असली बैरागी


मैं बैरागी हूँ जरूर लेकिन कहने भर को । कोई बाल-बच्चेदार आदमी बैरागी कैसे हो सकता है ? अपने ‘ऐसे बैरागीपन’ के मजे मैं खुद लेता रहता हूँ । लेकिन मणी भाई ने मेरा यह ‘मजा’ मुझसे छीन लिया है । उन्होंने साबित कर दिया है कि कोई बाल-बच्चेदार आदमी भी बैरागी हो सकता है । उन्होंने ‘बैरागी’ की शाब्दिकता को भेदकर (या कहिए कि छिन्न-भिन्न कर) उसकी निराकार आत्मा को अपने आचरण से साकार कर दिया ।

मणी भाई का पूरा नाम मणीलाल जैन है । अभी एक महीना भी नहीं हुआ, इसी 14 मई को उन्होंने अपने जीवन के 60 वर्ष पूरे किए और उसी दिन अपने व्यवसाय से स्वैच्छिक निवृत्ति ले ली । मैं ने ऐसा पहली ही बार देखा । अब तक तो मैं ने यही देखा है कि रिटायर होने से पहले ही लोग दूसरी नौकरी या काम धन्धे की सुनिि‍श्‍चतता कर लेते हैं । आज शाम को कार्यालय से बिदाई समारोह में शाल-श्रीफल के साथ सामूहिक चन्दे की गिट लेकर घर आए और अगली सुबह से नई नौकरी या नया काम शुरू । लेकिन मणी भाई ने ऐसा नहीं किया ।


वे नौकरी में नहीं थे । उनका अपना पैतृक व्यवसाय था । व्यवसाय भी लगभग ‘एक छत्र साम्राज्य’ जैसा । मालवा की जनभाषा में उनके व्यवसाय को ‘स्टेशन दलाल’ कहते हैं जिसे अंग्रेजी ने ‘हेण्डलिंग काण्ट्रेक्टर’ का अभिजात्य प्रदान कर दिया । मणी भाई के पिताजी (दिवंगत) श्री झब्बालालजी ने जीविकोपार्जन के लिए इस व्यवसाय को अपनाया था । उनका काम इतना साफ-सुथरा और विश्‍वसनीय था कि हेरा-फेरी करने वाले आतंकित होकर उनसे खुद ही दूरी बनाए रखते थे । उन्होंने अपनी फर्म का नाम रखा - मेसर्स मणीलाल झब्बालाल । यह नाम व्यावसायिक ईमानदारी, शुचिता, पारद‍‍िर्शता और विश्‍वसनीयता का प्रामाणिक पर्याय बन गया । इस व्यवसाय में रेल अधिकारियों और कर्मचारियों से चैबीसों घण्टे सम्पर्क बनाए रखना पड़ता है और ‘विविध तथा विचित्र मिजाज’ वाले लोगों से काम निकलवाना पड़ता है । लेकिन झब्बालालजी को कभी कोई असुविधा नहीं हुई और कोई परेशानी नहीं झेलनी पड़ी । उन्होंने अपनी शर्तों पर धन्धा किया । ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’ वाली कहावत झब्बालालजी के कार्यकाल में, पूरी होने के लिए तरसती रह गई । उनके कार्यकाल में यह कहावत ‘सत्य न तो परेशान होता है और न ही पराजित’ के स्वरूप में ही अनुभव की जाती रही । रतलाम में रेल्वे का मण्डल कार्यालय है जो झब्बालालजी के कामकाज को नियन्त्रित करता रहा । इस कार्यालय के पुराने कर्मचारी आज भी झब्बालालजी के काम की दुहाइयाँ देते मिलते हैं ।


मणी भाई ने अपने पिताजी की परम्परा को न केवल जस का तस चलाया बल्कि उसे अधिक प्रांजल और विस्तारित भी किया । ‘हेण्डलिंग काण्ट्रेक्टर’ को रेल्वे के बड़े ग्राहक संस्थानों (यथा भारतीय खाद्य निगम, भारतीय खाद निगम, कृभको, विभिन्न सीमेण्ट कम्पनियाँ, प्रदेश नागरिक आपूर्ति निगम आदि) और रेल्वे के बीच सेतु का काम करना पड़ता है । व्यापार के व्यवहार, सरकार के कानूनों और प्रक्रियाओं के बीच सदैव ही असंख्य कामकाजी विसंगतियाँ होती हैं । (ज्ञानदत्तजी पाण्डेय इसे अधिक अच्छी तरह समझा सकेंगे । वे तो मणी भाई को व्यक्तिश: जानते भी हैं ।) मणी भाई ने अपने पिताजी की ‘पारदर्शिता, समन्वय, सहयोग’ की परम्परा को पुष्ट ही किया ।


अठारह वर्ष की आयु में मणी भाई ने अपने पिताजी के साथ काम करना शुरू किया । वे अपने पिताजी के ‘वास्तविक मानस पुत्र’ भी साबित हुए । उनके पिताजी ने निर्णय ले रखा था कि जिस दिन उनका व्यापार दस हजार रूपयों का आँकडा को पार कर लेगा, वे सन्यास ले लेंगे । तब दीवाली से दीवाली तक की अवधि का वर्ष हुआ करता था और दस हजार रूपयों का व्यापार बहुत बड़ा हुआ करता था। एक शाम हिसाब करते-करते उन्होंने पाया कि उनका व्यापार दस हजार रूप्ये पार कर चुका है । बस, अगले दिन से उन्होंने न केवल पेढ़ी पर आना बन्द कर दिया अपितु गृहस्थी त्याग की भी इच्छा प्रकट कर दी । उन्हें बड़ी कठिनाई से मनाया गया । वे माने तो जरूर लेकिन उन्होंने मणी भाई को कलम और चाबियाँ सौंप दी और जल्दी ही, परिवार की अनुमति ले कर, घर-बार छोड़ कर सन्यासी बन गए । वे मालवा अंचल में, उनके गुरूजी के सम्प्रदाय में ‘झब्बा मुनि’ के रूप में पहचाने गए । जब तक शरीर ने साथ दिया तब तक वे जैन मुनि के लिए निर्धारित निर्देशों के अनुसार सतत् भ्रमण करते रहे । जब शरीर अशक्त हो गया तो गुरू-आदेश से उन्होंने मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले के आगर (मालवा) के जैन स्थानक में मुकाम बनाया और वहीं, गत वर्ष, सन्थारा लेकर आत्म कल्याण प्राप्त किया ।


इस लिहाज से मणी भाई ‘आज्ञाकारी सुपुत्र’ साबित हुए । कोई चार वर्ष पूर्व उन्होंने स्वैच्छिक निर्णय लिया कि वे अपनी आयु के 60 वर्ष पूर्ण होने के बाद व्यापार से निवृत्ति ले लेंगे । जैसा कि होता है, शुरू में उनकी बात को सबने हलके से ही लिया । जिसने गम्भीरता से लिया, उसने समझाइश दी । लेकिन मणी भाई ने ऐसे तमाम परामर्श एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिए । जैसे-जैसे 14 मई 2008 पास आने लगी वैसे-वैसे मणी भाई की दृढ़ता देख-अनुभव कर उनके परिजन आकुल-व्याकुल होने लगे । पहले खुद ने समझाया, परिवार के बड़ों-सयानों से कहलवाया, कुछ ने तो इस तरह व्यापार छोड़ने को परिजनों के साथ धोखाधड़ी निरूपित कह कर उकसाने की कोशिश की । लेकिन मणी भाई तो ‘नासहा मुझ को न समझा जी मेरा घबराए है / मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन जो मुझे समझाए है’ वाली मुद्रा में बने रहे ।


14 मई 2008 को सवेरे, तमाम अखबारों में मणी भाई का विस्तृत वक्तव्य, विज्ञापन रूपमें हम सबके सामने था । उन्होंने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपनी व्यावसायिक स्वैच्छिक निवृत्ति की एकतरफा सार्वजनिक घोषणा कर दी थी । उन्होंने अविश्वसनीय को सच साबित कर दिखाया ।

वे अपने तमाम गार्हस्थिक उत्तरदायित्व पूरे कर चुके हैं । दोनों बेटियों और इकलौते बेटे का विवाह कर, नाना-दादा बन, नाती-पोतों से खेल रहे हैं । सेवा निवृत्ति के बाद, एक पल के लिए भी अपने कार्य स्थल पर नहीं गए । यह अपने आप में अजूबा ही है । हमारे आस-पास ऐसे अनेक लोग मिल जाएँगे जो वानप्रस्थ की योग्यता अर्जित कर चुके हैं लेकिन तिजोरी की चाबी अपनी अण्टी में कसे हुए हैं, सबसे पहले पेढ़ी पर पहुँचते हैं और सबसे बाद में घर लौटते हैं, अपनी ही अगली पीढ़ी की प्रतिभा, योग्यता, व्यापारिक सूझ-बूझ और क्षमता पर भरोसा नहीं करते, दिन भर नसीहतें झाड़ते रहते हैं और निर्देश देते रहते हैं । लेकिन मणी भाई ने ऐसे तमाम लोगों को बौना और नासमझ साबित कर दिया । उन्हें अपने अनुज सुभाष और बेटे संजय पर न केवल विश्वास है बल्कि गुमान भी है । उनका कहना है कि दोनों काका-भतीजा उनसे (मणी भाई से) अधिक समझदार, अधिक क्षमतावान, अधिक प्रतिभावान और बेहतर व्यवसायी हैं । इन दोनों को कोई परामर्श और निर्देश देने का विचार भी मणी भाई के मन में नहीं आया । अब तक वे व्यापार का आनन्द ले रहे थे, अब अपनी मन-मर्जी का जीवन जीने का आनन्द ले रहे हैं ।


भला बताइए ! असली बैरागी कौन ? मणी भाई का आचरण मुझे अपने आप को बैरागी कहने से रोक रहा है ।मेरी बातों पर विश्वास न हो तो मोबाइल नम्बर 94251 64444 पर खुद मणी भाई से पूछ लीजिए । मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से बाहर के जिज्ञासु इस नम्बर के आगे ‘0’ जरूर लगा लें ।

4 comments:

  1. वाह जी । असली जीवन की ये कथा पढ़कर लगा कि अभी भी उसूल और इरादों के पक्‍के लोग होते हैं ।

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  2. मणि भाई और उनके पिता श्री झब्बा मुनि के बारे में पढ़ना बहुत रोचक रहा. अजकल ऐसे लोग कम मिलते हैं, जो इस तरह का प्रेरक जीवन गुजारते हैं. आभार आपका इस आलेख के लिए.

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  3. विष्णु भाई, आप तो प्रेरणाप्रद शख्शियतों से परिचय करा रहे हैं!
    बहुत रोचक रहा आपका यह आलेख.

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  4. मणि भाई को पढ़कर बड़ा अच्छा लगा.

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