मैं अकेला तो नहीं?


जीवन में सब कुछ प्रिय और मनोनुकूल नहीं होता। आपका नियन्त्रण केवल आप पर ही होता है, अन्य पर नहीं। ऐसे में, आप कितने ही ‘समय-पालनकर्ता’ हों, दूसरे भी वैसे ही हों, यह अपेक्षा और आग्रह ही कर सकते हैं। इससे अधिक कुछ भी नहीं। किन्तु अपेक्षा तो दुःखों का मूल है! इसी कारण मैं कुछ दुःखी हूँ। जिन पर मेरा नियन्त्रण नहीं, वे मेरे मनोनुकूल व्यवहार करें, यह अपेक्षा की और दुःखी हुआ।
कुछ दिनों से मैं तीन मिस्त्रियों (मेकेनिकों) से दुःखी हूँ। मेरी व्यथा-कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ और उम्मीद कर रहा हूँ ऐसा केवल मेरे साथ नहीं हो रहा होगा।


सबसे पहले साबका पड़ा ईश्वर से। चौधरी ब्रदर्सवाले चौधरी बन्धुओं के सौजन्य से ईश्वर से सम्पर्क हुआ। बहुत ही मीठे और विनम्र व्यवहारवाला ईश्वर, सिंचाई की और घरेलू मोटरों का उत्कृष्ट मेकेनिक है। शुरु-शुरु में तो बब्बू सेठ (श्रीराजेन्द्र चौधरी) के माध्यम से ईश्वर की सेवाएँ लेता रहा। किन्तु गए कुछ समय से मैं सीधे ही उससे सम्पर्क कर रहा हूँ। ईश्वर की खूबी यह है कि वह दी गई तारीख और समय पर कभी नहीं आता। बड़ी खूबी यह कि काम से इंकार भी नहीं करता। जब मैं चिढ़ कर उसे बुरा-भला कहता हूँ और कहता हूँ कि अब मत आना तो वह उसी शाम को प्रकट हो जाता है। आकर मेरी पत्नी से पूछताछ कर काम शुरु कर देता है और मुझे देखकर हँसने लगता है। उसकी हँसी मेरे गुस्से को अधिक टिकने नहीं देती। उसकी विनम्रता मुझ जैसे कुटिल आदमी को भी साध लेती है और मैं उसके सामने परास्त हो जाता हूँ। कहता हूँ - ‘अब तुझे नहीं बुलाऊँगा।’ वह मुँह फेरकर, हँसते हुए कहता है - ‘तो बताओ जरा, किसे बुलाओगे।’ और मैं कुनमुनाते हुए उसके पास से हट जाता हूँ। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सम्विदा शिक्षक की जिस नौकरी के लिए लोग हाथ-पाँव मारते हैं, सिफारिशें करवाते हैं, वह लगी-लगाई नौकरी छोड़कर ईश्वर ने खुद का रोजगार विकसित कर लिया है। अपने व्यवसाय पर गर्व करते हुए वह कहता है कि वह चाहे तो एक सम्विदा शिक्षक को नौकरी पर रख सकता है।

जिस दूसरे मेकेनिक के हत्थे मैं इन दिनों चढ़ा हुआ हूँ उसका नाम शैलू है। इसकी शकल मुझे याद नहीं क्योंकि इससे मैं अब तक एक बार ही मिला हूँ। मेरे ‘अध्यक्षजी’ के माध्यम से मैं शैलू के सम्पर्क में आया हूँ। ‘अध्यक्षजी’ याने नीम चौक वाले, रतलाम में डिश टीवी के मालिक श्रीमहेन्द्र बोथरा। इनसे मैंने लकड़ी का कूलर खरीदा था। उसी में कुछ काम कराना है। शैलू पहले काम कर चुका है। कोई चार महीनों से मैं उसकी मिन्नतें, चिरौरियाँ कर रहा हूँ लेकिन वह है कि सुन ही नहीं रहा। आठ-दस बार तो वह ‘श्योअर शॉट’ आने की तारीखें दे चुका है किन्तु अब तक नहीं आया है। अध्यक्षजी का बेटा सौरभ और खुद अध्यक्षजी एक-एक बार उसे कह चुके हैं। 16 दिसम्बर पक्की हुई थी। मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ कि वह 16 दिसम्बर 2010 से पहले जरूर आ जाए।


तीसरे मेकेनिक के बारे में तो सोच कर ही मेरी आत्मा काँप जाती है। उसकी शकल मैं जिन्दगी भर नहीं भूल सकूँगा। मेरी कुटिलता उसका असली नाम जाहिर करने को उकसाती है किन्तु विवेक रोकता है। सो उसका काल्पनिक नाम इमदाद मान लीजिए। मेरे आत्मीय और बहुत ही तहजीबदार एजेण्ट प्रिय खालिद (पूरा नाम मोहम्मद खालिद कुरैशी) के जरिए इस मेकेनिक से मेरा साबका पड़ा। इसने जो व्यवहार दिया वह कल्पनातीत है। इतना ही कह सकता हूँ कि इससे तो भगवान आप सबको और मेरे दुश्मनों (यदि कोई है तो) को भी बचाए। मेरा फ्रीज ठीक करने के लिए यह आया था। मुझे लग रहा है कि मैंने गए जनम में ईश्वर के प्रति बहुत बड़ा अपराध किया था जो इस जनम में इमदाद से मिलना पड़ा। फ्रीज का कम्प्रेशर बदलने के लिए इसने मुझसे पूरी रकम ली। कम्प्रेशर बदला। एक महीना भी नहीं हुआ कि कम्प्रेशर खराब हो गया। मैं किसे कहता? इमदाद को ही! मैं फोन करूँ और वह या तो फोन उठाए ही नहीं या बन्द कर दे। एक-दो बार उठाया भी तो सीधे मुँह बात नहीं करे। मैंने कहा कि वह कम्प्रेशर का बिल मुझे दे दे ताकि मैं दुकान से उसे बदलवा सकूँ क्योंकि कम्प्रेशर ग्यारण्टी की अवधि में है। इमदाद ने सीनाजोरी से कहा - ‘आपको बिल नहीं मिलेगा।’ मैंने पूछा - ‘क्यों?’ अपनी सम्पूर्ण अशिष्टता से उसने कहा -‘मेरी मर्जी। आपको जो करना हो, कर लो।’ मैं कर ही क्या सकता था? सो, कुछ नहीं किया। सिवाय इसके कि भगवान से प्रार्थना करूँ कि इस मेकेनिक की सेवाएँ लेने का दुर्भाग्य किसी को न मिले। मुझे इस बात का विशेष मलाल है कि इसके कारण बेचारा खालिद जैसा नेक लड़का मुझसे मिलते समय हर बार संकोच में पड़ता है।


यह सब पढ़ने के बाद अपनी यादों की गठरी खोलिएगा और बताइएगा कि मैं अकेला ही हूँ या आप भी मेरे साथ हैं?
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5 comments:

  1. ास्प अकेले नहीं हैं।हम् सभी के साथ ऐसा होता है । असल मे हम लोग संस्कारों मे बन्धे हुये होते हैं और सब से उन संस्कारों की उमीद करते हैं सभी को कहाँ वो संस्कार मिलते हैं। आज कल तो उद्दंडता चर्म सीमा पर है। सब देख सुन कर भी कुछ नहीं कर पाते। बहुत ाच्छी पोस्ट है, विचारणीय । धन्यवाद और शुभकामनायें

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  2. अभी तक इतनी अशिष्टता किसी ने नहीं की.

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  3. आपबीती सुनी। सब को जीवन में कुछ लोग ऐसे ही मिलते हैं।

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  4. कुछ लोग तो ऐसे मिल ही जाते हैं
    हम भी आपके जैसे अनुभवों से गुजर चुके :-)

    बी एस पाबला

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  5. वैसे तो इमदाद जैसे बेगैरत लातों के भूत "मेरी मर्जी" वाली भाषा ही समझते हैं फिर भी ऐसे लोगों से निबटने के बहुत से कानूनी प्रावधान (उपभोक्ता परिषद् आदि) ज़रूर हैं, और आपको पता भी होंगे. मेरे ख्याल से थोड़ी असुविधा उठाकर भी ऐसे लोगों को सबक सिखाना ज़रूरी है. ऐसे डकैतों का नाम, पता, चित्र आदि ज़ाहिर करने में मुझे कोई बुराई नज़र नहीं आती है.

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