(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। यह पोस्ट, उसी सन्दर्भ में दैनिक भास्कर के लिए लिखी गई है।)
सखि! मुझे क्यों लग रहा है कि नगर चुनावग्रस्त है?
खगवृन्द के कर्णप्रिय कलरव के स्थान पर वातावरण में उद्घोष-तुमुल छाया हुआ है। किसी के जिन्दाबाद का तो किसी को विजयी बनाने का आग्रह सामूहिक कण्ठों से कर्कश ध्वनि में उच्चारित होता सुनाई देता है।
सखि! गृह कार्य ने मेरी दुर्दशा कर दी है। मेरे ये मैले हाथ देख रही हो? बीस रुपये प्रति दिवस पारिश्रमिक पानेवाली मेरी गृह परिचारिका तीन दिनों से काम पर नहीं आ रही है। उसके निवास पर दूत भेजने पर ज्ञात हुआ कि वह ढाई सौ रुपये प्रति दिवस पारिश्रमिक पर किसी ‘जिन्दाबाद’ और ‘हमारा ध्यान रखिएगा’ जैसे अनुरोध करने वाले दल में सम्मिलित हो गई है। ऐसे दल चुनाव में ही तो आवश्यक होते हैं!
मेरे निवास के सामनेवाले सार्वजनिक उद्यान में इन दिनों युवा युगलों की संख्या अकस्मात ही बढ़ गई है। यौवनावस्थाजनित सहज भावोत्तेजना के अधीन आलिंगनबध्द ये युवा युगल निश्चय ही चुनाव अभियान में भाग लेने का बहाना कर, अपने घरों से निकलने का अवसर प्राप्त कर पा रहे होंगे। ये प्रार्थना कर रहे होंगे कि चुनाव बारहों महीने बने रहें।
मेरी प्रिय सखि! मैं देख रही हूँ कि अपनी समस्याओं के निदान के लिए जिन राजपुरुषों से मिलने के लिए जन सामान्य चक्कर काटता रहता है, प्रातःकाल से ही उनकी ड्यौढ़ियों पर जाकर, उनकी एक छवि पाने के लिए प्रतीक्षारत हो, दिन भर भूखा प्यासा बैठा रहता है और उनसे भेंट न होने पर सायंकाल कुम्हला कर घर लौटता है वे समस्त राजपुरुष इन दिनों अनामन्त्रित अतिथि बन समय-कुसमय, गली-गली, द्वार-द्वार उपस्थित होकर करबद्ध हो, विगलित स्वरों में ‘हमारा ध्यान रखियेगा’ जैसे निवेदन करते हुए याचक दिखाई दे रहे हैं। ऐसा तो चुनाव के प्रभाव से ही सम्भव है। अन्यथा, कमर से गर्दन तक स्टील रॉड लगे यान्त्रिक पुतले की तरह अकड़े रहनेवाले ये राजपुरुष भला इतने विनम्र कैसे होते?
हे! सखि, आज तो हद ही हो गई। बिना द्वार खटखटाए, बिल्ली की तरह नीरव पदचाप से चल कर, औचक आलिंगनबध्द कर, मेरा अधरपान कर मुझे स्पर्शजनित ‘सुखद विस्मय’ का आनन्द प्रदान करने वाले मेरे प्रियतम ने आज द्वार खटखटा कर, गृह-प्रवेश के लिए मुझसे अनुमति चाही और नत-मस्तक-करबध्द-मुद्रा में मुझसे ‘मेरा ध्यान रखिएगा’ की याचना की। मैं तो भौंचक रह गई। मेरा संशय दूर हो गया। पराये अपनों जैसा और अपनेवाले परायों जैसा व्यवहार तभी करते हैं जब वे चुनावग्रस्त हो गए हों।
सखि! मेरा हृदय अकुला रहा है। मेरा जी घर में नहीं रुक रहा। पगतलों में उत्साह समा गया है। मेरा मतदाता परिचय पत्र निकाल। मेरी पर्ची ला। मेरा मतदान केन्द्र बता। मुझे मेरे प्रियतम को मत देने जाना है।
चुनाव
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बहुत शानदार भाई जी!!
ReplyDeleteसुंदर!
ReplyDeleteसुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है। चुनाव मे मतदाताओं का व्यवहार ऐसा ही होता है। शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लिखा है।बधाई।
ReplyDeleteवाह! महाकवि कालिदास आज होते तो वे भी वाह कर उठते!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति .. अचूक व्यंग्य - क्षमता .. सराहनीय
ReplyDeleteप्रसंग - चयन ..
'' चुनाव '' के कई स्तर खुल कर सामने आये ..
'' वोट '' का बड़ा मतलब है !
,,,,,,,,,,,,,,, आभार ...
व्यंग्य बहुत अच्छा लगा. लिखते रहिये!
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