खुलकर खेलनेवाले भाऊ के निशाने पर आज फिर निर्दलीय आ गए थे। सबको एक घाट निपटा रहे थे। लग रहा था आज सबको दिगम्बर स्नान करवा कर ही छोड़ेंगे। बोले - ‘इनके व्यक्तित्व और काम काज पर बात तब करो जब ये जीत जाएँ। फिलहाल तो चुनाव चिह्न ही इन पूतों के पाँव दिखा रहे हैं।’
‘अब रेडियो और पंखे को ही लो! दोनों को चलाने के लिए करण्ट चाहिए। करण्ट नहीं तो दोनों बेकार। घोषित और अघोषित बिजली कटौती के जमाने में इनके लिए करण्ट कहाँ से लाओगे? ये जीत गए तो कह देंगे - नो करण्ट, नो वर्क।
‘नल का मतलब तो बच्चा-बच्चा जानता-समझता है। अभी ही दो दिन में एक बार आते हैं। आते क्या हैं, आने की खानापूर्ति करते हैं। दो-चार बूँद टपक कर रह जाते हैं। काम तो टेंकर से ही चलाना पड़ता है। भला बताओ! काम न करने के लिए इन्हें कोई बहाना बनाना पड़ेगा?
‘इन पेसेंजर बस और बैलगाड़ीवालों की क्या बात करें? बस की यात्री क्षमता सीमित होती है। किस-किसको बैठाएँगे? सबसे पहले तो खुद, फिर अपना कुनबा, फिर अपनेवाले। अपना नम्बर आएगा भी या नहीं? और बैलगाड़ी? भैये! चन्द्रयान के जमाने में बैलगाड़ी में बैठने का न्यौता आप कबूल करो तो कर लो। अपन तो नहीं करने वाले। जमाना ट्विटर और फेस बुक का और ये लेकर आए हैं बैलगाड़ी!
‘और इन्हें लो! एक दरवाजा लेकर आए हैं और दूसरा चाबी। दरवाजे पर ताला तो नहीं है लेकिन साफ लग रहा है कि यह वोटर की ओर नहीं, उम्मीदवार की ओर ही खुलेगा। याने आपको-हमको तो बन्द दरवाजा ही देखना है। ज्यादा हुआ तो खटखटा लो। खुलने की ग्यारण्टी कोई देगा? और चाबी का क्या करें? यह कौनसे ताले में लगेगी, यही पता नहीं। कह देंगे-ताला मिल ही नहीं रहा। क्या करें?
‘ये अँगूठी लिए घूम रहे हैं। आपके-हमारे लिए नहीं! सत्ता सुन्दरी की अँगुली मे पहनाएँगे। आप और हम तो खड़े-खड़े तमाशा देखेंगे, तालियाँ पीटेंगे और ये सत्ता के साथ हनीमून मनाएँगे। वोट हम दें और मजे ये लूटें! ना बाबा! न।
‘और ये? सीटी और गुब्बारा? बिना फूँक के इनका काम नहीं चलता। जितनी और जैसी फूँक मारोगे, उतनी और वैसी ही आवाज सुन पाओगे। याने, जो कुछ करना है, अपन को ही करना है। अभी से कह रहे हैं कि आवाज सुननी हो तो फूँक मारो। यही हालत गुब्बारे की। उससे खेलना हो या कि उसका उपयोग करना हो तो हवा भरो। न भरो तो लुंज-पुंज पड़ा रहेगा। याने वह अपनी ओर से कुछ नहीं करेगा। जो भी करना है, आपको ही करना है। और फूट गया तो? उसका दोष भी आपके ही माथे। ज्यादा हवा क्यों भर दी?
‘इन्हें लीजिए! सूर्यमुखी का फूल लिए घूम रहे हैं! इन्हें तो खिले रहने और मुँह ऊँचा करने के लिए कोई सूरज चाहिए। आज तो आपको-हमको सूरज कह रहे हैं लेकिन कल किसे सूरज बना लें? जीतने के बाद पलट कर देखा है किसीने आज तक? और ये गेहूँ की बालीवाले? इस बाली में दाने हैं भी या नहीं? और हैं भी तो आपके-हमारे लिए हैं? इनकी जगह आप-हम होते तो अपन भी खुद की चिन्ता सबसे पहले करते। सो, इस बाली के दाने आपको मिलेंगे, इसकी क्या ग्यारण्टी? और मिलेंगे तो कब? पहले तो खुद खाएँगे, फिर घरवालों को खिलाएँगे। आपका नम्बर कब आएगा?
‘केलेवाले की क्या कहें। तुम तो खुद समझदार हो और समझदार को इशारा ही काफी होता है। इसे काम में लेने के लिए इसे छीलना जरूरी होता है। याने पहले नंगा करो, फिर काम में लो! आप शिकायत कर ही नहीं सकते। कह देंगे-मैं तो आपके सामने ही था। आपने छीला नहीं तो मैं क्या करूँ? याने, ये कुछ नहीं करेंगे। इनसे काम लेने के लिए भी सारी मेहनत आपको ही करनी है।’
वे बिना साँस लिए निर्दलियों की धुलाई-धुनाई किए जा रहे थे और सुनने वाले हम सबकी साँसें रुकी हुई थीं। जैसे ही उन्होंने अल्प विराम लिया मैंने कहा - ‘भाऊ! बेचारे निर्दलियों की दुर्गत क्यों कर रहे हो। राष्ट्रीय और प्रान्तीय मान्यता प्राप्त भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन पर भी तो नजरें इनायत करो।’ भाऊ बोले - ‘अपन पूरे और सच्चे समाजवादी हैं। हमेशा सबसे असहमत रहनेवाले। इस घाट पर सबकी सेवा समान रूप से होती है। लेकिन आज इतना ही। अभी तो चुनाव का रंग जमना शुरु ही हुआ है। सब आज कह दिया तो कल क्या करोगे?’
अब मैं कल की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। यह पोस्ट, उसी सन्दर्भ में दैनकि भास्कर के लिए लिखी गई है।)
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चुनाव तो प्रहसन हो चले हैं।
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