पोस्ट आज, भोपाल से प्रकाशित हो रहे दैनिक ‘सुबह सवेरे’ में छपी


कुत्ते की जगह जज साहब

यह पोस्ट 23 अगस्त 2020 को फेस बुक पर प्रकाशित हुई थी। इन्दौरवाले मेरे आत्मन प्रिय धर्मेद्र रावल को इसकी जानकारी, कुछ दिनों के बाद मिली - अपने एक सजातीय से। धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी इन दिनों अपने बेटे-बहू समन्वय-आभा के पास बेंगलुरु में है। पढ़ने के बाद धर्मेन्द्र ने मुझे बेंगलुरु से फोन पर हड़काया - ‘तुमने यह कैसे मान लिया कि सबके सब फेस बुक पर हैं? अभी भी अनगिनत लोग ऐसे हैं जो फेस बुक का फेस देखना पसन्द नहीं करते। वे अभी भी ब्लॉग से यारी निभा रहे हैं। इसलिए हे सज्जन! अपनी पोस्टें फेस बुक पर भले ही दो लेकिन उन्हें ब्लॉग पर देना मत भूलो। बल्कि मेरा तो कहना है कि पहले ब्लॉग पर दो और फिर फेस बुक पर दो।’

सो, धर्मेन्द्र की डाँट के परिपालन में यह पोस्ट ब्लॉग पर प्रस्तुत है।


यदि कोई दैवीय चमत्कार नहीं हुआ तो, ख्यात वकील प्रशान्त भूषण, सोमवार 24 अगस्त 2020 को सर्वाेच्च न्यायालय की अवमानना करने के अपराध में सजायाफ्ता हो कर इतिहास में दर्ज हो जाएँगे। 

यही सब सोचतत सोचते-सोचते मुझे एक और जज साहब याद आ गए। ये जज साहब भी मेरे पैतृक नगर मनासा में ही पदस्थ थे। जज साहब के मिजाज से जुड़ा यह किस्सा-ए-हकीकत भी मेरे स्कूली दिनों का, याने वर्ष 1964 के आसपास का है। ‘राव लोणकर’ नामधारी ये जज साहब, पारम्परिक जजों से एकदम हटकर थे। जज लोग सामान्यतः सामाजिक सम्पर्कों से परहेज करते हैं। लेकिन राव लोणकर साहब अति सामाजिक थे। वे मेरे कस्बे की सड़कों पर पैदल चलते भी मिल जाया करते थे। लोगों से बतियाना उन्हें अच्छा लगता था। ‘हँसमुख’ से कहीं आगे बढ़कर हँसोड़ और भरपूर परिहास प्रेमी। बिना लाग-लपेट, निश्छल, निष्कपट भाव से बतियाते। मुझे नहीं पता कि वे मालवा अंचल से थे या नहीं किन्तु मालवी सहजता से समझ लेते थे। वे खुद पर हँसने के दुर्लभ साहस के धनी थे। खूब मस्त-मौला।  किन्तु कस्बे से इस आत्मीयता का रंचमात्र प्रभाव भी उनके फैसलों पर कभी, किसी को अनुभव नहीं हुआ। वे इस मामले में ‘विदेह’ जैसे बने रहे। 

मालवा के ग्रामीण अचंलों में ‘बकरियाँ बैठाना’ भी एक धन्धा है। जब हम पशु-पालन की बात करते हैं तो हमें सामान्यतः केवल गायें-भैंसें और इनके तबेले ही याद आते हैं। लेकिन कुछ लोग बकरियाँ भी पालते हैं। ये भी दूध का ही धन्धा करते हैं। गायों-भैंसों को तबेलों में रखा जाता है तो बकरियों को बाड़े में। धोबी मोहल्ले में, हमारे घर के ठीक सामने जीवा काका पुरबिया का, बकरियों का बाड़ा था। बाड़े के सामने, सुबह-सुबह, लोटे-भगोनियाँ लिए दूध लेनेवाले प्रतीक्षारत लोगों को मैंने बरसों देखा है। जिन दुधमुँहे शिशुओं के मुँह में छाले हो जाते थे (जिसे मालवा में ‘मुँह आना’ कहा जाता है) उन शिशुओं के मुँह में बकरी के ‘थन’ (स्तन) से सीधे दूध की धार डलवाना देसी ईलाज होता है। ऐसे शिशु लिए कोई न कोई माँ-बाप भी रोज ही नजर आते थे। उन शिशुओं के मुँह में धार डालते-डालते जीवा काका कभी-कभी मुझे भी आवाज लगा देते और सीधे बकरी के थन से मुझे भरपेट दूध पिला देते। इस तरह से दूध पीने के बाद पूरा मुँह सफेद, मीठे और गरम-गरम झाग से भर जाता था। दूध का वह स्वाद, वह ऊष्मा और उस तरह दूध पीने का आनन्द अवर्णनीय है। उसे तो केवल अनुभव की किया जा सकता है। मैं जब यह बात लिख रहा हूँ तो मुझे वह गरम-गरम दूध का झाग और उसकी मिठास अपने होठों पर अनुभव हो रही है।

ऐसे कई बकरीपालक, किसानों के खेतों में रातों को अपनी बकरियाँ बैठाने का धन्धा करते थे। बकरियों की मिंगनियों का खाद खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाता है। गर्मियों के मौसम में खेतों में कोई काम नहीं होता। सो, गर्मियों में बकरियाँ बैठाने का धन्धा भरपूर चलता था। अपने खेत में बकरियाँ बैठाने के लिए किसान, बकरीवाले को तयशुदा रकम चुकाता है। अपनी बकरियाँ खेत में बैठानेवाले बकरीपालक भी, बकरियों की चौकीदारी के लिए, बकरियों के साथ रात खेत में गुजारते हैं।

एक बार ऐसा हुआ कि एक बकरीवाले की कुछ बकरियाँ चोरी हो गईं। इस प्रकार का यह पहला मामला था। सबको जिज्ञासा हुई। चोर यदि मनासा से बाहर का है तब तो कोई बात नहीं। लेकिन यदि मनासा का ही हुआ तो बकरियों को कब तक छिपा सकेगा? उन्हें बन्द भी कर दिया जाए लेकिन मिमियाने से तो रोका नहीं जा सकेगा! बकरीवाले ने थाने में रिपोर्ट लिखवाई। 

पुलिस हरकत में आई। एक संदिग्ध हिरासत में लिया गया। मुकदमा राव लोणकर साहब की अदालत में पेश हुआ।

शुरु की दो-तीन तारीखें तो कागजी-खानापूर्ति के नाम पर निकल गईं। लेकिन जल्दी ही वह दिन आ गया जब बकरीवाले के बयान होने थे।

इससे पहले कि किस्सा आगे बढ़े, एक शब्द युग्म ‘म्हारो बेटो’ से आपका परिचय जरूरी है। इसका शाब्दिक अर्थ है - मेरा बेटा। लेकिन ये ‘म्हारो बेटो’ लोक प्रचलन में तकिया कलाम भी है तो किसी को इज्जत देने के लिए तो कभी किसी को हड़काने के लिए, किसी की खिल्ली उड़ाने के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है। 

आज की स्थिति तो मालूम नहीं किन्तु तब मनासा कोर्ट का कमरा बहुत बड़ा नहीं था। मुश्किल से आठ-दस लोग आ सकते थे। बहुत हुआ तो पन्द्रह-बीस। इससे अधिक नहीं। मुकदमा शुरु हुआ। फरियादी बकरीवाला कटघरे में आया। उसे गीता की सौगन्ध दिलाने की औपचारिकता पूरी की गई। सरकारी वकील ने उसका नाम-पता पूछ कर कहा - ‘हाँ तो हंसराज! खुल कर बताओ कि क्या हुआ।’ (‘हंसराज’ काल्पनिक नाम है।) दोनों हाथ जोड़कर हंसराज वकील साहब से बोला - ‘माराज.....’ (‘माराज’ याने ‘महाराजा’) वह आगे कुछ बोलता उससे पहले ही सरकारी वकील ने टोका - ‘मुझे नहीं, जज साहब को बताओ।’ 

करबद्ध मुद्रा और भीत स्वरों में हंसराज ने मालवी बोली में कहना शुरु किया - ‘माराज! म्हारी बकरियाँ चोरी वेईगी।’ (साहब! मेरी बकरियाँ चोरी हो गईं।) सरकारी वकील ने फिर टोका - ‘यह तो सबको मालूम है कि तुम्हारी बकरियाँ चोरी हो गई हैं। लेकिन तुम भी तो वहाँ थे! फिर कैसे चोरी हो गईं? खुल कर बताओ।’ 

हंसराज ने पहले वकील साहब को देखा, फिर जज साहब को। उसके बाद पूरे कमरे में नजर दौड़ाई और बोला - ‘माराज! म्हने नी मालम चोरी कसरूँ वी। म्हारे तो अबार भी हमज में नी अई री के चोरी कसरूँ वेई गी? अबे आप ई विचार करो माराज! के जशो मूँ याँ हूँ वशो को वशो वटे खेत में बेठो तको। (फिर, कमरे में बैठे लोगों की ओर इशारा करते हुए) जशा ई लोग बेठा वशी म्हारी बकरियाँ बेठी तकी। ने आप बेठा वशो म्हारो पारतू टेगड़ो बेठो! फेर भी म्हारो बेटो बकरियाँ चोरी लेई ग्यो।’ (साहब! मुझे नहीं मालूम कि चोरी कैसे हुई। मुझे तो अभी समझ नहीं आ रहा कि चोरी कैसे हो गई? अब आप ही विचार कीजिए साहब! कि जैसे मैं यहाँ हूँ उसी तरह मैं वहाँ खेत में बैठा था। जैसे (कमरे में) ये लोग बैठे हैं उसी तरह मेरी बकरियाँ बैठी हुई थीं। और साहब! जैसे आप बैठे हैं उसी तरह मेरा पालतू कुत्ता बैठा हुआ था। फिर भी ‘मेरा बेटा’ बकरियाँ चुरा ले गया।)

हंसराज की बात पूरी हुई नहीं कि राव लोणकर साहब ठहाका मारकर हँसने लगे। हंसराज की बात सुनकर और जज साहब की दशा देखकर सरकारी वकील साहब हक्के-बक्के हो गए, घबरा गए। एक पल तो उन्हें सूझ ही नहीं पड़ी कि हंसराज ने क्या कह दिया, क्या कर दिया। उन्हें लगा कि मामले का फैसला उनके खिलाफ हो गया। उन्होंने हकलाते हुए, मामले को सुधारने की कोशिश की - ‘अरे! अरे!! क्या कह रहे हो? तुम्हें पता भी है कि तुम किसके सामने बात कर रहे हो? जरा ढंग से बात......।’ 

लेकिन सरकारी वकील की, टूट-फूट की मरम्मत करने की कोशिश पर राव लोणकर साहब ने लगाम लगा दी। बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकते हुए, बोले - ‘नहीं! नहीं वकील साहब! फरियादी और कोर्ट के बीच में आप मत आइए। फरियादी को अपनी बात कहने दीजिए।’ फिर हंसराज से बोले - ‘तुम्हारी बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई। एक बार फिर से पूरी बात समझाओ।’ 

जज साहब की बात सुनकर सरकारी वकील साहब को पसीना छूट गया। लगा कि वे रो देंगे। जज साहब को जैसे ही लगा कि सरकारी वकील साहब हंसराज को समझाना चाहते हैं, उन्होंने फौरन वकील साहब को फन्दे में लिया - ‘नहीं वकील साहब। आपसे कह दिया ना कि फरियादी और कोर्ट के बीच में आप मत आओ। फरियादी को बेहिचक अपनी बात कहने दो।’ फिर हंसराज से बोले - ‘हाँ। बोलो। डरो मत। फिर से पूरी बात बताओ।’

 बेचारे हंसराज ने निरीह भाव से अपनी बात लगभग शब्दशः दुहरा दी। जैसे ही हंसराज की बात पूरी हुई, राव लोणकर साहब फिर ठठाकर हँसने लगे। वे चाहकर भी अपनी हँसी रोक नहीं पा रहे थे। उनकी दशा देख कर सरकारी वकील परेशान और हंसराज हैरान। 

जज साहब अब घुटी-घुटी हँसी हँस रहे थे। उसी दशा में बोले - ‘आज तो कोर्ट का पुनर्जन्म हो गया। अब अभी और कुछ काम नहीं हो पाएगा। अब लंच तक कोर्ट की छुट्टी।’ फिर सरकारी वकील साहब से बोले - ‘आप अगली तारीख ले लो। हंसराज का बाकी बयान तभी सुनेंगे।’

उसके बाद क्या हुआ और क्या नहीं, यह जानने की मैंने कोशिश ही नहीं की। हाँ, इतना मालूम है कि हंसराज पर कोई दण्डनीय कार्रवाई नहीं हुई। इतना और मालूम है कि बाद में यह किस्सा खुद राव लोणकर साहब ही, अपनी मित्र-मण्डली में सुनाते रहे।

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ईमानदार जज साहब

यह पोस्ट 19 अगस्त 2020 को फेस बुक पर प्रकाशित हुई थी। इन्दौरवाले मेरे आत्मन प्रिय धर्मेद्र रावल को इसकी जानकारी, कुछ दिनों के बाद मिली - अपने एक सजातीय से। धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी इन दिनों अपने बेटे-बहू समन्वय-आभा के पास बेंगलुरु में है। पढ़ने के बाद धर्मेन्द्र ने मुझे बेंगलुरु से फोन पर हड़काया - ‘तुमने यह कैसे मान लिया कि सबके सब फेस बुक पर हैं? अभी भी अनगिनत लोग ऐसे हैं जो फेस बुक का फेस देखना पसन्द नहीं करते। वे अभी भी ब्लॉग से यारी निभा रहे हैं। इसलिए हे सज्जन! अपनी पोस्टें फेस बुक पर भले ही दो लेकिन उन्हें ब्लॉग पर देना मत भूलो। बल्कि मेरा तो कहना है कि पहले ब्लॉग पर दो और फिर फेस बुक पर दो।’

सो, धर्मेन्द्र की डाँट के परिपालन में यह पोस्ट ब्लॉग पर प्रस्तुत है।


ख्यात वकील प्रशान्त भूषण के बरसों पुराने ट्वीट को लेकर सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश जो सख्ती दिखा रहे हैं उसे देख-देख कर मुझे मेरे पैतृक नगर मनासा में पदस्थ रहे एक जज साहब बहुत याद आ रहे हैं। 

बात मेरे स्कूली दिनों की है। मैंने 1964 में हायर सेकेण्डरी पास की थी। उसके बाद से मैंने मनासा छोड़ दिया। इसलिए, बात 1964 या उससे पहले की ही है। 

तब मनासा की आबादी दस-बारह हजार रही होगी। थानेदार, तहसीलदार, जज और सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ‘बड़े अफसर’ हुआ करते थे। जज साहब याने प्रथम श्रेणी न्यायाधीश जिन्हें रौबदार अंग्रेजी में एमएफसी (मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास) पुकारा जाता था। तबादले पर एक जज साहब मनासा आए। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, उनका नाम एल. के. सिंह था। कुछ वकील उन्हें सिंह साहब तो कुछ लाल साहब कहते थे।

जज साहब अकेले नहीं आए थे। अपने साथ भूचाल लाए थे। उनकी कार्यशैली ने पूरी मनासा तहसील की जमीन थर्रा दी। वकीलों में हड़कम्प मच गया। उनकी आलमारियों में बन्द, लाल-काली जिल्ददार किताबों के दिन फिर गए। वकीलों के मुंशियों का अलालपना झड़ गया। जज साहब ने वह सक्रियता और तेजी बरती कि बार रूम में कोहराम मच गया। ज्ञान और अनुभव के दम पर काम करनेवाले ‘व्यवसायियों’ (जिन्हें आप-हम ‘प्रोफेशनल’ कहते हैं) को तो उन्नीस-बीस का ही फरक पड़ा किन्तु तारीखें बढ़वाने और जमानत करवानेवाले ‘व्यापारियों’ (कमर्शियल) पर आफत आ गई। नए जज साहब का असर यह रहा कि ऐसे लोगों को अपने काले कोट का मान रखने के लिए मजबूरन वकील बनना ही पड़ा। और रहे कर्मचारी! तो उनकी तो मानो शामत ही आ गई। एक महीना बीतते-बीतते उन्हें अपना पारिवारिक बजट पुनर्नियोजित करने की नौबत आ गई। 

नये आए ये जज साहब वक्त के बड़े पाबन्द थे। कोर्ट की घड़ी उनसे अपने काँटे मिलानेे लगी थी। ये जज साहब मामले निपटाने में विश्वास करते थे। कोई मामला सामने आया नहीं कि अगली सुनवाई के लिए दो दिन बाद की तारीख दे दी। वकीलों ने रियायत माँगी तो जवाब मिला - ‘आपका-हमारा यही तो काम है! काम अपने को ही निपटाना है। और फिर, तैयारी केवल आपको थोड़े ही करनी है! मुझे भी तो तैयारी करनी पड़ेगी। आपको तो अपने-अपने मुवक्किल की ही तैयारी करनी है। लेकिन मुझे तो आप दोनों के कागज देखने हैं। मुझे तो आपसे दुगुना काम करना पड़ेगा! जब मैं कर सकता हूँ तो आप तो ज्यादा आसानी से कर सकते हैं। तारीख नहीं बढ़ेगी। परसों मिलते हैं।’ वकीलों के पास कोई जवाब नहीं होता। 

कोर्ट-कचहरी के जगजाहिर दलाल भी परेशान हो गए। उन्हें ‘सेट’ करने की हलकी सी गुंजाइश भी नहीं मिल रही थी। जज साहब की सामाजिकता अपनी कोर्ट और बंगले पर तैनात कर्मचारियों तक सीमित थी। वे कस्बे में किसी से मिलने नहीं जाते न ही किसी से अपने बंगले पर मिलते। कहीं से किसी आयोजन-समारोह का न्यौता आता तो विनम्रतापूर्वक, हाथ जोड़कर क्षमा माँग लेते। ईश्वर और पूजा-पाठ में भरपूर आस्था थी लेकिन सब कुछ अपने घर पर ही। कस्बे के किसी मन्दिर में जाते कभी नजर नहीं आए न ही घर पर कभी कोई कथा-कीर्तन, भजन-पूजन करवाया। कोर्ट और घर ही उनकी दुनिया थे। ईमानदारी का आलम यह कि यदि ईश्वर साँसों का कोटा निर्धारित करता तो जज साहब अपने कोटे से अधिक एक साँस भी न लें।

जज साहब के इस रवैये का असर भरपूर पड़ा। डेड़ बरस बीतते-बीतते हाल यह हो गया कि कोर्ट के रेकार्ड रूम की जिन फाइलों पर धूल की परतें जम गई थीं, जिनका रंग ही धूल जैसा हो गया था, जिन्हें झाड़ने पर भी धूल झड़ती नहीं थी, जिनके पन्ने पूरे कमरे में पसरे हुए थे, वे लगभग सारी फाइलें निपट कर लाल बस्तों में बँध गईं। रेकार्ड रूम में छाई सीलन की गन्ध को मानो देश निकाला दे दिया गया। पूरा कमरा नए-नकोर लाल बस्तों से सज गया। तीन-तीन पीढ़ियों के मुकदमे निपट गए। अब जज साहब के इजलास में सबसे पुराना मामला छह महीने पहले का था।

जज साहब पूरे तहसील इलाके पर छा गए थे। लोग भरे मन और खुले दिल से जज साहब को दुआएँ दे रहे थे - बरसों-बरस से कोर्ट के चक्कर जो काट रहे थे! कोर्ट और तहसील एक ही परिसर में लगती थी। तहसील दफ्तर की एक बगल में कोर्ट और दूसरी बगल में बार रूम। बार रूम के पास बनी, चाय की जिस दुकान पर कुर्सियाँ कम और बेन्चें संँकरी पड़ती थीं, वहाँ अब गिनती के ग्राहक नजर आते थे। ‘चाय-पानी’ अब खुद चाय-पानी को तरसते लगने लगे थे। 

जज साहब की वजह से लोगों में जय-जयकार और धन्धेबाजों में हा-हाकार छाया हुआ था। लोग दुआएँ कर रहे थे कि जज साहब मनासा से ही रिटायर हों जबकि परेशान प्राणियों के जत्थे रोज सामूहिक अरदास करते थे कि जज साहब से फौरन मुक्ति मिले।

किसी को पता नहीं कि इन दुआओं और प्रार्थना का असर हुआ या नहीं। तयशुदा प्रक्रिया के अधीन, निर्धारित समयावधि के बाद जज साहब का तबादला होना ही था। हो गया। पूरे तहसील इलाके में ‘कहीं खुशी, कहीं गम’ से तनिक हटकर ‘गम ज्यादा, खुशी कम’ का माहौल था। देहातों में तो मानो जवान मौत की खबर पहुँची हो।

जज साहब जिस तरह चुपचाप आये थे, उसी तरह चुपचाप चले गए। उन्होंने औपचारिक विदाई समारोह भी कबूल नहीं किया। न उनके आने पर पटाखे फूटे न जाने पर ढोल बजे। लेकिन जाने के बाद भी वे बरसों तक मनासा में बने रहे। ईमानदारी, समयबद्धता, हाथों-हाथ काम निपटाने, सबको एक नजर से देखने, एक जैसा व्यवहार करने की बात जब-जब भी होती, तब-तब जज साहब का जिक्र आता ही आता। इस सबके अलावा, चूँकि उनका तबादला ‘काले-कोस’ नहीं हुआ था, इसलिए गाहे-बगाहे उनके समाचार मिलते ही रहते थे। ‘मनासा से जाने के बाद उनका रवैया क्या है?’ इस जिज्ञासा के अधीन भी लोग उनके हालचाल तलाशते रहते थे। लेकिन कभी, कोई नया या चौकानेवाला समाचार नहीं मिला।

समय बीतने के साथ ही उनके बारे में बातें भी कम होने लगीं। उनके समाचार अब छठे-चौमासे आते थे। ‘आँख ओट - पहाड़ ओट’ की लोकोक्ति यूँ ही नहीं बनी। जज साहब अब किसी खास प्रसंग पर ही याद किए जाते थे।

सब कुछ ऐसा ही चल रहा था। एक खबर मिली कि अब वे अपने सेवाकाल की अन्तिम पदस्थापना पर हैं। संयोग ऐसा रहा कि मनासा का ही एक आदमी, किसी दूसरे सरकारी विभाग में उसी कस्बे में पदस्थ था। उसने जज साहब के बारे में खूब सुना था। सो, वह जिज्ञासा भाव से उनके बारे में जानता-सुनता रहता था। उसी ने एक दिन मनासा में वह जलजला पैदा कर दिया जैसा वे जज साहब अपने साथ लेकर मनासा में आए थे।

उसने खबर दी कि रिटायरमेण्ट से डेड़ महीना पहले वे जज साहब बर्खास्त कर दिए गए हैं। उन पर, पैसे लेकर फैसला लिखने का आरोप था जो प्रारम्भिक छानबीन में ही साबित हो गया वह भी दस्तावेजी सबूतों के दम पर।

उन जज साहब की अदालत में चल रहा एक मुकदमा अपने अन्तिम चरण में था। दोनों पक्षों की बहसें और परीक्षण-प्रति परीक्षण हो चुका था। फैसला सुनाया जाना था। लेकिन फैसला सुनाने से पहले ही जज साहब के घर छापा पड़ गया। शिकायत थी कि वे मोटी रकम लेकर अनुकूल फैसला सुनानेवाले हैं। 

छापामार दल को बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। मामले की फाइल घर में, जज साहब की टेबल पर ही रखी हुई थी। फाइल खोली तो उसमें मामले के दो फैसले लिखे हुए मिले - एक पक्ष में, दूसरा विपक्ष में। दोनों ही फैसले जज साहब की लिखावट में थे। जज साहब से मौके पर पूछताछ की गई तो पहली ही बार में उन्होंने अपना अपराध कबूल कर लिया। मामला इतना साफ, दो-टूक था कि जाँच के नाम पर खानापूर्ति ही बची थी। वह पूरी हुई और जज साहब, रिटायरमेण्ट से बालिश्त भर की दूरी पर बर्खास्त कर दिए गए।

जिस दिन खबर आई, उस दिन पूरे मनासा में और कोई बात सड़कों पर आई ही नहीं। उस दिन मैं संयोगवश मनासा में ही था। दादा जिन वकील साहब के यहाँ मुंशी थे, मैं उन्हीं, मनासा के सबसे पुराने वकीलों में अग्रणी, दीर्घानुभवीे वकील, जमनालालजी जैन वकील साहब के यहाँ बैठा था। खबर सुन कर भी वे निर्विकार ही बने रहे। पूछने पर बोले - ‘ताज्जुब मत करो। बुढ़ापे में आदमी लालची और डरपोक, दोनों हो जाता है। असुरक्षा भाव ने उन्हें लालची बना दिया। ऐसा किसी के भी साथ, कभी भी हो सकता है। वे अनोखे नहीं, अन्ततः एक सामान्य मनुष्य ही थे।’

प्रशान्त भूषणजी अपराधी करार दिए जा चुके हैं। कल, बीस अगस्त को उन्हें सजा सुनाई जानी है। मुझे रह-रह कर ‘वे जज साहब’ याद आ रहे हैं। पता नहीं क्यों।

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उन्होंने बिड़ला होने से इंकार कर दिया



चित्र 10 दिसम्बर 2017 का है। नन्दनी और हमारे छोटे बेटे तथागत के विवाह समारोह का।  

आज  दादा  की  तीसरी  पुण्य तिथि और दूसरी बरसी है - 13 मई 2018 को उनका देहावसान हुआ था। इस प्रसंग के बहाने उनसे जुड़े दो अनूठे संस्मरण।

काँग्रेस के 16 विधायकों ने, ज्योतिरादित्य सिन्धिया के कहने से दलबदल कर मध्य प्रदेश की, कमलनाथ के नेतृत्ववाली अपनी ही सरकार गिरा दी। सरकार के गिरने-गिराने के इस दौर में दादा का जिक्र कई बार आया। लेकिन सन्दर्भ एक ही था - दादा की दलीय निष्ठा।

श्री द्वारकाप्रसाद मिश्र दादा को संसदीय राजनीति में लाए थे। 1967 के विधान सभा चुनावों में उन्हीं ने दादा को मनासा विधान सभा क्षेत्र से श्री सुन्दरलाल पटवा के मुकाबले उम्मीदवार बनाया था। पटवाजी ‘दिग्गज’ उम्मीदवार थे। मतगणना के दौरान मिश्रजी पल-पल जानकारी ले रहे थे। नतीजा आया। पटवाजी हारे। दादा जीते। मिश्रजी ने दादा को फोन पर बधाई दी- ‘शाबास! तुमने वह कर दिखाया जो मैं चाहता था।’ 

मिश्रजी ने दादा को सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) का संसदीय सचिव बनाया था। उन दिनों मन्त्रि मण्डल चार स्तरीय होता था - केबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री, उप मन्त्री तथा संसदीय सचिव। राजनीतिक सम्भावनाओं वालों को उप मन्त्री और संसदीय सचिव बनाया जाता था।

मिश्राजी की सरकार की शुरुआत तो अच्छी हुई थी लेकिन निहित कारणों और मन्तव्यों से श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया ने काँग्रेस के लगभग पैंतीस विधायकों से दलबदल करवाकर वह सरकार गिरवा दी। 

काँग्रेसी विधायकों से दलबदल करवाने के लिए श्रीमती सिन्धिया के दूत दिन-रात लगे हुए थे। पहली बार विधायक बनने वाले लोग सबसे आसान ‘शिकार’ माने गए। सो, ऐसे विधायकों को सबसे पहले ‘घेरने’ का अभियान चला। इसी क्रम में दादा से भी सम्पर्क साधा गया। दादा ने पहली ही बार में दो-टूक इंकार कर दिया। दादा कहते थे - ‘वे दिन बड़े तनावभरे थे। अफवाहों ने हवाओं पर कब्जा कर लिया था। शंका और अविश्वास साँसों में घुल गए थे। सबकी निष्ठा दाँव पर लगी हुई थी। अचानक एक नाम हवा में उछलता और कइयों की साँसें अटक जातीं।’

उन दिनों सब कुछ चौड़े-धाले हो रहा था। विधायक अपने-अपने कमरों में ही थे। खरीददार, विधायक विश्राम गृह के गलियारों और मैदानों में सहजता से अपना काम करते नजर आते थे। 

दादा का दो-टूक इंकार जब श्रीमती सिन्धिया तक पहुँचा तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। दादा को वे सबसे आसान शिकारों में सबसे पहला माने हुए थीं। दादा का इंकार उनके लिए झटका तो था ही, किसी चुनौती से कम भी नहीं था। दूतों का उनका निर्देश था - ‘कोशिशें जारी रखो। कोई कंजूसी मत करना।’

गहमागहमी और भगदड़वाले उस माहौल की वह एक सामान्य सुबह थी। नित्यकर्मों से निपट कर दादा ने दाढ़ी बनाई। स्नान से पहले नाखून काटने लगे। कटे नाखूनों को कागज में समेट ही रहे थे कि श्रीमती सिन्धिया का दूत आ पहुँचा। बातें होने लगीं। प्रस्ताव ही नहीं दोहराया गया, इंकार भी दोहराया गया। दूत मनाए, दादा न माने। अन्ततः दूत ने अपना, तुरुप का इक्का फेंका - ‘राजमाताजी ने कहा है, हमारे साथ आ जाइए। आप अपना सरनेम बैरागी से बदल कर बिड़ला कर लेंगे।’ दादा को इसका अनुमान था। कटे हुए नाखूनों को दूत के सामने सरकाते हुए, अपने चिरपरिचित परिहास भाव से बोले - ‘मैंने अभी-अभी अपने नाखून काटे हैं। आपके सामने रखे हैं। इन्हें ले जाइए और अपनी राजमाताजी से कहिएगा कि मुझे खरीदने से पहले मेरे ये कटे हुए नाखून खरीद कर दिखा दें। वे नहीं खरीद पाएँगी।’  दादा का यह जवाब सुनकर दूत हक्का-बक्का रह गया था। कलदारों की थैलियों की व्यर्थता के इस भाष्य की उसने तो कल्पना भी नहीं की थी!

दादा को काँग्रेस में ही रहना था। उन्होंने अपनी निष्ठा बदलना तो दूर, रंच मात्र हिलने भी नहीं दी। मिश्राजी की सरकार गिर गई। सरकार गिरने के बाद मिश्राजी को ‘बैरागी-बिड़ला’ वाली बात मालूम हुई तो पहले तो चौंके, फिर बहुत खुश हुए। यह बात उन्होंने एकाधिक बार उल्लेखित की।

लेकिन दलीय निष्ठा की परीक्षा दादा अन्तिम बार नहीं दी थी। अविभाजित मन्दसौर जिले की काँग्रेसी गुटबाजी के चलते एक बार दादा को काँग्रेस से निष्कासित करने का अभियान सा शुरु हो गया। वास्तविकता कोई नहीं जानता था लेकिन हवाओं में निर्णायक सूचना तैर रही थी - ‘काँग्रेस से बैरागी का पत्ता कट्।’ दादा के समर्थक बेचैन। बार-बार दादा को टटोलें। लेकिन दादा इस सबसे बेखबर, बेअसर।

एक दिन वे रोज की तरह अपनी लिखत-पढ़त कर रहे थे कि मन्दसौर से एक दिग्गज काँग्रेसी नेता आए। जिला काँग्रेस कमेटी के दफ्तर में उनकी रोज की उठक-बैठक। उनकी शकल पर चिन्ता ने तम्बू तान रखा था। मौके पर मौजूद लोगों को लगा, ये नेताजी दादा का निष्कासन-पत्र लेकर आए हैं। दोनों के बीच राम-राम, शाम-शाम के बाद बात शुरु हुई तो मालूम हुआ, वे तो खुद अपनी परेशानी से मुक्त होने के लिए आए हैं। बौखलाए स्वरों में उन्होंने पूछा - ‘यार! बैरागी, इन्होंने सच्ची में तुझे काँग्रेस से निकलवा दिया तो?’ सुनकर दादा का ठहाका कमरे की छत फाड़ कर निकल गया। बोले - ‘निकाल दें तो निकाल दें। इसके अलावा ये और कर ही क्या सकते हैं? बन्दे को कई फर्क नहीं पड़ता।’ नेताजी हतप्रभ हो गए। बोले - ‘क्या बात करता है यार? फर्क कैसे नहीं पड़ता?’ अब दादा तसल्ली से बोले - ‘ये मुझे काँग्रेस से निकाल सकते हैं। लेकिन मेरे अन्दर की काँग्रेस को ये कैसे निकालेंगे? मैं तो तब भी गली-गली काँग्रेस का अलख जगाऊँगा, काँग्रेस के गीत गाऊँगा। रोक सकेंगे ये मुझे? रोकेंगे तो किस हैसियत से रोकेंगे?’ फिर बेहद भावुकता और संजीदगी से बोले - ‘इनके लिए काँग्रेस एक पार्टी है। लेकिन मेरे लिए तो माँ है। ये अपनी पार्टी चलाएँ। मैं अपनी माँ की देखभाल करूँगा।’ 

नेताजी अभी अचकचाए हुए थे। उनकी शकल देख कर दादा ने कहा - ‘आप फिकर छोड़ो। ठहाके लगाओ। कुछ नहीं होगा। कैफ भोपाली का शेर सुनो -

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो
आँधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा

...तो भैया! बन्दा तो फूल से लिपटी हुई तितली है। कह देना उनसे।’ नेताजी हौसलाबन्द हो लौट गए। दादा के निष्कासन के अभियान का गर्भपात हो गया। 

आज दादा की दूसरी बरसी है। दादा आज होते तो क्या करते? कुछ नहीं! तब दादी को नाखून भिजवाए थे। अब पोते को भिजवा देते और कहते - ‘मुझे नहीं बनना बिड़ला।’
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