भेस से धर्म रक्षक काम से धर्म बैरी

त्रिपोलिया गेट से घर लौट रहा था। रास्ते में उत्तमार्द्धजी का फोन आया - ‘पपीता लेते आईएगा।’ मैं असहज हो जाता हूँ। ‘गृहस्थ’ बने इकतालीस बरस से अधिक हो गए लेकिन घर-गिरस्ती की अकल अब तक नहीं आई। एक ठेले पर पपीते नजर आए। रुक गया। बिना भाव-ताव किए ठेलेवाले से बोला - ‘भई, तेरे हिसाब से, ढंग-ढाँग के दो पपीते दे दे।’ दो-चार पपीते टटोल कर, दो पपीते निकाल, तराजू पर रखने लगा। मैंने ‘यूँ ही’ कहा - ‘मुझे सामान खरीदने की अकल नहीं है। तू जाने और तेरा राम जाने।’ सुनकर वह चिहुँक गया। उसके हाथ रुक गए। बोला - ‘अरे! आपने तो बात राम-ईमान पर ला दी बाबूजी!’ हाथ के दोनों पपीते रख दिए। पाँच-सात पपीतों को थपथपाया, सूँघा और खूब सावधानी से दूसरे दो पपीते निकाल, तराजू पर रख दिए। उसके चिहुँकने ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। उसका नाम पूछा। बोला - ‘भूरिया।’ मुझे लगा, झाबुआ जिले का आदिवासी है। वहाँ ‘भूरिया’ कुल नाम (सरनेम) बहुत सामान्य है। मैंने कहा - ‘वो तो है पर तेरा नाम क्या है भैया?’ बोला - ‘भूरिया खान’। अब मैं चिहुँका- खान और राम के नाम पर डर गया?  पहनावे, बोल-चाल से वह कहीं से ‘खान’ नहीं लग रहा था। मैंने उसे धन्यवाद दिया और चल पड़ा।

अगले दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। उत्तमार्द्धजी मधुमेही हैं। उन्होंने जामुन की फरमाइश की। माणक चौक में महालक्ष्मी मन्दिर की दीवारे के सहारे कुछ महिलाएँ जामुन ले कर बैठती हैं। पहली नजर में मुझे जामुन अच्छे नहीं लगे। आधे-आधे लाल, आधे-आधे काले। मैंने आधा किलो जामुन माँगे। उसने लापरवाही से जामुन तराजू पर रखे। अचानक ही मुझे कलवाली बात याद आ गई। मैंने कहा -‘मुझे जामुन की परख नहीं है। मरीज के लिए ले जा रहा हूँ। तू जाने और तेरा राम जाने।’ सुनते ही उसने, मानो घबराकर सारे जामुन वापस टोकरी में उँडेल दिए और घबरा कर बोली -‘अरे! राम! राम! बाबूजी। पहले ही कह देते!’ और एक-एक जामुन छाँट कर तराजू पर रखे। मैंने उसका नाम पूछा तो बोली - ‘गरीब का क्या नाम बाबूजी! आप किसी भी नाम से बुला लो।’

ये बातें यूँ तो रोजमर्रा की हैं लेकिन इन दिनों धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है और राज्याश्रय में होने दिया जा रहा है, उन सन्दर्भों में मौजूँ और विचारणीय हैं। ये दोनों ‘छोटे लोग’ मुझे सर्वाधिक धार्मिक लगे। धर्म के नाम पर और धर्म रक्षा के नाम पर दंगा करनेवाले और निरपराध, निर्दोष लोगों के प्राण लेनेवाले यदि इन दोनों को देख लें तो उन्हें निश्चय ही अपने कुकर्मों पर शर्मिन्दगी हो। लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि जो कुछ वे कर रहे हैं वह खूब सोच-विचार कर, सोद्देश्य, सुनियोजित तरीके से कर रहे हैं। ‘धर्म’ उनकी चिन्ता बिलकुल ही नहीं है।

मेरे कस्बे के लोकव्यवहार पर श्वेताम्बर जैन समाज का भरपूर प्रभाव है। इतना कि मेरे कस्बे के निजी और सार्वजनिक आयोजनों की रसोइयों में प्याज-लहसुन का उपयोग नहीं होता। अपने जैन आमन्त्रितों की चिन्ता करते हुए, अजैनी भी अपने यहाँ जनम-मरण-परण पर बननेवाले भोजन में प्याज-लहसुन नहीं वापरता। श्वेताम्बर जैन समाज, पूरी सतर्कता और चिन्ता से ‘धर्म-पालन’ का ध्यान रखता है। मैंने एक बार पूछा - ‘धर्म-पालन से क्या अभिप्राय है? धर्म को पालना-पोसना या धर्म के निर्देशों का पालन करना?’ बहुत ही सुन्दर जवाब मिला - ‘दोनों। धर्म के निर्देशों का पालन होगा तो ही तो धर्म पलेगा-पुसेगा!’ सुनते ही मुझे जिज्ञासा हो आई - ‘कौन अधिक धार्मिक है? अपने धर्म के निर्देशों का पालन करनेवाला जैन या जैन की धार्मिक भावनाओं की चिन्ता करनेवाला अजैन?’ लेकिन अगले ही पल अपनी मूर्खता पर झेंप आ गई। धार्मिक होना तो बस धार्मिक होना होता है। कम धार्मिक या ज्यादा धार्मिक से क्या मतलब? जाहिर है, अपने धर्म के साथ ही साथ अपने साथवाले के धर्म की चिन्ता करना भी अपना धर्म है। इसी बात को गाँधी ने अपना आदर्श बनाया था - ‘जो सब धर्मों को माने वही मेरा धर्म।’ लेकिन गाँधी ने तो बहुत बाद में कहा। गोस्वामीजी बहुत पहले ही कह गए -

‘परहित सरिस, धरम नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।’

जाहिर है, धर्म के नाम पर हत्याएँ करनेवाले केवल हत्यारे हैं, धर्म रक्षक बिलकुल नहीं। प्रत्येक धर्म, धर्म पर मर जाने की बात करता है, मारने की नहीं। किसी के प्राण लेना धर्म हो ही नहीं सकता। मैं जब भी धर्म के नाम हत्या का कोई समाचार पढ़ता हूँ तो हर बार मुझे, मरनेवाला ही धार्मिक लगता है। वह अपने धर्म के कारण, अपने धर्म के लिए ही मरा। उसे मारनेवाले तो अपने ही धर्म के दुश्मन हैं। वे अपने धर्म को ‘हत्यारा धर्म’ साबित करते हैं। लेकिन केवल हत्या करनेवाले ही क्यों? वे तमाम लोग भी हत्यारे ही हैं जो अपने धर्मानुयायियों का हत्या करते हुए चुपचाप देखते रहते हैं, मरनेवाले को बचाने आगे नहीं आते। पूछो तो मासूम जवाब मिलता है - ‘कैसे बचाते? वे मुझे भी मार देते।’ जाहिर है, किसी को बचाने का अपना धर्म उन्हें याद नहीं रहता और वे भी हत्यारों में शामिल हो जाते हैं। धर्म के लिए जान देनेवाले अब नहीं रहे। अब तो धर्म के नाम पर जान लेनेवाले, हत्यारे, अपराधी ही बचे हैं।

यह सब देख-देख कर मुझे लगता है, अब धर्म स्थलों में धर्म नहीं रह गया है। वहाँ तो केवल दिखावा और चढ़ावा रह गया है। चढ़ाई गई सामग्री को बाजार में बेच कर अपनी जेब भारी करने के व्यापार केन्द्र बन कर रह गए हैं। आठ-आठ, दस-दस दिनों तक चलनेवाले धार्मिक आयोजन/उपक्रम मुझे निष्प्राण, निरर्थक लगने लगते हैं। इनका कोई असर होता नजर नहीं आता। लगता है, ऐसे आयोजनों/उपक्रमों में और अपराधों में कोई प्रतियोगिता चल रही हो - देखें! कौन आग बढ़ता है?

जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तभी मुझे समाचार मिला कि कैलाश मानसरोवर यात्रा के दो जत्थे रास्ते से ही लौट आए हैं। चीन ने बाधा पैदा कर दी और अपने ही द्वारा जारी वीजा खारिज कर दिया। लेकिन लौटे हुए जत्थों के सदस्यों ने कोई हुड़दंग नहीं किया। और तो और, धर्म की ठेकेदारी करनेवालों की भी बोलती बन्द रही। किसी की धार्मिक भावनाएँ आहत नहीं हुईं। सबको मालूम है कि यह दो राष्ट्रों के बीच का मामला है। यहाँ सचमुच में ‘राष्ट्र प्रथम’ है, धर्म नहीं। धर्म की दुकानदारी करनेवाले भली-भाँति जानते हैं कि वे कुछ भी कर लें, कुछ होना-जाना नहीं। लेकिन, अन्तरराष्ट्रीय सन्दर्भों में ‘राष्ट्र’ की विवशताएँ अनुभव कर, अपनी जबानों पर ताला लगानेवालों को आन्तरिक सन्दर्भों में ‘राष्ट्र धर्म’ या कि ‘राष्ट्र प्रथम’ याद नहीं रहता। धर्म के नाम पर दंगे और हत्याएँ करनेवाले तमाम लोग भूल जाते हैं कि भारत एक ‘धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य’ है और उनके इन दुष्कृत्यों से पूरी दुनिया में भारत की यह छवि भंग होती है, बदनामी होती है, भारत के माथे पर कलंक लगता है, भारत का सिर शर्म से झुकता है।

देश का अपना कोई धर्म नहीं होता। यदि होता भी है तो केवल ‘लोक-कल्याण’। इससे कम या ज्यादा कुछ नहीं। धर्म के नाम पर उपद्रव करनेवाले चाहे जितने खुश हो लें लेकिन वे ‘धर्म रक्षक’ नहीं ‘धर्म के दुश्मन’ हैं। धर्म रक्षा का भार तो पपीता बेचनेवाले तमाम भूरिया खान और अनाम रहनेवाली जामुन बेचनेवाली तमाम महिलाओं के जिम्मे है। जिसे वे निष्ठापूर्वक उठा रहे हैं, निभा रहे हैं।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 29 जून 2017 को प्रकाशित)

यह मुकदमा जीतना ही चाहिए

चेम्पियन्स ट्राफी के फायनल में भारत की हार के बाद, पाकिस्तान की जीत की खुशी में पटाखे छोड़ने और पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगा कर, जश्न मना कर, ‘राष्ट्र की गरिमा के विपरीत कृत्य’ के आरोप में बुरहानपुर पुलिस ने 15 लोगों को गिरफ्तार किया। अपने प्रदेश की पुलिस पर गर्व हो आया। वर्ना कहीं हमारी पुलिस भी जम्मू-कश्मीर पुलिस की तरह ‘बन्‍दनयन’ होती तो ये देशद्रोही बच निकलते। मध्य प्रदेश की ही तरह जम्मू-कश्मीर में भी भाजपा सरकार में है लेकिन वहाँ, पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते और भारतीय झण्डे को जलाते, हजारों लोग वहाँ की पुलिस को या तो नजर नहीं आते या वहाँ की पुलिस देख ही नहीं पाती। बुरहानपुर में लगे ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ और जम्मू-कश्मीर में आए दिनों लग रहे ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारों के अर्थ और मकसद में निश्चय ही कोई गुणात्मक अन्तर होगा। वर्ना, राष्ट्र की गरिमा के विपरीत कृत्य पर वहाँ के भाजपाइयों का खून भी उबलता ही। मैं नहीं मानता कि ‘राष्ट्र प्रथम’ को जीवन ध्येय घोषित करनेवाला कोई भाजपाई ‘सत्ता’ के लालच में राष्ट्र विरोधी कोई हरकत बर्दाश्त कर लेता है।

बुरहानपुर के समाचार ने मुझे जिज्ञासु और उत्सुक बना दिया। मैं सोच रहा हूँ, इन पन्द्रह लोगों के विरुद्ध कोर्ट में क्या दलीलें दी जाएँगी! कहीं ऐसा न हो कि ये लोग ‘बाइज्जत बरी’ हो जाएँ! मेरे पास अपनी कुछ आशंकाएँ, कारण हैं।

पाकिस्तानी आतंकवाद ने हमारे अनगिनत सैनिकों के प्राण ले लिए हैं। यह सिलसिला थम नहीं रहा। शायद ही कोई दिन जाता हो जब पाकिस्तानी सेना या पाकिस्तान-पालित-पोषित-पल्लवित आतंकवादी हमले न करें।  जम्मू-कश्मीर का जनजीवन और अर्थ व्यवस्था ध्वस्तप्रायः है। लेकिन हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। मनमोहन सरकार की तरह ही वाणी-वीर, शब्द-शूर बने हुए हैं। हमलों-हत्याओं की कड़ी निन्दा कर रहे हैं, आतंकियों को कायर कह रहे हैं और ‘हमारे जवानों का खून व्यर्थ नहीं जाएगा’ के घोष कर रहे हैं। मनमोहन सरकार की तरह ही हम अमेरीका से गुहार लगा रहे हैं, विश्व मंचों पर पाकिस्तान की असलियत उजागर कर रहे हैं। वादा तो ‘घर में घुस कर’ मारने का  था। लेकिन सब कुछ पहले जैसा ही हो रहा है। कुछ भी नहीं बदला। बदलता नजर भी नहीं आ रहा।

एक भाजपाई सांसद ने, पाकिस्तान को शत्रु-देश घोषित करने का निजी संकल्प प्रस्तुत किया। उम्मीद थी कि यह संकल्प न केवल विचारार्थ ले लिया जाएगा बल्कि सर्वानुमति से, पारित भी हो जाएगा। लेकिन मुझे विश्वास ही नहीं हुआ जब सरकार ने यह कह कर यह संकल्प लौटा दिया कि इस संकल्प से दोनों देशों के सहयोग-सौहार्द्र-मधुरता के सम्बन्धों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मुझे डर है कि कहीं बुरहानपुर के राष्ट्रद्रोही सरकार के इस जवाब को अपने पक्ष में पेश न कर दें। वे कह न दें कि हार से व्यथित होने के बाद भी वे पाकिस्तान से भारत के मधुर सम्बन्धों की चिन्ता करने की, भारत सरकार की भावना को ही बल दे रहे थे।

मुझे बार-बार सुनने को मिलता है कि हमने पाकिस्तान को ‘अति अनुकूल राष्ट्र’ (मोस्ट फेवर्ड नेशन) का दर्जा दे रखा है। माना कि किन्हीं अन्तरराष्ट्रीय मजबूरियों के चलते हम पाकिस्तान को शत्रु देश घोषित नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन उसे दिया हुआ यह दर्जा वापस न लेने में कौन सी मजबूरी है? बुरहानपुर के, गिरफ्तार किए गए ये राष्ट्र-द्रोही, भारत के इस आधिकारिक व्यवहार के तथ्य को अपनी ढाल बना लें तो?

जिस तरह यूपीए सरकार ‘सोनिया नियन्त्रित-निर्देशित-संचालित’ थी उसी तरह एनडीए सरकार, ‘संघ’ द्वारा संचालित है। सब जानते हैं कि ‘राष्ट्र प्रथम’ ही ‘संघ’ का जीवनाधार है। इसी ‘संघ’ के प्रमुख मोहन भागवत, पाकिस्तान को ‘भारत का भाई’ घोषित कर चुके हैं।ये पन्द्रह ‘बुरहानपुरी’ कहीं भागवत को अपने गवाह के रूप में न बुलवा लें। पूछ न लें कि भाई की बेहतरी चाहना अपराध है? 

समूचा भारतीय जनमानस पाकिस्तान विरोधी भावनाओं से ओतप्रोत है। पाकिस्तान को लतियाने, जुतियाने का कोई पल हम नहीं गँवाते। मैं नहीं मानता कि हमारे प्रधानमन्त्री इन जनभावनाओं से अनजान होंगे। ‘संघ’ का निष्ठावान, समर्पित स्वयम्सेवक’ होना उनकी अनेक विशेषताओं, योग्यताओं में प्रमुख है। लेकिन पाकिस्तानी प्रधामन्त्री नवाज शरीफ के जन्म दिन के जलसे में भाग लेने के लिए वे, प्रधानमन्त्री की हैसियत में, बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम, अचानक (पता नहीं, बुलावे पर या बिना बुलाए) पाकिस्तान पहुँच जाते हैं। सद्भावना और मैत्री भाव से ‘शरीफ परिवार’ को उपहार देते हैं। बदले में अपनी माँ के लिए नवाज से साड़ी स्वीकारते हैं। सारी दुनिया भौंचक रह जाती है। फिर सम्हलती है और मोदी के इस मैत्री-भाव की प्रशंसा करती है। जाहिर है, वे शत्रु-भाव से तो नहीं ही गए होंगे। बुरहानुपर के ये पन्द्रह लोग, कहीं मोदी के इस सौजन्य-व्यवहार को अपनी ढाल न बनालें।

मनमोहन सिंह सरकार के समय, मौजूदा सरकार से जुड़े तमाम लोग ‘आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते’ और ‘पाकिस्तान को पाकिस्तान की भाषा में जवाब दिया जाना चाहिए’ का तर्क आसमान पर चस्पा किए हुए थे। मोदी सरकार आने के बाद सबको विश्वास था कि अब पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब दिया जाएगा और देश पाकिस्तानी आतंकवाद से मुक्ति पा लेगा। लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने, कम से कम दो बार संसद में कहा कि बात किए बिना आतंकवाद से मुक्ति के रास्ते तलाश नहीं किए जा सकते। बुरहानपुर के ये पन्द्रह राष्ट्रद्रोही कहीं सुषमा स्वराज की इस बात को अपने पक्ष में न ‘घुमा’ लें। 

चेम्पियन्स ट्राफी के फायनल के दौर में तमाम प्रखर राष्ट्रवादी बार-बार भारत को ‘पाकिस्तान का बाप’ कह रहे थे। क्या यह मुमकिन नहीं कि बुरहानपुर में गिरफ्तार ये लोग कहें कि टूर्नामेण्ट के उस दौर में उपजे पितृभाव के अधीन वे बेटे की जीत का जश्न मना रहे थे या कि ‘फादर्स डे’ पर, बेटे से मिले उपहार का उल्लास प्रकट कर रहे थे? 

पाकिस्तान को लेकर हमारे सरकारी और सार्वजनिक व्यवहार का यह विरोधाभास मुझे दहशत में डाले हुए है। मेरी जानकारी में, पाकिस्तान के सन्दर्भ में राष्ट्रद्रोह का यह पहला मामला है। इसके दोषियों को सजा मिलनी ही चाहिए। अपनी आशंकाओं के बीच मुझे एक ही बात राहत दती है - अभियोजन तो ये सारी बातें अधिक अच्छी तरह जानता ही होगा। और इन सबकी काट भी उसके पास होगी ही। बस! यही  मेरा आशा-तन्तु है।

लेकिन इसके समानान्तर मुझे कुछ बातें और नजर आ रही हैं। पाकिस्तान नहीं रहेगा तो हम लोग फिर ‘पाकिस्तानी’ कह कर किसे चिढ़ा पाएँगे? क्या कह कर मुसलमानों को देशद्रोही आरोपित कर पाएँगे? अभी तो बात-बात में हम जिसे भी देशद्रोही घोषित कर देते हैं, उसे पाकिस्तान भेजते रहते हैं। यदि पाकिस्तान सचमुच में मुर्दाबाद हो गया तो फिर हम ऐसे देशद्रोहियों को कहाँ भेजेंगे? अभी तो पाकिस्तानी और देशद्रोही पर्याय बने हुए हैं। पाकिस्तान सचमुच में मुर्दाबाद हो गया तो देशद्रोहियों को किस देश का नागरिक बताएँगे? कभी-कभी तो लगने लगता है कि हम भले ही ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ कहें, लेकिन अपनी देशभक्ति, अपना राष्ट्रप्रेम दिखाने के लिए पाकिस्तान हमारी जरूरत है। यदि पाकिस्तान ही नहीं रहेगा तो हमारी देशभक्ति का क्या होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि पूनम को पूनम बने रहने के लिए जिस तरह से अमावस की जरूरत होती है उसी तरह हमारी देशभक्ति के लिए पाकिस्तान जरूरी है?

लेकिन इस परिहास को छोड़, मुद्दे की बात पर आएँ। बुरहानपुर का मुकदमा हम सबके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन गया है। अच्छा सोचें और इसके अनुकूल फैसले की प्रतीक्षा करें। 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 22 जून 2017 को प्रकाशित)

धर्म मूल्यवान बनाता है, बिक्री-मूल्य नहीं बढ़ाता

आनन्द अभी-अभी गया है। मुझे फटकार कर। उम्र में मेरे बड़े बेटे से बरस-दो बरस ही बड़ा होगा, किन्तु डाँटता-फटकारता है बड़े भाई की तरह। आते ही शुरु हो गया - ‘आपका तो भगवान ही मालिक है। पता नहीं, क्या-क्या सनकें पाल लेते हैं! अब यह भी कोई बात हुई कि अखबार-टीवी का बॉय काट किए बैठे हैं! इन्हें क्या फरक पड़ेगा? फरक पड़ेगा तो केवल आपको। दीन-दुनिया से कटे रहेंगे। लीजिए! एक खबर है। आपके मिजाज की। तबीयत खुश हो जाएगी। अखबार पढ़ रहे होते तो पाँच-सात दिन पहले ही खुश हो जाते।’ कहते हुए एक अखबार मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं कुछ नहीं बोला। मुस्कुराते हुए, हाथ बढ़ाकर अखबार ले लिया।

अखबार आठ दिन पुराना है-पाँच जून, सोमवार का। पहले पृष्ठ पर सदैव की तरह विज्ञापनी-नकाब (जेट) है। मैं मुखपृष्ठ खोलता हूँ।  समाचार देखने की कोशिश करूँ, उससे पहले ही आनन्द बोला - ‘यहाँ नहीं। अच्छा समाचार है। मुखपृष्ठ पर कैसे मिलेगा? अन्दर है। ग्यारहवें पेज पर।’ और खुद ने ही खोलकर पन्ना मेरे सामने फैला दिया। समाचार का शीर्षक पढ़कर तबीयत वाकई में खुश हो गई - ‘गांव वालों ने मंदिर-मस्जिद से खुद उतारे लाउडस्पीकर, बोले- झगड़े जड़ खत्म’। समाचार रंगीन और सचित्र है। चार कॉलम समाचार को तीन कॉलमों में, पन्ने के निचलेवाले हिस्से में, प्रमुखता से छापा है। 

समाचार के अनुसार, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के थाना भगतपुर के गाँव थिरियादान के हिन्दुओं-मुस्लिमों ने खुद ही मन्दिर और मस्जिद से लाउडस्पीकर उतार कर पुलिस को सौंप दिए और तय किया कि गाँव में होनेवाले किसी भी धार्मिक काम-काज मे लाउडस्पीकर नहीं लगाया जाएगा। लाउडस्पीकर को लेकर गाँव में प्रायः ही विवाद होता और हर बार मामला गर्मा जाता। गाँववाले परेशान हो गए। गाँव के ही कुछ बुजुर्गों ने फैसला लिया कि ‘झगड़े की इस जड़ को ही खत्म कर दिया जाए’। ‘आनेवाले समय में कोई विवाद न हो, आनेवाली पीढ़ियाँ कोई मनमुटाव नहीं रखें और भाईचारा निभता रहे।’ 30 मई शनिवार को ग्राम प्रधान सुनीता रानी की मौजूदगी में सर्वानुमति से फैसला लिया और लिखित रूप में पुलिस थाने में दिया ताकि ‘सनद रहे और वक्त-जरूरत काम आए’। पंचायत में कहा गया गीता या कुरान, किसी में नहीं लिखा कि ऊपरवाले की इबादत लाउडस्पीकर से ही होनी चाहिए।

मैंने गूगल पर तलाशा तो पाया कि थिरियादान प्रायः ही साम्प्रदायिक विवादों में रहता आया है। जिला मुख्यालय मुरादाबाद से 25 किलो मीटर दूर है। गाँव की आबादी लगभग दो हजार है। हिन्दू आबादी 70 प्रतिशत और शेष 30 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। 

समाचार मैंने दो-तीन बार पढ़ा और विचार में पड़ गया। इन दो हजार लोगों ने बहुत जल्दी ‘झगड़े की जड़’ तलाश कर ली। संकट शायद आदमी को बुद्धिमान बना देता होगा क्योंकि वह सब पर समान रूप से आता है। वह हिन्दू-मुसलमान में फर्क नहीं करता। बार-बार के साम्प्रदायिक विवादों से उपजे संकटों ने इन लोगों को समझदार बना दिया। इन्हें समझ आ गई कि लाउडस्पीकर पूजा-इबादत के लिए जरूरी नहीं और न ही इनका उपयोग धार्मिक है। ‘क्योंकि भगवान की आराधना करने का यह तरीका पौराणिक नहीं है।’ और यह कि ‘किसी भी धर्म में नहीं लिखा कि लाउडस्पीकर से ही पूजा होगी।’  इन लोगों को अपने धार्मिक दबदबे के मुकाबले भावी पीढ़ियों की, उनके भाईचारे से रहने की चिन्ता अधिक हुई। उन्हें मालूम तो पहले से था लेकिन अनुभव अब किया कि लाउडस्पीकर से पूजा-इबादत करना धार्मिक-पौराणिक प्रावधान नहीं है,  ऊपरवाला तो अपने बन्दों का मौन भी साफ-साफ सुन लेता है। थिरियादान के, गिनती के इन लोगों ने अपनी भावी सन्ततियों की शान्ति, सुख, कुशल की चिन्ता की। 

तो क्या थिरियादान के ये लोग अब धार्मिक नहीं रहे? अधर्मी हो गए? निश्चय ही नहीं। ये सब धार्मिक तो पहले भी थे ही किन्तु तब ‘कट्टर धार्मिक’ या ‘धर्मान्ध कट्टर’ थे। इन्होंने अपनी-अपनी धर्मान्धता या कि कट्टरता छोड़ी। धर्म नहीं। समाचार की शब्दावली ध्यान देने योग्य है। गाँववालों ने लाउडस्पीकर को ‘झगड़े की जड़’ कबूल किया। कबूल किया कि देव-आराधना या कि इबादत के लिए लाउडस्पीकर की जरूरत नहीं। अनुभव किया कि गाँववालोें में मनमुटाव का कारण उनका ईश्वर, उनका खुदा, उनका धर्म या उनकी पूजा पद्धति नहीं, यह लाउडस्पीकर ही है। उन्होंने  अनुभव किया कि वे अपने धर्म के साथ ही सुख से रह सकते हैं, लाउडस्पीकर या ऐसे ही किसी अन्य बाहरी उपकरण के साथ नहीं।

वस्तुतः, धर्म तो मनुष्य को अधिक मूल्यवान बनाता है लेकिन मनुष्य अपने मूल्यवान होने को जता कर, उसके कारण और उसके आधार पर अपनी पहचान जताना चाहता है। तब वह ‘धार्मिक होने’ के मुकाबले ‘धार्मिक दीखने’ को सर्वोच्च प्राथमिकता जितना महत्वपूर्ण मान बैठता है। यहीं से मुसीबत शुरु होती है। मनुष्य जैसे ही अपने ‘मूल्यवान होने’ को जताना चाहता है वैसे ही खुद को ‘बिक्री योग्य’ घोषित कर बिकने के लिए बाजार में आ बैठता है। लेकिन बाजार का अपना चलन है। वहाँ तो ‘बेहतर’ या फिर ‘सस्ता’ ही खरीदा जाता है। बाजार में तो हर आदमी से बेहतर और हर आदमी से सस्ता आदमी उपलब्ध होता है। ऐसे में, हर कोई खुद को सर्वाधिक धार्मिक दिखाने के चक्कर में सबसे सस्ता होने की प्रतियोगिता में आ जाता है। तब पाखण्ड और प्रदर्शन की प्रतियोगिता अपने आप शुरु हो जाती है। ऐसे में उसका मूल्यवान होना अपना मूल्य खो देता है। इसके साथ ही साथ एक प्रक्रिया और शुरु हो जाती है - अनुयायियों के आचरण के आधार पर धर्म का मूल्यांकन। तब ही दुनिया किसी धर्म को अच्छा या बुरा तय करती है। यह सचमुच में रोचक विसंगति है कि जो धर्म मनुष्य को मूल्यवान बनाता है वही मनुष्य अपने (आचरण से) धर्म को लोकोपवाद की विषय वस्तु बना देता है।

धर्म आदमी को मूल्यवान बनाता है, उसका ‘बिक्री मूल्य’ नहीं बढ़ाता। धर्म यदि ‘बिक्री मूल्य’ बढ़ाता होता तो थिरियादान का यह समाचार देश के तमाम अखबारों में पहले पन्ने पर जगह पाता और तमाम चेनलों पर कई दिनों तक छाया रहता। किन्तु निश्चय ही ऐसा नहीं हुआ होगा। वर्ना आनन्द के बताने से पहले ही यह सब मुझे बहुत पहले ही मालूम हो चुका होता। 

धर्म आत्म-शुद्धि का, आत्मोन्नयन का उपकरण है, मुनाफे का नहीं। यह न तो खुद बिकता है न ही किसी का बिक्री मूल्य बढ़ाता है। बिक्री मूल्य और बिक्री तो दिखावे से ही बढ़ती है। उपभोक्ता वस्तुओं के मामले में ‘विज्ञापन’ यह दिखावा है और धर्म के मामले में ‘पाखण्ड’ और ‘प्रदर्शन’। अधिकांश सरकारी स्कूलों में न तो बिजली है न पीने के पानी की व्यवस्था और न ही शौचालयों की।  भण्डारे पर लाखों रुपये खर्च करनेवाले किसी ‘धार्मिक-दानी’ से अनुरोध कीजिए कि वह यह रकम किसी एक स्कूल पर खर्च कर, समस्याओं का स्थायी निदान करने का पुण्य लाभ ले ले। वह तत्क्षण इंकार कर देगा। क्योंकि स्कूल में दिया पैसा किसी को नजर ही नहीं आएगा और उसकी वाह वाही नहीं होगी। यह इसलिए कह रहा हूँ कि धार्मिकों-दानियों से ऐसा अनुरोध कर इंकार सुन चुका हूँ। 

वस्तुतः, थिरियादान के लोगों को ‘आचरण’ और ‘प्रदर्शन’ का अन्तर समझ में आ गया। उन्होंने महसूस कर लिया कि ‘आचरण’ से ही उद्धार है, ‘प्रदर्शन’ से नहीं। धार्मिक कट्टरता या कट्टर धर्मान्धता से मुक्ति पाकर, उन्होंने आचरण को अपनाया। उन्होंने अपने लिए सुख-शान्ति ही नहीं जुटाई, अपने-अपने धर्म का मान भी बढ़ाया।

यही तो धर्म है! 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 15 जून 2017 को प्रकाशित)

.........हम उन्हें बर्बर कहते हैं

प्रकाण्ड इतिहासज्ञ पण्डित डॉ. रघुबीर प्रायः फ्रांस जाया करते थे। वे सदा फ्रांस के राजवंश के एक परिवार के यहाँ ठहरा करते थे। उस परिवार में ग्यारह साल की एक सुन्दर लड़की भी थी। वह भी डॉ.रघुबीर की खूब सेवा करती थी। अंकल-अंकल बोला करती थी।

एक बार डॉ. रघुबीर को भारत से एक लिफाफा प्राप्त हुआ। बच्ची को उत्सुकता हुई- ‘देखें तो भारत की भाषा की लिपि कैसी है!’ उसने कहा- ‘अंकल! लिफाफा खोलकर पत्र दिखाएँ।’ डॉ. रघुबीर ने टालना चाहा। पर बच्ची जिद पर अड़ गई।

डॉ. रघुबीर को पत्र दिखाना पड़ा। पत्र देखते ही बच्ची का मुँह लटक गया- ‘अरे! यह तो अँगरेजी में लिखा हुआ है! आपके देश की कोई भाषा नहीं है?’ डॉ. रघुबीर से कुछ कहते नहीं बना। बच्ची उदास होकर चली गई। माँ को सारी बात बताई। 

दोपहर में हमेशा की तरह सबने साथ साथ खाना तो खाया, पर रोज की तरह उत्साह, चहक-महक नहीं थी। गृहस्वामिनी बोली- ‘डॉ. रघुबीर! आगे से आप किसी और जगह रहा करें। जिसकी कोई अपनी भाषा नहीं होती, उसे हम फ्रेंच लोग, बर्बर कहते हैं। ऐसे लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं रखते।’

गृहस्वामिनी ने उन्हें आगे बताया- “मेरी माता लोरेन प्रदेश के ड्यूक की कन्या थी। लोरेन प्रदेश की भाषा फ्रेंच थी। प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी ने इस पर कब्जा कर लिया। जर्मन सम्राट ने वहाँ फ्रेंच के माध्यम से शिक्षण बन्द कर, जर्मन भाषा थोप दी। फलतः प्रदेश का सारा कामकाज एकमात्र जर्मन भाषा में होने लगा। फ्रेंच के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं रह गया। विद्यालयों में भी शिक्षा का माध्यम जर्मन भाषा ही थी।

“मेरी माँ उस समय ग्यारह वर्ष की थी और सर्वश्रेष्ठ कान्वेण्ट विद्यालय में पढ़ती थी। एक बार जर्मन साम्राज्ञी कैथराइन, लोरेन प्रदेश के दौरे पर आईं। उस विद्यालय का निरीक्षण करने आ पहुँची। मेरी माता अपूर्व सुन्दरी होने के साथ साथ अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि भी थीं। सब बच्चियाँ नए कपड़ों में सजधज कर आई थीं। उन्हें पंक्तिबद्ध खड़ा किया गया था। बच्चियों के व्यायाम, खेल आदि प्रदर्शन के बाद साम्राज्ञी ने पूछा कि क्या कोई बच्ची जर्मन राष्ट्रगान सुना सकती है?

“मेरी माँ को छोड़ वह किसी को याद न था। मेरी माँ ने उसे ऐसे शुद्ध जर्मन उच्चारण के साथ इतने सुन्दर ढंग से सुनाया कि कोई जर्मन भी नहीं सुना पाता। साम्राज्ञी बहुत खुश हुई। उन्होंने बच्ची से कुछ इनाम माँगने को कहा। बच्ची चुप रही। बार बार आग्रह करने पर वह बोली- ‘महारानी जी, क्या जो कुछ मैं माँगूँ, वह आप देंगी?’ साम्राज्ञी ने उत्तेजित होकर कहा- ‘बच्ची! मैं साम्राज्ञी हूँ। मेरा वचन कभी झूठा नहीं होता। तुम जो चाहो माँगो।’ इस पर मेरी माता ने कहा- ‘महारानी जी! यदि आप सचमुच अपने वचन पर दृढ़ हैं तो मेरी केवल एक ही प्रार्थना है कि अब से इस प्रदेश में सारा काम केवल फ्रेंच में हो, जर्मन में नहीं।’

“यह, सर्वथा अप्रत्याशित माँग  सुनकर साम्राज्ञी पहले तो आश्चर्यकित रह गई, किन्तु फिर क्रोध से लाल हो उठीं। वे बोलीं- ‘लड़की! नेपोलियन की सेनाओं ने भी जर्मनी पर कभी ऐसा कठोर प्रहार नहीं किया था, जैसा आज तूने शक्तिशाली जर्मनी साम्राज्य पर किया है। साम्राज्ञी होने के कारण मेरा वचन झूठा नहीं हो सकता, पर तुम जैसी छोटी सी लड़की ने इतनी बड़ी महारानी को आज पराजय दी है, वह मैं कभी नहीं भूल सकती। जर्मनी ने जो अपने बाहुबल से जीता था, उसे तूने अपनी वाणी मात्र से लौटा लिया। मैं भली-भाँति समझ गई हूँ कि लारेन प्रदेश अब अधिक दिनों तक जर्मनों के अधीन न रह सकेगा।’ यह कहकर महारानी अतीव उदास होकर वहाँ से चली गई।” 

गृहस्वामिनी ने कहा- ‘डॉ.रघुबीर! इस घटना से आप समझ सकते हैं कि मैं किस माँ की बेटी हूँ। हम फ्रेंच लोग संसार में सबसे अधिक गौरव अपनी भाषा को देते हैं। क्योंकि हमारे लिए राष्ट्र प्रेम और भाषा प्रेम में कोई अन्तर नहीं। हमें अपनी भाषा मिल गई। और आगे चलकर हमें जर्मनों से स्वतन्त्रता भी प्राप्त हो गई।’ 
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(सौजन्य: वैश्विक हिन्दी सम्मेलन, मुम्बई)

आईए! मरें। ताकि स्वर्ग देख सकें

जब भी किसी फालतू की बहस से बचना चाहता हूँ, दोनों हाथ जोड़कर कह देता हूँ - ‘इस मामले मे मुझे कुछ नहीं पता। जो जितना जाने, उतना दुःखी हो। मुझे अज्ञान का सुख भोगने दीजिए।’ लोग हँस कर मुझे छोड़ देते हैं और मैं अर्थहीन, निकम्मी बहस का आनन्द लेने लगता हूँ। अनेक बार कहता हूँ - ‘मुझे समझदार नहीं बनना। समझदार की मौत है।’ लेकिन आज जब शेखरजी से बात हुई तो, बचाव के अपने इन कमजोर बहानों पर झेंप हो आई। अज्ञान का सुख तो हो सकता है। किन्तु इसके दण्ड तो भुगतने ही होते हैं। इसमें यदि आलस जुड़ जाए तो हालत ‘कोढ़ में खाज’ जैसी हो जाती है। तब हम दण्ड ही नहीं, दुःख भी भोगते हैं।

शेखरजी को आप भूले नहीं होंगे। नीमच जैसे दूरदराज के  मझौले कस्बे में बैठकर सूचना का अधिकार के जरिए वे ‘व्यवस्था’ के लिए असुविधाएँ पैदा करते रहते हैं। जिन्हें हम ‘छोटी-छोटी बातें’ मान कर ‘यह तो चलता है’ कह कर अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं, उन्हीं की जानकारी माँग कर ‘व्यवस्था’ के कपड़े उतारते रहते हैं। देश के शिक्षित लोगों के एक प्रतिशत लोग भी यदि शेखरजी की तरह सजग और सक्रिय हो जाएँ तो मेरा दावा है कि देश की नौकरशाही और अफसरशाही घुटनों पर आकर ‘त्राहिमाम्! त्राहिमाम्!’ करते हुए, साष्टांग मुद्रा में नजर आए। बस! शर्त यही है कि हम शेखरजी की तरह जानकारियों से वाकिफ, चौकन्ने और सक्रिय बने रहें।

सरकार को चुकाया पैसा या कि सरकार से उसकी अव्यवस्था का जुर्माना वसूलना असम्भव नहीं तो आसान भी नहीं। शेर के मुँह में हाथ डालकर सामान निकालने जैसा है। वसूलने में सरकार जितनी सख्ती, आक्रामता, निर्ममता बरतती है, चुकाने में उससे हजार गुना पीड़ा होती है सरकार को। लेकिन शेखरजी एक बार यह ‘पराक्रम’ कर चुके।

सन् 2016 की, आठ और नौ नवम्बर की सेतु-रात्रि को, नीमच टेलिफोन एक्सचेंज की केबल ट्रेंच में आग लग गई। फलस्वरूप नीमच के विभिन्न इलाकों के लेण्ड लाइन टेलिफोन तीन दिन से लेकर दस दिनों तक बन्द रहे। शेखरजी का फोन भी इन में शामिल था। 

शेखरजी के पास स्मार्ट फोन तो है किन्तु वे खुद अब तक स्मार्ट नहीं बन पाए। ठेठ देशी आदमी ही हैं - लेण्ड लाइन फोन पर बात करना, अपना काम निपटाना उन्हें अधिक सुखद और सुविधाजनक लगता है। ऐसे में फोन ठप्प याने शेखरजी ठप्प। परेशानी से चिढ़ उपजी और इसी से उपजी उत्सुकता - ऐसी स्थिति के लिए उपभोक्ताओं के लिए कोई राहत है या नहीं? वे जुट गए। बीएसएनएल की जनम-पत्री बाँची। वहाँ कुछ नहीं मिला तो ‘भारतीय टेलिफोन नियामक अभिकरण’ याने ‘ट्राई’ के कागज खँगाले। बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। शेखरजी की मुराद पूरी हो गई। ट्राई द्वारा निर्धारित सेवाओं के ‘गुणवत्ता मानक’ (बेंचमार्क) के अनुसार यदि कोई टेलिफोन तीन दिन से अधिक एवम् सात दिन से कम अवधि के लिए खराब हो जाता है तो उस उपभोक्ता को बिल में सात दिनों के किराए के बराबर रकम की छूट मिलती है।  सात दिन से पन्द्रह दिन की अवधि के लिए  पन्द्रह दिनों के किराए के बराबर रकम की और पन्द्रह से तीस दिनों की अवधि के लिए एक माह के किराए की रकम के बराबर छूट मिलती है। 

ये उल्लेख देखकर शेखरजी खुद की पीठ ठोक रहे थे। उन्होंने लिखा-पढ़ी शुरु कर दी। जैसा कि होता है, उनकी बात सुनी ही नहीं गई। शेखरजी ने सीधे बीएसएनल की साइट पर शिकायत दर्ज की। वहाँ इसे हाथों-हाथ लिया गया। छूट उपलब्ध कराने की प्रक्रिया के सारे गलियारों से होते हुए नीमचवालों को आदेशित किया गया - ‘शेखरजी को नियमानुसार छूट की रकम वापस करें।’ नीमच बीएसएनएलवाले चकित थे। उन्हें ऐसे आदेशों की आदत नहीं। आदेश दो बार पढ़ा और शेखरजी को अगले बिल में लगभग साढ़े तीन सौ रुपयों की छूट दी गई।

शेखरजी ने किस्सा सुनाया तो मैंने पूछा - ‘बीएसएनल वालों का क्या कहना रहा?’ शेखरजी बोले - “सब अपनेवाले ही हैं। खुश ही हुए। किसी की जेब से तो कुछ जाना ही नहीं था। लेकिन एक ने कहा - ‘शेखरजी! और तो कुछ नहीं, आपने लोगों के लिए रास्ता खोल दिया। आपने हमारा काम बढ़ा दिया। अब हमें लिखा-पढ़ी ज्यादा करनी पड़ेगी। बुढ़िया मरी इस बात की तकलीफ नहीं। तकलीफ इस बात की है कि मौत ने रास्ता देख लिया।”

मैंने शेखरजी से कहा - ‘शेखरजी! आपको मेरी सौगन्ध! आप इस मौत को नीमच से लेकर दिल्ली तक के, छोटे से छोटे से लेकर सबसे बड़े तक, हर सरकारी दफ्तर का दरवाजा दिखा दीजिएगा। आपको पूरे देश की दुआएँ लगेंगी।’

बहुत अदब और संकोच से शेखरजी बोले - ‘नहीं सर! आप जानते हैं, चाह कर भी ऐसा कर पाना किसी एक के लिए मुमकिन नहीं। सरकारी व्यवस्था की यह मौत तो हर हिन्दुस्तानी की जेब में पड़ी है। हम लोग अपनी ही जेब में हाथ डालने की मेहनत करने को तैयार नहीं। अपने यहाँ स्वर्ग तो हर आदमी देखना चाहता है लेकिन मरने को कोई तैयार नहीं। और आप तो जानते ही हैं सर! मरे बिना स्वर्ग नहीं देखा जाता।’
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एक ने पहचान बताई दूसरे ने पहचान-पत्र

आज की यह पोस्ट श्री विजय शर्मा के खाते में। यह उन्हीं के कारण लिखी जा रही है और उन्हीं को समर्पित है।

उद्यमिता के दिनों में हमारे उद्यम का खाता ‘इन्दौर बैंक’
(जिसका पूरा/वास्तविक नाम स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर था जो अब भारतीय स्टेट बैंक बन चुका है) की औद्योगिक क्षेत्र शाखा में था। अभिरुचि  सम्पन्न श्री विजय नागर वहीं पदस्थ थे। उन्होंने बहुत जल्दी भाँप लिया कि मुझमें व्यापार-धन्धे की और लेजर, केश-बुक की कोई सूझ-समझ नहीं है। वे मुझे अपने पास बैठाते और अपना काम करते-करते कविता, गजल की बात करते। राहत इन्दौरी का नाम मैंने पहली बार उन्हीं से सुना था। उन्होंने ही शर्माजी से मेरा परिचय कराया।

अभी तो शर्माजी सेवा निवृत्त जीवन जी रहे हैं। लेकिन वे नौकरी में थे तब भी उन्होंने कभी बैंक, बैंकिंग और आँकड़ों की बात नहीं की। नागर साहब की तरह ही शर्माजी भी अभिरुचि सम्पन्न हैं और नागरजी की तरह ही, मित्रों को उनकी और खुद की मनपसन्द किताबें पढ़वाने का शौक है।

मैं सेंधवा से रतलाम लौट रहा था। टैक्सी, रतलाम से दस-बारह किलो मीटर पहले वाले टोल नाके पर रुकी हुई थी। तभी शर्माजी का फोन आया। टोल नाके पर रुकने की बात मालूम होने पर जोर से हँसे। बोले - ‘क्या संयोग है! अभी आपकी वही पोस्ट पढ़ रहा हूँ जिसमें आपने टोल नाके पर रोके जाने से गुस्साए विधायक की बात कही है।’ बात लम्बी हुई लेकिन बातों की बातों में उन्होंने, रोके जाने पर वीआईपी से जुड़े दो अनुभव सुनाए। दोनों का अपना-अपना रंग और अपना-अपना मजा है।

इन्दौर बैंक ने बेडमिण्टन का कोई आयोजन किया था। महू के एक बड़े सैन्य अधिकारी और नईदुनिया के प्रधान सम्पादक अभयजी छजलानी मुख्यतः आमन्त्रित थे। शिष्टाचार भेंट के दौरान सैन्य अधिकारी ने पूछा - ‘आपको मुझसे कोई मदद चाहिए तो बताईए।’ मिलनेवालों ने कहा - ‘गेट पर चेंकिंग के लिए आपके कुछ जवान दिलवा दीजिए।’ अधिकारीजी ने अपेक्षा से अधिक जवान तैनात करवा दिए।

गेट पर तैनात जवानों को बताया गया कि दो ही आधारों पर लोगों को अन्दर आने दें - आगन्तुक के पास टिकिट हो या फिर उसके शर्ट पर आयोजकों द्वारा उपलब्ध कराया गया, रिबिन का फूल लगा हो। जवानों ने सलाम ठोक कर आश्वस्ति दी - ‘बेफिकर रहिए। इसके सिवाय कोई अन्दर नहीं आ पाएगा। परिन्दा भी नहीं।’

आयोजक निश्चिन्त होकर चले गए। अब दरवाजे पर फौजी जवान ही थे। वे चुस्ती से अपना काम कर रहे थे। थोड़ी ही देर में अभयजी प्रवेश द्वार पर पहुँचे। उनके पास न तो टिकिट था न ही रिबिनवाला फूल। टिकिट खरीदने का तो सवाल ही नहीं और फूल अन्दर, कार्यक्रम के दौरान लगाया जानेवाला था। जवान ने कहा - ‘टिकिट प्लीज।’ अभयजी ने, उन्हें लानेवाले कार्यकर्ताओं की ओर देखा। एक बोला - ‘अरे! ये तो चीफ गेस्ट हैं।’ जवान ने अदब से कहा - ‘जरूर होंगे सर! लेकिन हम तो केवल आर्डर ओबे कर रहे हैं।’ कार्यकर्ता ने बुद्धिमता बरती। अपना फूल निकाल कर अभयजी की शर्ट पर लगा दिया। बोला - ‘अब तो ठीक?’ जवान ने अदब से ‘यस सर!’ कहते हुए आदर से अभयजी को प्रवेश दिया। अभयजी के पीछे-पीछे वह कार्यकर्ता सहज भाव से जाने लगा तो जवान ने रोक लिया। बोला - ‘टिकिट प्लीज!’ कार्यकर्ता पहले तो अचकचाया, फिर झुंझलाया। चिढ़ कर बोला - ‘अरे! तुमने देखा नहीं? अभी मैंने अपना फूल अभयजी को लगाया था?’ बड़ी अदब से जवान बोला - ‘यस सर। देखा। लेकिन आपके शर्ट पर रिबिन फ्लॉवर नहीं है।’ कार्यकर्ता समझदार था। फौजी जवानों से हील-हुज्जत करने के खतरे जानता होगा। अपने प्रवेश की व्यवस्था की और जवानों की तसल्ली के बाद अन्दर गया।

शर्माजी का सुनाया दूसरा किस्सा रंजक तो है ही, औपचारिक/आधिकारिक पहचान और वास्तविक पहचान का अन्तर और तैनात व्यक्ति की परिपक्वता का बहुत बढ़िया उदाहरण है।

रतोलियाजी उन दिनों मल्हारगंज (इन्दौर) थाने के टी आई थे। पुलिस अफसरी करते समय उनकी आवाज किसी कड़क पुलिस अफसर जैसी ही होती थी किन्तु उनकी आवाज वस्तुतः धीर- गम्भीर, मुलायम और उच्चारण सुस्पष्ट थे। दृष्टि बाधित बच्चों के लिए इन्दौर बैंक ने रतोलियाजी की आवाज में एक सीडी तैयार करवाई। वह सीडी देवास में विमोचित होनी थी। 

विमोचन समारोह में शामिल होने के लिए बैंकवाले (जिनमें शर्माजी भी शामिल थे ही) बैंक की कार में रतोलियाजी को लेकर देवास जा रहे थे। रास्ते में टोल नाके पर कार रुकी। ड्रायवर जेब से पैसे निकालने लगा तो रतोलिया जी ने टोका - ‘उससे कह दो कि अन्दर मल्हारगंज के टीआई साहब बैठे हैं।’ ड्रायवर ने आदेश का पालन किया। सुनकर टोलवाले कर्मचारी ने कार में झाँका। रतोलियाजी ने वर्दी नहीं पहन रखी थी। टोलवाले को अन्दर झाँकते देख, रतोलियाजी ने खुद की ओर इशारा किया। अब नौकर तो नौकर ठहरा। उसे तो अपने मालिक का कहा मानना था। उसने सपाट लहजे में कहा - ‘सर! आपका आईसी दिखा दीजिए।’ टोल कर्मचारी का यह कहना था कि कार में मानो भूचाल आ गया। पीठ टिका कर, आराम से बैठे रतोलियाजी उचक कर आगे हुए, जलती आँखों से उसे देखा। सीडी में कैद ‘धीर, गम्भीर, मुलायम’ स्वर, पल भर में ‘असली पुलिसिया स्वर’ बन गया। लाल-भभूका बन चुके रतोलियाजी ने ‘सुस्पष्ट उच्चारण’ से गर्जना की - ‘स्साले! तेरा मेनेजर, तेरा सेठ मेरे सामने खड़ा रहता है और तू पचीस रुपयों के लिए मेरा आईसी माँग रहा है। तेरी ये हिम्मत?’ और जितनी गालियाँ उनके अवचेतन में आईं, तात्कालिक वाद-विवाद प्रतियोगिता के कुशल वक्ता की तरह रतोलियाजी ने धारा प्रवाह रूप से, एक साँस में सुना दीं। रतोलियाजी का ‘भस्म कर देनेवाला’ रूप देख कर और अनगिनत गालियाँ सुनकर टोल कर्मचारी, मानो अपनी जान बचा रहा हो, इस तरह कार से दूर छिटका और हाथ जोड़कर मिमियाते हुए बोला - ‘पहचान गया साब! अब पहचान गया! आप सच्ची में टी आई सा’ब ही हो। सॉरी सर! सॉरी! गलती हो गई।’ उसके बोलते-बोलते ही बेरीयर उठ गया। 

शर्माजी बोले - “हम लोग समझ ही नहीं पाए। रतोलियाजी अच्छे-भले, हँसते-बतियाते बैठे थे। लेकिन पल भर में ही उनका कायान्तरण हो गया। ‘पुलिसिया आत्मा’ से यह क्षणिक साक्षात्कार हम सबके लिए ‘आजीवन अविस्मरणीय संस्मरण निधि’ बन गया। टोल नाके से मीलों दूर निकल जाने के बाद भी हम सब हक्के-बक्के बने रहे। ये तो हमारेवाले, ‘वो’ रतोलियाजी नहीं। हमारी शकलें देख कर, जोर से हँसकर, रतोलियाजी ही हम सबको अपने आप में लाए।”

शर्माजी ये किस्से सुना रहे थे और मुझे इसके समानान्तर ढेबर भाई का एक किस्सा याद आ रहा रहा था। 

यू. एन. ढेबर के नाम से पहचाने जानेवाले ढेबर भाई का पूरा नाम उछरंगराय नवलशंकर ढेबर था। वे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। सौराष्ट्र राज्य के पहले मुख्य मन्त्री वे ही थे। बाद में काँग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उसके बाद तीसरी लोक सभा के सदस्य।

जहाँ तक मेरी याददाश्त काम कर रही है, यह बात 1958 की है। मन्दसौर जिला काँग्रेस कमेटी ने, मन्दसौर में ‘सपत्नी सम्मेलन’ आयजित किया था। ढेबर भाई भी उसमें शामिल थे। 

सम्मेलन नूतन स्कूल में आयोजित था। व्यवस्थाओं की
जिम्मेदारी काँग्रेस सेवादल को सौंपी गई थी। सभा-सत्रों में प्रवेश के लिए, आयोजकों द्वारा निर्धारित परिचय-प्रतीक दिखाना अनिवार्य था। एक सत्र में प्रवेश द्वार पर मनासा की सेवादल टुकड़ी तैनात थी। छगन भाई पुरबिया सबके प्रवेश-प्रतीक की खातरी कर रहे थे। तभी ढेबर भाई पहुँचे। वे अन्दर जाने लगे तो छगन भाई ने हाथ बढ़ा कर रोक दिया और कहा - ‘पास दिखाइए भाई साहब!’ ढेबर भाई मुस्कुराए और धीमे से बोले - ‘मैं ढेबर हूँ भाई!’ छगन भाई बोले - ‘जी भाई साहब! मैं जानता हूँ। लेकिन पास दिखाइए।’ ढेबर भाई तनिक भी असहज नहीं हुए। उसी तरह मुस्कुराते हुए बोले - ‘मैं काँग्रेसाध्यक्ष हूँ भाई!’ नजरों से नजर मिलाते हुए छगन भाई ने सपाट स्वर में जवाब दिया - ‘जी भाई साहब! मैं जानता हूँ। आप पास दिखाइए।’ ढेबर भाई के पीछे राष्ट्रीय और प्रान्तीय स्तर के कई नेता पंक्तिबद्ध थे। लेकिन सब चुपचाप देख-सुन रहे। पता नहीं, ढेबर भाई को मजा आ रहा था या वे आजमा रहे थे। बोले - ‘सत्र की अध्यक्षता मुझे ही करनी है भाई! जाने दीजिए।’ छगन भाई, उसी तरह अडिग बने बोले - ‘जी भाई साहब! मुझे मालूम है। लेकिन आप पास दिखाइए।’ इस सम्वाद में मिनिट-डेड़ मिनिट भी नहीं लगा, कोई कुछ नहीं बोला लेकिन सबकी बेचैनी साफ नजर आने लगी। ढेबर भाई ने अनुनय की - ‘सत्र का उद्घाटन मुझे ही करना है। पहला भाषण मुझे ही देना है। मेरे बिना सत्र शुरु नहीं होगा।’ छगन भाई को कुछ फर्क नहीं पड़ा। दुहराया - ‘जी! जानता हूँ भाई साहब! लेकिन आप अपना पास दिखाइए।’ ढेबर भाई की मुस्कान तनिक अधिक चौड़ी हो गई। जेब से अपना पहचान-प्रतीक निकाला। छगन भाई की ओर बढ़ाया। छगन भाई ने ध्यान से देखा। तसल्ली की और हाथ हटा कर विनम्रता से बोले - ‘धन्यवाद। जाइए भाई साहब।’ ढेबर भाई ने मुस्कुराते हुए अपना ‘पास’ जेब में रखा और गर्मजोशी से छगन भाई का कन्धा थपथपाते हुए ‘बहुत बढ़िया! शाबास!’ कहते हुए अन्दर चले गए।

ढेबर भाई के, अन्दर जाने से पहले ही पूरी बात, नूतन स्कूल की दीवारें पार कर चुकी थी। लोग छगन भाई के पास जुट आए। एक ने कहा - ‘ये क्या किया तुमने? ढेबर भाई को जानते नहीं? तुमने पूरी जिला कमेटी का नाश कर दिया। पता नहीं, तुम्हारी इस हरकत का दण्ड किसे झेलना पड़ेगा।’ छगन भाई बोले - ‘मुझे नायकजी ने कहा था कि बिना पास किसी को अन्दर मत जाने देना। मैंने तो आदेश का पालन किया। अब जो होना हो, हो।’ अन्दर, ढेबर भाई ने अपना भाषण शुरु ही इस घटना के उल्लेख से किया। छगन भाई का नाम तो वे नहीं जानते थे। उनका नाम लिए बिना उनकी प्रशंसा की और छगन भाई की टुकड़ी को, राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा दिए जानेवाले सर्वोच्च सम्मान स्वरूप पार्टी का रेशमी झण्डा प्रदान किया।  

पहचान बताने का सबका अपना-अपना तरीका होता है। रतोलियाजी यदि अपना आईसी दिखा देते तो टोल कर्मचारी के सामने टी आई पद की प्रतिष्ठा और रौब नष्ट हो जाता। इसे वह अपनी कामयाबी मानता, लोगों के बीच रस ले-ले कर कहता कि उसने टीआई से उसका आईसी निकलवा लिया। और ढेबर भाई यदि पहचान-पत्र नहीं बताते तो पूरी पार्टी का अनुशासन उसी क्षण ध्वस्त हो जाता है। दोनों ने अपने-अपने पद की प्रतिष्ठा की रक्षा की। एक ने अपनी पहचान बताकर और दूसरे ने अपना पहचान-पत्र बता कर।
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लोकतन्त्र का त्रिभुज : तरसती तीसरी भुजा

तीन महीनों से अधिक समय से अखबार पढ़ना बन्द है। अन्तिम यात्रा, उठावनों की सूचनाएँ देखने के लिए पन्ने पलटते हुए, शीर्षकों पर नजर चली जाती है। सपाटे से देख लेता हूँ। जिन्दगी में कई फर्क नहीं पड़ा। कभी नहीं लगा कि बाकी दुनिया से पिछड़ गया हूँ। सब कुछ सामान्य, तरोताजा लग रहा।

लेकिन आज पढ़ने में आ गया। पालक साफ करने में उत्तमार्द्ध ने मदद चाही। वे पुराने अखबार पर पालक फैलाए बैठी थीं। पालक साफ करते-करते दो-एक समाचार ऐसे देखने में आए कि बाकी अखबार देखने लगा।

अखबार 17 मई का । पहला समाचार गाँधी नगर में, स्कूल के ऐन सामने चल रही दारू-दुकान को हटाने के लिए जारी महिलाओं के धरने का था। महिलाएँ जनसुवाई में कलेक्टर के पास पहुँची। कलेक्टर ने कानूनों का हवाला देकर, दुकान हटाने में असमर्थता जता दी। महिलाएँ तैश में आ गईं। बोलीं, कानून नहीं हटा सका तो हम कानून हाथ में ले लेंगी। उम्मीद थी कि कलेक्टर जन-भावनाएँ अनुभव कर राहत देगा। लेकिन उल्टा हुआ। तुर्की-ब-तुर्की चेतावनी मिली - तो कानूनी कार्रवाई होगी। 

दूसरा समाचार श्रृंगी नगर में खुलनेवाली दारू की दुकान के विरोध मे धरने पर बैठी महिलाओं का। ठेकेदार ने एक मकान में दारू की बोतलें रखवा दी हैं। बस! दुकान शुरु होने भर की देर है। महिलाएँ अड़ी हुई हैं। अचानक महिलाओं में गहमा-गहमी शुरु हो गई। दूर से एसडीएम की गाड़ी आती नजर आई। महिलाएँ खुश हो गईं - चलो! आज मामला अपने पक्ष मेें निपट जाएगा। लेकिन एसडीएम ने तो महिलाओं की ओर मुँह भी नहीं किया। वे तो दारू की दुकान के लिए वैकल्पिक जगह देखने आई हैं। लोगों ने कोर्ट में दस्तक दे रखी है। कोर्ट ने 18 मई तक दुकान न खोलने के लिए स्थगनादेश जारी कर रखा है। एसडीएम ने, कोर्ट का फैसला आने तक के लिए, दुकान पर ताला लगवा दिया और बिना किसी से बोले चली गईं। महिलाएँ हतप्रभ, टुकुर-टुकुर देखती रह गईं।

तीसरा समाचार नान ज्यूडिशियल स्टाम्प पेपरों की कालाबाजारी का। कलेक्टर को मालूम हुआ तो टीम भेजकर जाँच कराई। शिकायत सच पाई। 50 रुपयों का स्टाम्प 60 रुपयों में और 500 रुपयों का स्टाम्प 600 रुपयों मंे बेचा जा रहा है। टीम ने दो दुकानें सील कर दीं। टीम ने जानने की कोशिश नहीं कि यह कालाबाजारी आज ही हुई या बरसों से जारी है। जानने की कोशिश करते तो निकम्मे साबित हो जाते। मालूम पड़ता कि जो बात पूरा रतलाम बरसों से जानता है, वह कलेक्टर की टीम को आज पहली बार मालूम हुई। 

चौथा समाचार रेल्वे स्टेशन स्थित स्कूटर स्टैण्ड का है। भाव पाँच रुपये है और ग्राहकों को दी जानेवाली  पर्ची पर भी पाँच रुपये ही लिखा है लेकिन ठेकेदार दस ले रहा है। अब तो लोगों को याद भी नहीं रहा कि कब से दुगुना पैसा ले रहा है।  लोग शिकायत करते चले आ रहे हैं लेकिन कभी, कोई कार्रवाई नहीं हुई। अखबार के सम्वाददाता ने ठेकेदार से पूछा तो जवाब मिला - ‘लोग क्यों देते हैं? उन्हें देना ही नहीं चाहिए।’ उससे कहा - ‘न दो तो तुम्हारे लोग बदतमीजी करते हैं, आतंकित करते हैं, हमलावर हो जाते हैं।’ ठेकेदार ने कहा - ‘लोगों को उचित जगह पर शिकायत करनी चाहिए।’ शिकायत किससे करें? अब तक अनगिनत बार शिकायत कर चुके। कोई कार्रवाई नहीं हुई। डीआरएम, नेता लोग तो स्कूटर रखते नहीं और रेल्वे कर्मचारियों के पैसे लगते नहीं। शिकायत पर कार्रवाई कौन करे और भला क्यों करे?

पाँचवा समाचार इन्दौर जानेवाली डेमू ट्रेन का है। रेल यहीं से बनती है। इसलिए लेट होनेवाली बात ही नहीं। रवानगी का निर्धारित समय 12ः30 बजे का है लेकिन रेल हिल ही नहीं रही। न सीटी बज रही न कोई झण्डी दिखा रहा। गर्मी चालीस डिग्री के आसपास है। लोगों के हलक सूख रहे हैं। बच्चे रो रहे हैं। लेकिन रेल को तो जैसे जड़ें निकल आई। आखिरकार 01ः10 बजे रेल सरकी। निर्धारित समय से पूर चालीस मिनिट बाद। मालूम हुआ, रेल प्रशासन को ड्रायवर ही नहीं मिला। मालगाड़ी चलानेवाले ड्रायवर से कहा तो उसने साफ इंकार कर दिया। जैसे-तैसे ड्रायवर लाया गया तब रेल चली। इस बीच रेल प्रशासन ने न तो कोई जानकारी दी न ही लाउडस्पीकर पर घोषणा की। प्लेटफार्म पर रेल्वे का काई जिम्मेदार आदमी भी नहीं।  स्थिति जानने के लिए लोग इधर-उधर भागते रहे और झिड़कियाँ खाते रहे। किसी जिम्मेदार अधिकारी की बात तो दूर, रेल्वे का परिन्दा भी मौजूद नहीं। रही बात नेताओं की तो सबके पास अपनी-अपनी वातानुकूलित, आरामदायक कारें। ऐसी कि पेट का पानी न हिले। गर्मी से बेहाल लोगों से उन्हें क्या लेना-देना? चुनाव वैसे भी लगभग डेड़ साल बाद है।

छठवाँ समाचार किसी और जगह का है। एक विधायकजी भन्ना रहे हैं। बड़े तैश में हैं। उन्हें टोल नाके पर लगभग आधा घण्टा रुकना पड़ा। कोई पहचानने को तैयार नहीं। उन्हें, अपना परिचय-पत्र बताने की असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ी। कहते सुने गए - कुछ करना पड़ेगा। टोल नाकों पर लोगों को बहुत परेशानी होती है। बिना किसी बात के घण्टों प्रतीक्षा करनी पड़ती है। मुख्य पीड़ा छुपा नहीं पाए - लाल बत्ती नहीं होने से यह सब बर्दाश्त करना पड़ा। 

सातवाँ समाचार भोपाल का है। मन्त्री मण्डल ने निर्णय ले रखा है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल से पुरुस्कृत/सम्मानित अध्यापकों को ‘बारी से परे’ (आउट ऑफ टर्न) पदोन्नत किया जाए। निर्णय राज्य के असाधारण गजट में भी अधिसूचित हो चुका है। लेकिन प्रदेश के लोक शिक्षण संचालक ने मानने से इंकार कर दिया। कहते हैं - ऐसा कोई नियम ही नहीं है। मन्त्री-त्रय पारस जैन, अर्चना चिटनिस, विजय शाह तथा अधिकारीगण अभिमत ही लेते रह गए लेकिन केबिनेट निर्णय का क्रियान्वयन नहीं हुआ। 

आठवाँ समाचार पुडुचेरी की राज्यपाल किरण बेदी का है। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त, केन्द्र सरकार की प्राधिकृत प्रतिनिधि, महामहीम राज्यपाल पता नहीं लोगों को (नेक) सलाह दे रही हैं या सरकार की अक्षमता की उद्घोषण कर रही हैं - ‘अपनी-अपनी बेटी बचाओ।’

मुझे थकान आ गई। आगे पन्ने नहीं पलट सका। मन पर उदासी और क्षोभ एक साथ तैर आए। हम लोकतन्त्र में जी रहे हैं। स्कूल से लेकर विधायी सदनों और सड़कों पर होनेवाली आम सभाओं में एक स्वर से कहते सुना - ‘लोकतन्त्र याने लोगों का शासन, लोगों के द्वारा, लोगों के लिए।’ यह व्याख्या किसी फूहड़ चुटकुले जैसी लगने लगती है। यह शासन लोगों के द्वारा तो है लेकिन लोगों का नहीं। और, लोगों के लिए तो है ही नहीं। यह तो ‘लोगों के द्वारा, नेताओं/अफसरों का, नेताओं/अफसरों के लिए’ है। 

स्कूल में गणित के अध्यापक सोमानी सर ने समझाया था - ‘अपना लोकतन्त्र समबाहु त्रिभुज है। इसकी तीनों भुजाएँ बराबर हैं। इसके तीनों कोण भी समान, 60-60 अंशों के हैं। इसे विभाजित करो तो समान आकार-प्रकार के तीन बराबर हिस्से होंगे - एक लोगों का, दूसरा सरकार का और तीसरा सरकारी तन्त्र का।’ लेकिन सोमानी सर यह बताना भूल गए थे कि लोगों के हाथ में उनका हिस्सा तो पाँच बरस में एक बार ही आएगा।  बहुत थोड़ी देर के लिए - वोट देने के एक मिनिट के लिए। बाकी चार बरस, ग्यारह महीने, उनतीस दिन, तेईस घण्टे, उनसाठ मिनिट वह नेताओं-अफसरों के पास ही रहेगा, उनके बाकी दोनों टुकड़ों के साथ। लोकतन्त्र का त्रिभुज तो इन दोनों के कब्जे में रहेगा। 
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                                          (दैनिक 'सुबह सवेरे',भोपाल में 01 जून 2017 को प्रकाशित)

दो धरम, दो चलन एक साथ नहीं निभते

दलाल कथा-5

यादव सा’ब के सुनाए, दलालों के किस्से आपको सुनाते हुए मैंने कहा था कि एक किस्सा मेरे पास वाला भी सुनाऊँगा। लेकिन ऐसा सिलसिला बन गया कि बीच में दूसरे किस्से आ गए और मेरेवाला किस्सा रह गया। देरी के लिए मुझे माफी दे दी जाए और ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ की तर्ज पर अब सुन लिया जाए।

यह किस्सा रतलाम का नहीं, मालवा के एक अन्य व्यापारी-कस्बे का है। इस किस्से का मैं चश्मदीद गवाह हूँ।

‘कन्नू दलाल’ के नाम से पहचाने जानेवाले कन्हैयालालजी कस्बे के सबसे वरिष्ठ और सबसे भरोसेमन्द दलाल थे। उनके लाए सौदे लेने के लिए व्यापारी एक पाँव पर बैठे रहते थे। वे भी कस्बे के तमाम व्यापारियों को सौदे पहुँचाया करते थे किन्तु ‘माँगू सेठ’ याने सेठ माँगीलालजी की पेढ़ी उनकी प्रिय पेढ़ी थी। दोनों एक दूसरे पर खुद के बराबर भरोसा करते और खुद से ज्यादा मान देते। एक की कही बात, दूसरे की इज्जत होती थी। कमाई के नाम पर कन्नूजी ने यही कमाया था - बाजार का भरोसा और इज्जत। बाजार में निकलते तो किसी सेठ की तरह मान पाते। लेकिन कन्नूजी ने कभी धरती नहीं छोड़ी। अपनी विनम्रता से उन्होंने पूरे कस्बे को कायल कर रखा था। 

कन्नूजी का एक ही बेटा था। भँवरलाल  पिता की तरह ही प्रतिभाशाली और व्यवहार कुशल। लेकिन पिता के सन्तोषी भाव से सदैव असहमत। वह धनपति होने को उतावला रहता था। गाहे-ब-गाहे, पिताजी पर झुंझला जाता। पिताजी की सिद्धान्तप्रियता उसे अपने परिवार की सम्पन्नता की यात्रा में सबसे बड़ी बाधा अनुभव होती थी। कन्नूजी कुछ नहीं कहते। उसे समझा देते। 

सब कुछ ठीक ही चल रहा था किन्तु होनी ऐसी हुई कि एक रात कन्नूजी सोये तो सुबह उठे ही नहीं। उनकी अर्थी ही उठी। लेकिन इस मौत का मातम केवल कन्नूजी के घर तक ही नहीं रहा। कन्नूजी का पुण्य-प्रताप ऐसा कि पूरे कस्बे को उनकी मौत का सदमा लगा। कन्नूजी के सम्मान में पूरा बाजार बन्द रहा। 

तेरह दिन पलक झपकते निकल गए। अब कामकाज भँवर को ही सम्हालना था। वह बाजार में उतरा तो जरूर लेकिन पिता की सिद्धान्तप्रियता, धैर्य और सन्तोष को खूँटी पर टाँग कर। उसे बड़ी जल्दी थी। कन्नूजी के प्रति लोगों का आदर भाव उसकी पूँजी थी। लेकिन जल्दी ही वह यह पूँजी खोने लगा। उसकी हरकतें देख माँगू सेठ ने इशारों ही इशारों में उसे समझाने की कोशिश की कि लेकिन भँवर ने अनसुनी, अनदेखी कर दी।

भँवर बेलगाम घोड़े की तरह सरपट दौड़ चला। इस उतावली में उसे अच्छे-बुरे का भान ही नहीं रहा और ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ को चरितार्थ कर बैठा। उसने अपने बुरे दिनों को न्यौता दे दिया। जो नहीं होना था, वह हो गया। एक दिन एकान्त में उसने माँगू सेठ को मानो धमकी ही दे दी। उसने इशारों में कहा कि उसे माँगू सेठ के व्यापार की वो बातें भी पता है जो यदि बाजार को मालूम हो जाए तो माँगू सेठ तकलीफ में आ जाएँ। उसने चुप रहने की अच्छी-भली कीमत माँग ली। माँगू सेठ को विश्वास ही नहीं हुआ-कन्नूजी का छोरा और ऐसी घटिया हरकत! इसे इसके बाप के और मेरे रिश्ते, मेरे सम्बन्धों का भी भान नहीं रहा! अपने बाप की इज्जत की भी चिन्ता नहीं रही! उन्होंने पहले तो उसे, नरमाई से समझाया। कोई असर होता नजर नहीं आया तो हलके से डाँटा। लेकिन भँवर की आँख का पानी मर चुका था। उस पर कोई असर नहीं हुआ। माँगू सेठ ने मर्मान्तक पीड़ा से कहा - ‘भँवर! मैं कन्नूजी का लिहाज कर रहा हूँ इसलिए जोर से नहीं बोल रहा हूँ। क्या पता, मेरे जोर से बोलने से कन्नूजी की आत्मा दुखी हो जाए। तू बेटा बनकर सामने आता तो मैं कुछ सोचता भी। लेकिन तू तो मेरा बाप बनकर सामने खड़ा है! मैं तेरी कोई बात माननेवाला नहीं। जा! तुझे जो करना हो, कर ले। कोई कसर मत रखना।’ तुलसीदासजी की ‘जा को प्रभु दारुण दुख देई, वाकी मति पहले हर लेई’ वाली चौपाई भँवर पर लागू हो रही थी। इतनी गम्भीर बात भी उसकी समझ में नहीं आई। ‘तो ठीक है सेठजी! अब आपका कल का सूरज राजी-खुश नहीं उगेगा।’ कहकर दुष्टतापूर्वक हँसता हुआ चला गया।

लेकिन माँगू सेठ सामान्य, सहज बने रहे। कुछ नहीं बोले। कुछ नहीं किया। दो-तीन जगह फोन लगाया और शाम को रोज की तरह पेढ़ी मंगल कर घर चले आए। भोजन कर, रामजी को याद करते-करते सो गए।

अगली सुबह बाजार में हल्ला था - ‘माँगू सेठ के पतरे उलट गए।’ याने सेठ माँगीलालजी दिवालिया हो गए। उनकी पेढ़ी पर, ब्याज पर रकम लगानेवालों ने भँवर से कहा तो उसने कपड़े फेंक दिए - ‘तुम जानो और सेठ माँगीलाल जानें।’

माँगू सेठ की साख का आलम यह कि उनके सामने जाने की हिम्मत वैसे भी नहीं होती। ऐसे में भला रुपये माँगने के नाम पर कैसे जाएँ? अकेले जाने की तो किसी की हिम्मत ही नहीं हुई। अपनी-अपनी हुण्डी लेकर लोग दो-दो, तीन-तीन का साथ बना कर पहुँचे। किसी को अपनी रकम मिलने की उम्मीद नहीं थी। भागते भूत की लँगोटी की एक लीर ही मिल जाए। सबको लगा था, माँगू सेठ, मुँह लटका कर, हाथ जोड़े बैठे होंगे। लेकिन वहाँ तो नजारा ही दूसरा था। लोगों की आँखें फटी रह गईं और जबान को लकवा मार गया। माँगू सेठ सौ-सौ के नोटों की गड्डियों की थप्पियाँ लगाए बैठे थे। मुनीमजी को उन्होंने दूर बैठा दिया था। खुद ही एक-एक का हिसाब कर रहे थे। अपना भुगतान लेकर जानेवाले प्रत्येक व्यापारी को कह रहे थे-‘बाजार में सबको खबर कर देना। जिसके भी पास हुण्डी हो, आकर अपनी रकम ले जाए।’ 

डेड़-दो घण्टा भी नहीं हुआ और बाजार की रंगत बदल गई। हुण्डी लेकर आनेवाले, माँगू सेठ की पेढ़ी तक पहुँचने से पहले ही उल्टे पाँवों लौटने लगे। जो रकम ले चुके थे, पछताने और घबराने लगे। पूरे बाजार में भँवर की तलाश शुरु हो गई। लेकिन भँवर हो तो मिले! पता नहीं कब उसने कस्बा छोड़ दिया। घर पर ताला। आस-पड़ौसवालों को भी भनक नहीं हुई। मानो हवा में अन्तर्ध्यान हो गया। 

यह माँगू सेठ की सूझबूझ और दम-गुर्दा ही था कि जितनी तेजी से बवण्डर उठा था, उससे अधिक तेजी से बैठ गया। माँगू सेठ की साख तो सौ गुना बढ़ गई लेकिन बाजार में दलालों का काम करना मुश्किल हो गया। भँवर ने दलाल कौम के नाम को बट्टा लगा दिया था। दलालों को खुद को दलाल कहने में पसीने आने लगे। लेकिन यह दशा कुछ ही दिन रही। जल्दी ही बाजार में पहले की तरह ही रामजी राजी हो गए। लेकिन माँगू सेठ भला भँवर को कैसे भूलें? उस पर खुब गुस्सा आए। लेकिन उसकी याद के साथ-साथ कन्नूजी की याद भी चली आए। गुस्सा झुुंझलाहट, खीझ में बदल जाए। कन्नूजी की वजह से उस पर दया भी आए। क्या कर दिया बेवकूफ ने? कहाँ चला गया। कुछ कर-करा न लिया हो। कोई दिन ऐसा न गया जब माँगू सेठ ने भँवर की तलाश, पूछ-ताछ न की हो।

दो साल हो गए। अधिक मास में माँगू सेठ सपरिवार तीर्थ यात्रा पर गए। एक दोपहर, देव-दर्शन कर लौटते हुए उन्हें लगा, भँवर नजर आया था। वे वहीं खड़े हो गए। आसपास देखा। भँवर कहीं नहीं था। लेकिन माँगू सेठ ने इस बात को हलके में, भ्रम की तरह नहीं लिया। उन्हें विश्वास हो गया कि उन्होंने भँवर को ही देखा था। वे रोज, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ निपटा कर उसी दुकान पर बैठने लगे, जिसके सामने उन्हें भँवर नजर आया था। उन्हें ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। तीसरे ही दिन भँवर उनकी पकड़ में था। भँवर को काटो तो खून नहीं। उससे कुछ न बन पड़ा और धार-धार रोने लगा। न कुछ बोले, न कुछ करे। बस रोए जाय। माँगू सेठ की भी यही दशा। आखिर था तो उनके कन्नूजी का ही बेटा! अपने बेटे की ही तरह। वे भी भँवर के सुर में सुर मिला, रोने लगे। दुकानदार को पहले ही पता चल चुका था। उसने दोनों को दुकान में बैठाया। हाथ-मुँह धुलवाए। पानी पिलाया। दोनों बोलने-सुनने की दशा में आए तो माँगू सेठ ने लाड़ से डाँटा - ‘गुस्सा तो तुझ पर इतना आ रहा था कि तुझे गोली मार दूँ। अरे! तेने मेरा नहीं सोचा तो कोई बात नहीं। पर तेने कन्नूजी का भी नहीं सोचा? और खैर! कर दिया सो कर दिया। लेकिन इस तरह भागने की, पीठ दिखाने की क्या जरूरत थी। तू क्या समझता है भाग कर तेने तेरी इज्जत बचाई? नहीं! तेने कन्नूजी का नाम खराब कर दिया। कन्नूजी का बेटा तो मर्द की तरह मैदान में खड़ा रहता। अपनी गलती कबूल करता। जिम्मेदारी लेता और गलती सुधारने का मौका माँग बाजार का भरोसा कमाता। जिन्दगी ऐसे थोड़े ही चलती है? ऊँच-नीच चलती रहती है। चल! अपने घर चल! फिर से सब कुछ शुरु कर कर। कन्नूजी तेरेे लिए बहुत काम छोड़ गए हैं। उनकी खोई इज्जत कमा कर उनको वापस कर।’ माँगू सेठ समझाए जाएँ और भँवर इंकार में मुण्डी हिला-हिला कर, माँगू सेठ के पाँवों पर झुक-झुक जाए।

दो दिनों बाद भँवर फिर से अपने कस्बे में था। बीच बाजार में। माँगू सेठ उसे लिए खड़े थे। सबसे कह रहे थे - ‘अपने कन्नूजी का छोरा है। सब मिल कर इसे सम्हालो। गलती सब से होती है। इससे भी हो गई। आगे से ऐसा नहीं करेगा। मैं इसकी जमानत देता हूँ।’ फिर भँवर से बोले - ‘तू सेठ बनना चाहता है। बहुत अच्छी बात है। लेकिन उसके लिए तुझे दलाली छोड़नी पड़ेगी। सेठ कभी दलाली नहीं करता और दलाल कभी साहूकारी नहीं करता। दोनों का अपना-अपना धरम और अपना-अपना चलन है। याद रखना - व्‍यापार-धन्‍धे में दो धरम और दो चलन एक साथ नहीं निभते।’ 

माँगू सेठ की बात भँवर ने गाँठ बाँध ली। कोई सात-आठ बरस बाद कस्बे में एक नई पेढ़ी की शुरुआत हुई - सेठ भँवर दलाल की पेढ़ी।
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हाँ! मेरी थैली में अफीम है।

सच का रास्ता अपनानेवाले वकील सा’ब की आपबीती से गुजरते हुए मुझे अनायास ही मिस्त्री सा’ब याद आने लगे और पूरे समय तक याद आते रहे।
मिस्त्री साब का नाम भँवरलाल प्रजापति था लेकिन उन्हें अपवाद स्वरूप ही ‘प्रजापति’ सम्बोधित किया गया होगा। सदैव मिस्त्री, भँवरलाल मिस्त्री या मिस्त्री साब ही सम्बोधित किए गए। औसत मध्यवर्गीय संघर्षशील आदमी। मैंने उन्हें किराये के मकान में ही रहते देखा। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि लोग उन्हें ध्यान से देखें। लेकिन वे सबसे अलग थे। मुख्य काम मकान बनाना किन्तु शब्दशः हरफनमौला। उन्हें हर काम आता था। या कहिए कि कोई काम ऐसा नहीं जो उन्हें न आता हो। हर काम कर लेते और जब करते तो लगता, इसीमें मास्टर हैं। पूरे मनोयोग, पूरी तल्लीनता और अपनी सम्पूर्णता से करते। चुनौतियाँ उन्हें ललचाती थीं। कोई नई बात देखते तो ‘भेदिया नजर’ से। नजरों ही नजर में उसका एक्स-रे कर लेते। कोई  पूछता - ‘मिस्त्री साब! ये कर सकोगे?’ वे उत्साह और उत्फुल्लता से कहते - ‘क्यों नहीं कर सकते? अपन नहीं कर सकते तो फिर कौन करेगा?’ और पहली ही बार में उसे इस तरह कर लेते मानो जन्म-जन्मान्तर से वही काम करते चले आ रहे हों। 
मस्तमौला और खुशदिल ये दो शब्द मैंने उन्हीं से साकार होते देखे। अभावों को वे कबीर के फक्कड़पन से जीते थे। उन्हें जिन्दगी से कभी शिकायत करते नहीं देखा। गरीबी, अभाव और साधनहीनता ने उन्हें कभी खिजाया नहीं और समृद्धि ने कभी ललचाया नहीं। बात और हाथ के सच्चे, साफ-सुथरे। उन्हें झूठ बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। वे जिन्दगी के पल-पल को भरपूर आनन्द से जीते। मुझे इस क्षण भी लग रहा है कि उनकी मस्ती और मौज से कुबेर भी उनसे ईर्ष्या करते रहे होंगे। वे हमारे मुहल्ले की समाजिकता के प्राण और हरियाली थे। मुहल्ले के उत्सव मिस्त्री साब की भागीदारी से ही पूर्णता और सार्थकता पाते थे। वे उत्सवों की रंगीनी होते थे। किसी न्यौते-बुलावे की प्रतीक्षा नहीं करते। होली के दिनों में, लगभग पूरे पखवाड़े खेले जानेवाले ‘वाना’ में हर दिन नई धज, नए स्वांग में नजर आते। खुद ‘वाना’ नहीं खेलते किन्तु उनके बिना ‘वाना’ शुरु ही नहीं होता। उनके बाँये हाथ का पंजा, जन्म से ही, मणीबन्ध से लगभग नब्बे डिग्री से अन्दर की ओर मुड़ा हुआ था। किन्तु यह आंशिक अपंगता उन पर अंशतः भी हावी नहीं हो पाई। 
उतनी पत्नी पर मैं लट्टू था। नाटे कद की, गोरी-चिट्टी। उनका गोलमटोल, मुस्कुराता चेहरा मैं इस क्षण भी देख रहा हूँ। उनकी मुस्कान मेरी नजरों से अभी भी ओझल नहीं हो रही। ऐसी सहज, निश्च्छल, मोहक मुस्कान उनके बाद मुझे आज तक किसी के चेहरे पर नजर नहीं आई। मेरा बस चलता तो मैं उनकी इस ‘भुवन मोहिनी मुस्कान’ को   माचिस की किसी खाली डिबिया में उसी तरह सहेज कर रख लेता जिस तरह उन दिनों हम जुगनुओं को बन्द कर रख लेते थे। मुझे लगता, वे मुझे देखकर ही मुस्कुरा रही हैं। इसी मुस्कान के कारण उनके चेहरे से मेरी नजर हटती ही नहीं थी। मैं टकटकी लगाए उन्हें देखता। वे जैसे ही मेरी ओर देखतीं, मैं झेंप कर नजरें नीची कर लेता। वे खिलखिला कर हँस देतीं। 
डिबिया को मालवी में ‘डाबी’ कहते हैं। उनके नाटे कद के कारण मैं उन्हें ‘डाबी भाभी’ कहता था। मैं जब तक मनासा में रहा, इस सम्बोधन पर मेरा एकाधिकार रहा। मेरी गैरहाजरी में किसी ने भले ही उन्हें ‘डाबी भाभी’ कहा हो, मेरे सामने दूसरा कोई उन्हें ‘डाबी भाभी’ नहीं कह सकता था। कह ही नहीं सका। मैंने किसी को कहने ही नहीं दिया। उनके गोरे-चिट्टे भाल पर लगी, बड़ी सुर्ख लाल बिंदिया ऐसे लगती मानो पूनम की रात में सूरज उगा हुआ हो। वे मिस्त्री साब की परछाई बनी रहतीं।
मिस्त्री साब शिक्षित तो नहीं थे  किन्तु अनपढ़ भी नहीं थे। वे दस्तखत कर लेते और कहीं लिखना भूल न जाएँ, इसलिए कभी-कभार चिट्ठी-पत्री कर लेते। एक सुबह, काम पर जाते हुए वे बड़ा लिफाफा लेकर दादा के पास आए। बोले - ‘दादा! जरा देखना तो यह क्या आया है।’ दादा ने देखा, वह हिन्दुस्तान मोटर्स का, चिकने कागजों पर छपा, भारी-भरकम, रंगीन केटलॉग था जिसमें एम्बेसेडर कार के ब्यौरे दिए हुए थे। दादा को कोई हैरत नहीं हुई। दादा ही नहीं, पूरा मुहल्ला मिस्त्री साब के मिजाज से वाकिफ था। दादा ने पूछा - ‘कहीं, किसी को चिट्ठी लिखी थी क्या?’ मिस्त्री साब ने लापरवाही से कहा - ‘हाँ। वो बिड़लाजी को कारड (पोस्ट कार्ड) लिखा था कि कारें बनाना बन्द तो नहीं कर दिया?’ दादा ने कहा - ‘उसी का जवाब भेजा है बिड़लाजी ने। कार का फोटू है। पूछा है कितनी कारें खरीदोगे।’ औजारों का थैला कन्धे पर धरते हुए, बहुत ही जिम्मेदारी से मिस्त्री साब ने निरपेक्ष भाव से जवाब दिया - ‘कार-वार क्या लेनी? क्या करूँगा लेकर? कहाँ जाऊँगा। आप बिड़लाजी को लिख देना, कारें बनाते और बेचते रहें। मेरे भरोसे नहीं रहें।’ और दादा को हँसने का मौका दिए बिना निकल लिए।
इन्हीं मिस्त्री साब ने सच की ताकत का यह किस्सा मुझे सुनाया था जिसकी वजह से वकील साब की आपबीती के दौरान मुझे मिस्त्री साब याद आ गए।
मालवा में अफीम की तस्करी बहुत सामान्य बात है। बड़े तस्कर तो अपना काम करते ही हैं लेकिन फटाफट हजार-पाँच सौ कमा लेने के चक्कर में कई लोग, सौ-पचास किलो मीटर में अफीम पहुँचाने के लिए केरीयर का काम करते रहते हैं। मिस्त्री साब ऐसे लफड़ों में कभी नहीं पड़े। वे लालच में कभी पड़े ही नहीं। लेकिन एक बार, बात-बात में चुनौती ले बैठे। एक केरीयर ने अपने काम की जोखिम का बखान किया तो मिस्त्री साब कह बैठे -  ‘इस तरह अफीम पहुँचाने में क्या है? कोई भी पहुँचा सकता है।’ केरीयर ने कहा - ‘दो तोले की जबान हिलाने में क्या जाता है? कभी जोखिम उठाओ तो मालूम पड़े।’ बात-बात में बात ‘काची की हाँची’ (कच्ची की सच्ची/मजाक से हकीकत) हो गई। मिस्त्री साब ने चुनौती झेल ली। तय हुआ कि मिस्त्री साब सौ ग्राम अफीम, मनासा से बत्तीस-पैंतीस किलो मीटर दूर बघाना (नीमच) पहुँचाएँगे। 
नीमच का नाम सबने सुना ही होगा। अंग्रेजों के समय से यहाँ सेना का बड़ा केन्द्र बना हुआ है। अभी  सीआरपीएफ के प्रशिक्षण केन्द्र सहित कुछ बटालियनों का मुख्यालय है। आज तो नीमच अपने आप में जिला मुख्यालय हो गया है किन्तु तब मन्दसौर जिले का सब डिविजन था। नीमच तीन हिस्सों में बसा हुआ है - नीमच सिटी, नीमच केण्ट और बघाना। बघाना, नीमच रेल्वे स्टेशन के पार है। वहाँ जाने के लिए रेल्वे फाटक पार करना पड़ता है। 
मिस्त्री साब ने सुनाया - “टाट की थैली में अपने एक जोड़ कपड़े और कुछ सामान के बीच सौ ग्राम अफीम रखकर मैं मनासा से चला। नीमच उतरा। बस स्टैण्ड से पैदल-पैदल बघाने की ओर चला। रेल्वे फाटक पर पहुँचा तो दिन में तारे नजर आने लगे। फाटक के दोनों ओर एक-एक पुलिस जवान खड़ा था। आने-जानेवालों के सामान की तलाशी ले रहे थे। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ। मैं सिपाही के इतने पास पहुँच चुका था कि वापस लौट भी नहीं सकता था। मेरी धुकधुकी बढ़ गई। क्या करूँ, क्या न करूँ? आँखों के आगे काले-पीले आने लगे। लम्बी साँस लेकर मैंने सिपाही के पास ही खड़े-खड़े, जेब से बण्डल निकाल कर बीड़ी सुलगाई। इसी बहाने सोचने का थोड़ा मौका मिलेगा। दो-एक फूँक लगाने के बाद तय किया - आगे बढ़ूँगा और सच बोलूँगा।
“मैंने कदम बढ़ाया ही था कि पुलिसवाला कड़का - ‘ऐ! कहाँ जा रहा है? थैली में क्या है?’ मैंने कहा - ‘बघाना जा रहा हूँ।’ फिर थैली उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला - ‘थैली में अफीम है। देखोगे?’ पुलिसवाले ने मुझे धौल जमाई और बोला - ‘स्साले! पुलिसवाले से मजाक करता है? कहता है, अफीम है। कभी अफीम देखी भी है तेरे बाप ने? अभी अन्दर कर दूँगा स्साले को। चल! भाग!’ मैं भागा तो नहीं लेकिन जल्दी-जल्दी फाटक पार की। मुकाम पर पहुँचा। ‘सामान’ सौंपा और जो बघाना से चला तो मान लो कि घर पहुँच कर ही साँस ली।
“आकर मैंने सामनेवाले के हाथ जोड़ लिए। हाँ भई! हाँ। तेरे काम में बहुत रिस्क है। लेकिन मेरे सच ने तेरी रिस्क की हवा निकाल दी। मैं राजी खुशी घर आ गया। मेरा कहना मान। तू भी ये धन्धा छोड़ दे। मेरी नकल कर, सच बोलने से तू एक-दो बार भले ही बच जाएगा लेकिन सच भी तो सच्चे काम का ही साथ देगा। कभी न कभी पकड़ा जाएगा और तेरे छोरे-छापरे तेरी जमानतें कराते-कराते कंगाल हो जाएँगे।’ उसे मेरी बात जँच गई। बोला - ‘छोड़ तो दूँ लेकिन करूँगा क्या?’ मैंने कहा - ‘करे तो बहुत काम है। कल से मेरे साथ आ जा। साल-दो साल में मिस्त्री बन जाएगा। कपड़े जरूर धूल मिट्टी में सन जाएँगे लेकिन इज्जत की जिन्दगी जीएगा और चैन से सोएगा।’ उसने कहा मान लिया और अफीम से राम-राम कर ली। आज वो मेरे बराबरी से काम कर रहा है।”
अपनी बात खतम करते हुए मिस्त्री साब ने कहा था - ‘बब्बू भई! साँच को आँच नहीं और मेहनत को जाँच नहीं।’
सच कहा था मिस्त्री साब ने। आँच और जाँच जारी तो है लेकिन सच की नहीं, झूठ की।
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जिन्दगी बदल दी गाँजे ने

जबलपुर से एक परिचित वकील सा‘ब का फोन आया। बोले - ‘मेरे पास मेरे एक सीनीयर सर बैठे हैं। मैं इन्हें आपका ब्लॉग पढ़वाता रहता हूँ। आज इन्होंने मुझे आपके लिए एक आपबीती सुनाई। कहा कि वह मैं आपको सुना दूँ। सर का कहना है कि सुनने के बाद इनकी यह आपबीती लिखने से खुद को रोक नहीं पाएँगे। मैंने सर से कहा कि खुद ही आपसे बात कर लें। मैं फोन सर को दे रहा हूँ।’

वकील साहब की आपबीती सचमुच में ऐसी है जिसे लिखने से कोई नहीं रुक पाए। उनकी बात मैं लिखूँ इससे बेहतर है कि उनकी यह आपबीती उन्हीं की जबानी सुन लें।

“मैं महाकौशल के एक जिला मुख्यालय पर रहता हूँ। वहीं वकालात करता हूँ। इस समय मेरी उम्र साठ के आसपास है। जो केस आपको सुना रहा हूँ वह मेरी लाइफ का टर्निंग पवाइण्ट रहा। मेरी जिन्दगी बदल गई।

“कोई अट्ठाईस, तीस बरस पहले की बात है। वकालात में मेरी पहचान बन गई थी। क्रिमिनल लॉ मेरा पसन्ददीदा सब्जेक्ट था। मैं लॉ भी पढ़ता और क्रिमिनल केस स्टडी भी करता। धीरे-धीरे यह मेरी पहचान बन गया। अपराधियों की जमानत कराना और अपने नालेज और लॉजीकल स्किल के दम पर उन्हें एक्विट कराने में एक्सपर्ट माना जाने लगा। जिले के नामचीन क्रिमिनलों का मेरे घर पर आना-जाना बना रहता। जिनके नाम से लोग थर्राते थे उनसे मेरा याराना हो गया। मेरी पीठ पीछे लोग मुझे ‘क्रिमिनल लॉ लायर’ के बजाय ‘क्रिमिनल लायर’ कहते थे। मालूम मुझे सब था लेकिन मैं किसी की परवाह नहीं करता था। मुँहमाँगी तगड़ी फीस तो मिलती ही थी, मेरे बहुत सारे काम इसी कारण चुटकी बजाते हो जाते।

“मुझे डीजे कोर्ट का एक केस मिला। पहली नजर में केस बहुत ही मामूली, बहुत ही छोटा था। इसके इसी मामूलीपन, छोटेपन ने मेरा ध्यान खींचा। एक आदमी से साढ़े तीन सौ ग्राम गाँजा पकड़ा गया था। लोअर कोर्ट ने सजा दे दी थी। यूँ तो बात बहुत बड़ी नहीं थीं लेकिन जिसे सजा दी गई थी, उसके कारण मामला इम्पार्टण्ट हो गया था। अपराधी बहुत खूँखार था। पूरे इलाके के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था। एडमिनिस्ट्रेशन के लिए वह एक चेलेंज बन गया था। उसकी क्रिमिनल हिस्ट्री के लिहाज से उससे साढ़े तीन सौ ग्राम गाँजा बरामद होना और उसे सजा हो जाना ही सबसे बड़ा सरप्राइज था। इतने बड़े और खूँखार क्रिमिनल के लिए तो यह बेइज्जती जैसी ही बात थी।

“एक इसी फेक्ट ने मुझे क्यूरीयस बनाया। मैंने पूरा केस बार-बार पढ़ा। मुझे हैरत हो रही थी - ‘ऐसे मामलों में अपने क्लाइण्ट को एक्विट कराना तो चुटकी बजाने से भी कम का काम होता है! फिर, इस केस में आखिर ऐसा क्या है?’ बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। मुझे समझ आ गया कि पूरा मामला पुलिस का बनाया हुआ है। पुलिस पर ऊपर से दबाव था - ‘किसी भी तरह इसे एक बार जेल भेजो। एक बार अन्दर गया तो फिर कभी बाहर न निकले, ऐसी व्यवस्था कर लेंगे। जैसे ही छूटेगा, जेल के दरवाजे पर ही दूसरे गुनाह में गिरफ्तार कर फिर अन्दर कर देंगे।’ इसी प्लान के तहत इसे सजा हुई थी। पुलिस ने इस मामले में फुल-प्रूफ प्लान बनाया और उसे अंजाम तक पहुँचाया।

“मामले में कुल पाँच गवाह थे। पाँचों के पाँचों पक्के। पब्लिक प्रासीक्यूटर ने मानो अपना सारा जोर इसी मामले में लगा दिया था। पुलिस ने पूरी चौकसी बरती। एक भी गवाह टूटना तो दूर, एक हर्फ से भी इधर-उधर नहीं हुआ। सब कुछ ‘किसी वेल रिहर्स्ड, टाइट ड्रामा’ की तरह हुआ। यह केस मुझे इण्‍टरेस्‍ि टंग तो लगा ही, चेलेंजिंग भी लगा। सोच लिया - ‘इसे फीस के लिए नहीं, खुद को प्रूव करने के लिए लड़ना है।’   

“डीजे साहब नए-नए आए थे। उनकी पहचान उनके आने से पहले ही पहुँच चुकी थी। बड़े सख्त मिजाज। जल्दी से जल्दी मामला निपटानेवाले। यह, ‘मामला जल्दी निपटानेवाली बात’ ही मुझे सबसे बड़ी बाधा लगी। मुझे, ‘प्रोफेशनल नालेज’ को एक तरफ सरका कर पहले इसका तोड़ ढूँढना था।

“लोअर कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने का आखिरी दिन तेजी से पास आता जा रहा था। मैंने सबको टटोलना शुरु किया। मुकदमे में मेरा नाम सामने आते ही पुलिस अतिरिक्त सजग हो चुकी थी। यह केस जिस तरह से मेरे लिए चेलेंजिंग था, मेरा नाम सामने आने के बाद पब्लिक प्रासीक्यूटर के लिए उससे भी अधिक चेलेंजिंग था। पुलिस की चुस्ती, चौकन्नापन ऐसा कि गवाह तो क्या गवाहों के परिजन भी नजर आने बन्द हो गए। गवाह मिल भी जाते तो उनका न टूटना तय था। केस में कुछ नया कहने, नया पेश करने की गुंजाइश तिनके बराबर भी नहीं। चारों ओर इसी केस के चर्चे। 

“मुझे हर दिन, अपील करने का आखिरी दिन लगने लगा। मैंने केस ले तो लिया लेकिन अब करूँगा क्या? इन डीजे साहब के सामने मेरा पहला केस था। ऐसा कुछ भी करने सोच भी नहीं सकता था जिसकी वजह से मेरे बारे में वे नेगेटिव ओपीनीयन बना लें। कुछ भी नहीं सूझ रहा था। एक बार विचार आया -  मुकदमा लड़ने से इंकार कर दूँ। लेकिन यह भी मुमकिन नहीं था। एकान्त में मैं खुद को ‘साँप छछूूॅूँदर’ वाली पोजीशन में पाता। 

“लेकिन जहाँ चाह, वहाँ राह। मैंने एक रास्ता तलाश लिया। मुझे ‘नालेज’ नहीं ‘स्किल’ से काम लेना होगा। मैंने वही किया। पूरी सुनवाई के दौरान ‘नार्मल एण्ड नेचुरल’ बना रहा। एक बार भी लम्बी तारीख नहीं माँगी। डीजे साहब ने जो कहा, जैसा कहा, वह, वैसा ही माना। मैंने कोई नया सबूत पेश नहीं किया न ही कोई गवाह टूटा। सब कुछ वैसा का वैसा ही रहा जैसा लोअर कोर्ट में था।

“जल्दी ही फैसले का दिन आ गया। डीजे कोर्ट रूम पूरा
भरा हुआ था। मेरे क्लाइण्ट से जुड़े लोग तो गिनती के थे बाकी सब वकील ही वकील। मुझे खबर मिली कि फैसला जल्दी से जल्दी जानने के लिए कलेक्टर और एसपी भी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के पास वाले डाक बंगले पर बैठे हैं। 

“मेरे केस का नम्बर आया। डीजे साहब ने अपना, रिटन डिसीजन पढ़ना शुरु किया। बहुत बड़ा नहीं था। लेकिन जैसे ही अन्तिम पैराग्राफ आया, डीजे साहब रुके। गम्भीर मुद्रा और निराश, थकी आवाज में बोले - ‘अब मैं जो पढ़ने जा रहा हूँ, वह एक फैसला मात्र है, न्याय नहीं (नाऊ व्हाट आई एम गोइंग टू रीड, इज ए मीअर डिसीजन, नाट द जस्टिस)। और उन्होंने बेमन से कुछ इस तरह पढ़ा - ‘लोक अभियोजक, अपराध असंदिग्ध रूप से प्रमाणित नहीं कर सके। न्यायालय के सामने आरोपी को दोष मुक्त करने के सिवाय और कोई चारा नहीं।’ कह कर डीजे साहब उदास मुख-मुद्रा में अपने चेम्बर में चले गए।

“डीजे साहब का जाना था कि कोर्ट रूम में कोहराम मच गया। मानो बम फट गया। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं कामयाब हो गया हूँ। सब हैरान थे। वकील एक के बाद एक मुझे ग्रीट कर रहे थे। मैं धरती पर नहीं था। चारों ओर मैं ही मैं था। अपनी कामयाबी पर मुझे गर्व हो रहा था। 
लेकिन आत्म-मुग्धता में मैंने कल्पना भी नहीं की यह समाप्ति नहीं, शुरुआत है। मेरी जिन्दगी की दशा और दिशा बदलने की शुरुआत। 

“दो दिनों के बाद मुझे डीजे साहब ने शाम को अपने बंगले पर बुलाया। उन्होंने जो कहा, उसका एक-एक शब्द आज, कोई तीस बरस बाद भी मेरे कानों में गूँज रहा है। धीर-गम्भीर आवाज में उन्होंने कहा - ‘तुम मेरे बड़े बेटे की उम्र के हो। तुमने जो कुछ किया उससे मुझे फिक्र हो रही है कि कहीं मेरा बेटा भी ऐसा ही न करने लगे। तुमने जो किया, अच्छा नहीं किया। तुमने अपने अनुभव और ज्ञान का उपयोग किया होता तो मैं तुम्हें वहीं, फैसला सुनाते हुए, कुर्सी से ही बधाई देता। किन्तु तुमने चतुराई बरती। मुझे खुद पर गुस्सा और खीझ हो रही है कि तुम्हारी चतुराई मुझे बहुत देर से समझ में आई। तुमने प्रक्रिया की कमजोरी का फायदा उठाया। जो गवाही एक दिन में पूरी हो सकती थी, तुमने तीन-तीन दिन में पूरी की। बेशक तारीख तुमने वही मानी जो मैंने दी थी। लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया, यह मुझे तब समझ में आया जब तुमने, अपनी जिरह यह कह कर समाप्त की कि कोर्ट में पेश किया गया गाँजा वह गाँजा है ही नहीं जो जप्त किया गया था। तुम्हारी इस दलील ने मुझे चौंका दिया था। लेकिन जब गाँजा तुलवाया गया तो वह पौने तीन सौ ग्राम के आसपास निकला, साढ़े तीन सौ ग्राम नहीं। दूसरे लोगों की छोड़ो, खुद मैं ही हक्का-बक्का रह गया। ऐसा कैसे हो गया? यह ऐसा ‘वस्तुपरक तथ्य’ (मटीरीयल फैक्ट) था जिसकी अनदेखी करना मुमकिन ही नहीं था। अब समझ में आया कि हर पेशी पर, गवाह से जिरह करते समय तुम जप्त गाँजे की पोटली खुलवा कर, गाँजे को चुटकी में मसलते हुए गवाह से पूछते थे - ‘क्या यह वही गाँजा है जो जिसकी जप्ती के पंचनामे पर तुम्हारे दस्तखत हैं?’ तो उसका मतलब क्या होता था। तुमने हर पेशी पर, गवाह से की गई हर जिरह में इस तरह चुटकियों से मसल-मसल कर गाँजे की मात्रा कम कर दी। और तुम यह सबित करने में कामयाब हो गए कि जो गाँजा जप्त करने का आरोप है, वह गाँजा तो है ही नहीं। तुमने मुकदमे की नींव ही ढहा दी। लेकिन याद रखो, तुम मुकदमा जरूर जीत गए, जिन्दगी हार गए। वकील जीत गया, वकालात का प्रोफेशन, उसकी पवित्रता  हार गई।’

“मुझे काटो तो खून नहीं। मैं तो इस उम्मीद से आया था कि डीजे साहब जो बधाई कोर्ट में नहीं दे सके वही बधाई मुझे यहाँ मिलेगी। लेकिन यहाँ तो सब कुछ उल्टा हो गया। उन्होंने मेरी चोरी पकड़ ली थी। मुझे लग रहा था मैं अपनी आँखों अपना पोस्टमार्टम होते हुए देख रहा हूँ।

“डीजे साहब रुके नहीं। बोले - ‘जिन्दगी तुम्हारी है। इसे कैसी बनाना, यह तुम ही तय करोगे। लेकिन जिन लोगों को तुम बचा रहे हो वे दुधारे हथियार हैं। वे किसी के सगे नहीं होते। जिस दिन तुम उनकी उम्मीद पूरी नहीं कर पाओगे उस दिन सबसे पहले वे तुम पर ही वार करेंगे। तब तुम्हें कोई नहीं बचा पाएगा। उनकी दी हुई फीस भी किसी काम नहीं आएगी। परसों जिसे तुमने छुड़ाया है, तुम जानते हो वह पूरे समाज के लिए परेशानी बना हुआ है। कभी सोचना कि कितने लोगों की बददुआएँ तुम्हें लगेंगी। सोचना कि उस एक आदमी के कारण कितने लोग अपनी नींद नहीं सो पाएँगे। अभी तुम्हारी शुरुआत है। एक तो जवानी और उस पर कामयाबी। मनमाफिक मिल रहा पैसा अलग। तुम बौरा रहे हो। ये सब मिलकर तुम्हारी जिन्दगी कहीं नरक न बना दें। लोगों की दुआएँ असर करे न करे, बददुआएँ जरूर असर करती हैं। अभी जवान हो। प्रतिभावान हो। मेहनती भी हो यह तो इस केस में मैं देख ही चुका हूँ। अभी पहाड़ जैसी जिन्दगी बाकी है। जिस इलाके का मैं रहनेवाला हूँ, वहाँ कहा जाता है - ‘जैसा खाए धान, वैसा आए भान।’ आज अपराधियों को बचा रहे हो। कल कहीं खुद ही अपराधी न बन जाओ। मैं भगवान से तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगा कि तुम्हें सद्बुद्धि दे। अपनी कृपा तुम पर बरसाए। तुम सपरिवार स्वस्थ, सुखी, प्रसन्न, सकुशल रहो। अब जाओ। फिर कभी आने को जी करे, अपना घर समझ कर आ जाना।’

“उसके बाद क्या हुआ, मुझे याद नहीं। मैं कब उठा, कब डीजे साहब के बंगले से निकला, किस रास्ते से, कैसे अपने घर पहुँचा, रास्ते में कौन मिला, किससे जुहार की। मुझे कुछ याद नहीं। उस रात सो नहीं पाया। मेरी शकल और दशा देख कर पत्नी घबरा गई। मुझसे बार-बार पूछे लेकिन मेरे मुँह से बोल नहीं फूटे। फटी आँखों उसे देखूँ। वह भी रात भर सो नहीं पाई। रोए और रोते-रोते अपने ईष्ट-आराध्य को जपती-भजती रही।

अगली सुबह सब कुछ बदला हुआ था। मैंने खुद से वादा किया - अपराधियों के और दोषियों के मुकदमे नहीं लूँगा। स्कूल के दिनों में पढ़ी हुई गाँधीजी की कहानियाँ याद आईं। उन्होंने लिखा था कि वे, पक्षकार के निर्दोष होने की खातरी कर लेने के बाद ही मुकदमा लेते थे।

“उसी क्षण मैंने अपने फैसले पर अमल करना शुरु कर दिया। लेकिन फैसला लेना जितना आसान था, उसे निभाना उससे कई गुना कठिन साबित हो रहा था। शुरु-शुरु में तो कोई विश्वास करने को ही तैयार नहीं हुआ। कई परमानेण्ट क्लाइण्ट गुण्डे-बदमाश नाराज हुए। दो-एक ने तो ‘अंजाम अच्छा नहीं होगा’ की धमकी दी। मुझे बहुत डर भी लगा। लेकिन मैं अपने संकल्प पर कायम रहा। कोई दो-ढाई साल मुश्किल के निकले। रुपये-पैसों की तो कमी नहीं हुई लेकिन फुरसत में बैठना पड़ा। लेकिन धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी। मेरी पहचान बदली तो आनेवाले भी बदल गए। ‘हैलो बॉस’ की जगह ‘जुहार साहेब’, ‘जै रामजी की साहेब’, ‘खुस रहा साहेब’ सुनाई देने लगा। 

“लोग ऐसी बातें भूल जाना चाहते हैं बैरागीजी! लेकिन मैं कुछ भी नहीं भूलना चाहता। एक शब्द भी नहीं। उन डीजे साहब ने मेरी जिन्दगी बदल दी। मेरा चोला बदल दिया। वकीलों की नई फसल को उनका कहा, सुनाता हूँ। उन्हें जो करना हो वे करें। लेकिन मैं मन ही मन खुश होता हूँ। ये जो खुशी मिलती है ना बैरागीजी! उसका आनन्द ही अलग है। आत्मा तृप्त हो जाती है। सच का रास्ता कितना आनन्द देता है, यह कोई मुझसे पूछे।

“अब कहिए बैरागीजी! कैसी लगी मेरी आपबीती? लिखने काबिल है कि नहीं? लिखेंगे? मेरी रिक्वेस्ट है, जरूर लिखिएगा। आपका मन नहीं करे तो भी लिखिएगा। लिखने के बाद मुझे बताईएगा कि आपको आनन्द आया या नहीं। आपको तृप्ति मिली या नहीं।”

मैंने उन्हें हाँ या ना कोई जवाब नहीं दिया। वे ठठाकर बोले - “अब तो यह भी याद नहीं कि इन बीस-तीस बरसों में यह आपबीती किस-किस को, कितनी बार सुनाई। लेकिन हर बार ऐसा ही हुआ - सुननेवाला बोलने की हालत में नहीं रहा। बिलकुल जैसे कि अभी आप हो गए हो। अच्छा! मेरी बात सुनने के लिए धन्यवाद। नमस्कार।”

मैं सन्न था। मन्त्रबिद्ध की तरह। मानो एक जिन्दगी जी गया। देर तक मोबाइल कान पर लगा रहा। उसके बाद सबसे पहला काम जो किया वह आपके सामने है। 

बताइए! इस बात को खुद तक ही रख लेंगे या.........?
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