पार्टी निष्ठा का वाजिब दाम


सोमेश भिया परेशान थे। बैठ नहीं पा रहे थे। दस बाय दस का कमरा छोटा पड़ रहा था चहलकदमी के लिए। बार-बार दरवाजे की ओर देख रहे थे। ऐसे, मानो किसी के आने की प्रतीक्षा कर रहे हों। दस-बीस बार मोबाइल जेब से निकाल कर देख चुके थे। न तो घण्टी आ रही थी और न ही कोई मिस काल नजर आ रहा था। उन्हें पूरा जमाना दुश्मन नजर आ रहा था। एक भी कारण नहीं मिल रहा था जिससे वे राहत हासिल कर पाते। तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि किसकी गति तेज है-उनकी चहलकदमी की या दिल की धड़कन की?
हिम्मत करके मैंने पूछा-‘सब ठीक तो है? परिवार या रिश्तेदारी में किसी की तबीयत तो खराब नहीं? कोई बुरी खबर मिली है क्या?’ सोमेश भिया झुंझला कर बोले-‘ऐसा कुछ होता तो तसल्ली होती। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। सब राजी-खुशी, सकुशल हैं।’
‘फिर?’
‘फिर क्या? अब तक न तो कोई आया है न ही कोई सम्पर्क कर रहा है। सबके सब या तो एक साथ समझदार हो गए हैं या दुश्मन।’
‘किसकी बात कर रहे हैं आप?’
‘अरे! पार्टीवालों की। और किसकी?’
‘क्यों? कोई पार्टी मीटिंग है जिसके बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे हैं?’
‘तुम पिटोगे। जख्मों पर मरहम लगा रहे हो या मेरे मजे ले रहे हो?’
उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि मुझे कुछ भी पता नहीं है। मैंने ‘बड़ी-बड़ी विद्या की कसम’ जैसी दो-चार कसमें खाईं तब उन्हें मेरे सवालों की ईमानदारी पर विश्वास हुआ। बोले-‘तुम्हें पता ही है कि मैंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में फार्म भरा है।’ यह बात मुझे ही क्या, सारे शहर को मालूम थी। मैंने कहा -‘तो?’ सोमेश भिया अकुलाते हुए बोले-‘इससे पहले हर बार ऐसा हुआ कि मेरा फार्म विड्रा करने के लिए पार्टीवाले लाइन लगा कर घर के बाहर खड़े होते थे। मान-मनौव्वल करते थे। मैं अपने खर्चे की और गुडविल की बात करता। वे अपना प्रस्ताव रखते। मैं अपना आँकड़ा बताता। थोड़ी हील-हुज्जत होती थी। फिर होता यह कि वे थोड़ा ऊपर आते, मैं थोड़ा नीचे उतरता और आखिरकार ‘न तुम्हारी, न मेरी’ पर आकर बात बन जाती। वे मेरा विड्रावल फार्म लेकर चले जाते और पार्टी के प्रति मेरी निष्ठा वाजिब भाव पर बनी रहती।’
मालूम तो मुझे भी था किन्तु सोमेश भिया के मुँह से सुनना अच्छा लगा। बोला-‘तो इसमें इतना बेचैन होने की बात क्या है?’
सामेश भिया बोले-‘दो बज रहे हैं। नाम वापस लेने का समय तीन बजे तक का है। मैं चुनाव लड़ना नहीं चाहता। चाहता क्या, लड़ ही नहीं सकता। जानता हूँ मेरे पास न तो पैसे हैं और न ही लोग मुझे वोट देंगे।’
‘तो नाम वापस ले लीजिए।’
‘बेवकूफ हो तुम। ऐसे कैसे वापस ले लूँ। एक बार मान लूँ कि इस बार भुगतान नहीं मिलने वाला। लेकिन कम से कम एक बार तो कोई मनुहार करे! मैं कह तो सकूँ कि वरिष्ठों के आग्रह और पार्टी हित के चलते मैंने नाम वापस ले लिया।’
‘तो फिर चुनाव लड़ ही लीजिए। जो होगा, देखा जाएगा।’
‘तुम दोस्त हो या दुश्मन? यह रिस्क नहीं ले सकता। मेरी बँधी मुट्ठी खुल जाएगी और साल-दो साल में मिलने वाले ‘निष्ठा मूल्य’ से हमेशा के लिए हाथ धोने पड़ जाएँगे। लोग हँसेंगे सो अलग।’
‘मैं किसी काम आ सकता हूँ?’ मैंने पूछा।
‘कर सको तो इतना करो कि पार्टी के किसी बड़े और जिम्मेदार आदमी से पाँच-सात लोगों की मौजूदगी में मुझे फोन करवा दो। मैं नाम वापस ले लूँगा।’
मैं चल पड़ा हूँ। तीन बजे से पहले-पहले मुझे सोमेश भिया की इच्छा पूर्ति करनी है। वरना तीन बज गए तो सोमेश भिया के बारह बज जाएँगे। हमेशा-हमेशा के लिए।
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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 29 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)
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4 comments:

  1. बहुत अच्छा संस्मरण चल रहा है शुभकामनायें

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  2. यह भी चुनाव का स्थाई दृश्य है।

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  3. तो क्या किया सोमेश भिया ने?

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  4. सोमेश भैया की दूकान तो बंद ही समझिये.

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