सुने, बोले, लिखे, पढ़े गए शब्दों के साकार होने की प्रक्रिया का भागीदार बनना रोमांचक अनुभव है। मैं अभी-अभी ऐसी ही अनुभूति से गुजरा हूँ। सम्भव है, इस सबमें अनोखा, अनूठा, सारगर्भित कुछ भी न हो। फिर भी ऐसे रोमांच को सार्वजनिक करने से मैं स्वयम् को रोक नहीं पा रहा हूँ।
इसी पहली दिसम्बर की बात है। अपने उत्तमार्द्ध की चिकित्सा हेतु डॉक्टर सुभेदार साहब से मिला। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसी रात वे उसी आयोजन (विवोहरान्त भोज) में शामिल होने इन्दौर जा रहे थे जिसमें हमें भी जाना था। उन्होंने हमें भी साथ ले लिया। इन्दौर जाना और वहाँ से लौटना और आयोजन में शामिल होना-लगभग साढ़े नौ घण्टों का सत्संग रहा। इसी सत्संग में यह रोमांच मिला।
डॉक्टर सुभेदार साहब का पूरा जयन्त मुकुन्द सुभेदार है। वे एम। डी. (मेडिसिन) हैं। वे और उनकी सहधर्मिर्णी डॉक्टर पूर्णिमा सुभेदार मेरे कस्बे के आशीर्वाद नर्सिंग होम के स्वामित्व और संचालन से सम्बद्ध हैं। अपने चिकित्सा सन्दर्भों में कस्बे के अधिकांश लोग इन दोनों पर निर्भर करते हैं। चिकित्सा क्षेत्र में वे यद्यपि स्वयम् एक स्थानीय प्राधिकार (अथॉरिटी) हैं किन्तु तनिक भी सम्भ्रम अथवा ऊहापोह की स्थिति में अपने वरिष्ठों से मार्गदर्शन लेने में न तो देर करते हैं और न ही संकोच। यही बात उन्हें सबसे अलग करती है। विशेषज्ञ होते हुए भी वे एक जिज्ञासु छात्र की तरह व्यवहार करते हैं। मेरे परिवार पर उनके पूरे परिवार का अतिशय स्नेह है। जाने-अनजाने मैं इस स्थिति का दुरुपयोग भी कर लेता हूँ। दोनों की कृपा है कि मेरी हरकतों से खिन्न होने के बाद भी मेरा लिहाज बरतते हुए मुझे कुछ नहीं कहते।
सुभेदार परिवार से घरोपा होने के बावजूद डॉक्टर साहब के व्यक्तित्व के बारे में मेरी जानकारी शून्यप्रायः ही है। हाँ, पूर्णिमा भाभी का यथेष्ठ हस्तक्षेप गायन विधा में है, यह मैं ही नहीं, पूरा कस्बा जानता है। इस बार की इन्दौर यात्रा के आठ घण्टों में मुझे डॉक्टर साहब का वह रूप देखने को मिला कि मैं प्रसन्न और चकित हुआ।इन्दौर जाते समय उन्होंने अपने मोबाइल पर संग्रहीत अनेक एसएमएस मुझे पढ़वाए। एक से बढ़कर एक, केवल रोचक ही नहीं, प्रचुर जानकारियों से समृद्ध भी। इस दौरान डॉक्टर साहब का उत्साह और जल्दी से जल्दी, ज्यादा से ज्यादा दिखाने की उनकी आतुरता और उत्साह किसी बच्चे को भी मात कर रहा था। एसएमएस की विषय वस्तु से जुड़ी सूचनाएँ वे अतिरिक्त रूप से देते जा रहे थे। डॉक्टर साहब के व्यक्तित्व का यह पक्ष मेरे सामने पहली बार उद्घाटित हुआ था। वे ‘व्यक्तित्व विकास के कुशल प्रशिक्षक’ की तरह हमें समृद्ध कर रहे थे। यह सब करते हुए हम लोग कब इन्दौर पहुँच गए, पता ही नहीं चला।
रात सवा नौ बजे हम लोग इन्दौर से रतलाम के लिए चले। अगहन पूर्णिमा का ‘अजस्र बाहु’ चाँद, ‘औढर दानी’ बन, अपनी रजत सम्पदा धरती पर उलीच रहा था। मुझे लगा था कि भोज के स्वादिष्ट व्यंजन और इसी कारण सेवन की गई उनकी तनिक अधिक मात्रा का प्रभाव हम लोगों को जल्दी ही नींद के हवाले कर देगा और हम लोग बिना बात किए रतलाम पहुँच जाएँगे। किन्तु ऐसा बिलकुल नहीं हुआ। हम लोग एक पल को भी नहीं झपक सके। डॉक्टर साहब के व्यक्तित्व का एक और अनूठा पक्ष उद्घाटित जो होनेवाला था।
इन्दौर की सीमा से मुक्त होते ही डॉक्टर साहब ने अपना मोबाइल निकाला और कार की छोटी सी दुनिया में संगीत की कायनात का सृजन शुरु कर दिया। गीतों का चयन चौंका रहा था। ‘अछूत कन्या’ के, अशोक कुमार (और सम्भवतः कानन देवी) का गाया ‘मैं वन का पंछी बन कर, वन-वन डोलूँ रे’ से लेकर सुनिधि चौहान और श्रेया घोषाल के नवीनतम गीत तक की पूरी यात्रा कर रहे थे हम लोग। वे मोहम्मद रफी के ऐसे प्रशंसक होंगे, मेरे लिए यह कल्पनातीत ही था। ‘बैजू बावरा’ के ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ के लेखन से लेकर रेकार्डिंग तक का पूरा ब्योरा उनके जिह्वाग्र पर था। मन्ना डे, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, लता, आशा, मुबारक बेगम, गीता दत्त के अविस्मरणीय गीत उनकी अंगुलियों से संकेत पाकर मोबाइल के स्पीकर पर गूँज रहे थे। ‘बरसात की रात’ की, सर्वकालिक कव्वाली ‘न तो कारवाँ की तलाश है’ ने जो मादक वातारण सिरजा कि हम लोग मानो संज्ञा शून्य हो गए। पाकिस्तानी गायिका आबिदा सुलताना की गजलें मैंने पहली ही बार सुनीं। रतलाम की सीमा छूने तक हम लोग मुश्किल से बीस वाक्य बोले होंगे। केवल सुनते रहे, डॉक्टर सुभेदार के खजाने के अनमोल मोतियों की खनक को।
मेरे लिए यह सब ‘विचित्र किन्तु सत्य’ से कम नहीं था। डॉक्टरों को सामान्यतः अपने विषय और कामकाज तक सीमित माना जाता है जो दूसरे लोगों के लिए नीरस होते हैं। किन्तु सुभेदार साहब ने पूरी यात्रा में चिकित्सा शास्त्र और चिकित्सा विज्ञान के बारे में एक अक्षर भी नहीं उच्चारा। एक क्षण भी नहीं लगा कि हम लोग किसी डॉक्टर के साथ हैं। ‘नीरस डॉक्टर’ का कोसों तक अता-पता नहीं था। हमारे साथ था तो था एक कलाप्रेमी, अभिरुचि सम्पन्न व्यक्ति, सन्दर्भों और जानकारियों का ‘इनसाइक्लोपीडिया’।
अचानक ही मुझे भैया साहब श्रीयुत सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़ की बात याद हो आई जो वे मेरे लिए, मुझे ही कहते रहते हैं। जो भी मुझसे पहली बार मिलता है, वह मेरे बारे में अच्छी राय बनाकर नहीं लौटता। मुझसे दूसरी बार मिलने की उसकी ललक समाप्त हो जाती है। मेरी अटपटी (वस्तुतः अव्यावहारिक) शैली को लेकर भैया साहब कहते हैं कि मुझे समझने के लिए मुझसे चार-छः बार मिलना जरूरी है। उनकी यह बात मुझे सुभेदार साहब के साथ हुई इस यात्रा से समझ आई। इसी कारण मैं अब समझ पा रहा हूँ कि जिन लोगों को मैंने शुरु में खारिज कर दिया था उनसे दीर्घावधि बाद मेल-जोल क्योंकर बढ़ा, उनके बारे में मेरी राय क्यों बदली। यह इसीलिए हुआ होगा क्योंकि चाहे-अनचाहे उनसे मेरी मुलाकात बार-बार हुई।
अचानक ही मुझे निदा फाजली के एक शेर की याद हो आई। शेर याद नहीं आया। मैंने सहायता के लिए मेरे कृपालु मित्र-शायर विजय वाते को आवाज लगाई। हँसते हुए विजय ने शेर बताया और कहा कि शेर में बताई गई संख्या को भाई लोग कम ज्यादा करते रहते हैं। जनमानस पर अंकित यह शेर कुछ इस प्रकार है -
हर आदमी में होते हैं, दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, सौ बार देखना
सुभेदार साहब के साथ हुई इस यात्रा ने मुझे इस शेर को साकार होते अनुभव तो कराया ही, यह सबक भी दिया कि मैं किसी आदमी से केवल एक बार मिलने पर उसके बारे में अपनी अन्तिम धारणा बनाने की मूर्खता न करूँ।
‘चार दिनों’ की छोटी सी जिन्दगी में मेरे लिए यह बहुत ही बड़ा सबक है।
शुक्रिया सुभेदार साहब।
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हम व्यक्ति का वही पक्ष देख पाते हैं जो दिखाई देता है। वह केवल उस का खोल होता है उस में अनेक अन्य पक्ष छुपे होते हैं।
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा. अगर किसी के बारे में राय बनाई ही न जाए तो कैसा रहे?
ReplyDeleteबढिया पोस्ट है। कुछ लोगो के स्वाभाव व व्यवाहर को परिस्थिति अनुसार बदलते देखा है हमने भी।
ReplyDeleteशेर बिल्कुल सही है। वैसे किसी को समझने के लिए एक जन्म भी कम ही पड़ता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बहुत बढ़िया रहा सुभेदार साहब से मिलना। और आपके बारे में जो राय पता चली है, उससे मैं सावधान रहूंगा और कोशिश करूंगा कि एकबारगी आपके बारे में राय न बनाऊं। वैसे, अक्सर ऐसा नहीं भी करता। पर चाहूंगा कि आपका तथाकथित वही पक्ष मेरे सामने आए, जिससे पांच-छह बार मिलने का संयोग बनता चला जाए।
ReplyDeleteshandar aubhav raha aapka, sabko isme shamil karane ke liyen aabhar, dhanyavad...
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