(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 03 दिसम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)
हकीकत से आँखें चुरानेवाले, खुद से झूठ बोलनेवाले, भ्रम बुनने और भ्रम में जीने में निष्णात् आदमी को भारतीय कहते हैं। ‘यत्र नार्यस्तु पूजते, तत्र रमन्ते देवा’ कह कर औरतों को निर्वस्त्र यहीं किया जाता है। औरत को लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती जैसी उपमाएँ देकर उनकी जूतों से, मनोयोग और परिश्रमपूर्वक पिटाई भी यहीं की जाती है। बहू को बेटी कहने के अगले ही क्षण उसे जलाने का उपक्रम भी यहीं होता है। इसी परम्परा को विस्तारित करते हुए और इन्हीं कारणों से चुनावों को यहाँ ‘लोकतन्त्र का त्यौहार’ कहा जाता है।
हकीकत ऐसी नहीं है। यहाँ चुनाव सापेक्षिक हैं। किसी के लिए उद्यम, किसी के लिए उद्योग, किसी के लिए उपक्रम तो किसी के लिए मजबूरी है। बीस रुपये रोज से भी कम आय वाले लोगों के लिए चुनाव का मतलब दो बोतल ठर्रा या काम चलाऊ क्वालिटी की एक साड़ी या घटिया क्वालिटी के कुछ बर्तन भी होता है।
गुरु घण्टाल किस्म के लोगों के लिए चुनाव सदैव ही ‘अवसर’ होता है। इन्हें दादा, उस्ताद, भैयाजी, दद्दू, चाचाजी जैसे लोकप्रिय नामों से भी पुकार जाता है। ये अपने लिए टिकिट की माँग से अपना उपक्रम शुरु करते हैं जिसकी समाप्ति किसी ‘अक्ल के अन्धे और गाँठ के पूरे’ को या फिर घर फूँक तमाशा देखने पर आमादा हो चुके ऐसे ही, किसी उत्साही लाल को टिकिट दिलाने पर करते हैं। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए ये उससे पार्टी को आवेदन कराते हैं, उसका बॉयो डाटा बनवाते हैं, उसका नाम अखबारों में चलवाते हैं, उसके लिए ज्ञापन दिलवाते हैं और मौका पड़े तो अपनी जेब से उसके साथ भोपाल-दिल्ली यात्रा तक करते हैं। लोग इसे खर्चा कहते हैं और ये इसे निवेश मानते हैं।
टिकिट दिलाने के बाद ये ‘शिकार’ को अकेला छोड़ देते हैं। वह इनके पास ऐसे दौड़-दौड़ कर आता है जैसे गाय से बिछड़ा बछड़ा रँभाता हुआ दौड़ता आता है और उसे ये अवैध सन्तान की तरह देखते हैं। ‘विजयोत्सुक शिकार’ इन्हें दण्डवत प्रणाम कर, गिड़गिड़ाता है - ‘गुरुदेव! उद्धार करो।’ ये कहते हैं - ‘वत्स! समझने की कोशिश करो। टिकिट दिलवाने तक मेरा जिम्मा था। अब जो भी करना है, तुम्हें ही करना है।’ वे समझाते हैं - ‘खांद्यो खांदो दे, साथे नी मरे।’( याने, अर्थी को कन्धा देनेवाला, मृतक के साथ मरता नहीं। ‘शिकार’ अकबका जाता है। वह उस्तादी दाँव का शिकार हो, औंधे मुँह, धूलि धूसरित हो चुका होता है। उसकी वह दशा हो जाती है जिसे लोग ‘पानी माँग गया’ या ‘बाप का नाम भी भूल गया स्साला’ जैसा कुछ कहते हैं। ‘शिकार’ जैसे-तैसे खुद को सम्भाल कर अपना अपराध जानना चाहता है तो उसे बताया जाता है कि मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता। बिना पेट्रोल के गाड़ी नहीं चलती, बिना गिफ्ट मिले गर्ल फ्रेण्ड स्पर्शजनितसुख का आनन्द देना तो दूर रहा, शरमा कर मुस्कुराती भी नहीं, बिना टिप के बैरा सलाम नहीं करता, सब्जी वाली मुफ्त में धनिया-मिर्ची नहीं देती। तो, गुरु घण्टाल मुफ्त में प्रचार कैसे कर सकते हैं? ‘शिकार’ के ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं। वह कहना तो चाहता है ‘शूकर शिशु!, श्वान सुत!! मुझे फँसा कर तू ब्लेक मेलिंग कर रहा है। ठीक है बच्चू! मेरा काम निकल जाने दे। फिर तुझे देखूँगा। सिर पर वो ‘पद-त्राण प्रहार’ करूंगा कि तेरी सात पीढियां गंजी पैदा होंगी।’ लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कह पाता। वह मिमियाते हुए ‘आदेश करें’ शब्द-युग्म उच्चारता है। सुनकर गुरु घण्टाल उसे अपनी परम प्रिय इकलौती सन्तान की तरह देखता हुआ अपना भाव बताता है जिसे ‘शिकार’ कसमसाते हुए, मन ही मन वजनदार गालियाँ देते हुए ‘अभी हाजिर करता हूँ’ कह कर अण्टी में से नोटों की गड्डी निकालता है और ‘यह लीजिए! पहली किश्त’ कह कर पेश करता है। गुरु घण्टाल ‘हें! हें!! तुम समझदार हो। तुम्हें जीतने से कौन रोक सकता है?’ जैसे उत्साहवर्द्धक जुमले उच्चारते हुए रोकड़ा अपनी अण्टी में रखता है।
जब तक पूरी रकम नहीं मिलती, गुरु घण्टाल घर से बाहर नहीं निकलते। पूरा भुगतान मिल जाने पर वे तूफानी चुनाव प्रचार में जुटते तो अवश्य हैं किन्तु सम्पूर्ण निष्काम भाव से। वे प्रयत्न करते हैं और परिणाम प्रभु पर छोड़ देते हैं। वे ‘शिकार’ की हार जीत की परवाह नहीं करते क्योंकि उनकी जीत तो पहले ही दिन हो चुकी होती है।
भारत में यह क्रम सनातन से चला आ रहा है। प्रलय तक चलता रहेगा। ‘शिकार’ और ‘गुरु घण्टाल’ प्रत्येक समय में, समान रूप से उपलब्ध रहेंगे। एक भी मूर्ख जिन्दा है तब तक कोई भी समझदार भूखों नहीं मर सकता। आप इसे जो मर्जी चाहे कह लें - चुनाव, उद्यम, उद्योग, उपक्रम या लोकतन्त्र का त्यौहार।
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एक भी मूर्ख जिन्दा है तब तक कोई भी समझदार भूखों नहीं मर सकता
ReplyDelete-ब्रह्म वाक्य...यह चुराया जायेगा..बुरा मत मानियेगा.
मूर्ख न भी हो तो बना लिया जाएगा। गुरुघंटाल नाम यूँ ही थोड़े ही मिला है।
ReplyDeleteबहुत खूब शुभकामनायें
ReplyDeleteतो यह है चुनावी राजनीति का ओपन सीक्रेट?
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